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1/11 Writing of Pāsanaha's story begins. Description of Kasi-Desa (Country).
आयण्णहो णिरु थिरु मणु धरेवि जण-कय-कोलाहलु परिहरेवि।। इह जंबूदीवए सुहणिवासि
सुरसेलहो दाहिणि भरहवासि ।। णिवसइ कासी णामेण देसु
सक्कइ ण जास् गुण-गणण सेसु।। जहिँ धवलंगउ गाविउ चरंति
मिल्लिवि णव-तण धण्णइँ चरंति।। पेक्खिवि सुरसत्थु सरइँ विसाल खीरंभोणिहि कल्लोल माल।। जहिँ सहइ पक्क-गंधड्ढ-सालि
साहार पवर-मंजरि विसालि।। जहँ पीडिज्जहिँ पुंडेच्छु-दंड
भुअबल-वलवंडई करेवि खंड।। तरुणियणाहर इव रस-कएण
विरइय थिरलोयण जणवएण।। जहिँ सरि णलिणी-दलि हंस भाइ णीलमणि-पंति ठिउ संख णाइ।। कट्टणिव सहहिँ जहिं सरि बहुत्त कुडिलगइ सरस-रयणणिहि-रत्त।। उत्तुंग-सिहर जहिँ जिणहराइँ
णावइ धर-णारिहिथणहराइँ।। दाणोल्लियकर वणकरि व जेत्थु णायर-णर किं वण्णियइँ तेत्थु।। घत्ता- तहिँ तिहुअण सारी जणहु पियारी णयरी वाणारसि वसइ। बहयणहिं पसंसिय परहि अफंसिय जणमणहारिणि णाइँ सइ।। 11||
1/11 पार्वचरित-काव्य-लेखन प्रारम्भ : काशी देश-वर्णन(कवि कहता है—) “हे साहू नट्टल, अब अपने मन को सर्वथा स्थिर करके तथा लोगों के कोलाहल से दूर रहकर प्रस्तुत काव्य को सुनो। ___इसी जम्बूद्वीप में सुमेरु-पर्वत की दक्षिण-दिशा में सुखों के निवास-स्थल – भारतवर्ष में काशी नामका एक देश है, जिसके गुणों की गणना शेषनाग भी नहीं कर सकता। जिस काशी-देश में विचरण करती हुई धवलवर्ण वाली गायें ऐसी प्रतीत होती थीं, मानों नव तरुणियाँ ही मिलकर विचरण कर रही हों। जहाँ की विशाल गंगानदी के जल की मधुरता को देखकर तरंग-मालाओं वाला समुद्र भी (ईर्ष्या के कारण) खारा हो गया, जहाँ पके हए सगन्धि । युक्त शालि-धान्य सुशोभित थे, जहाँ शालि-मंजरी के समान ही प्रचुर मंजरी वाले सहकार-वृक्ष (चतुर्दिक) शोभायमान थे, जहाँ सशक्त भुजाओं वाले बली-पुरुषों द्वारा खण्ड-खण्ड किये जाकर रस निकालने हेतु पौंडाइक्षुदण्ड इस प्रकार पेले जाते थे, जिस प्रकार स्थिर लोचन वाले रसिक युवाप्रेमी रसपान के लिए तरुणीजनों के अधरों को पेलित किया करते थे। जहाँ सरोवरों में कमलिनी-पत्रों पर हंस इस प्रकार सुशोभित थे, मानों नीलमणियों की पंक्ति पर शंख ही स्थित हों, जहाँ कुट्टनी के समान कुटिल गति वाली अनेक नदियाँ सुशोभित थीं, और जो सरस रत्नाकर (पक्ष में समृद्धजनों) की ओर अनुरक्त (प्रवाहित) थीं (अर्थात् जिस प्रकार कुट्टिनी नारी कुटिल-गतिआचरण वाली होती है और सरस धनवानों की ओर अनुरक्त-आकर्षित रहती है, इसी प्रकार काशी की नदियाँ भी कुटिल-गति के कारण घुमावदार थीं और समुद्र की ओर अनुरक्त-प्रवाहित रहती थीं)।
लय उत्तंग-शिखर वाले थे. वे ऐसे प्रतीत होते थे. मानों धरती रूपी नारी के स्तन ही हों। जहाँ के नागर-जन दान देने के लिए उसी प्रकार अपने हाथ ऊपर किये रहते थे, जिस प्रकार कि वन्यगज मदजल छोड़ने के लिए अपना कर-शुण्डादण्ड (लँड) ऊपर उठाए रहते हैं। उस काशी देश एवं वहाँ के नागरिकों का और अधिक वर्णन क्या किया जाय? घत्ता- उस काशी देश में त्रिभुवन में सारभूत लोगों के लिए प्रिय लगने वाली वाणारसी नामकी नगरी थी, जो
बुधजनों द्वारा प्रशंसित, शत्रुजनों द्वारा अस्पृष्ट तथा लोगों के हृदय को आकर्षित करने के लिये इन्द्राणी के समान सुन्दर थी। (11)
पासणाहचरिउ :: 13