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रूप में देते हैं। प्रस्तुत संवाद से हमारे समक्ष तीन तत्व उपस्थित होते हैं
(1) बुध श्रीधर संवादों के माध्यम से मनोवेगों को संचारित करते हैं। (2) आत्मीय और कौटुम्बिक मान-अपमान प्रत्येक सहृदय व्यक्ति के लिये निजी मान-अपमान बन जाता है।
महाकवि साधारणीकरण की कला में कितना पटु है, यह सहज ही जाना जा सकता है। हयसेन जब यह अवगत करते हैं कि उन जैसे शक्तिशाली सम्राट के रहते हुए उनके साले रविकीर्ति का यवनराज
अपमान करे, यह कैसे सम्भव है ? फलतः वे रविकीर्ति के अपमान को अपना ही अपमान समझते हैं। (3) बुध श्रीधर को अपने नायक के चरित्र का सदा ध्यान रहता हैं और वातावरण एवं परिस्थितियों का
ऐसा निर्माण करता है, जिससे नायक का चरित्र उज्जवल हो उठता है। प्रस्तुत संवाद यद्यपि रविकीर्ति के दूत और हयसेन के बीच चल रहा है, पर इसका प्रतिफल तत्काल ही नायक के चरित्र
पर पड़ता है और नायक को वीरता दिखलाने का अवसर उपस्थित हो जाता है। जब कुशस्थल की रक्षा के हेतु राजा हयसेन ससैन्य प्रस्थान की तैयारी करने लगते हैं, तो रणभेरी की आवाज सुन कर पार्श्व सभास्थल में उपस्थित हो पिता से विनम्र अनुरोध करते हैं कि-"मुझ जैसे समर्थ पुत्र के रहते हुए आपको रण-हेतु प्रयाण करने का कष्ट करना उचित नहीं। पुत्र के इन वचनों को सुनकर पिता वात्सल्यवश नाना तरह के तर्क उपस्थित कर पुत्र को युद्ध में जाने से रोकते हैं। पिता-पुत्र में सम्पन्न हुआ यह संवाद मार्मिक होने के साथ-साथ लोक-मर्यादा-पूर्ण भी है। कुमार पार्श्व पिता की बातों का उत्तर बड़ी ही विनम्रता और शालीनता के साथ प्रस्तुत करते हैं। पिता भी हृदय के अथोर प्यार को निकालकर पुत्र के रण में सम्मिलित न होने के लिए आग्रह करते हैं किन्तु अन्त में युवक पार्श्व का आग्रह पिता को स्वीकार करना पड़ता है।
प्रतीत होता है कि महाकवि ने उक्त संवाद को संस्कृत के महाकाव्यों से ग्रहण किया है। बाल्मीकि-रामायण एवं महाभारत में इस प्रकार के कई संवाद आये हैं। “समराइच्चकहा” और “कुवलयमालाकथा' में भी इस प्रकार के संवादों की कमी नहीं है। भारतीय काव्य-परम्परा में शत्रु के आक्रमण करने पर या मित्र-राज्य की सहायता के लिए प्रस्थान करने पर पुत्र अपने पिता को रोककर रण क्षेत्र में जाने के लिये स्वयं ही तैयार हो जाता है। भारतीय प्रबन्ध-काव्य-परम्परा में पिता-पुत्र के वात्सल्य को उभारने के लिए काव्य-नायक, जो प्रायः पुत्र ही रहता है, के चरित्र को उदात्त और आकर्षक रूप में चित्रित करने के लिए इस प्रकार के संवाद उपयोगी होते हैं। फलतः "पासणाहचरिउ” में कवि ने परम्परा से संवाद को ग्रहण करके भी इससे एक नवीन उद्देश्य की सिद्धि की है।
पार्श्वनाथ तेईसवें तीर्थंकर हैं। तीर्थंकरों में शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ एवं अरहनाथ, जो कि तीर्थंकर होने के साथसाथ चक्रवर्ती भी हैं, जिन्होंने शान्ति और सुव्यवस्था के हेतु आतताइयों का दुर्दमन कर अहिंसा-संस्कृति का प्रसार किया है, बुध श्रीधर के मस्तिष्क में तीर्थंकर-चक्रवर्ती का प्रत्यय था। फलतः वे अपने नायक को भी तीर्थंकर चक्रवर्ती के रूप में देखना चाहते थे। अतः हमारा अनुमान है कि उन्होंने कुमार पार्श्व के युद्ध में जाने तथा उसमें सक्रिय रूप में भाग लेने की कल्पना कर नायक को एक नया ही स्वरूप प्रदान किया है। जहाँ तक अन्य पार्श्वनाथ-चरितों के अध्ययन का प्रश्न हैं, वहाँ तक हम यह कह सकते हैं कि कवि की यह कल्पना लगभग मौलिक हैं । यतः प्रस्तुत महाकाव्य का कवि पौराणिक महाकाव्य के लिखते समय भी अपने नायक को आरम्भ से ही देवत्व के वातावरण में खचित करना नहीं चाहता। आदर्श मानवीय गणों का आविर्भाव कर ऐसे चरित्र का रसायन तैयार करता है, जिससे मानवता अजर-अमर हो जाती है। बुध श्रीधर ने भी प्रस्तुत पौराणिक चरित-काव्य के नायक पार्श्व को आरम्भ से
पासणाह. 3/15 पासणाह. 3/13-14
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52 :: पासणाहचरिउ