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स्थलों पर अलंकृत-पद्य आये हैं, जहाँ भावोद्दीपन का अवसर दिखाई पड़ा है । यतः भावनाओं के उद्दीपन का मूल कारण है मन का ओज, जो मन को उद्दीप्त कर देता है तथा मन में आवेग और संवेग उत्पन्न कर पूर्णतया उसे द्रवित कर देता है ।
शब्दालंकारों की दृष्टि से अपभ्रंश भाषा स्वयं ही अपना ऐसा वैशिष्ट्य रखती है, जिससे बिना किसी आया के ही अनुप्रास का सृजन हो जाता है । परन्तु कुशल कवि वही है, जो अनुप्रास के द्वारा किसी विशेष भावना को किसी विशेष रूप से उत्तेजित कर सके । 'पासणाहचरिउ' में कई स्थलों में अनुप्रास की ऐसी योजना प्रकट हुई है, जिसने भावों को जल में फेंके हुए पत्थर के टुकड़े के समान असंख्यात लहरें उत्पन्न कर भावों को आस्वाद्य बना दिया है। उदाहरणार्थ यहाँ कुछ पंक्तियाँ उद्धतकर काव्य के वैशिष्ट्य को प्रस्तुत किया जाता है—
पेक्खेवि रुहिरारुण तणु भुअंगु गुरुयरपहार दुहपीडियंगु । (6/10/6) एउ चिंतेवि सरोसें पयणिय दोसें करयले करेवि कुठारउ |
सविस विसहरु कट्ठहो तरु पब्मट्ठहो कमठें दिण्णु पहारउ ।। (6/9/13-14)
उक्त पद्य-पंक्तियों में भुअंगु, पीडियंगु में अनुप्रास है तथा अन्त्यनुप्रास तो इस पद्य में सर्वत्र ही विद्यमान है। बुध श्रीधर ने 'रुहिरारुण, द्वारा क्षत-विक्षत नाग-युगल का बहुत की करुणापूर्ण चित्र उपस्थित किया है। इसी प्रकार 'कुठारउ' और 'पहारउ' जैसे अनुप्रास का नियोजन कर उक्त पद्य पंक्तियों में काठ की कठोरता को कुठार द्वारा जिस प्रकर छिन्न-भिन्न किया गया, उसी प्रकार तपस्वी के मान-रूपी काठ का नाग-युगल के प्रत्यक्षीकरण रूप कुठार द्वारा छिन्न-भिन्न एवं रुहिरारुण होना भी संकेतित है । वे हेतु की सूचना तो देते ही हैं, पंचाग्नितप की निस्सारता और इन्द्रिय - निग्रह रूप तप की महत्ता भी प्रकट करते हैं । कवि का यह अनुप्रास- नियोजन शान्त रस के उत्कर्ष में बहुत ही सहायक है। एक ओर मानी - तापस के मान का खण्डन और दूसरी ओर क्षत-विक्षत नाग-दम्पति का अहिंसा-साधना द्वारा उद्धार, ये दोनों ही तथ्य समस्त कडवक को शान्तरस के आस्वाद के योग्य बना देते हैं।
बुध श्रीधर ने संगीत-तत्व को उत्पन्न करने के लिए ऐसे-ऐसे अनुप्रासों की भी योजना की है, जिनमें भावगत चमत्कार न होते हुए भी संगीत एवं लय की दृष्टि से वे पर्याप्त महत्त्व रखते हैं। यथा
छंदालंकारु-सद्दवियारु णिग्घंटोसहि- सारु ।
पर-पुर संचारु रइवित्थारु सयललोयवावारु ।। 2/17
उक्त घत्ता में भी अनुप्रास की छटा दर्शनीय है । कवि ने ओसहिसारु, लोयवावारु में रु के अनुप्रास द्वारा जहाँ संगीत की मधुर झंकार उपस्थित की है, वहीं कथा- विधान में उपस्थित आन्तरिक भावधारा भी प्रवाहित की है।
पासणाहचरिउ में श्रुत्यनुप्रास, वृत्यनुप्रास, छेकानुप्रास एवं अन्त्यनुप्रास के साथ-साथ यमकालंकार का प्रयोग भी भावोत्कर्ष के लिये हुआ है । कवि ने रूप, गुण और क्रिया का तीव्र अनुभव कराने के हेतु इस अलंकार का प्रयोग किया है। यहाँ एक उदाहरण देकर ही प्रस्तुत काव्य की मार्मिकता पर प्रकाश डालने की चेष्टा की जायेगी। मह अनंगपाल तोमर के पराक्रम और शासन-पटुता का चित्रण करता हुआ कहता है
दुज्जण-हिययावणि-दलण-सीरु दुण्णय-णीरय-निरसण- समीरु ।
बलभर कंपाविय णायराउ माणियण-मण-संजणिय राउ ।।
उक्त पद्य में “दलणसीरु तथा णिरसण- समीरु पद विचारणीय हैं। दलण शब्द का अर्थ दलना अर्थात् पराजित करना और इस पद का सम्बन्ध पर-बल के साथ है। राजा अनंगपाल शत्रु सैन्य को पराजित करने वाला था । " यणभिव ( 1/3/16 ) पद का सम्बन्ध प्रजाजनों के साथ है, जो निज-प्रजा के शासन का अर्थ प्रकट करता है । इस प्रकार दलणसीरु एवं निरसणसमीरु दोनों पद समान होते हुए भी भिन्नार्थक हैं। इसी भांति राउ पद राग अर्थ का
प्रस्तावना :: 57