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करि करडयलहिँ मयजलु मेल्लिउ कासुवि भीम महाभट गत्तें इय अवरेहँ सउणहिँ सोहंतउ दस-दिसि-सीमंतिणी मुह-पंकउ जलवारण विणिवारिय रविकरु छुडु आवासिउ सरवर-तीरए हरि-णरवर-रह-संजुत्तउ ताम दिवायरु गउ अत्थवणहँ अह जायए बंधवहो विओयए छुडु अत्थवणहो दिणयरु ढुक्कउ आवय-कालए कोवि सहिज्जउ
हेलए णिहिलु धरायल रेल्लिउ।। हरिसु पदरिसिउ जयसिरिरत्ते।। हरि-खुर-खय-रेणुहिँ रोहंतउ।। जाम जाइ जिणवरु णीसंकउ।। सयरोहामिय करि दीहर यरु।। उच्छलंत वित्थलसण्णीरए।। सामंतहिँ वरमंतिहिँ वृत्तउ।। अहरिसु संजायउ कमलवणहँ।। कासु हरिसु संभवइ तिलोयए।। बालहु णियकिरणेहिँ विमुक्कउ।। कम्मु मुएवि ण होइ दुइज्जउ ।।
घत्ता- अत्थइरि-सिहरि वि रत्तु पवट्टलु तम-विलउ।
संझए अवरदिसि वयंसियहो णं सिंदूरे कउ तिलउ।। 56 ।।
3/18 The charming description of the evening (continues) पहर-विहुर-परिपीडिय-विग्गहु
दूरज्झिय-खर-किरण-परिग्गहु।। वुडढउ रवि अवरण्णव-णीरए
णं वण धोवणत्थु गंभीरए।। धरातल को लीला ही लीला में रेल (तरकर) डाला था। जयश्री में अनुरक्त किसी भीम (पराक्रमी) महाभट ने भी अपनी शारीरिक प्रक्रिया से शुभ-सूचक हर्ष का प्रदर्शन किया।
इसीप्रकार अन्य अनेक शुभ-शकुनों से सुहाते (सुशोभित) पार्श्व तीव्रगामी तुरंगों के खुरों से उठी हुई धूलि से लिप्त दसों-दिशाओं की प्रतीक्षा रत सीमन्तनियों के मुख-कमलों के बीच से होकर निःशंक भाव से जा रहे थे। छत्र द्वारा रविकिरणों का निवारण करने वाले तथा अपनी लम्बी भुजाओं से हाथियों के सुदीर्घ शुण्डादण्डों को रोकते हुए हाथियों, घोड़ों एवं रथी-सामन्तों एवं मन्त्रियों के कहने से, उछलती हुई तरंगों से व्याप्त विस्तृत जल वाले एक सरोवर के तीर
| पड़ाव डाला, उस समय सूर्य के अस्ताचल की ओर गमन करने से कमल-वन सन्तप्त हो रहा था (अर्थात् कमल-मुख बन्द हो रहे थे)। ठीक ही कहा गया है कि जब बन्धु-बान्धवों का वियोग होता है, तब तीनों लोकों में किसको हर्ष हो सकता है? शीघ्र ही दिनकर अस्ताचल पर पहुँच गया और अपनी किरणों से विमुक्त हो गया। ठीक ही कहा गया है कि आपत्तिकाल में अपना कर्म छोड़कर अन्य दूसरा कोई भी सहायक नहीं हो सकता।
घत्ता- अस्ताचल के शिखर पर लाली फैल गई और उसी समय तम विलीन हो गया। ऐसा प्रतीत हो रहा था,
मानों पश्चिम दिशा रूपी सखी के शिखर रूपी भाल पर सन्ध्या ने रक्ताभ-तिलक ही कर दिया हो। (56)
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-- - 3/18 सन्ध्या-वर्णन (जारी)
प्रहार और वियोग से परिपीडित शरीर वाला तथा तीक्ष्ण-किरणों के परिग्रह (समूह) को दूर से ही छोड़ देने वाला सूर्य पश्चिम-समुद्र में जाकर डूबने लगा। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों वह उस गंभीर-समुद्र में अपने व्रण (घाव) धोने के लिये ही उसमें उतर रहा हो।
पासणाहचरिउ :: 63