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णं णरयकूव झंपण पिहाणु णं अंकुरु घम्मु महीरुहासु णं पुरिसायान पुण्णं पुंजु इंदाणिए दिज्जंतउ रएण ईसाण-सग्ग-तियसाहिवेण साणक्कुमार माहिंद्रणाह
णं णाण-किरण-भूसियउ भाणु।। णं किरण-णिहाउ सुहारुहासु।। णं तिलउ तिविह जयसिरिहिं मंजु ।। इंदेण पडिच्छिउ णिम्मएण।। उद्धरिउ घम्मवारणु जवेणु।। विरयहिं चंचलयर चमरराह।।
घत्ता- पुणु-पुणु वि सुरेसु णिरुवम वेसु जिणमुह-कमलु णियंतु।।
चिंतइ णिय-चित्ते पुण्ण-पवित्ते दंसण अमिउ पियंतु ।। 26 ।।
2/6 Indra brings out and takes away the celebrated infant to the mount SUMERU.
सकियत्थु जम्मु महु अज्जु जाउ जिणजम्मुच्छव विरयण-णिमित्तु अइरावउ संचोइउ पएण परमेट्ठि ठवेप्पिणु पुरउवोमे सुरवइणा सच्छरसामरेण
जं सप्परिवारउ एत्थु आउ।। इय जंपिवि रयणाहरणदित्तु ।। णाणामरगण जय-जय रवेण।। छण ससिहर किरण कलाव सोमे।। गच्छंतें सपरियरामरेण।।
रत्नों का वह पिटारा ही हो, मानों, वह नरक-कूप को ढाँकने के लिये ढक्कन ही हो, मानों, ज्ञान-रूपी किरणों से भूषित वह सूर्य ही हो, मानों, धर्मरूपी पृथ्वी के वृक्षों का अंकुर ही हो। मानों, देवों के हार की किरण ही हो, अथवा मानों, वह बालक पुरुष के आकार में एक पुण्यपुंज ही हो, अथवा मानों, तीन प्रकार की जयश्री से किया हुआ वह सुन्दर तिलक ही हो।
ऐसे बालक को इन्द्राणी ने वेग पूर्वक इन्द्र को दे दिया। इन्द्र ने भी मदरहित होकर उसे स्वीकार किया। ईशानस्वर्ग के इन्द्र ने उस पर जल्दी से धूप से रक्षा करने के लिये छत्र उठाकर लगाया, सानत्कुमार एवं और माहेन्द्रनाथ (बालक पार्श्व पर) चंचलतर चमर ढोरने लगे।
घत्ता- उस अनुपम वेश वाले सुरेश (इन्द्र) ने जिनमुख को देखते हुए, पुण्य से पवित्र दर्शन रूपी अमृत को पीते
हुए, अपने चित्त में इस प्रकार विचार किया— (26)
2/6 वह देवेन्द्र जिनेन्द्र-शिशु को सुमेरु-पर्वत पर ले जाता हैरत्नाभरणों से दीप्त इन्द्र ने कहा कि—“आज मैं सपरिवार यहाँ जिनेन्द्र के जन्मोत्सव के आयोजन के निमित्त आया हैं। इस कारण मेरा जन्म कतार्थ हो गया है। तत्पश्चात उसने अपने पदों से ऐरावत हाथी को चलने की प्रेरणा की। उस समय नाना देवगण जय-जय शब्द कर रहे थे। इन्द्र ने पूर्णचन्द्र की किरण-समूह से सौम्य आकाश की पूर्व-दिशा के सम्मुख परमेष्ठी का स्थापन किया।
वह सुरपति, अप्सरा और अन्य देवों तथा अन्य परिकर-देवों सहित सुमेरु-पर्वत की ओर चला जा रहा था।
पासणाहचरिउ :: 31