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विरयइ रवि-ससि-लोयण-विलासु ण गणइ तुरंग-खुर-णहर-घाउ विरयइ रइ णिहिल णरोत्तमाहँ मोत्तियसुदाम दसणहिँ हसंति णाणा-वण-भूसण सिरि धरंति णेहीर छडय सम लहणु लिंति
फंसण ण देइ दुज्जण-खलासु।। पयडइ गय-घड-मल्हण-सहाउ।। महियलि पयडिय जस-विक्कमाह।। करफंसवसेण समुल्लसंति।। रमणीय-पएसहिँ मणुहरंति।। वियसिय-पसूण-संदोह दिति।।
घत्ता- इत्थंतरि इंदहो णविय जिणंदहो आएसिं पवर अच्छरउ।
पत्तउ सियसेविहे वम्मादेविहे मणहर-हर रइ को अच्छरउ ।। 15।।
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1/16 Figurative description of the beauty of Goddesses of Heaven and their interest shown by way of theirs various arts and crafts, music, melodious songs and eulogies presented before the
mother-queen - Vámā devī. दिहि-कंति-सुबुद्धि-सुकित्ति-सिरी जणलोयण-हारिणि चारु हिरी।। सुपसिद्धउ एयउ सुंदरउ
कमणेउर-राचिय कंदरउ।। केवल उत्तमजनों का ही निवास था)। वह नगरी सूर्य एवं चन्द्ररूपी नेत्रों का विलास करती थी (अर्थात् वहाँ कभी भी दुर्दिन नहीं होता था) जो कभी भी दुर्जनों को स्पर्श नहीं देती थी (अर्थात् वहाँ दुर्जनों की पहुँच नहीं थी)। जो नगरी तुरंगों के खुरों के नख के आघातों को नहीं गिनती थी (अर्थात् उस नगरी में उत्तम जाति के घोड़े निरन्तर दौड़ते रहते थे) और जो नगरी गजों की घटा के मर्दन-स्वभाव को प्रकट करती थी।
जो नगरी, पृथिवी तल पर अपने यश एवं पराक्रम को प्रकट करने वाले समस्त उत्तम (वीर) जनों से प्रेम करती थी, जो नगरी सुन्दर मोतियों की माला रूपी दन्तावली से हँसती रहती थी जो कर-स्पर्श अर्थात् सूर्य-चन्द्र की किरणों के स्पर्श से निरन्तर समुल्लसित (विकसित) रहती थी।
जो नगरी नाना प्रकार के वस्त्राभूषणों को सिर पर धारण करती थी (अर्थात् जहाँ के नर-नारियाँ विविध प्रकार के वस्त्राभूषण धारण कर नगरी के रूप को चित्र-विचित्र बनाते रहते थे), जो नगरी अपने रमणीक प्रदेशों से सभी के मन को हरती थी, जहाँ पर कुंकुम-राग के छिड़काव से युक्त विकसित प्रसून-पुंज सुकोमल-शैया के समान लगता था। घत्ता– उसी नगरी में जिनेन्द्र को नमस्कार करने वाले इन्द्र के आदेश से श्रेष्ठ अप्सराएँ यदि कल्याणी वामादेवी
के मनोहर भवन में पहुँची और प्रसन्न हुई तो इसमें आश्चर्य ही क्या? (15)
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स्वर्ग लोक की देवियों के सौन्दर्य और उनकी कला के प्रति अभिरुचि का
रोचक वर्णन तथा उनके द्वारा वामादेवी की स्तुतिलोगों के नेत्रों को आकर्षित करने वाली धृति, कान्ति, सुबुद्धि, सुकीर्ति, श्री एवं ही नामकी (इन्द्र द्वारा सम्मानित) सुन्दर देवियाँ अपने चरणों के नूपुरों की ध्वनि से यद्यपि जगत को भर देने वाली थीं, फिर भी वे किसी के द्वारा
18 :: पासणाहचरिउ