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कवि ने प्रसंगवश हरयाणा, कुशस्थल, कालिन्दी, वाराणसी एवं मगध आदि के भी सुन्दर वर्णन किए हैं तथा छोटी-छोटी भौगोलिक इकाइयों— जैसे-कर्वट, खेड, मडम्ब, आराम, द्रोणमुख, संवाहन, ग्राम, पट्टन, पुर, नगर आदि के भी उल्लेख किए हैं। पूर्वोक्त वर्णनों एवं इन उल्लेखों को देखकर यह स्पष्ट है कि कवि को मध्यकालीनभारत का आर्थिक, व्यापारिक, प्राकृतिक, मानवीय एवं राजनैतिक-भूगोल का अच्छा ज्ञान था। कवि द्वारा प्रस्तुत यह सामग्री निश्चय ही तत्कालीन प्रामाणिक इतिहास तैयार करने में सहायक सिद्ध हो सकती है।
कृतज्ञता-ज्ञापन
प्राचीन पाण्डुलिपियों की खोज, संग्रह, उद्धार, सम्पादन-अनुवाद एवं तुलनात्मक समीक्षा-कार्य जितना दुरूह, जटिल एवं धैर्यसाध्य है, उससे भी अधिक कठिन है उसके प्रकाशन की व्यवस्था। प्रस्तुत पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि मुझे परमश्रद्धेय बाबू अगरचन्द जी नाहटा (बीकानेर, राजस्थान) से सन् 1970 के दशक में प्राप्त हुई थी। उन्होंने विश्वासपूर्वक मुझसे अपनी इच्छा व्यक्त की थी कि मैं इसका सम्पादन करूँ और उनकी अभिलाषा का समादर करते हुए मैंने भी उस पर कार्य करने की प्रतिज्ञा कर ली। ग्रन्थ का वर्ण्य-विषय बड़ा रोचक लगा तथा उसकी प्रशस्ति में उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों ने मुझे बड़ा उत्तेजित किया और उसी से ऊर्जस्वित होकर मैं उसके सम्पादन-कार्य में जुट गया। विविध पारिवारिक, शैक्षणिक एवं सामाजिक कार्यों की व्यस्तता के साथ-साथ प्रस्तुत कार्य भी चलता रहा और लगभग 7-8 वर्षों में सम्पादनादि कार्य समाप्त भी कर दिया किन्तु प्रयत्न करने पर भी जब उसके प्रकाशन की कोई व्यवस्था न हो सकी, तब निराश होकर उसे एक बस्ते में बाँधकर किनारे रख देना पड़ा। लगभग दो-ढाई दशकों तक वह ऐसा ही पड़ा रहा। उसके कागज भी गलने लगे और उसकी स्याही भी फीकी पड़ने लगी। अतः मन बड़ा व्यथित हो गया। ____ अपनी दिल्ली-यात्रा में मैंने एक दिन अवसर पाकर परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज से उक्त विषयक अपनी व्यथा-कथा सुनाई और जब उन्हें यह ज्ञात हआ कि प्रस्तत ग्रन्थ की प्रशस्ति में 12वीं सदी की दिल्ली का आँखों देखा वर्णन है तथा उसके कवि ने समकालीन दिल्ली का सुन्दर चित्रण किया है, जिससे मध्यकालीन कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का उद्घाटन सम्भव है, तब इससे प्रमुदित होकर उन्होंने मुझे तत्काल ही प्रेस-कॉपी तैयार करने का आदेश दिया और यह उनके मंगल-आशीर्वाद का ही सुफल है कि इस ऐतिहासिक ग्रन्थ के प्रकाशन की व्यवस्था भारतीय ज्ञानपीठ जैसी विख्यात प्रकाशन-संस्था से हो सकी।
मेरी यह हार्दिक इच्छा थी कि यह ग्रन्थ मैं आचार्यश्री विद्यानन्द जी को ही समर्पित करूँ। उसकी तैयारी भी कर ली थी, किन्तु उन्होंने इसका पुरजोर विरोध किया और मुझे जो कहा, वह उन्हीं के शब्दों में मैं अपने साहित्यरसिक पाठकों को बतला देना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। उन्होंने कहा- “डॉ. हीरालाल जी एवं डॉ. ए.एन. उपाध्ये जी, इस सदी के ऐसे सरस्वती पुत्र हैं, जिन्होंने प्राच्य भारतीय विद्या, विशेषतया प्राकृत एवं जैन-विद्या के प्रचारप्रसार, तथा दुर्लभ पाण्डुलिपियों के सम्पादन एवं प्रकाशन के लिए निष्काम-भावना से अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया। हमारा दुर्भाग्य यही रहा कि उनके जीवनकाल में हम उनके शाश्वत-कोटि के शोध सम्पादनादि कार्यों के श्रम का मूल्यांकन नहीं कर पाये और उन्हें पुरस्कृत सम्मानित न करा सके। इसकी कसक निरन्तर बनी रहेगी।. ... उनके शोध-कार्य तो इतने अभूतपूर्व एवं अद्भुत हैं कि उन महापुरुषों की स्वर्ण-मूर्तियाँ भी बनवाकर नई पीढ़ी को प्रेरित करने हेतु यदि शिक्षण-संस्थानों में स्थापित कराई जावें तो भी उनके ऋण से उऋण नहीं हो सकते।
ार्यश्री का उक्त कथन यथार्थ है। बीसवीं सदी में प्राकृत एवं जैन-विद्या के क्षेत्र में जो भी क्रान्ति आई तथा सर्वत्र जो प्रचार-प्रसार हुआ, उसमें उक्त दोनों सरस्वती-पुत्रों के निस्वार्थ त्याग एवं कठोर-साधना ही प्रमुख कारण है। अतः यह ग्रन्थ उन्हीं की पुण्य-स्मृति में समर्पित कर मेरा हृदय भी आज अत्यन्त प्रमुदित है।
68 :: पासणाहचरिउ