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जय विक्खयरय धरणिरुह जलण जय णरय-तिरिय-सुरभुवण कहण जय विणय पणय भविय जण सरण जय सुहियण मुह णलिणवण तवण जय सयणु पवरकर पयरभरह जय अमरिस महिहर दलण कुलिस
जय विसरिस मय मयरहर महण।। जय णिरुवम मह गण-रयण सरण।। जय जय रस धवलिय भूअण भवण।।
..............................| जय णिहिय समय परसमय सरह।। जय समिय सयल कलिलमल कलुस।।
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घत्ता- इय थुइ विरएवि सारकुल एवि णट्टारंभु करेवि।।
पुणु-पुणु पणवेवि विणउ चवेवि सिरि-सिहरकर धरेवि।। 31।।
2/11 After the bathing and naming ceremonies the Lord Indra returns back with the
infant from the mount Sumeru and hand over the same to his mother. तिपयाहिण देविणु लइवि देउ परिपुण्णु करिवि पवराहिसेउ।। रयणमयदंड (च) लचामरेहिँ
उच्छलंत विविहामरेहि। कीलंतय कुज्जय-वामणेहिँ
पच्चंतहिँ पवरच्छरगणेहिाँ। वज्जंतेहिँ झल्लरि मद्दलेहि किण्णर-तिय गाइय मंगलेहि। मणिमयवंसग्गणि बदएहिं
पवणाहय चलिरमहद्धएहि
चरणवाले हे देव, आपकी जय हो। चिरकाल के बंधे कर्मरजरूपी वृक्षों के लिये अग्नि समान हे देव, आपकी जय हो। विसदृश (तीव्र), मद (मिथ्यात्व) रूपी समुद्र का मन्थन करने वाले हे देव, आपकी जय हो। नरक, तिर्यंच, स्वर्ग एवं भुवन का कथन करने वाले हे देव, आपकी जय हो। निरुपम महागुण (सम्यक्त्व)-रत्न की शरण बताने वाले हे देव, आपकी जय हो। विनयपूर्वक प्रणाम करते हुए भव्यजनों के लिये शरण रूप (रक्षक) हे देव, आपकी जय हो। अपने यशरूप रस (चूना) के द्वारा भुवनलोक को धवलित करने वाले हे देव, आपकी जय हो। सुखी जनों के मुखरूप कमलवनों के लिये सूर्य के समान हे देव, आपकी जय हो। ....स्व-समय (मत) से पर-समयों (मिथ्यामतों) को निहत (नष्ट) करने वाले तथा शरभ (अष्टापद सिंह) के समान हे देव, आपकी जय हो। स्वजनों के प्रवर करसमूहों के लिये भरत के समान हे देव, आपकी जय हो। क्रोधरूप पर्वत को दलने के लिये वज्र-समान हे देव, आपकी जय हो। सम्पूर्ण पाप-समूह की मल-कलुषता को नष्ट करने वाले हे देव, आपकी जय हो। घत्ता- इस प्रकार स्तुति करके इन्द्र ने सुखपूर्वक नृत्य आरम्भ किया। उसने (जिनेन्द्र को) पुनः पुनः प्रणाम कर,
विनय से स्तुति कर, अपने शिर रूपी पर्वत शिखर पर हाथ रखे। (31)
2/11 सुमेरु-पर्वत से वापिस लौटकर इन्द्र ने जिनेन्द्र-शिशु को उसकी माता को सौंपा
उस इन्द्र ने तीन प्रदक्षिणाएँ देकर अभिषेक को परिपूर्ण किया और देवों को लेकर चला। मार्ग में विविध देवों द्वारा रत्नमय दण्ड तथा चंचल चमर उछाले-ढुराये जा रहे थे। मार्ग में कुब्जक एवं वामन देव क्रीड़ाएँ कर रहे थे। प्रवर अप्सरागण नाच रहीं थी। झालर, मंजीरा आदि वाद्य बज रहे थे। किन्नर-देवियाँ मंगल गीत गा रही थीं। मणिमय वंश (बाँस) के अग्र में पवन से आहत चंचल महाध्वजाएँ फहरा रहीं थीं। पटुतर पाठकजन उच्च स्वर से
36 :: पासणाहचरिउ