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6/7 Prince Pārśwa goes with Ravikirti to that particular spot of the city where some ascetics were busy with severe penance before the burning fire.
पुच्छिउ रविकित्ति हिय-विरोहु तं सुणिवि कुसत्थल - सामिएण व भी अस्थि रंजिय सुरासु लक्खिज्जइ एक्कै जोयणेण हिँउ तवंति तावस सतेय फल-कंद-मूल-पीणिय सदेह तहु पय पणाम विरयण णिमित्तु तं सुणिवि कुमारें भणिउ एउ क्खहु हु तावस तणिय वित्ति कोऊहलेण एउ भणिउ जाम
एहु जाइ केत्थु जणु जणिय सोहु । संलत्तउ गयवर सामिएन । । अवरुत्तरंते एयहो पुरासु । सेविज्जइ बहु सावय गणेण । । अहणिसु पज्जालिय जायवेय । परिचत्त सपुत्त-कलत्त-णेह ।। एहु लोउ जाइ भूसणाहि दित्तु । अम्हइम जाहु मा करहि खेउ ।। अण्णाण - मग्गे विरइय पवित्ति । केवि आणि मायंगु ताम ।।
घत्ता - णिव रविकित्ति वयणें भाविय सयणें तहिँ चडेवि बिण्णिवि जण |
गय सपरियण वरिय तहिँ ते तवसहिँ जहिँ तउ तवंति हरिसियमण ।। 102 ।।
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कुमार पार्व रविकीर्ति के साथ नगर में उस स्थल पर पहुँचते हैं, जहाँ अग्नि- तापस कठिन तपस्या कर रहे थे
विरोधों को नष्ट करने वाले कुमार पार्श्व ने राजा रविकीर्ति से पूछा- सज-धज कर ये लोग कहाँ जा रहे हैं? कुमार का यह प्रश्न सुनकर श्रेष्ठ गजों के स्वामी तथा कुशस्थल नरेश ने उत्तर में कहा
इसी नगर के उत्तर-पश्चिम के अन्त (वायव्य कोण), में देवों का मनोरंजन करने वाला भीम नामक एक वन है, जो यहां से एक योजन की दूरी पर लक्षित है। वह अनेक श्रावक गण द्वारा सेवित है। वहाँ अनेक तेजस्वी तपस्वी तप किया करते हैं और अहर्निश जातवेद (पवित्र अग्नि) प्रज्वलित किया करते हैं। फल कन्द, मूल का भक्षण कर स्वदेह पोषण करते हैं, अपने पुत्र कलत्र आदि के स्नेह-मोह को उन्होंने छोड़ दिया है। उन्हीं के चरणों में प्रमाण करने के निमित्त वस्त्राभूषणों से सज-धज कर ये लोग वहाँ जा रहे हैं।
यह सुनकर कुमार पार्श्व ने कहा- मैं भी वहाँ जाना चाहता हूँ। मेरे जाने का आप खेद मत करना। मैं वहाँ जाकर अज्ञान मार्ग में प्रवृत्त उन तपस्वियों की वृत्ति एवं प्रवृत्ति को देखूँगा । पार्श्व कौतुहल पूर्वक जब यह कह ही रहे थे कि उसी समय किसी ने एक मातंग (हाथी) लाकर उनके पास खड़ा कर दिया
घत्ता- स्वजनों को प्रसन्न रखने वाले राजा रविकीर्ति के कथन से वे दोनों ही जन उसी हाथी पर सवार हुए और अपने परिजनों से आवृत्त होकर हर्षित मन से वहाँ पहुँचे, जहाँ वे तापसगण तपस्या कर रहे थे। (102)
पासणाहचरिउ :: 119