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प्रस्तुत पासणाहचरिउ में चतुर्विशाति तीर्थंकरों को नमस्कार एवं उसकी स्तुति, तोमरवंशी राजा अनंगपाल तथा अपने आश्रयदाता नट्टल साहू की प्रशस्ति के अनन्तर कथावस्तु का आरम्भ किया गया है। नगर, वन नदी-सरोवर आदि का सुन्दर चित्रण उपलब्ध है। इसमें पद्धड़िया, घत्ता, दुबई, भुजंगप्रयात, त्रोटक, मोत्तियदाम, रड्डा, चन्द्रानन आदि छन्दों के प्रयोग किए गये हैं। इसमें बारह सन्धियाँ तथा 235 कडवक हैं। शान्त रस अंगीरस के रूप में प्रस्तत हआ है। गौणरूप में में भंगार. वीर. भयानक और रौद्ररसों का परिपाक हआ है। महाकाव्य के महदेश्य-मोक्षपुरुषार्थ का चित्रण किया गया है। कथा के नायक पार्श्वनाथ धीरोदात्त हैं, वे त्याग, सहिष्णुता, उदारता, सहानुभूति आदि गणों के द्वारा विविध आदर्श उपस्थित करते हैं।
प्रबन्धोचित गरिमा और कथावस्तु का गठन एवं महाकाव्योचित वातावरण का निर्माण कवि ने मनोयोगपूर्वक किया है। अतएव इतिवृत्त, वस्तुवर्णन, रसभाव एवं शैली की दृष्टि से एक पौराणिक महाकाव्य सिद्ध होता है। नखशिख चित्रण द्वारा नारी-सौन्दर्य' के उद्घाटन में भी कवि पीछे नहीं रहा। पौराणिक आख्यान के रहते हुए भी युगजीवन का चित्रण बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। धार्मिक और नैतिक आदर्शों के साथ प्रबन्ध निर्वाह में पूर्ण पटुता प्रदर्शित की गई है। यद्यपि यह प्रशस्ति-मूलक महाकाव्य हैं, पर उसमें मानव-जीवन के समस्त भाव तरंगित है। पात्रों के चरित्रांकन में भी कवि किसी से पीछे नहीं है। मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व, जिनसे महाकाव्य में मानसिक तनाव उत्पन्न होता है, पिता-पुत्र एवं तापस-संवाद में वर्तमान है।
पासणाहचरिउ में रस, अलंकार, गुण आदि सभी काव्योपकरण समाविष्ट हैं। बुध श्रीधर ने प्रस्तुत काव्य में उन घटनाओं और वर्णनों का नियोजन किया है, जिनके द्वारा मन के प्रसुप्त-भावों को जागृत होने में विशेष आयास नहीं करना पड़ता। कवि ने भावनाओं का बिम्ब ग्रहण कराने में अलंकारों का सुन्दर नियोजन किया है। भावों का प्रत्यक्षीकरण करने के हेतु अनेक उपमानों और प्रतीकों का आलम्बन ग्रहण किया है। प्रस्तुत काव्य में प्रयुक्त अलंकार, रस एवं गुणों का संक्षेप में यहाँ विश्लेषण प्रस्तुत किया जा रहा हैअलंकार-प्रयोग
यह सत्य है कि यत्नपूर्वक अलंकार-विधान से ही काव्य में सौन्दर्य का समावेश होता है। आचार्य वामन, दण्डी एवं मम्मट प्रभृति अलंकार-शास्त्रियों ने काव्य-रमणीयता के लिये अलंकारों का समावेश आवश्यक माना है। तथ्य यह है कि भावानुभाव-वृद्धि करने में या रसोत्कर्ष को प्रस्तुत करने में अलंकार बहुत ही सहायक होते हैं। अलंकारों द्वारा काव्यगत अर्थ का सौन्दर्य चित्तवृत्तियों को प्रभावित कर उन्हें भाव-गाम्भीर्य तक पहुँचा देता है। रसानुभूति को तीव्रता प्रदान करने की क्षमता अलंकारों में सर्वाधिक होती है। अलंकार भावों को स्पष्ट एवं रमणीय बनाकर रसात्मकता को वृद्धिंगत करते हैं।
आधुनिक काव्य-शास्त्रियों के मत में काव्य की आत्मा मुख्य रूप से भाव, विचार और कल्पना में है। इन्हीं के कारण काव्य में स्थायित्व आता है। अलंकार कविता-कामिनी के स्थायित्व को और भी अधिक सुन्दर बना देते हैं। यही कारण है कि आचार्य वामन ने 'सौन्दर्यमलंकारः' 'काव्यं ग्राह्यमलंकारात्' जैसे अनुशासन-वाक्य अंकित किये हैं। मानव स्वभावतः ही सौन्दर्य-प्रिय प्राणी है। उसकी यह सौन्दर्य-प्रियता जीवन के अथ से इति तक प्रत्येक क्षेत्र में बनी रहती है। सर्वदा सुन्दर वस्तुओं का चयन कर कार्यों को सुन्दरता से सम्पादित करने की वह आकांक्षा रखता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करने पर मानव की यह प्रवृत्ति ही अलंकार-विधान का मूल है। अतएव मानवहृदय एवं अलंकारों का घनिष्ट सम्बन्ध स्वीकार करना पड़ता है।
बुध श्रीधर ने ऐसे ही अलंकारों का प्रयोग किया है, जो रसानुभूति में सहायक होते हैं। पासणाहचरिउ में उन्हीं
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