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सवि चूरिय एत्तहो मोग्गरेण वियलिय मउ संदणे चडउ जाम
णहे करणु वेवि जउण वि भरेण।। बद्धउ हयसेण-सुएण ताम।।
घत्ता- मेल्लेप्पिणु जालु विसालु सिरि असिपुत्तिएँ सहु झत्ति णिबद्धउ।।
णट्टलु व पसंसिउ पासु जिणु सिरिहरेहिँ सुरवरहिँ पसिद्धउ।। 95 ।।
Colophon
इयसिरि पासणाहचरित्तं रइयं बुहसिरिहरेण गुणभरियं । अणुमणियं मणोज्ज णट्टल णामेण भव्वेण।। रविकित्ति-सुक्ख-जणेण पासकमारस्स जयसिरीलंभे। जउणारि-माणमहणे पंचमी संधी परिसमत्तो।। छ।। संधि 5।।
तब उस यवन नराधिप ने अपनी असि छोड़कर पवन के समान अत्यन्त वेग से असिधेनु (कटार) उठा ली। उसे भी कमार पार्श्व ने अपने मुग्दर से चर दिया। जब विगलित मद वाला यवनराज अपने बल से आकाश में उठकर अपने दूसरे रथ पर सवार होने लगा, उसी समय पार्श्व ने उसे अपने पाश में बाँध लिया।
घत्ता- इस प्रकार उस यवनराज के सर पर विशाल जाल डालकर उसे असि-पुत्री (कटार) के साथ तत्काल ही
बाँध लिया गया और जिस प्रकार सुरवरों ने पार्श्व जिनेन्द्र की प्रशंसा की, उसी प्रकार कवि श्रीधर ने साहू नट्टल की प्रशंसा कर उन्हें प्रसिद्ध किया। (95)
पुष्पिका रविकीर्ति के लिये सुखजनक, पार्श्वकुमार के लिये विजयश्री का लाभ एवं यवन-शत्रु के मान का मर्दन करने वाली यह पाँचवी सन्धि समाप्त हुई।
इस प्रकार गुणों से भरपूर इस पार्श्वनाथचरित की रचना बुध श्रीधर ने की है, जिसको मनोज्ञ कहकर उसकी अनुमोदना नट्टल नाम के भव्य (साहू) ने की है।
112 :: पासणाहचरिउ