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Colophon इय सिरि-पासचरित्तं रइयं बुहसिरिहरेण गुणमरियं । अणुमणियं मणोज्जं णट्टल-णामेण भव्वेण ।। छ।।
वण-रत्त-लित्त-गत्तणि वग्ग सयदल-समासिए समरे । रविकित्ति-पसंसणए चउत्थी संधी परिसमत्ता।। छ।। संधि4।।
Blessings to Sāhu Nattala, the inspirer
येनाराध्य विशुद्ध-धीर-मतिना देवाधिदेवं जिनम्, सत्पुण्यं समुपार्जितं निजगुणैः सन्तोषिताः बान्धवाः । जैन चैत्यमकारि सुन्दरतरं जैनी प्रतिष्ठा तथा, सः श्रीमान् विदितः सदैव जयतात् पृथिवीतले नट्टलः ।।
पुष्पिका इस प्रकार गुणों से भरित, नट्टल (साहू) नामक भव्य के द्वारा 'मनोज्ञ' कहकर अनुमोदित इस पार्श्वचरित की रचना बुध श्रीधर (नामक) कवि ने की है। ___ मृत सुभटों के सैकड़ों शरीरावयवों से व्याप्त समर भूमि में व्रणों के रक्त से लिप्त अंग-प्रत्यंग वाले राजा रविकीर्ति की प्रशंसा करने वाली चौथी सन्धि हई।
आश्रयदाता के लिये आशीर्वाद विशुद्ध धीर-मति के द्वारा, जिसने देवाधिदेव की आराधना कर, अपने गुणों के द्वारा सत्पुण्य का उपार्जन किया, जिसने अपने बन्धु-बान्धवों को सन्तुष्ट किया, और जिसने सुन्दरतर इस जिन-चैत्यालय का निर्माण कराया तथा जैन-पद्धति से प्रतिष्ठा कराई, वह श्रीमान् साहू नट्टल इस पृथिवीतल पर सदैव जयवन्त बना रहे।
पासणाहचरिउ :: 93