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Budha-Sridhara, a self respecting poet denounces the wicked people and refuges to go to Nattala Shāu, but Alhana Sāhu again and again eulogiges the Philanthropic nature and other progressive and constructive contributions including his generosity and saysतं सुणिवि पयंपिउ सिरिहरेण
जिण-कव्व-करण विहियायरेण।। सच्चउ जं जंपिउ पुरउ मज्झु पइँ सब्मा बुह मइ असज्झु।। पर संति एत्थु विबुहहँ विवक्ख बहु-कवड-कूड पोसिय-सवक्ख।। अमरिस-धरणीधर-सिर-विलग्ग णर-सरूव तिक्ख-मुह कण्ण-लग्ग।। असहिय-पर-णर-गण-गरुअ-रिद्धि
व्वयण-हणिय पर-कज्ज-सिद्धि ।। कय-णासा-मोडण मत्थरिल्ल
भू-भिउडि-भंगि णिदिय गुणिल्ल।। को सक्कइ रंजण ताहँ चित्तु
सज्जण पयडिय-सुअणत्त-रित्तु।। तहिँ लइ महु किं गमणेण भव्व भव्वयण-बंधु परिहरिय-गव्व।। तं सुणिवि भणइ गुण-रयण-धामु अल्हण णामेण मणोहिरामु।। वउ भणिउ काइँ पइँ अरुह-भत्तु किं मुणहि ण णट्टलु भूरिसत्तु।। घत्ता- जो धम्म-धुरंधरु उण्णय-कंधरु सुहण-सहावालंकरिउ !
अणुदिणु णिच्चल-मणु जसु वंधवयणु करइ वयणु णेहावरिउ।। 7 ।।
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दुर्जनों की निन्दाकर स्वाभिमानी कवि श्रीधर जब नट्टल साहू के पास जाना अस्वीकार करता है, तब अल्हण साहू नट्टल साहू के उदार चरित की पुनः प्रशंसा करते हुए कहता है
उस साह अल्हण का कथन सनकर जिन-काव्य के प्रणयन में आदर-भाव रखने वाले श्रीधर कवि ने कहा“आपने सद्भाव पूर्वक मेरे सम्मुख जो कुछ कहा है, वह सत्य है। किन्तु हे बुध, वह (कार्य) मेरे लिये असाध्य है क्योंकि यहाँ विबधों के विपक्षी (विरोधी) बहत हैं, जो कि नाना प्रकार के कूट-कपट से अपने मत का पोषण करने वाले हैं। वे (विपक्षी) क्रोध रूपी पर्वत-शिखर पर चढ़े रहते हैं। वे मनुष्य-स्वरूपी (अवश्य) हैं, किन्तु भुजंग के समान तीक्ष्णभाव वाले हैं और मुँह तथा कानों के लगे हुए हैं (अर्थात् कपटी एवं चुगलखोर हैं)।
वे (विपक्षी) दूसरे मनुष्यों की गुण-गरिमा एवं ऋद्धि को सहन नहीं कर पाते और अपने दुर्वचनों से दूसरों की कार्य-सिद्धि को नष्ट करते रहते हैं। वे (कभी तो सरल स्वभावी) बुधजनों की नाक मरोड़ देते हैं और (कभी) माथा (गर्दन) मरोड़ डालते हैं। जो (विपक्षी) अपनी भयानक भृकुटि तानकर गुणीजनों की निन्दा करने वाले हैं, सज्जनों द्वारा प्रकटित सौजन्य-गुण से शून्य उन (दुर्जनों) के चित्त का मनोरंजन कौन कर सकता है? अतः हे भद्र, हे भव्यजनबन्धु, हे निरहंकारी (सज्जन), उन नट्टल साहू के पास भी मेरे जाने से क्या लाभ?
कवि श्रीधर का उत्तर सुनकर गुणरूपी रत्नों का धाम, मन का उदार एवं सुन्दर अल्हण नाम का वह साहू पुनः बोला- "तुमने यह क्या कहा? क्या तुम अरिहन्त-भक्त, महान् सत्वशाली उस नट्टल साहू को नहीं जानते?"घत्ता- “जो (नट्टल) धर्म-धुरा को धारण करने वाला है, ऊँचे कन्धौर वाला है, जो सुजनों के स्वभाव से अलंकृत
है और जो (चतुर्विध दान देने में) प्रतिदिन निश्चल मन वाला है, जिसके वचनों का स्नेह से भरे हुए बान्धवजन निरन्तर पालन किया करते हैं।" (7)
पासणाहचरिउ :: 9