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द्योतक है और दूसरा ‘राउ' शब्द राजा का वाचक है। अतएव 'राउ' पद की आवृत्ति भी भिन्नार्थक होने के कारण यहाँ यमकालंकार है। उक्त दोनों ही उदाहरण भागावृत्ति के हैं।
अर्थालंकारों में इस ग्रन्थ में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, स्वभावोक्ति, अर्थान्तरन्यास, काव्यलिंग, समासोक्ति और अतिशयोक्ति का प्रयोग विशेष रूप से हुआ है। प्रायः सभी अलंकार भावों को सजाने का कार्य सम्पन्न करते हैं। यहाँ क्रमशः उनके उदाहरण प्रस्तुत कर उक्त कथन की पुष्टि की जा रही है। कवि ने दिल्ली (दिल्ली) के तोमरवंशी राजा त्रिभुवनपति (अनंगपाल) के पराक्रम, दया, दाक्षिण्यादि गुणों का वर्णन करते हुए कहा है
णयणमिव स-तारउ सरु व स-हारउ पउरमाणु कामिणियणुव्व।
संगरु व स-णायउ णहु वस रायउ णिहय कंसु णारायणुव्व।। 1/3/16-17 बुध श्रीधर ने अपने आश्रयदाता की माता मेमडिय के रूप-सौन्दर्य का चित्रण अनेक उपनामों के द्वारा प्रस्तुत किया है। कवि कहता है कि :
मेमडिय णाम तहो जाय भज्ज सीलाहरणालंकिय सलज्ज।
बंधवजण-मण-संजणिय सोक्ख हंसीव उहय सुविसुद्ध पक्ख।। 1/5/7-8 अर्थात् वह मेमडिय मूर्तिमान् प्रणय के समान स्नेहशीला थी तथा शील रूपी आभूषणों से अलंकृत, सलज्ज तथा शीलगृह के समान शील का आगार थी। और परिवार की सेवा या परिवार का संवर्द्धन शुद्ध शील की तरह करती थी। वह उस खान के समान थी, जो श्रेष्ठ रत्नों को उत्पन्न करने वाली है, श्रेष्ठ सन्तति को उत्पन्न करती थी। दोनों पक्षों से सुविशुद्ध उसका गमन हंसिनी के समान और वाणी कोयल के समान मधुर थी। ___ उत्प्रेक्षालंकार की दृष्टि से अपभ्रंश-भाषा ही अत्यन्त समृद्ध हैं। 'ण' जो कि संस्कृत शब्द ननु का प्रतिनिधि है, उत्प्रेक्षा को उत्पन्न करने में सक्षम है। बुध श्रीधर ने अपने इस काव्य-ग्रन्थ में बड़ी सुन्दर-सुन्दर उत्प्रेक्षाएँ प्रस्तुत की हैं। उदाहरणार्थ पार्श्व की शिशु अवस्था की अपूर्वता सम्बन्धी कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धत की जाती हैं
.....णं बालदिवायरु सुरदिसाए णं धणणिहि कलसुल्लउ रसाए। णं जगगुरुत्तु केवल-सिरीए णं सील सउच्चत्तणु-हिरीए। णं कामएउ पच्चक्खु जाउ णं सिसुमिसेण सुरवइ जि आउ। णं सुम्मइ जो जगि धम्मणामु सो एहु अवयरिउ दिण्ण कामु।। 2/1/5-8
रस-परिपाक
मात्र शब्दाडम्बर ही कविता नहीं है, उसमें हृदयस्पर्शी चमत्कार का होना भी अत्यन्त आवश्यक है और यह चमत्कार ही रस है। इसी कारण शब्द और अर्थ काव्य के शरीर हैं और रस प्राण। प्राण पर ही शरीर की सत्ताकार्यशीलता निर्भर हैं अतएव रसाभाव में कोई भी काव्य निर्जीव और निष्प्राण है।
काव्य के दो पक्ष होते हैं-भावपक्ष और कलापक्ष । कलापक्ष में काव्य के वे उपकरण गृहीत हैं, जिनसे काव्य का रूपक सज्जित किया जाता है। भावपक्ष में काव्य का अंतरंग आता है। किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति विशेष-विशेष अवस्थाओं में जो मानसिक स्थिति होती है, उसे भाव कहते हैं और जिस वस्तु या व्यक्ति के प्रति यह भाव व्यक्त होता है, उसे विभाव कहा जाता है। यह दो प्रकार का होता है, आलम्बन और उद्दीपन। जिसका आधार लेकर किसी की कोई मनस्थिति उदबुद्ध होती है या जिस पर किसी का भाव टिकता है, वह आलम्बन विभाव है। जहाँ यह भाव उठता है, उसे आश्रय कहते हैं। आलम्बन के चेष्टा, शृंगार आदि तथा देश, काल, चन्द्र, ज्योत्स्ना आदि उद्दीपन विभाव हैं। साहित्य की भाषा में उसे विभाव कहा जायेगा, जिसे कि व्यवहार-जगत में कारण कहते हैं। जिस प्रकार मोमबत्ती सलाई से जल जाती है, बांसुरी फूंक भरते ही बज उठती है, उसी प्रकार रति-शृंगार-भावना,
58 :: पासणाहचरिउ