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बे विमणोहर
जय लच्छीहर।। बे वि सबाला
वइरि कराला।। बे वि रवाला
उण्णय भाला।। अमरि सभग्गा
रणमहिं लग्गा।। तो एत्थंतरे
सुहड णिरंतरे।। जउणहो वीरे
संगर धीरे।। भडविमाडेवि
खग्गु भमाडेवि।। विहिय महाहउ
रविकित्ती हउ।। रहिरु विणिग्गउ
जा मुच्छंगउ।। ता किउ कलयलु
बहिरिय णहयलु।। उहय बलेहि मि
विगय बलेहि मि।। वियलिय वेयण
पाविवि चेयण।। पासहो मामैं
मुअणेस णाम।। रणमहि वंते
लहु उठेंते।। खग्गुग्गामेवि
कोहें भामेवि।। जउण णरिंदहो
दलिय करिंदहो।। सुहडु सणामो
कामिणि कामो।। हउ वच्छत्थले
णं कुंभत्थले।। वण तंबेरमु
णयण मणोरमु।। हरिणा हीसें
भिउडि विहीसें।। घत्ता- णट्टलु व जसेणालंकियउ सिरिहरणयणु णरिंद वरिट्ठउ।।
रविकित्ति पसंसिउ सुरवरहिँ सूरत्तण-गुण-लच्छि-गरिद्वउ ।। 80।।
शत्रुजनों के लिये कराल-काल के समान थे। वे दोनों ही रमणीक एवं उन्नत भाल वाले थे। दोनों ही अमर्ष से भग्न और रणरंग में संलग्न थे।
इसी बीच सुभटों से ठसाठस भरे हुए युद्ध-क्षेत्र में यवनराज के साथ संग्राम में अत्यन्त धीर-वीर विभ्रावट नामक सुभट ने खड्ग घुमा-घुमाकर, महान् संहार कर रविकीर्ति को आहत कर दिया, उसके शरीर से खून बहने लगा और वह मूर्छित हो गया। इस कारण नभस्तल में बहिरा कर डालने वाला कुहराम मच गया। दोनों ही सेनाएँ विश्रान्त शक्तिहीन हो गई।
वेदना दूर होने पर चेतनावस्था को प्राप्त कर रणभूमि में ही स्थित कुमार पार्श्व के भुवनेश नाम का मामा तत्काल आगे बढ़ा, खड्ग को उठाया और क्रोधित होकर उसे घुमाकर वह यवनराज के करीन्द्रों का दलन करने लगा। कामिनियों के लिये कामतुल्य अपने ही नामधारी एक सुभट के कुम्भस्थल के समान वक्षस्थल में अपना वह खड्ग उतार दिया। वह ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों भीषण लाल-लाल भ्रकुटि वाले सिंह के नयन-मनोरम वन्यगज के कुम्भस्थल को ही आहत कर दिया हो।
घत्ता– यश से अलंकृत साहू नट्टल के समान तथा श्रीधर जैसे पारखी नेत्र वाले वरिष्ठ कवि ने देवगणों द्वारा
प्रशंसित शूरवीरता तथा गुणलक्ष्मी से गरिष्ठ राजा रविकीर्ति की प्रशंसा का यहाँ वर्णन किया है। (80)
92 :: पासणाहचरिउ