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King Hayasen lost his temperament after listening to the messanger.
तारिसु वयणु सुविणु दूअहो घयसित्तर जलणु व पज्जलियउ सहरिस करि सपरियणु समायउ वारिहरु व रविकित्ति साहणु तं आणिवि वड्ढिय मच्छरु वाणासि पुरि णाहु विरुद्धउ जंपइ गग्गर- गिरु फुरियाहरु को सो जउण णराहिउ वुच्चइ महु पिययम-भायरहँ समाणउ सो वियलिय मइ मूढ अयाणउ किं सो ण वियाणइ सपरंतरु किं सो मारिउ मरइ ण संगरे
संगर-सहिउ गलिय तणुरूअहो ।। जणु राहिउ रणमहे चलियउ ।। णं पच्चक्खु कयं तुद्धायउ ।। उत्थरियउ वट्टइ सुपसाहणु ।। दूसहु णं खयकाल सणिच्छरु ।। जयसिरि रामालिंगण - लुद्धउ ।। पर पर वर महिमा महिमाहरु ।। सु रविकित्तिहि रज्जु ण रुच्चइ ।। जो विरयइ संगामु समाणउ ।। णिच्छउ जमउरि देइ पयाणउ ।।
विरह संगामु निरंतरु ।। जुज्जइ पडिभड संगरे । ।
घत्ता- तओ मग्गंतहो रविकित्ति-सुअ णयणोहामिय बालमय ।
वज्जाणल-हय गिरिकडिणि जह कह ण जीह सय खंडु गय ।। 46 ||
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दूत का कथन सुनकर हयसेन आगबबूला हो जाते हैं
युद्ध
क्षेत्र में युद्ध करते-करते अपने शरीर को गला देने वाले वचोहर - दूत द्वारा रविकीर्ति के जले कटे वचन सुनकर यवनराज घृत- सिक्त अग्नि के समान तीव्र क्रोधानल में जलने लगा और उस (यवनराज) की सेना ने तत्काल ही युद्ध भूमि की ओर कूच कर दिया।
वह जउनराजा स्वयं भी हर्ष पूर्वक अपने परिजनों सहित हाथी पर सवार होकर युद्ध भूमि में इस प्रकार आ गया, मानों प्रत्यक्ष रूप में कृतान्त ( यम राज ) ही दौड़ कर आ गया हो ।
और इधर, मेघ के समान रविकीर्ति भी विस्तृत प्रसाधनों से युक्त होकर युद्धभूमि में आ डटा ।
राजा रविकीर्ति के वचोहर - दूत के द्वारा दुष्ट यवनराज का समस्त वृतान्त सुनकर वाणारसी नगरी के राजा हयसेन भी जयश्री के समालिंगन के लोभ के कारण क्षयकाल के लिये शनिश्चर के समान बिगड़ कर उसके विरुद्ध हो गये। और फड़कते अधरवाले, पराक्रमी शत्रु-राजाओं की महिमा को हरने वाले, उन्होंने ललकारते हुए कहा— कौन है वह यवनराज, जिसे रविकीर्ति का राज्य नहीं रुच रहा है और जो मेरी प्रिया के भाई (साले) के साथ अहंकार से भरकर संग्राम करने चला है। वह जउनराजा मतिभृष्ट, मूढ एवं अज्ञानी है और निश्चय ही वह यमपुरी की ओर प्रयाण करने जा रहा है। क्या यह स्व-पर के अंतर को नहीं जानता? जो निरन्तर ही संग्राम करता रहता है। क्या वह युद्ध में मारे जाने पर भी मरेगा नहीं? जो प्रतिपक्षी सुभटों के द्वारा प्रतिज्ञा किये युद्ध में जूझने जा रहा है।
पत्ता- अपने नयनामृत से बालमृग के नेत्रों को भी परास्त कर देने वाली रविकीर्ति की पुत्री को माँगते समय उस यवनराज की जिह्वा बज्राग्नि से नष्ट-भ्रष्ट पर्वत की कटिनी की भाँति शत-खण्डों में विदीर्ण क्यों न हो गई? (46)
पासणाहचरिउ :: 53