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की कविता में प्राणवत्ता, वर्णन-प्रसंगों में सहजता, रोचकता एवं गतिशीलता आई है। उदाहरणार्थ कुछ शब्द यहाँ प्रस्तुत है :
बार-बार (बारम्बार 3/8/1), हल्ला (शोरगुल 4/18/4), फाड़ (4/18/4), फाड (4/9/1), थोड़ (10/5/3), अज्जकल्ल (10/14/7), डमरू (3/10/11, 3/11/5), पतला (1/13/10), हौले-हौंले (धीरे-धीरे 3/17/2), चप्प (चॉपना 5/7/8), चॉपना 7/11/4), चुल्ली (चूल्हा 4/1/4), लक्कड़ (6/8/12) पण्ही (जूता 4/9/4) कुमलाना (मुरझाना 3/18/8), खुरप्प (खुरपा 4/19/13, 5/11/9), धोवन (धौन 3/18/2), लट्ठी (लाठी 3/11/4), थट्ट (भीड़ 3/6/12), चिंध (धज्जी 4/9/1), तोड़ (तोड़ना 4/9/8), धुत्त (नशे में चूर 3/13/2), चोजु (आश्चर्य 1/13/9), अंधार (अन्धेरा 3/19/7), रेल्ल (धक्का-मुक्की 7/13/14), पेल्ल (3/8/4), बोल्लाविय (बुलाना 3/8/4), उठ्ठिउ (उठा 3/8/10), झाडंत (झाड़कर 7/9/8), दुक्क-दूँकना, झाँकना 3/17/11, 4/19/7), बुड्ढ (डूबना 3/18/2), पाडत (7/9/8) टालंत (टालना 7/9/9), कड्ढ (निकालना 4/20/18), चिक्कार (ध्वन्यात्मक 5/1/5, 5/3/14) आदि।
उपर्युक्त शब्दावली में अधिकांश शब्द हरयाणवी, राजस्थानी, बुन्देली एवं बघेली में आज भी हुबहू उसी प्रकार यत्किचिंत हेर-फेर के साथ प्रयुक्त होते हैं।
कवि श्रीधर अपभ्रंश के साथ-साथ संस्कृत भाषा के भी समानाधिकारी विद्वान् थे, यह उनकी अन्त्य-प्रशस्ति में लिखित संस्कृत-श्लोकों से स्पष्ट ज्ञात होता है। शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, मन्दाक्रान्ता, दुबइ, घत्ता एवं आर्याछन्दों में अपने आश्रयदाता नट्टल साहू को आशीर्वाद देते हुए कवि लिखता है
पश्चाबभूब शशिमण्डलभासमानः ख्यातः क्षितीश्वरजनादपि लब्धमानः।
सदर्शनामृत-रसायन-पानपुष्टः श्रीनट्टलः शुभमना क्षपितारिदुष्टः।। उक्त सन्दर्भ-सामग्रियों के आधार पर “पासणाहचरिउ” अपभ्रंश-साहित्य की एक महनीय कृति सिद्ध होती है। स्थानाभाव के कारण न तो उक्त रचना के सर्वागीण अध्ययन को प्रस्तुत करने का अवसर मिल सका और जो सन्दर्भसामग्री एकत्रित भी हुई, उसे भी अनेक सीमाओं में बँधे रहने के कारण पूरा विस्तार नहीं दिया जा सका। फिर भी जो संक्षिप्त अध्ययन किया जा सका, उसे ही यहाँ प्रस्तुत किया गया है। पा.च. में वर्णित आचार और सिद्धान्त वर्णन
पौराणिक काव्य में नायक के उदात्त चरित के साथ-साथ आचार, दर्शन एवं सिद्धान्त सम्बन्धी मान्यताओं का रहना आवश्यक माना गया है। महाकवि बुध श्रीधर ने प्रस्तुत चरित-काव्य में जैनागम का सार गागर में सागर की तरह भर दिया है। गुणभद्राचार्य कृत उत्तरपुराण एवं अन्य पार्श्वनाथ-चरितों में यह सिद्धान्त उतने विकसित रूप में नहीं दिखाई पड़ता, जिस प्रकार महाकवि जिनसेनाचार्य अपने महापुराण में तथ्यों और सिद्धान्तों को अंकित कर उसे धर्म-कथा का रूप प्रदान कर सके हैं। महाकवि बुध श्रीधर ने प्रस्तुत रचना में अपनी पूर्वकालीन समस्त परम्पराओं को समाविष्ट करने का प्रयत्न किया है। ___ समवशरण में राजा अर्ककीर्ति द्वारा धर्मोपदेश के निमित्त प्रार्थना करने पर भगवान् पार्श्वनाथ श्रावक धर्म के मूल रूप सम्यक्त्व का उपदेश देते हैं। यतः धर्म का आधार सम्यक्त्व ही है। जब तक जीवन में सम्यक श्रद्धा नहीं, आस्था नहीं, तब तक सवृत्तियों का प्रादुर्भाव होना शक्य नहीं। मिथ्यात्व-भाव व्यक्ति के अन्तरंग को तो कलुषित करते ही हैं, साथ ही उसे जीवन में गतिशील होने से भी रोकते हैं। यह सम्यग्दर्शन शरीर के अष्टांगों के समान अष्टांगपूर्ण है। यदि एक भी अंग विकृत हुआ अथवा एक भी अंग की कमी हुई तो जिस प्रकार शरीर अपूर्ण है और कार्यकारी शक्ति से रहित है। ठीक उसी प्रकार जीवन में अष्टांग के बिना धार्मिकता भी अपर्ण है।
1.
पासणाह. 10/3-7
प्रस्तावना :: 61