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पयडिय तिहुवणवइ-गुणभरेण जउणासरि सुर-णर-हियय-हार डिंडीर-पिंड-उप्परिय णिल्ल सेवाल-जाल-रोमावलिल्ल भमरावलि-वेणी-वलय-लच्छि पवणाहय-सलिलावत्त-णाहि वण मयगल-मयजल-घुसिणलित्त वियसंत-सरोरुह-पवर-वत्त विउलामल-पुलिण-णियंव जाम हरियाणए देसे असंख गाम
मण्णिय सुहि-सुअणे सिरिहरेण।। णं वार-विलासिणि-पउरहार।। कीलिर-रहंग-थोव्वउ थणिल्ल।। बुहयण-मण-परिरंजण-छइल्ल।। पफुल्ल-पोमदल-दीहरच्छि।। विणिहय जणवय तणु-ताव-वाहि।। दरफुडिय सिप्पिउड-दसण-दित्त।। रयणायर-पवर पियाणुरत्त।। उत्तिण्णी णयणहि दिव ताम।। गामियिण जणिय अणवरय काम।।
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घत्ता- परचक्क-विहट्टणु सिरि संघट्टणु जो सुरवइणा परिगणिउ।
रिउ-रुहिरावट्टणु पविउलु पट्टणु ढिल्ली णामेण जि भणिउ।। 2।।
प्रणाम के योग्य बुध (ज्ञानी, विद्वान्) “गोल्हु' नामक पिता के पुत्र, प्रकट रूप में त्रिभुवनपति के गुणों से भरे हुए, सुखी स्वजनों द्वारा सम्मानित कवि बुध श्रीधर ने सुर-नर के हृदय को हरने वाली यमुना नदी को देखा, जो ऐसी प्रतीत हो रही थी, मानों वार-विलासिनियों के हृदय का श्रेष्ठ हार ही हो। ___ उस यमुना के ऊपर नील वर्ण (नभ की प्रतिच्छाया के कारण) वाला फेन-पुंज (उठ रहा) था, उस पर क्रीड़ा करते हुए चक्रवाक-पक्षी ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानों वे उस नदी रूपी नायिका के विकट स्तन ही हों। शैवाल-जाल (समूह) ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों वह उसकी रोमावलि हो। वह बुधजनों के मन का मनोरंजन करने के लिए छैला के समान लग रही थी।
(कमलपुष्पों पर मंडराने वाली) भ्रमरावली ऐसी प्रतीत हो रही थी, मानों वह उसके वेणी-वलय की शोभा ही हो। उसमें प्रफुल्लित पद्मदल ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानों वह उसकी नाभि ही हो।
जो (नदी) जनपद (नागरिकों) के शारीरिक ताप को नष्ट करती है, जो (नदी) वनगज के मदजल रूपी चन्दन से लिप्त है, जो (नदी) सीप के कुछ खुले हुए मुख के दाँतों की कान्ति से दीप्त है, जो विकसित कमलों के प्रवर मुख वाली है और प्रवर पति रत्नाकर (समुद्र) से अनुरक्त है, और विपुल निर्मल पुलिन (रतीले मैदान) ही मानों जिसके नितम्ब हैं। इस प्रकार की नदी को जब कवि बुध श्रीधर ने उत्तीर्ण (पार) किया, तब उसने एक नगर को (अपने) नेत्रों द्वारा स्वयं देखा। वह ग्रामीणों द्वारा निरन्तर किये जाने वाले कार्यों में व्यस्त असंख्यात ग्रामों से युक्त हरियाणा देश में स्थित है।
घत्ता- वह (दिल्ली) परचक्र (शत्रु सेना) को विघटित करने वाली (अर्थात् जहाँ शत्रुजनों का प्रवेश नहीं है) तथा
श्री (लक्ष्मी) का संघटन करने वाली (अर्थात् प्रतिदिन जहाँ अच्छा व्यापार होता है), जिसको सुरपति (इन्द्र) ने भी महान् माना है। वह रिपु के रुधिर का आवर्तन करने वाली है, जो प्रकृष्ट कोटि का पट्टन है (अर्थात् नदी किनारे बसी हुई है)। ऐसी वह महानगरी ढिल्ली (वर्तमान दिल्ली) के नाम से प्रसिद्ध है। (2)
पासणाहचरिउ :: 3