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जह पवणहो सारय-जलहराइँ जह सीहहो मत्त-मयंगयाइँ तह सयलइँ भज्जंतइँ णिएवि उट्ठिय जउणहो णिव पंचवीर कल्लाणमालु अहिमाणभंगु गुज्जर-तडक्क-रहवर-ठिएहिँ वेढिउ रविकित्ति णरिंदु केम हेलए मुअंति अणवरय वाण अह तिक्खइँ णावइ तीमणाइँ खयरवि किरणइँ णं दूसहाइँ णहगमण' णं मुणि-चारणाइँ उण्णय पक्खइँ णं सज्जणाइँ दुट्ठइ णं धम्मगुणह चुआइँ
जह गरुडहो आसीविसहराइँ।। जह वणसेरिहहो तुरंगमा ।। भड भीसण भूभगइँ रएवि।। दुद्दम संगाम विमद्द धीर।। तह विजयवालु जणजणिय रंगु।। एयहिँ जयसिरि उक्कंठियेहिँ।। सावण-घणेहिँ धरणिहरु जेम।। आसीविसहर विग्गह-समाण।। खलवयणइँ णं असुहावणाइँ ।। कय तणु पीडइँ णं दुग्गहाई।। अइ चंचल णं हयवरगणाइँ।। दरसिय फलाइँ णावइ जिणाइँ।। सुअण सहावइ णं उज्जआइँ ।।
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घत्ता- ते वाण विहंडिय भुय बलेण अद्धागय रविकित्ति णरिंदें।
णिय वाणावलियहिँ णिद्गुरहि णं विसहरु सरोस खयरिंदें।। 74।।
जिस प्रकार पवन के द्वारा शरदकालीन मेघ उड़ा दिये जाते हैं, गरुड़-द्वारा भयानक सर्प भगा दिये जाते हैं, सिंह द्वारा मत्तगज भगा दिये जाते हैं और वन के भैसों द्वारा घोड़े भगा दिये जाते हैं, ठीक उसी प्रकार, अपने सुभटों का पलायन देखकर भीषण भ्रूभंगों के साथ उस जउनराजा (यवनराज) के दुर्दम संग्राम को सहन करने वाले, सुभट जनों में रण-रंग उत्पन्न करने वाले तथा जयश्री से वरण करने के लिये उत्सुक पाँच धीर-वीर सुभट युद्ध हेतु उठ खड़े हुए— (1) कल्याणमल्ल, (2) अभिमान भंग, (3) विजयपाल, (4) गुज्जर एवं (5) तडक्क। वे पाँचों सुभट अपने- अपने श्रेष्ठ रथों पर आरूढ़ हुए।
उन्होंने राजा रविकीर्ति को उसी प्रकार घेर लिया, जिस प्रकार कि श्रावण-मास के घने बादल धरणीधर-पर्वत को घेरे लेते हैं। वे लीला ही लीला में भयानक विषधारी सर्प के शरीर के समान अत्यन्त तीक्ष्ण वाणों की अखण्ड वर्षा करने लगे। वे (बाण) ऐसे प्रतीत होते थे, मानों तीमन ही हों, अथवा मानों दुष्टजनों के असुहावने बोल ही हों। अथवा, मानों प्रलयकालीन सूर्य की दुस्सह किरणें ही हों, अथवा मानों शरीर को पीड़ित करने वाले दुष्ट ग्रह ही हों, अथवा मानों आकाशगामी चारण मुनि ही हों। वे (बाण) इतने चंचल थे, मानों तीव्र गति वाले चपल हयवरों का समूह ही हो। वे उन्नत पक्षों (पखों) वाले, ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानों उन्नत पक्षों वाले (शत्रु एवं मित्र दोनों के समन्वयकारक-) सज्जन ही हों। वे बाण परिणामों का उसी प्रकार साक्षात् प्रदर्शन कर रहे थे, जिस प्रकार जिनदेव के दर्शनों का साक्षात् फल मिलता है। धनुष की डोरी से छोड़े गये वे बाण ऐसे दुष्ट थे, मानों धर्मगुण से च्युत खलदुष्टजन ही हों तथा वे ज्ञानीजनों की ऋजुता के समान सीधे मार्ग से (बिना वक्रगति) उड़े जा रहे थे।
घत्ता- (वेगगति से आने वाले-) उन निष्ठुर तीक्ष्ण बाणों को भी राजा रविकीर्ति ने बीच में ही अपनी बाणावली
द्वारा केवल अपने भुजबल से ही उसी प्रकार नष्ट कर दिया, जिस प्रकार क्रुद्ध खचरेन्द्र (गरुड़) विषधर को समाप्त कर डालता है। (74)
84 :: पासणाहचरिउ