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पा.च. में
कुछ
रोचक वर्णन-प्रसंग
कवि श्रीधर भावों के अद्भुत चितेरे हैं। यात्रा मार्गों में चलने वाले चाहे सैनिक हों अथवा अटवियों में उछलकूद करने वाले बन्दर, वन विहारों में क्रीड़ाएँ करने वाले प्रेमी-प्रेमिकाएँ हों अथवा आश्रमों में तपस्या करने वाले तापस, राजदरबारों में सूर - सामन्त हों अथवा साधारण प्रजाजन, उन सभी के मनोवैज्ञानिक वर्णनों में कवि की लेखनी ने अद्भुत चमत्कार दिखलाया है। इस प्रकार के वर्णनों में कवि की भाषा भावानुगामिनी एवं विविध रस तथा अलंकार उनका हाथ जोड़कर अनुकरण करते हुए दिखाई देते हैं ।
पार्श्वप्रभु विहार करते हुए तथा कर्वट, खेड, मंडव आदि पार करते हुए जब एक भयानक अटवी में पहुँचते हैं, तब वहाँ उन्हें मदोन्मत्त गजाधिप, द्रुतगामी हरिण, भयानक सिंह, घुरघुराते हुए मार्जार एवं उछल-कूद करते हुए लंगूरों का वर्णन देखिए, कितना स्वाभाविक बन पड़ा है—
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अन्य वर्णन-प्रसंगों में कवि का कवित्व चमत्कार - पूर्ण बन पड़ा है। इनमें कल्पनाओं की उर्वरता, अलंकारों की छटा एवं रसों के अमृतमय प्रवाह दर्शनीय हैं। इस प्रकार के वर्णनों में वसन्त ऋतु-वर्णन अटवी - वर्णन, सन्ध्या, रात्रि एवं प्रभातवर्णन ' तथा नन्दन वन - वर्णन आदि प्रमुख है । कवि की दृष्टि में सन्ध्या किसी के जीवन में हर्ष उत्पन्न करती है, तो किसी के जीवन में विषाद । वस्तुतः वह हर्ष एवं विषाद का विचित्र संगमकाल है। जहाँ वह कामीजनों, चोरों, उल्लुओं एवं राक्षसों के लिए श्रेष्ठ वरदान है, वहीं पर वह नलिनी दल के लिए घोर - विषाद का काल। उस काल में वह उसी प्रकार मुरझा जाता है, जिस प्रकार इष्टजन के वियोग में बन्धु बान्धवगण । सूर्य के डूबते ही उसकी समस्त किरणें अस्ताचल में तिरोहित हो गयी हैं । इस प्रसंग में कवि उत्प्रेक्षा करते हुए कहता है कि "विपत्तिकाल में अपने कर्मों को छोड़कर और कौन किसका साथ दे सकता है ? सूर्य के अस्त होते ही अस्ताचल
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केवि कूर घुरुहुरहिं केवि करहिं ओरालि केवि दाढ़ दरिसंति केवि भूरि किलिकिलहिं केवि हिय पडिकूल केवि करु पसारंति केवि गयणयले कमहिं केवि अरुण णयणेहिं केवि लोय तासंति केवि धुणहिं संविसाण केवि दुट्ठ कुपंति केवि पहुण पावंति
पासणाह. 6/4
पासणाह. 6/7
पासणाह. 3/18
पासणाह. 3/19
पासणाह. 3/20
पासणाह. 10/1
सिर लोलिर लंगूल । । दूरत्थ फुरुहुहरहिं । । मुवंति पउरालि ।।
अइ विसु विरसंति । । उल्लेवि वलि मिलहिं । । महि हणिय लंगूल । । हिंसण ण पारंति । । अणवरउ परिभमहिं । । भंगुरिय वयणेहिं || केवि अकियत्थ रूसंति ।। कंपविय रिपाण ।।
पक्खिहि झडप्पंति । ।
सत्थु धावंति ।। (पास. 7/14/6-16)
प्रस्तावना :: 63