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मत्ततुंग हत्थि-जूहु णं चरो धरोहु धाविओ हसंतु केम कोवि पाइ धारिऊण कोवि भूअले णिहित्तु कोवि तोलिओ करेण कोवि कुंभ एसि भिण्णु कोवि पाणिणा धरेवि सेयवारि विंदु सित्तु कोवि भग्गु चिक्किरंतु झत्तिरालिऊण सारि एम सव्व हत्थि जाम
धत्थ बेरिराय बूहु ।। णं सविग्गहो घणोहु।। संगरे कियंतु जेम।। खित्तु वोमे मारिऊण।। कोवि जायवेय दित्तु।। कोवि कुट्टउ भरेण।। को बि लोयवाल दिण्णु।। संगरंगणे सरेवि।। रत्तवाह मज्झे घित्तु।। सेल्ल लोउ संहरंतु ।। रत्तलित्त गत्तु हारि।। पेल्लिया बलेण ताम।।
घत्ता– रविकित्ति णराहिउ पवर बलु जयसिरि सीमंतिणि रसभाविउ ।
रोसेण पुणुवि पुणु गयवरहिँ जउण णरेसरेण वेढाविउ।। 83 ।।
रविकीर्ति ने अपने को शत्रु के मदोन्मत्त उत्तुंग हस्ति-समूहों से घिरा हुआ देखकर, पर्वत-समूह के समान, अथवा मूर्तिमान मेघ-समूह के समान उस गज यूथ को नष्ट करने के लिये वह (रविकीर्ति) हँसता हुआ किस प्रकार दौड़ा? ठीक, उसी प्रकार, जिस प्रकार कि युद्ध-भूमि में यमराज दौड़ पड़ता है।
किसी-किसी सुभट-शत्रु के पैर पकड़कर उसे चीर कर आकाश की ओर फेंक देता था, तो किसी-किसी को मारकर भूमि पर ही पटक देता था, और किसी को अग्नि में झोंक देता था।
किसी-किसी को हाथों पर तौलकर उसने झुला दिया, तो किसी-किसी को हथौड़े से कू डाला। किसी-किसी के कम्भस्थल को विदार दिया, तो किसी-किसी को लोकपालों को सौंप दिया।
पसीने में तर किसी-किसी को हाथों पर धरकर समरांगण में प्रवाहित रक्तधारा के मध्य सरका दिया, तो (शत्रु का) कोई-कोई हाथी अपने दाँतों से लोगों का संहार करता हुआ, चिंघाड़ता हु खड़ा हुआ। रक्त से लिप्त गात्र वाला कोई-कोई हाथी अपने सारि (झूलों) तथा हौदों को ही पटक कर भाग खड़ा हुआ। इस प्रकार राजा रविकीर्ति ने घेरा डाले हुए उन समस्त हाथियों को अपने भुजबल र जब पेल डाला, तब
घत्ता- अत्यन्त बलवान, जयश्री रूपी सीमन्तिनी के सुरस से भावित, उस यवनराज ने राजा रविकीर्ति पर क्रोधित
होकर पुनः उसे अपने गज-समूह द्वारा घिरवा दिया। (83)
पासणाहचरिउ :: 97