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जिणण्हवणारंभणिमित्तु जाम किवि कीर मोर मयरोहरेहि किवि करह कुरंग तुरंगमेहि सिहि जम णेरिय मयरहरणाह
चल्लिय सुरसप्परिवार ताम ।। किवि मेस - महिस वायस विसेहि।। किवि रिच्छ-तरच्छु मयंगमेहि । । मारुव कुबेर पसुवइ सणाह । ।
घत्ता - जिणपयइँ सरंतु गयणि सरंतु सयल सुरासुरविंदु |
दस दिसि पसरंतु तिमिरु हरंतु अइ सोहइ सरिदिंदु || 24 ||
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Arrival of Indra with Gods (Suras) and Goddesses (Devangnas) at Vānārasi.
कत्थइँ मरुहय धयवइ चलति कत्थइँ रसणा किंकिणि रसंति कत्थइँ करिवरु पज्झरइ दाणु कत्थइँ घण नोरत्थण भरेण णवियउ णावइ जिणभत्तियाए कत्थइँ गायइँ सुरसुंदरीउ कत्थइँ कुणंति बाहू रविल्लु
कत्थइँ ससि-रवि-मणि पज्जलंति ।। कत्थइँ तिक्खणखुरहर तसंति ।। कत्थइँ थिउ ण चलइ सुर - विमाणु ।। सोहइ सुरणारीयणु भरेण । । कय फणि णर-सुर संपत्तियाए । । मणहारिगीउ खामोयरीउ ।। अवरोप्परु सुरसइ रण - रसिल्लु ।।
इस प्रकार उस हाथी को देखकर निर्मल स्वभाववाला सौधर्मराज झट से उस पर चढ़ गया। जिनेन्द्र के अभिषेक के आरम्भ के निमित्त से जब वह इन्द्र चला, तभी आगत वह देव परिवार भी चल पड़ा। कोई देव तोता, मोर, मगर, मच्छ पर चढ़े, कोई मेष, महिष, वायस (काक), हंस पर चढ़े, कोई ऊँट, मृग, घोड़ा पर चढ़े ओर कोई रीछ, भालू,, व्याघ्र, हाथी पर चढ़ कर चले। साथ ही अग्निनाथ (आग्नेय दिशा के स्वामी) यमनाथ (दक्षिण दिशा के स्वामी), नैऋत्यनाथ (नैऋत्यदिशा का स्वामी) तथा मकराकरनाथ (समुद्र का स्वामी - वरुण), मारुत (वायव्य दिशा का स्वामी), कुबेर (उत्तरदिशा का स्वामी), पशुपतिनाथ (ईशान दिशा का स्वामी) और इन्द्र (पूर्व दिशा का स्वामी) उनके साथ-साथ चले
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घत्ता - जिन चरणों का स्मरण करते हुए आकाश में सभी सुर एवं असुर-समूह दशों दिशाओं में फैल कर ठीक उसी प्रकार चलने लगे, जिस प्रकार शरद ऋतु का चन्द्रमा दशों दिशाओं में फैलकर अन्धकार का हरण करता हुआ चलता है । (24)
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इन्द्र का देवों तथा देवियों के साथ वाणारसी में आगमन
कहीं वायु द्वारा आहत ध्वजा वाले (देव) चल रहे थे, तो कहीं प्रज्वलित चन्द्रकान्त एवं सूर्यकान्तमणि की आभा वाले देवगण चल रहे थे। कहीं रसना (कटिसूत्रों की किंकिणी (क्षुद्रघंटिका) शब्द कर रही थी, तो कहीं तीक्ष्ण खुर वाले घोड़े दौड़ रहे थे। कहीं हाथियों का मद झर रहा था, तो कहीं देव - विमान स्थिर (खड़े ) थे। वे चल नहीं रहे थे। कहीं घन-स्थूल स्तनभार से देव- नारियाँ सुशोभित हो रही थीं और जिनभक्तिपूर्वक नमस्कार कर-करा रही थीं। फणि (धरणेन्द्र) नर और सुर वहाँ पहुँचकर शिशु जिनेन्द्र को नमस्कार कर रहे थे। कहीं तो सुर-सुन्दरियाँ गीत गा
पासणाहचरिउ :: 29