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किहिं कहिं भणंति महु तणउ कंतु तणु-ताव-हरणु सिसिरयर कंतु ।। सो एहु मण्णमि णित्तुलउ णण्णु णयणारविंद परिणिहिय कण्णु।। घत्ता- जय-जय जिणणाहँ णाणसणाहँ खयरामर णरणाहँ ।
गुणमणि सरिणाहँ हयरइणाहँ भुअण कमल दिणणाहँ ।। 22 ||
2/2 Indra (the supreme Head of the Heaven) gets information himself by his self-knowledge
(Awadhi Jñāna) regarding the auspicious birth of the baby (-Hero).
कंपिय सिंहासण सुरवराहँ
जिण जम्मुच्छवि थुअ जिणवराहँ।। टणटणिय घंट कप्पामराहँ
उत्तसिय सीह जोइस सुराहँ।। पडुपडह पवज्जिय विंतराहँ
अइरसिय संख भावण सुराहँ।। तेलोक्कुवि परिसंखुहिउ जाम सुरवइणा णाणे मुणिउ ताम।। महियलि उप्पण्णउ अरुहणाह। करुणा वर-वल्लरि वारिबाहु।। मेल्लिवि सिंहासणु भत्तियाए
पाविय जिणगुण संपत्तियाए।। जिणदिस-सम्मुहुँ होइवि दवट्टि मिच्छत्त छेत्त महमइयवद्रि।। गंतूण सत्त चरणई रएण
पणविउ सुरिंदु सिवसुह कएण। रूप में यश रूपी जगत के मण्डप में आकाश-मार्ग से आया हो। (और अधिक-) क्या कहें? मेरे सुन्दर पुत्र के लिए लोग कहते हैं कि वह शरीर रूपी ताप के हरण करने के लिए चन्द्रमा रूपी पति है। अतः मैं ऐसा मानता हूँ कि वह अनुपम है, उसके समान अन्य कोई नहीं है तथा वह नयन रूपी कमल पर कर्ण को रखे हुए हैं (अर्थात् नेत्र की लम्बाई कानों तक है)। घत्ता- हे जिननाथ, ज्ञान के धनी, खेचर, अमर एवं नरों के नाथ, गुणरूपी रत्नों के सागर, कामदेव के नाशक
एवं भुवन रूपी कमल के लिए हे दिवसनाथ (सूर्य), आपकी जय हो, जय हो। (22)
2/2 __इन्द्र को पार्व के जन्म-कल्याणक की सूचनापार्श्व-जिनेन्द्र के जन्मोत्सव के समय जिनवरों की स्तुति करने वाले देवेन्द्रों के सिंहासन कम्पायमान हो उठे। कल्पवासी देवों के यहाँ भी घण्टे टनटनाने (ध्वनि करने) लगे अर्थात् अपने आप घण्टानाद होने लगा। ज्योतिषी देवों के यहाँ भी सिंह-गर्जना होने लगी। व्यन्तर देवों के यहाँ पटु-पटह (बड़े-बड़े नगाड़े) बजने लगे अर्थात् स्वयमेव पटहनाद होने लगा। भवनवासी देवों के यहाँ शंख अत्यधिक शब्द करने लगे (स्वयं शंखनाद होने लगा)। __ इस प्रकार जब समस्त त्रिलोक क्षोभ को प्राप्त हो गया, तब इन्द्र को अपने ज्ञान के द्वारा ज्ञात हुआ कि महीतल में करुणा रूपी बड़ी लता के लिए मेघसमान अर्हन्नाथ उत्पन्न हुए हैं। उसने भक्ति पूर्वक अपना आसन छोड़ कर जिनेन्द्र गुणों की सम्पत्ति (जन्म से हर्ष) प्राप्तकर, जिनेन्द्र की दिशा (वाणारसी) की ओर मुख करके दूर से ही मिथ्यात्व रूपी क्षेत्र में महान् वाट (राह) बना कर उस वाट में वेग पूर्वक सात चरण (पेंड) चलकर शिव-सुख के कर्ता जिनेन्द्र को प्रणाम किया।
तत्पश्चात् उस सुरपति ने सिंहासन पर बैठकर भव्यजनों के मन को इष्ट लगने वाले वचन इस प्रकार कहे
पासणाहचरिउ :: 27