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णिद्दारिय रिउ-वच्छत्थलेहिँ
सिंदूर-मरिय-कुंभत्थलेहिँ।। जंगम-सिहरिहि व मणोरमेहिँ
मयमत्त-तुंग तंबेरमेहँ।। घत्ता- एयहि वेढिय रविकित्ति कह जउणाणए विरएविणु मंडलु।
पंचास पंचदस सयणिवहँ जह दाणवविंदहिँ आहंडलु ।। 81 ।।
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King Ravikīrti becomes furious and destroys many excited elephants and soldiers of Yavanrāja.
वइ-मयमत्तइँ णिएवि मातंगई मेल्लिवि खग्ग-लदिया।
आवंतइँ सरोस धावंतइ करयले करेवि लट्ठिया।। छ।।
रविकित्तिणरिंर्दै समरमज्झ हउ कासुवि कुंभिहि तणउ कुंभु लइयइँ णिम्मल-मुत्ताहलाई तोडिउ कासु वि सुंडाल सुंडु णिवडिउ होएविणु खंडु-खंडु कासुवि दसणइँ उप्पाडियाइँ
बइरिय विमुक्क करिवर दुसज्झ।। भीसण भड वच्छत्थल णिसुभु।। णं णियजस धरणीरुह फलाइँ।। रोसेण अमेल्लिय सुहड संडु।। महिमंडलि णं णव कयलिदंडु।। दुज्जण-कुलाइँ णं साडियाइँ।।
के सिन्दूर से भरे हए कम्भस्थलों के समान वक्षस्थलों को विदीर्ण करने वाले थे, और जो जंगम पर्वत-शिखरों के समान मनोरम थे। घत्ता- उस यवनराज ने इस प्रकार अपने 1550 गजराजों के द्वारा राजा रविकीर्ति को किस प्रकार घेरा? ठीक
उसी प्रकार, जिस प्रकार मानों कि दानव-समूह द्वारा इन्द्र को ही घेर लिया गया हो। (81)
5/2 रौद्र रूप धारण कर राजा रविकीर्ति यवनराज के अनेक मदोन्मत्त
हाथियों तथा उसके सुभटों को मार डालता है
द्विपदी- यवनराज के मदोन्मत्त मातंगों से अपने को घिरा हुआ देखकर राजा रविकीर्ति भी अपनी खड़ग-यष्टि
फेंककर अपने हाथों में गदा-लाठी लेकर उसकी ओर झपट्टा मारता हुआ दौड़ा।
उस राजा रविकीर्ति ने समर के मध्य शत्रु-पक्ष द्वारा छोड़े गये दुःसाध्य करिवरों में से किसी करिवर के गण्डस्थल को चीर डाला और भीषण भटों के वक्षस्थलों को वेध डाला। करिवरों के गण्डस्थलों से गिरे हुए निर्मल मुक्ताफलों को उसने स्वयं ले लिया। वे ऐसे प्रतीत होते थे, मानों उस (रविकीर्ति) के यश रूपी वृक्ष के फल ही हों। अत्यन्त रोष से भरकर उसने किसी-किसी गज की डाल के समान सुन्दर सैंड को ही तोड़ डाला और शत्रु-सुभटों की उन भुजाओं को भी न छोड़ा, जो पृथिवी-मण्डल पर खण्ड-खण्ड होकर गिरते ही ऐसी प्रतीत हो रही थीं, मानों नवीननवीन कदली-दण्ड ही उग रहे हों। __ उस रविकीर्ति ने किसी-किसी गजराज के दाँतों को ही उखाड़ डाला, मानों उसके दुर्जन-कुलों को ही नष्ट कर दिया हो। वे गज-दन्त ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानों नागों, देवों एवं मनुष्यों के नेत्रों को आनन्द देने वाले जयश्री
पासणाहचरिउ :: 95