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ण गओसि कयाइवि णेह मज्झे इयरह कह विच्छोइय पिएण अहवा इह कोवि ण दइव दोसु णउ अण्ण जम्मे मइ कियउ किंपि तेणायउ बहुविह दुक्ख दिंतु
अम्हारिस माणुस अइ दुसज्झे ।। णिद्वरि कय णिग्घिण हउँ पिएण।। जं महु परिगणिउ हवंतु तोसु।। जिणभणिउ धम्मु तिलमेत्तु जंपि।। भोयंतराउ महु पाण लेंतु।।
घत्ता- एव्वहिं किं पुणु बहुणा जा गइ पहुणा परिरंभिय परिओसें।
सा मज्झु वि इउ बोल्लिवि मण्णु णिहोल्लिवि थिय धरि किं बहु सोसें।। 110 ।।
6/16 After hearing the news King Hayasena plunges into deep grief on account of
heart breaking separation from his dearest son Pārswa. णिय बहिणि-णेह णिहियंत रंगु रविकित्ति राउ परिगलिय रंगु।। गउ वाणारसि णयरिहिं तुरंतु सिरीपासकुमारहो गुण-सरंतु ।। तहिँ जाएवि दिट्ठउ धरणिणाहु हयसेणु राय-लच्छी सणाहु ।। पणवेप्पिणु पयजुअलउ जवेण
जंपिवि वइसिवि गम्गिर रवेण।। अंसुअ परिपूरिय लोयणेण
बहु दुक्ख भारेण वियाणणेण।। जह जिणिवि जउणु परिदिण्ण रज्जु तह हुउ विराउ चिंतिउ सकज्जु ।। आप तो कभी भी स्नेह में नहीं रमें, किन्तु मुझ जैसी नारी के लिये तो वह अत्यन्त दुस्साध्य (एवं दुस्सह्य) हो गया है। मैं तो अभागिनी हूँ, अन्यथा यह प्रिय-विछोह होता ही क्यों ? हाय, मैं तो अब निष्ठुर प्रिय के द्वारा घृणित कर दी गई हूँ। (लेकिन इसमें किसे दोष दूँ?) इसमें किसी का दोष नहीं, यह तो केवल दैव का ही दोष है, जिसे स्वीकार कर मुझे सन्तुष्ट हो जाना चाहिए। मैंने पूर्वजन्म में कोई सुकर्म ही नहीं किया था, जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित धर्म का भी तिलमात्र पालन नहीं किया था, उसके फल स्वरूप मेरे प्राणों का हरण करने वाले तथा विविध प्रकार के दुख देने वाले भोगान्तराय-कर्म का उदय हो गया है।
घत्ता- किन्तु अब अधिक सोच-विचार से क्या लाभ ? और अधिक शोक करने से भी क्या लाभ? प्रभु पार्श्व ने सन्तोष
पूर्वक जो मार्ग पकड़ा है, अब मेरा भी वही मार्ग होगा। यह कहकर मन को समझाकर वह घर में ही स्थिर होकर रहने लगी। (110)
6/16 पुत्र-वियोग में राजा हयसेन शोकाकुल हो जाते हैंअपनी बहिन बामादेवी के स्नेह-रस में पगा हुआ वह राजा रविकीर्ति उल्लास रहित होकर (परिगलियरंगु) तथा श्रीकुमार पार्श्व के गुणों का स्मरण करता हुआ तुरन्त ही वाणारसी नगरी पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उसने (सर्वप्रथम) राज्य-लक्ष्मी से समृद्ध पृथिवीनाथ हयसेन के दर्शन किये। उसने शीघ्र ही उनके चरण-युगल में प्रणाम किया, फिर बैठकर अश्रु-प्रपूरित नेत्रों से भारी दुख के भार से झुके हुए मुख से गद्गद् वाणी में कहा
कुमार पार्श्व ने जैसे ही यवनराज को जीता और फिर उसका राज्य उसी को वापिस कर दिया, तभी उन्होंने (पार्श्व ने) आत्म कल्याण करने वाले वैराग्य के विषय में विचार किया।
पासणाहचरिउ :: 129