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कुंडलइँ वित्थूढइँ मणिगणेहिँ दिप्पंत दिट्ठइँ सुरयणेहि। जो जगसेहरो तहो सेहरेण
किं उत्तमंग पविहिय भरेण।। छणससिमंडल दल सरिस भालि जगतिलयहो तिलओ विहिउ विसालि।। जइविहु जडभवमोत्तियहँ हारु णिद्गुरु वि पविद्धवि विहिय भारु।। तो वि गुणसंगें परमेसरासु कीलइ वच्छत्थले हय सरासु।। मणिमयकंकण खणखण रवेण वज्जरइँ णाइँ अम्हइँ जवेण।। मेल्लेवइ सयमह-सामिएण
जंतहिँ दिवसहि सिवगामिएण।। तुह (मुह) कमलइँ पिक्खिवि खणेण रुणझण झंकारंतिय रणेण।। के देव ण कलहंसइ मुअंति
कलरव कलहंसइँ णं लवंति।। घत्ता— कडियल कडिसुत्तु चवइव जुत्तु किंकिणि रवेण मणोज्जु ।।
जइ एहु णियंबु सीह सिलिंबु ता ण सहइ कय वोज्जु ।। 29 ।।
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2/9 The name of the infant was pronounced as PĀSA [-Pārswa] by the
Gods (Suras) in a well disciplined gathering. जेण वारिणा जिणिंदु
ण्हविउ णायामरिंदु।। तं तुरं करे करेवि
वंदिऊण के धरेवि।। (फिर उसने) मणिगणों से दीप्त कुण्डल पहिनाए, जिन की आभा को सुरगणों ने स्वयं देखा। जगत् के शेखर रूप जिनेन्द्र को ऐसे शेखर (मकट) से क्या, जो कि उत्तमांग (शिर) को बोझिल बनाते हों। (फिर भी. इन्द्र ने उन्हें मुकुट पहिनाया)। पूनः पूर्णमण्डल के अर्ध सदश तथा विशाल जगत के तिलक स्वरूप उन जिनेन्द्र के भाल पर (उसने) तिलक लगाया। यद्यपि निष्ठुर, बेधा हुआ, भार को करने वाला, मोतियों का हार जड़ था, तो भी गुण (दया
आदि तथा सूत्र) के संसर्ग से, काम के नाशक जिनेन्द्र के वक्षस्थल पर वह (हार) क्रीड़ाएँ कर रहा था। मणिमय कंकण खण-खण शब्दों से ध्वनि कर रहे थे, ऐसा प्रतीत होता था मानों वे (कंकण) कह रहे हों कि हे इन्द्र, हमें इस शिवगामी स्वामी से छुटकारा दिला दो। तुम्हारे मुख कमल को देखकर क्षणभर में शब्द ही मानों वहाँ आकर रुण-झुण-झंकार करने लगे थे। कई देव ऐसे थे, जो कलहंसों (पाद-कटकों) को नहीं छोड़ते थे। ऐसा प्रतीत होता था मानों कलहंस ही वहाँ आकर मधुर-ध्वनि कर रहे हों। घत्ता- उस (इन्द्र) ने किंकिणी (घुघरु) के शब्दों से मनोज्ञ कटिसूत्र को कटितल में पहिनाया, जो कि बहुत ही
सुन्दर लग रहा था। वह ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों कह रहा हो कि यदि उस (बालक) की कमर सिंह के समान कश होती, तब वह उस कटिसत्र के वजन को कैसे सह पाता? (29)
2/9 देवों द्वारा उत्सव का आयोजन तथा शिशु-जिनेन्द्र का
नामकरण कर उसका नाम पार्व घोषित किया गयाजिस जल से नागादि अमरेन्द्रों ने जिनेन्द्र को स्नान कराया था, उस जल (गन्धोदक) को तुरन्त ही सभी ने अपने हाथों में लेकर मस्तक पर रखकर उसकी वन्दना की। खेचर-समूह, उरग एवं अमर-समूह, चामर-समूह को दुराने
34 :: पासणाहचरिउ