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णिसियासि धार णिद्दलिय केवि णिवडिय महिमंडलि सहहिं केम उत्तुंग गिरिंद समाण जेवि णं सलिल पवाहहिँ महिहरिंद तिक्खग्ग खुरुप्प हिँ छिण्ण केवि णिद्दलिय केवि कड्ढेवि करालु परिवडिय सहहिं रंणे गरुअकाय करडयल गलिय मयमत्त जेवि णं णीय पलय- समीरणेहिँ
कुंभत्थले कडुरडि थरहरेवि । । सयमह-पवि-हय धरणिहर जेम ।।
हर कुंग्गहिँ भिण तेवि ।। विवरंतरि धारिय किण्णणरिंद ।। गय-मूलतरुव परिवडिउ तेवि ।। करवालु दलिय वइरिय-कवालु ।। णं जयसिरि कीला सेलराय ।। ओसारिय बाणहिँ हणेवि तेवि ।। गयणंगणे रेणु समीरणेहिँ । ।
घत्ता— परिहरिय केवि चूरियदसण सत्ति तिसूल घाय घुम्माविय। दुज्जण इव दरिसिय मय-विहव भूअवलेण धरणीयलु पाविय ।। 86 ||
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Yavanrāja gets furious on the heavy destruction of his extremely powerful elephants. दुवइ — इय णिद्दलिय सयलमह मयगल पासकुमार सामिणा । सयलामलससंक सण्णिह मुह सुरवणियाहिरामिणा । । छ । ।
शब्दों में ललकार (कडुरडि) कर उन्हें थर्रा दिया। वे शत्रु-गज महिमण्डल पर गिरकर किस प्रकार सुशोभित हो रहे थे? ठीक, उसी प्रकार जिस प्रकार कि शतमख - इन्द्र के बजवाणों द्वारा आहत धरणीधर - पर्वत सुशोभित होता है । जो गज उत्तुंग गिरीन्द्र के समान थे, उन्हें भी कुमार पार्श्व ने दीर्घ कुन्ताग्रों से विदार कर भूमिसात् कर डाला। वे ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानों सलिल-प्रवाहों से प्रवाहित महिहरेन्द्रों (पर्वतों) को किन्नरेन्द्रों ने विवरान्तरों (गुफागृहों) में ही छिपा लिया हो ।
किसी-किसी शत्रु-गज को तेजधार वाले खुरपों के अग्रभागों से छिन्न-भिन्न कर डाला। वे भूमि पर उसी प्रकार गिर पड़े, जिस प्रकार कि जड़विहीन वृक्ष गिर पड़ता है। कराल करवाल निकालकर उसने किसी शत्रु-गज का निर्दलन कर दिया तो किसी के कपाल को दलित कर डाला । रणभूमि पर पड़े हुए भीमकाय वाले वे शत्रु-गज ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानों जयश्री रूपी नायिका के लिये क्रीडा-पर्वत ही हों । जिन गजों के गण्डस्थलों से मद प्रवाहित हो रहा था, उन्हें भी बाणों से मारकर दूर गिरा दिया। वे ऐसे लग रहे थे, मानों प्रलयकालीन धूलिमिश्रित वायु के द्वारा गगनांगन में बादल ही उड़ा दिये गये हों ।
घत्ता- भुजबल उस कुमार पार्श्व ने अपनी शक्ति के साथ घुमा घुमाकर त्रिशूल के घातों द्वारा मद की उन्मत्तता के वैभव को दिखाने वाले किसी-किसी शत्रु-गज के दाँतों को चूर-चूर कर उन्हें मदोन्मत्त दुर्जन के समान धरती तल पर ( कूड़े के ढेर में फेंक दिया। (86)
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यवनराज अपने महागजों की संहार-लीला से अत्यन्त क्रोधित हो उठता है
द्विपदी -- इस प्रकार पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान मुख वाले, सुरांगनाओं (तथा सुन्दर नागकन्याओं) को मोहित करने वाले उन स्वामी पार्श्वकुमार ने यवनराज के समस्त मदोन्मत्त शत्रु-गजों को निर्दलित कर डाला ।
पासणाहचरिउ :: 101