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पइँ मुएवि अण्णु को मइँ समाणु पारंभइ संगरु णरु-समाणु।। पइँ मुएवि अण्णु को महिहिँ जाउ जो छिण्णइ मह धउ-छत्तु चाउ।। पइँ मुएवि ण संदणु कोवि मज्झु संचूरइ रिउ पहरणु अवज्झु।। तुहु वीरलच्छि मंडिय सरीरु
संगाम धरणि धीरविय भीरु।। इय भणेवि विसज्जिउ वाणजालु धग-धग-धगंतु णहयले विसालु ।। तेणाहउ पडियउ धरणिवीढे
गय पक्खु गरुड णं कुरुहगीढे ।। मुच्छा विहलंघलु धुलिय देहु णावइ णायरिणिहउ महेहु।। खणु एक्कु पुणुवि उठ्ठिउ तुरंतु
वाणासण वाणइ संभरंतु ।। घत्ता– रविकित्तिहि साहणे उच्छरिउ णावइ कालेविणि गज्जंतउ।।
पइँ पाडिउ हउँ पावेवि छलु णउ बलेण पुणु-पुणु जंपतउ ।। 77 ||
4/19 - King Ravikirti puts him to death.
दुवइ -- मेल्लेवि सिरिणिवास णरणाहें बेणारायदारुणा।
परपाणावहारणं विसहर रिउ वणसोणियारुणा।। छ।।
ते खंडिय बेण्णिवि बाण जाम
रविकित्तिणरिंदेंचारि ताम।।
"हे श्रीनिवास, पृथिवीतल पर तू ही सच्चा वीर है। तुझे छोड़कर और कौन मेरे समान स्वाभिमानी व्यक्ति है, जो मेरे साथ युद्ध प्रारंभ कर सकता है? तुझे छोड़कर इस पृथिवी पर अन्य कौन सुभट ऐसा उत्पन्न हुआ है, जो मेरी ध्वजा एवं छत्र को काट सके और तुझे छोड़कर इस पृथिवी पर अन्य कोई उत्पन्न नहीं हुआ है, जो प्रहरणों से अबध्य मेरे रथ को चूर-चूर कर सके। तेरा शरीर वीर-लक्ष्मी से मण्डित है, और रण-भूमि में भीरु-सुभटों को धैर्य बँधाने वाला है।
यह कहकर राजा रविकीर्ति ने विशाल नभस्तल में धग-धग करते हुए अपने बाण-जाल को छोड़ा। उनसे आहत होकर वह श्रीनिवास उसी प्रकार समर-भूमि में गिर पड़ा मानों गरुड़राज ही कटे पंख के समान वृक्षसमूह के मध्य गिर गया हो। मूर्छा से विह्वल और घुलित देह वाला वह श्रीनिवास ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों सिंह द्वारा आहत करीन्द्र ही हो। क्षणेक के बाद तत्काल ही वह (श्रीनिवास) उठा और पुनः धनुष बाण सम्हालने लगा। घत्ता- उसने उछलकर रविकीर्ति पर गरजते हुए इस प्रकार शर-सन्धान किया, मानों मेघ-माला ही गरज रही हो
और बार-बार इस प्रकार चिल्लाने लगा-“तूने मुझे अपनी शक्ति से नहीं, बल्कि छल-बल से मारा है।" (77)
4/19 राजा रविकीर्ति श्रीनिवास का वध कर डालता हैद्विपदी— शत्रु राजा श्रीनिवास ने शत्रु के प्राणों का अपहरण करने वाले विष से भरे हुए, अत्यन्त दारुण तथा घावों
से रिसते हुए लाल-रक्त के समान दो बाण अपने शत्रु-राजा रविकीर्ति पर दागेराजा रविकीर्ति ने जब उन दोनों बाणों को खण्डित कर डाला, तब उसने पुनः चार बाण दागे। उन्हें भी
88.: पासणाहचरिब