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मत्त-गइंदारूढ सुजोहइँ हरि-खर - सुरक्खय समर-धरग्गइँ चिक्किरंत चक्कइँ रहणियरइँ रोसारुण णयणइँ धारंतइँ जयसिरि रामालिंगण रत्तइँ हल्लाविय सरि- सायर-सलिलइँ मुहु-मुहु परिफंसिय थइ भूरि भार भेसिय धरणिंदइँ खयसमयाहि विलास-विरामइँ परिपालिय णरवर-णय-सीमइँ कवि धूलि धूसरिय सरीरइँ
कणय-विणिम्मिय कवय-सुसोहइँ ।। विप्फुरंत आयड्ढिय खग्गइँ ।। मुक्क हक्क पाइक्कहँ पयरहूँ ।। करयल कय कुंतई दारंतइँ ।। असरिस पोरिस मंडिय गत्तइँ ।। उप्पाइय बइरीयण कलिलइँ ।। वइरियणहँ दरिसिय जमपंथइ ।। छत्त छाय परिपिहिय दिणिंदइँ ।। संपाडिय वंदीयण कामइँ । । क्ख- रक्खयर वसुहाहिव भीमइँ ।। मेरु महीहरु कंदर धीरइँ ।।
घत्ता - इय सेण्णें जा हयसेणु पहु परियरियउ णिग्गउ पुरहो । मणि-कणय-विणिम्मिय रहे चडेवि स नियणारि - पयणेउरहो । । 51 ।।
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At the same time Prince Parshwa puts up a proposal before his father to allow him to fight with the arrogant enemy - Yavanrāj. ता कासुवि वयणहो णिसुणेविणु समर-जत्त णियचित्ते मुणेविणु ।।
हो। स्वर्ण-खचित कवचों से सुशोभित वह सैन्य- समुदाय मत्त गजों पर आरूढ था। घोड़ों के तीक्ष्ण खुरों से समरधरा क्षत-विक्षत हो रही थी। खींची हुई तलवारें स्फुरायमान हो रही थीं। रथसमूह के चक्र चीत्कार कर रहे थे। पैदलसेना हाँक दे रही थी और रोष के कारण लाल-लाल नेत्र धारण किये हुए हाथ में लिये हुए कुन्तलों को तोड़ते हुए वे दौडे चले जा रहे थे ।
कोई-कोई भालाओं को उछालते हुए दौड़ रहे थे। मानों वे असदृश पौरुष से मंडित सुगात्र वाले जयश्री (लक्ष्मी) के साथ आलिंगन में रत थे। उन्होंने नदियों एवं सागरों के जल को मथ डाला था और बैरी जनों के हृदयों में उथलपुथल मचा डाली थी, वे बार-बार सैन्य स्थिति का अवलोकन कर अपने बैरी - समूह को यम- पन्थ दिखाने का उद्घोष कर रहे थे। वह सैन्य समुदाय अपने अत्यधिक भार से धरणेन्द्रों को भी कंपा देने वाला था, और छत्र-छाया से दिनेन्द्र को भी ढँक देने वाला था ।
जिस प्रकार क्षयकाल में शेषनाग की चेष्टाओं को विराम मिलता है, उसी प्रकार विलास के विराम वाली, वह पदाति-सेना थी, जो बन्दीजनों की मनोकामना को पूर्ण करने वाली थी, जो नरवरों की नय-सीमा का परिपालन करने वाली थी, किन्तु जो यक्षाधिप, राक्षसाधिप, विद्याधरों एवं वसुधाधिपतियों के लिये भयंकर थी तथा जो कपिल वर्ण की मटमैली धूलि से धूसरित शरीरवाली और जो सुमेरु पर्वत की कन्दरा के समान धीर-वीर थी।
घत्ता - इस प्रकार के सैन्य समुदाय से वेष्टित राजा हयसेन मणियों एवं स्वर्ण विनिर्मित रथ पर चढ़कर नगर के उस मार्ग से चला, जहाँ नारी जनों के नुपुर रुणझुण रुणझुण कर रहे थे। (51)
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राजकुमार पार्श्व का यवनराज के साथ युद्ध करने के लिये अपने पिता से प्रस्ताव - तब किसी के द्वारा अपने पिता के युद्ध-प्रयाण का कथन सुनकर, अपने मन में उसे समझकर वाणारसी के राजा
58 :: पासणाहचरिउ