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पदंसइ दप्पणु कावि पहिट्ठ मणोज्जर गायइ गीउ-रसालु करग्गे णिवेसिवि कावि करालु पढावइ कावि संपजरु कीरु महोदय-मंदिर-दारु सरेवि महाजल वाहिणि सत्थजलेण पयंपइ कावि महाविणएण कुवेरु मणीहिँ पबुट्ठउ ताम
रसड्दु पणच्चइ कावि महट्ठ ।। सुहासि वरंगणु कावि सतालु ।। णिरंतरु णिब्मरु रक्खइ वालु ।। विइण्णउ कावि सुसंचइ चीरु ।। परिट्ठिय कावि सुदंडु धरेवि ।। सुही कावि ण्हावर घित्थ मलेण । । विराइय विग्गह लच्छि गएण । । छमास णरिंदो पंगणि जाम ।।
पत्ता - सुहसेज्ज परिट्ठिय अइ उक्कंठिय णयण सोह णिज्जिय णलिण | सोवंति सुरहँ पिय हयसेणहो पिय सुइणइँ पिच्छ गलिय मलिण ।। 18 ।।
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Charming dreams were seen by the mother-queen Vāmā devī in the last leg of night.
णिम्मीलिअच्छि उड णिय णाह णेहेण रयणीविरामे मच्छीए मायंगु दाणंबु-धारा-पवाहेण वरिसंतु
सुत्त सुरामा हयाणंग - दाहेण । । दिट्ठो गरिट्ठो तुसारद्दि सेयंगु ।।
जलभरिय जलहरुव गज्जिएवरु वरिसंतु । ।
लगाती थी। कोई देवी हर्षित होकर दर्पण दिखाती थी और कोई देवी बड़े-बड़े रसपूर्ण नृत्य करती थी । कोई देवी सुन्दर मनोज्ञ रसाल गीतों को गाती थी, तो कोई सुधाशी (अमृतभोजीदेव की) वरांगना देवी अपना ताल बजाती थी, कोई देवी कराग्र में कराल खड्ग लेकर निरन्तर गर्भस्थ बालक की रक्षा करती थी तो कोई देवी पिंजड़े के तोते को पढ़ाती थी। कोई देवी बिखरे हुए वस्त्र को सुसंचित (तह करना) करती थी ।
कोई देवी वामा के विशाल एवं उत्तम भवन के दरवाजे पर चुपचाप जाकर पहरेदारी के लिये सुन्दर दण्ड रण कर स्थित थी। कोई बुद्धिमती देवी महाजल वाहिनी तथा मल को दूर करने वाले गंगादि नदियों के स्वच्छ जल से स्नान कराती थी और कोई देवी आभूषणों से अलंकृत शरीरवाली उस वामा माता से अत्यन्त विनयपूर्वक वार्तालाप करती थी । कुबेर ने भी राजा हयसेन के प्रांगण में छः मास तक मणियों की वर्षा की ।
घत्ता— अत्यन्त उत्कण्ठित, अपने नयनों की शोभा से नलिनी को भी जीत लेने वाली, देवों को भी प्रिय लगने वाली सम्राट हयसेन की प्रियतमा उस वामादेवी ने सुख- शैया पर स्थित होकर सोते समय रात्रि के अन्तिम पहर में पाप- मल को गला देने वाले स्वप्न देखे । (18)
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रात्रि के अन्तिम प्रहर में माता वामा देवी द्वारा स्वप्न-दर्शन
वामादेवी जब अपने दोनों
अनंगदाह को दूर करने वाले प्रियतम के स्नेह के साथ मृगनयनी वह सुरामा नेत्रों को बन्द किए हुए सो रही थी, तभी उसने रात्रि के अन्तिम प्रहर में निम्न प्रकार के स्वप्न देखेहिमालय के समान महान् एवं श्वेतांग-मातंग देखा, जो जल से भरे हुए मेघ के समान गर्जना करता हुआ मदजल की धाराप्रवाह वर्षा कर रहा था ।
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पासणाहचरिउ :: 21