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1/12 Introduction of Emperor Hayasena of Vāņārasī, the main capital of Kāšī-country.
हयसेणु वसइ तहिँ णरवरिंदु णिद्दारिय दुग्णय-गय-हरिंदु।। जो जाणिय सयल कला-कलाउ विरयाविय वइरीयण-पलाउ।। जलभरिय बहुल वारिहर-राउ
मुह-परिमल-हय-पयरुह-पराउ।। जं णिएवि मयणसर-सलिलयाउ सुरसीमंतिणिउ णवल्लियाउ।। णियमणि चिंतहिँ कि जोवणेण अम्हहँ कुल-णह-ससिणा अणेण।। जं णउ माणिज्जइ सुंदरेण
कररुह-मुह-बिवरिय कंदरेण।। जेणासि-घाय तासिय करिंद
चरणारविदि णाविय णरिंद।। दासीव करेवि माणिय चलच्छि चउविह-विसाल-भूवाल-लच्छिं।। धण-धार-धरिय वंदियण विंद
हरिसिय विरिचि-पसुवइ-उविंद।। जसु भमइ कित्ति धवलंति लोउ बंधव णियंति ण कयावि सोउ।। गुणगण गणंति गुणियण गरिट्ठ णीसेस सत्थ-विवरण-वरिट्ठ।। दूरोसरंति सहसत्ति पाव
बह जंपण-जण संविहिय गाव।।
पत्ता- तहो अत्थि सुमणहर उग्णय-थणहर वम्मएवि णामेण पिया।। जा सुहय-सुलोयण सुह-संजोयण रइसुहेण अणवरिउ पिया।। 12 ||
____1/12 काशी देश की राजधानी वाणारसी के सम्राट हयसेन का परिचय उस वाणारसी-नगरी में हयसेन (-अश्वसेन) नामका एक राजा निवास करता था, जो दुर्नय रूपी गज के विदारण के लिए हरीन्द्र के समान था। जो समस्त कला-कलापों का जानकार था. जो बैरीजनों को पलायन करा देने वाला था, जो बहुल जल से भरे हुए मेघ के समान गर्जन करने वाला, मुख की परिमल से कमल-पराग को जीतने वाला, जिसको देखकर नई-नवेली सुरवधुएँ भी मदन-वाणों से विद्ध हो जाती थीं और अपने मन में विचारने लगती थीं कि हमारे इस (छलछलाते-) यौवन से क्या लाभ? यदि कामदेव के समान सुन्दर एवं अपने कुल रूपी आकाश के लिए चन्द्रमा के समान उस (हयसेन) के हाथों के नखों से क्षत-विक्षत-कपोल होकर हम लोग उसके द्वारा न मनाई जायें।
जिसने असि-घातों से शत्रुओं के करीन्द्रों को त्रस्त कर शत्र-नरेन्द्रों को अपने चरणारविन्द में झुका लिया था, जिस प्रकार चपल-नेत्रों एवं मानिनी युवती (रसिक युवक के) वश में हो जाती है, उसी प्रकार उस राजा हयसेन ने राजाओं की विशाल चतुर्विध चपल-लक्ष्मी को भी अपनी दासी बना लिया था।
जिसने धन की धारा से वन्दीजनों को तृप्त कर दिया था तथा जिसने विरंचि (ब्रह्मा), पशुपति (शिव) और उपेन्द्र (विष्णु) को भी हर्षित कर लिया था (अर्थात् उस राजा हयसेन पर सभी देवता-गण प्रसन्न थे)।
जिसकी कीर्ति तीनों लोकों को धवलित करती हुई घूमती रहती थी, जिसके बन्धु-बान्धव कभी भी शोकाकुल नहीं होते थे। समस्त शास्त्र-विवरण में वरिष्ठ एवं गरिष्ठ उस राजा हयसेन के गुण-समूह को गुणीजन भी गिनने का प्रयत्न करते थे। पापीजन, बहुजल्पी एवं अहंकारी-जन जिससे सहसा ही दूर भाग खड़े होते थे। घत्ता- उसकी अत्यन्त सुन्दर, उन्नत स्तनों वाली वामादेवी नामकी प्रिया थी, जो सुभगा एवं सुलोचना थी और
रतिसख से अपने प्रियतम के लिये अनवरत सुख का संयोजन करने वाली थी। (12)
14 :: पासणाहचरिउ