________________
3/6 King Ravikirti becomes furious. He himself vows to self-immolation by
entering into the burning fire if defeated by Yavanrāja. खरं भासियं तं समायण्णिऊणं णियत्थाण मज्झे मणे धारिऊणं।। तओ सोवि रुट्ठो गुणोहो णहुत्तो महासुद्धधी सक्कवम्मस्स पुत्तो।। पयंपेइ रोसारुणच्छी करालो धुणंतो स सीसं सभूभंगमालो।। अरे रे दुरायार मोहंध धिट्ठा
धरावालणायावहीणा णिकिट्ठा।। जई जोइ जो महुज्ज-मत्तो णिरासा पयंपेइ भो रिसीसो विभासा।। तुमं किं महीलच्छि वाएण मग्गे कयाणेय दुक्खोह वा भूउ लग्गे।। ण याणासि जेणावणीणाह-मग्गं महामंति बुद्धीहिँ दिटुं समग्गं ।। पए जंपियं जं पूरो मे असद्ध
सयाचारचूडामणीणं विरुद्ध ।। ण मे जुज्जए बोल्लिउं तं खलाणं पर मण्णणिज्जं मणे णिप्फलाणं।। फरंतासिणा संगरं पाविऊणं
तईय सिरं णेब्भरं छेइऊणं।। रसंतोरुचक्का-रहा दारिऊणं
भडा-उब्भडा-लंपडा मारिऊणं ।। तुरंगाण थट्टाइँ लोट्टालिऊणं
महाहत्थि कुंभत्थलं कीलिऊणं ।। घत्ता- जइ परए ण मारिवि सयलु बलु करमि तित्ति रक्खस्स कुलहो।। तुह तणउं सेव विसमि फुडउ तां जलणहो जालाउलहो ।। 45।।
3/6 राजा रविकीर्ति का आक्रोश | वह यवनराज से पराजित होने पर
अग्निप्रवेश की प्रतिज्ञा कर लेता हैअपनी ही राज्यसभा में यवनराज के वचोहर-दूत के मुख से कर्कश भाषा वाले कटु सन्देश को सुनकर तथा उसे अपने मन में धारण कर क्रोध से लाल-विकराल नेत्र किये हुए उस गुण-समुद्र, विशुद्ध मतिवाले शक्रवर्मा के पुत्र राजा रविकीर्ति ने भृकुटियों को फैलाकर अपना माथा धुनते हुए उसे ललकार कर कहा- अरे-अरे रे, दुराचारी, मोहान्ध, धृष्ट, टुकड़खोर, न्यायनीति-राजनीति विहीन, निकृष्ट, यदि महत्वाकांक्षाओं के कारण मदोन्मत्त हो गया हो, तो तुझे मुझसे निराशा ही हाथ लगेगी। रे म्लेच्छ, कोई पागल भी तुझ जैसी नीच भाषा नहीं बोल सकता। क्या तू पृथिवी-लक्ष्मी के वात से उन्मत्त हो गया है, अथवा क्या तुझे यमराज के द्वारा प्रदत्त घोर दुखों का भूत-पिशाच लग गया है? __ इसी कारण विवेकशील महामन्त्रियों द्वारा दिखाये गये अवनिपतियों के प्रशस्त-मार्ग तू नहीं जानता। (उससे तू भटक गया है) और इसीलिये सदाचार के चूडामणि के रूप में प्रसिद्ध मुझ जैसे राजा के सम्मुख ऐसे अशुद्धअपशब्दों का तू प्रयोग कर रहा है?
तुझ जैसे नीच खलजनों के सम्मुख मेरा कुछ भी बोलना निष्फल ही होगा। वह मेरे लिये उपयुक्त नहीं (फिर भी), मैं ऐसा योग्य समझता हूँ कि उसे समर भूमि में पाकर स्फुरायमान खड्ग से उसके सिर का पूर्णतया छेदन कर, दौड़ते हुए उसके रथों के चक्कों को चूर-चूर कर, उद्भट, किन्तु लम्पट-भटों को मारकर, तुरंग-समूहों को धूलिसात् कर महान् हाथियों के कुम्भस्थलों को कीलित करघत्ता— तथा शत्रु को मारकर यदि उसकी समस्त सेना से राक्षस-कुल को तृप्त न कर दूं तो हे मेरे शत्रु के सेवक
(वचोहर), तेरे सम्मुख मैं साक्षात् ही प्रचण्ड-अग्नि में प्रवेश कर अपने को भस्म कर डालूँगा। (45)
52 :: पासणाहचरिउ