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घत्ता - पविदंडें सो महियउच्छुडु ता कुद्धउ जउणु णराहिउ । संजायउ अइदूसहु विसमु णं खय समयखत्तु दिवसाहिउ || 90 ||
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Prince Pārśwa lets down Yavanrāja very badly in the battle-field. दुवइ- पुणरवि लेवि बाण णिय तोणीरहो मेल्लहो णिरु भयंकरा । अगणिय वीस-तीस सय-दहसय परबल-बलखयंकरा ।। छ।।
रुसा हयसेण तणूरुहु पासु सबाणहिँ बाणइँ तोडिवि तासु गयंदहँ जूहु मयाहिउ जेम पुणोवि विसज्जिवि तिक्खणवाण विहंडेवि संदणु च्छिंदेवि छत्तु महावियडुल्लय वच्छपएसु खरग्ग खुरुप्पहिँ कप्पइ जाम खणेक्क विलंवेवि उद्विउ केम चडेविणु अण्णहिँ संदणे थक्कु
विवक्ख महागलकंदल पासु ।। महारणभूमि विहाय गयासु ।। कविणु अग्गड़ पेल्लइ तेम ।। अहीसर -दीहर देह समाण ।। सचिंधु सचामरु भिंदिवि गत्तु ।। विपुण्णह दुल्लहु लच्छिणिवेसु ।। णिओ जरणक्खु पमुच्छिउ ताम ।। सु दूसह केउ - महागहु जेम || रणगणे णाइँ महापलयक्कु । ।
घत्ता - कुमार पार्श्व ने उसे भी अपने बज्र दण्ड से मथ डाला। इससे वह नराधिप यवनराज और भी अधिक क्रुद्ध हो उठा और उसने अपना अत्यन्त दुस्सह विषम रूप धारण कर लिया, मानों प्रलयकालीन समय-विनाशसूचक कोई सूर्य ही उदित हो रहा हो। (90)
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युद्ध में यवनराज के छक्के छुड़ा दिये
कुमार पार्श्व
द्विपदी- दी-उस क्रुद्ध यवनराज ने अपने तूणीर से शत्रु सेना के बल को नष्ट कर डालने के लिये बीस, तीस, सौ एवं हजारों ही नहीं, बल्कि अगणित भयंकर बाण लेकर पुनः छोड़ना प्रारम्भ किया—
हयसेन के पुत्र उस पार्श्व ने, क्रोध से भरकर विपक्षी की गर्दनों के लिये भयंकर नागपाश के समान अपने बाणों से उस यवनराज के बाणों को तोड़ डाला और जिस प्रकार मृगाधिप गजेन्द्र-यूथ को अपने आगे ले आकर पेल डालता है, उसी प्रकार निराशा भरे उस यवनराज को कुमार पार्श्व ने भी समरभूमि से बुरी तरह खदेड़ (पेल) दिया । पुनः उसने नाग की दीर्घ-देह के समान लम्बे एवं अत्यन्त तीक्ष्ण बाण छोड़कर उसके रथ को चकनाचूर कर दिया, उसकी ध्वजा, चामर एवं छत्र को भी छिन्न-भिन्न कर डाला, उसके वक्ष को भी बेध डाला ओर पुण्यहीनों के लिये दुर्लभ लक्ष्मी - निवेश के समान ही, उस यवनराज जब कुमार पार्श्व के महाविकट वक्ष- प्रदेश में खुरपे की तीक्ष्ण नोक से आक्रमण करने का विचार किया, तभी वह ( यवनराज ) स्वयं ही मूर्च्छित होकर धरती पर गिर गया।
106 :: पासणाहचरिउ
किन्तु क्षणेक के विलम्ब के बाद ही वह किस प्रकार उठ बैठा ? ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कि सुदुस्सह केतु जैसे महाग्रह का उदय होता है।
वह यवनराज दूसरे रथ पर सवार होकर रणांगण में पुनः इस प्रकार आया, मानों प्रलयकालीन सूर्य ही हो ।