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घत्ता- जह तुह पेक्खंतहो मयगलइँ मइँ मुसुमूरिय समरि दुसज्जए ।
तह जइ ण पासु तुव गलि घिवउ ता पासणामु ण वहमि जण मज्झए ।। 89 ।।
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Fierce fighting between the two with various arms and ammunitions (missiles etc.) दुवइ - जइ तुह चित्ति अत्थि कवि अज्जवि दर अहिमाण लच्छिया ।
ता लइ खिवहि किण्ण महु पहरणु सयदल-दल चलच्छिया । । छ ।
तं सुणिवि तियस भेरी-सरेण मेल्लिउ तिमिराउहु तमु करंतु तं हउ तवक्खेँ हरणेण सरहेण हरिणावइ जलहरेण आसीविसहरु विणयासुएण सीहेण करडि तरु हुअवहेण महिसेण तुरउ वाएण मेहु जउणावणीसु तं तं कुमारु विगयाउहु जायउ जाम बेरि ता धाइ लिंतु महातिसूलु
जउणाहिहाण धरणीसरेण । । णिद्दालसु जिंभणु वित्थरंतु ।। पासेण सत्तु-दप्पहरणेण । । हुवहु व सहि महमयगलेण । । मंते महारक्खसु रएण ।। महिहरु सुरवरपवराउहेण । । जं-जंजि खिवइ परिखिण्णदेहु || लीलएँ णिरसइ रमणियण मारु ।। अणवरय समेण परिबद्ध खेरि ।। सलावराह वल्लरिहे मूलु ।।
घत्ता - जिस प्रकार मैंने देखते ही देखते इस दुसाध्य समर-भूमि में तेरे मदोन्मत्त गज-प्रवरों को मसल डाला है, उसी प्रकार मैं यदि तेरे गले में नागपाश भी न डाल दूँ, तो इस जनसमूह के मध्य मैं अपने 'पार्श्व' नाम को धारण नहीं करूँगा (अर्थात् अपना यह नाम छोड़ दूँगा ) (89)
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विविध प्रहरणास्त्रों द्वारा दोनों में तुमुल-युद्ध -
द्विपदी - ( कुमार पार्श्व ने यवनराज को चुनौती देते हुए पुनः कहा-) शतदल कमल के समान चंचल नेत्र वाले हे यवनराज, यदि तेरे चित्त में जय लक्ष्मी का लेश मात्र भी अहंकार अभी तक शेष बचा हो, तो तू अपने प्रहरणास्त्र लेकर मुझ पर आक्रमण क्यों नहीं कर रहा ?
देवों के भेरी-स्वर के समान प्रतीत होने वाली उस धरणीश्वर कुमार पार्श्व की गर्जना सुनकर यवनराज ने अन्धकार, निद्रा, आलस्य एवं जम्हाई का विस्तार करने वाले 'तिमिर' नाम के आयुधास्त्र को छोड़ा। शत्रु के दर्प का हरण करने वाले उस पार्श्व ने उस आयुध को नष्ट करने के लिये अपना 'तपन' नाम का आयुधास्त्र छोड़ा, जिसने कि उसके तिमिरायुध को उसी प्रकार नष्ट कर दिया, जिस प्रकार शरभ (अष्टापद) द्वारा सिंह नष्ट कर दिया जाता है।
इसी प्रकार यवनराज के अग्नि-बाण को महा मेघ-बाण द्वारा, नाग-बाण को गरुड़-बाण के द्वारा, महाराक्षसबाण को मन्त्र- बाण द्वारा, गज-बाण को, सिंह-बाण के द्वारा अग्नि-बाण द्वारा वृक्ष-बाण को, इन्द्र के प्रवरायुध (बज)-बाण द्वारा पर्वत- बाण को, महिष-बाण द्वारा, अश्व-बाण को और मेघ-बाण को पवन-बाण द्वारा नष्ट कर दिया। इस प्रकार खिसियाया हुआ तथा थका हुआ वह यवनराज, जिन-जिन शस्त्रास्त्रों का प्रक्षेपण करता था, रमणी-युवतियों के लिये कामदेव के समान कुमार पार्श्व, लीला-लीला में ही उन्हें नष्ट कर डालता था ।
अनवरत रूप से युद्धरत और अपने मन में निरन्तर ईर्ष्याभाव रखने वाले उस यवनराज के जब समस्त आयुध समाप्त हो चुके तब समस्त अपराधों के मूल जड़रूप महात्रिशूल को लेकर वह कुमार पार्श्व की ओर झपटा -
पासणाहचरिउ :: 105