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दार्शनिक मान्यताएँ, सिद्धान्त-निरूपण, आचार-विषयक तथ्य एवं स्वप्न-दर्शनादि सन्दर्भो का रहना आवश्यक माना जाता है। यद्यपि पौराणिक या चरित-महाकाव्य का लेखक कथावस्तु में से उन्हीं सूत्रों को ग्रहण करता है, जो काव्यशैली को रसमय बनाने की क्षमता रखते हों, क्योंकि महाकाव्य के लिये एक अनिवार्य शर्त यह है कि उसकी समस्त घटनाएँ रसमय बिन्दु की ओर अग्रसर होना चाहिए। यदि यह क्षमता कवि या लेखक में नहीं है, तो वह अपने काव्य को उच्च काव्य-कोटि में नहीं रख सकता। बुध श्रीधर ने प्रस्तुत पासणाहचरिउ में ऐसे कथानकों की ही योजना । है, जिनके द्वारा महदुदेश्य की पूर्ति समभव हो सके। इसका कथा-प्रवाह या अलंकृत-वर्णन सुनियोजित और सांगोपांग बन पड़ा है। पार्श्वनाथ के मरुभूति, अशनिघोष-हाथी, सहस्रार-स्वर्ग का देव, किरणवेग विद्याधर, अच्युतस्वर्गदेव, चक्रायुध,
, चक्रवर्ती चक्रायुध एवं वैजयन्त देवरूप नौ भवों का जीवन्त लम्बा कथानक रसात्मकता या
उत्पन्न करने में पूर्ण समर्थ है। तीर्थंकर पार्श्वनाथ के एक जन्म की ही नहीं, नौ जन्मों की कथा उस विराट जीवन का चित्र प्रस्तुत करती है, जिस जीवन में अनेक भवों के अर्जित संस्कार तीर्थकरत्व को उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। प्रस्तुत काव्य में महत्प्रेरणा से अनुप्राणित होकर मोक्ष-प्राप्ति रूप महदुद्देश्य सिद्ध होता है। यद्यपि रहस्यमय एवं आश्चर्सीत्पादक घटनाएँ भी इस ग्रन्थ में वर्णित हैं, पर इन घटनाओं के निरूपण की काव्यात्मक शैली इतनी गरिमामयी और उदात्त है कि जिससे नायक के विराट जीवन का ज्वलन्त चित्र प्रस्तुत हो जाता है। संस्कृत के लक्षण-ग्रन्थों के अनुसार महाकाव्य में निम्न तत्वों का रहना आवश्यक माना गया है
(1) सर्गबन्धत्व, (2) समग्र-जीवन-निरूपण, अतएव इतिवृत्त का अष्टसर्ग प्रमाण या इससे अधिक होना, (3) नगर, पर्वत, चन्द्र, सूर्योदय, उपवन, जलक्रीडा, ऋतु-वर्णन, मधुपान एवं उत्सवों का वर्णन, (4) उदात्त-गुणों से युक्त नायक की चतुर्वर्ग-प्राप्ति का निरूपण, (5) कथावस्तु में नाटक के समान सन्धियों का गठन (6) कथा के आरम्भ में मंगलाचरण, आशीर्वाद आदि का रहना एवं सर्गान्त में आगामी कथावस्तु का सूचन करना, (7) भंगार, वीर और शान्त इन तीन रसों में किसी एक रस का अंगी रूप में और शेष सभी रसों का अंगरूप
में निरूपण आवश्यक है। यतः कथावस्तु और चरित्र में एक निश्चित एवं क्रमबद्ध विकास तथा जीवन
की विविध सुख-दुखमयी परिस्थितियों का संघर्ष-पूर्ण चित्रण रसपरिपाक के बिना संभव नहीं। (8) सर्गान्त में छन्द-परिवर्तन-कथा का विकास और रसप्रभाव की अबाध-गति के लिये एक सर्ग में एक
ही छन्द के प्रयोग का नियम है, पर सर्गान्त में छन्द का परिवर्तन होना आवश्यक है। चमत्कार-वैविध्य
या अद्भुतरस की निष्पति के हेतु एक सर्ग में अनेक छन्दों का व्यवहार करना अनिवार्य जैसा है। (9) महाकाव्य में विविधता और यथार्थता दोनों का ही सन्तुलन रहता है तथा इन दोनों के भीतर से ही
विविध भावों का उत्कर्ष दृष्टिगोचर होता है। यही कारण है कि महाकाव्य-प्रणेता प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ नर-नारी के सौन्दर्य का चित्रण, समाज के विविध रीति-रिवाज एवं उसके बीच विकसित होने
वाले आचार-व्यवहार का निरूपण भी करता है। (10) महाकाव्य का नायक उच्चकुलोत्पन्न क्षत्रिय या देवता होता है, उसमें धीरोदात्त गुणों का रहना
आवश्यक है। नायक का आदर्श-चरित्र समाज में सवृत्तियों का विकास एवं दुष्प्रवृत्तियों का विनाश
करने में सक्षम होता है। (11) महाकाव्य का उद्देश्य भी महत् होता है। धर्म, अर्थ, काम ओर मोक्ष की प्राप्ति के लिये वह प्रयत्नशील
रहता है। उसमें संघर्ष, साधना, चरित्र-विकास आदि का रहना भी अनिवार्य होता है। महाकाव्य का निर्माण युग-प्रवर्तनकारी परिस्थितियों के बीच में सम्पन्न किया जाता है।
प्रस्तावना :: 55