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पढमउ गरे
णीय वर्णते
तरुवर विसाले
तरयणवीदे
अविट्ठ देउ
जय जय रवेण
मणि मण्णिऊण
कलिमल - णिवारि
हाविउ कुमारु
पुणु सुरवरेहिं । । हर झुणते ।।
सरवर रसाले ।।
हरिणव पीढे ।। जियमयरकेउ ||
अमराहिवेण ।।
करि गिण्हिऊण ।।
खीरु अहि-वारि ।।
णिज्जिय कु मारु ।।
घत्ता - हरियंदणेण विलेविउ चमरहिँ सेविउ णाणाहरणहिँ भूसिउ ।
कुसुम पुज्जर पुण्णु समज्जिउ णविउ ण जो रइदूसिउ ।। 106 ।।
तहँ अवसर सहसा पूसमासि पासेण वि पणविवि परमसिद्ध उप्पाडिय कुडिल सिरोरुहाइँ उत्तारिउ वच्छत्थलहो हारु दुरुज्झिय मणिमय कंकणाइँ
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Pārśwa gives up all of his clothes, donated his precious ornaments etc. and accepts asceticism (Muni - Dikshā).
धवलेयर दसमिहिँ सुहपयासि ।। सइँ पंचमुट्ठि तिहुअण पसिद्ध ।। णावइ संसार - महीरुहाइँ । ।
णावइ भव-संभव- दुक्खभारु ।। णावइ रइणारि णिबंधणाइँ । ।
उन्हें उस वनान्त में ले जाया गया, जहाँ नभचर पक्षी (कल-कल ) ध्वनि कर रहे थे। वह वनान्त विशाल तरुवरों एवं सरोवरों से रसाल था। वहीं रत्न जटित एक सिंहासन पीठ पर कामजयी (जिय मयर-केउ) उन पार्श्व को विराजमान किया गया।
पुनः इन्द्र ने जय-जयकार ध्वनि पूर्वक अपने मन कलिमल के निवारक क्षीरसागर के जल को अपने हाथ में लेकर कुत्सित काम को निर्जित करने वाले उन कुमार पार्श्व का अभिषेक किया।
घत्ता - पुनः हरिचन्दन से लेपनकर, चामरों से सेवित, नाना प्रकार के आभूषणों से भूषित उन पार्श्व की देवों ने पुष्पों के द्वारा पूजा की, पुण्यों का उपार्जन किया और जो रति से दूषित नहीं हुए थे, उन पार्श्व को नमस्कार किया। (106)
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समग्र वस्त्राभूषणादि का त्याग कर पार्श्व ने मुनि दीक्षा धारण कर ली
उसी अवसर पर पौष मास की धवलेतर (कृष्ण) दशमी की सुख-प्रकाशक तिथि में कुमार पार्श्व ने सहसा ही, त्रिभुवन में प्रसिद्ध परम सिद्धों को प्रणाम कर स्वयं ही पंचमुष्टि में अपने कुटिल केशों को ऐसे उपाड़ डाला, मानों संसार रूपी वृक्ष को ही उपाड़ डाला हो । वक्षस्थल से हार उतार फेंका, मानों संसार में होने वाले दुखों के बोझ
124 :: पासणाहचरिउ