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णावइ कंसासुर वासुएव णावइ दूसह दाणव सुरिंद णावइ रहुवइ रावण सदप्प णावइ किरीडि रविसुअंसगाव णावइ अणिवारिय देह जीव
णावइ तिहुवणवइ कामएव।। णावइ मयमत्त महाकरिंद।। णावइ छणरोहिणिवइ विडप्प।। णावइ ससरीर सुपुण्ण-पाव।। णावइ दुलंघ मयरहर दीव।।
घत्ता– विरसंतउ दिढ गुणु धणु लएवि सिरिणिवास णामेण णरिंदें।
छाइउ रविकित्तिं सरेहिं लहु णं दिणयर-मंडलु घणविंदें।। 76 ||
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4/18 Enemy-General Sriniwāsa wounds seriously King Ravikīrti.
दुवइ- णिसियाणणु खुरप्पु मेल्लेप्पुणु गुण-गंडीउ छिण्णओ।
मोग्गर गुरु-पहार-परिचूरिउ रहु वच्छयलु भिण्णओ।। छ।। हा-हा रउ घुट्ठउ सुरयणेण
संगाम-रंग-रंजिय मणेण।। हल्लोहलि हूअउ सयलु सेण्णु अवरहि रहि रविकित्ति वि णिसण्णु।। णहरहिँ णिरसंतउ केसपासु
दरदरिसंतउ सवयण सहास ।। जपंतंउ पडिभडु सिरिणिवासु सच्चउ तुहुँ महियलु सिरिणिवासु ।।
दरदास
त्रिभुवनपति जिनेन्द्र एवं कामदेव ही हों, अथवा मानों, दुस्सह-दानव एवं सुरेन्द्र ही हों, अथवा मानों महाशक्ति शाली दो करीन्द्र ही हों, अथवा मानों, रघुपति एवं दीला रावण ही हो, अथवा मानों पूर्णचन्द्र एवं राहु ही हों, अथवा मानों किरीट एवं सूर्य-किरणों का समूह ही हो, अथवा मानों पाप एवं पुण्य ही सशरीरी होकर वहाँ इकट्ठे हो गये हों, अथवा मानों अनिवारित शरीर और जीव ही हों, अथवा मानों दुर्लंघ्य समुद्र एवं द्वीप ही वहाँ उपस्थित हो गये हों।
घत्ता– टंकार करते हुए सुदृढ़ ज्या वाले धनुष को लेकर श्रीनिवास नामक उस शत्रु-राजा ने राजा रविकीर्ति को
बाणों द्वारा तत्काल ही उसी प्रकार आच्छादित कर लिया, जिस प्रकार कि मेघ-समूहों द्वारा सूर्यमण्डल आच्छादित कर लिया जाता है। (76)
4/18 शत्रु-राजा का प्रधान सैन्याधिकारी - श्रीनिवास राजा रविकीर्ति को बुरी तरह घायल कर देता हैद्विपदी—(उस राजा श्रीनिवास ने अपना) – तीक्ष्णमुखी क्षुरप्र-शस्त्र छोड़कर राजा रविकीर्ति के गाण्डीव-धनुष की
डोरी को काट डाला, और मुद्गर के भीषण प्रहार से रथ को तो चूर-चूर कर ही डाला, उसके (रविकीर्ति
के) वक्षस्थल को भी आहत कर दिया। संग्राम के रंग में रंगे हुए मन वाले सुरगणों के द्वारा हा-हाकार मचा दिया गया। समस्त सेना में कोलाहल मच गया। रविकीर्ति ने भी अपना रथ बदलकर दूसरे पर सवार हो गया। नख रूपी कंघी से अपने बालों को सम्हालता हुआ अपने मुख पर कुछ-कुछ मुस्कुराहट की झाँकी देता हुआ अपने प्रतिभट श्रीनिवास को यह कहता हुआ कि
पासणाहचरिउ :: 87