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हिरोल्लियाइँ गयचेयणाइँ
वियलिय गुडाइँ लुअ धय-वडाइँ
भीसावणाइँ
चुअचामराइँ
गलिय-जसाइँ
विहडिय दियाइँ
विडिय-सिराइँ
पहराउराइँ
भिंदिय-णसाइँ
सोसिय-रसाइँ
पड - मुहा णिरसिय- सिवाइँ तह वायसाइँ
जय-इँ
अइ संकुला
सरसल्लियाइँ ।। बहुवेाइँ ।।
तह मुहवडाइँ ।।
हय-हय-थडाइँ ।।
अहावणाइँ ।।
हसियामराइँ ।।
पूरिय-रसाइँ । । अवगय-सियाइँ । ।
खंडिय-कराइँ । ।
102 :: पासणाहचरिउ
ताडिय उराइँ ।।
किंदियवसाइँ । ।
हय- साहसाइँ ।।
पाविय - दुहाइँ || पोसिय-सिवाइँ । ।
महरक्खसाइँ ।।
महियल गयाइँ || करिवर-कुलाइँ । ।
घत्ता - पेक्खेवि रोसारुणलोयणहिँ जउण णराहिवेण परिभावउ ।
को महियले महु मयगलहिँ जो ण महाणरवइ संताविउ ।। 87 ।।
उसके (सभी निर्दलित गज) बाणों से बिद्ध रहने के कारण रुधिर से लथपथ थे, अतीव वेदना के कारण मूर्च्छित हो रहे थे, उनके मुखपट तथा वचन विगलित हो गये थे और ध्वजा-पताकाएँ चिथड़े- चिथड़े हो गई थीं, घोड़ों के समूह के समूह मृत हो चुके थे, जो अत्यन्त भयावने एवं अशोभन लग रहे थे। उनके चामर ध्वस्त हो गये थे, अतः देवगण उनकी हँसी उड़ा रहे थे। उनकी गली हुई नसों (जसा) से पृथिवी पट गई थी, उनके दाँत विखण्डित होकर शोभारहित हो गये थे। उनकी शिराएँ (जहाँ-तहाँ ) गिरी हुई थीं, सूँडें खण्डित पड़ी थीं, प्रहारों के कारण वे आकुल व्याकुल थे। उनके उरस्थल ताडित थे, नसें कटी हुईं थीं और वसा. (चर्बी) बिखरी पड़ी हुई थी। किसी-किसी की रसादि धातुएँ शुष्क हो रहीं थी, इस कारण वे साहस विहीन हो रहे थे। कोईकोई मुँह के बल गिरे पड़े थे, अतः कष्ट पा रहे थे। जिनका शिव (सुख) नष्ट हो चुका था अर्थात् जो मृत हो चुके थे, वे शिवाओं (शृगालों), कौवों तथा महाराक्षसों का पोषण कर रहे थे अर्थात् उनका माँस शृगाल, कौवे और महाराक्षस खा रहे थे और वे मृगों को डाँट-डाँट कर भगा रहे थे। इस प्रकार करिवरों के कुल - समूह अत्यन्त संकुलित होकर धरती पर बिखरे हुए पड़े थे।
पत्ता - क्रोधावेश से भरकर रक्तवर्णाभ नेत्रों से अपने गज-समूहों का संहार देखकर वह यवनराज अपने मन में चिन्तित होकर सोचने लगा कि महीतल पर ऐसा कौन सा महानरपति है, जो हमारे मदोन्मत्त महागजों से सन्तप्त न हुआ हो ? (87)