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इस चरित-काव्य में उक्त श्रेणी के संवाद नगण्य ही हैं। राजसभाओं के बीच होने वाले संवाद उक्त विधा के अंतर्गत आते हैं। बुध श्रीधर ने सभाओं के बीच होने वाले वार्तालापों में भी क्षिप्रगति का ही प्रदर्शन किया है। इसका मूल कारण यह है कि पासणांहचरिउ को चरित-काव्य का रूप देने के कारण वर्णन और संवेगों को ही महत्व प्रदान किया गया है। संवादों को लम्बायमान नहीं किया गया किन्तु इतना होने पर भी राजसभाओं के बीच सम्पन्न होने वाले नगण्य संवादों में भी पर्याप्त मार्मिकता है। ___ प्रस्तुत काव्य के संवादों में सिद्धान्त या आत्मतत्त्वों की सघनता पुराण के समान नहीं है, क्योंकि पुराण के संवाद बहुत ही विस्तृत होते हैं और वे संवाद से भाषण का स्थान ग्रहण कर लेते हैं, पर काव्य के संवाद उस करेंच (कोंच) की फली के समान हैं, जिसका हलका सा स्पर्श ही घंटों तक तीक्ष्ण कंडू उत्पन्न करने की क्षमता रखता है। महाकवि ने अपने इन क्षिप्रगामी संवादों को इसी प्रकार का प्रभावोत्पादक बनाया है।
उन्मुक्तक संवाद के अन्तर्गत उन संवादों को लिया जा सकता है, जिनमें पात्र प्रश्नोत्तर के रूप में अपने मानसिक वेगों को प्रस्तुत कर देते हैं। कभी-कभी इस प्रकार के संवाद समस्या के समाधान के साथ-साथ किसी सिद्धान्त-विशेष का भी प्रतिपादन प्रस्तुत करते हैं। उदाहरणार्थ हम यहाँ “पासणाहचरिउ” के कुछ प्रमुख संवादों को प्रस्तुत करते हैं
(1) काशी नरेश हयसेन और रविकीर्ति के दूत का संवाद (3/2-7) (2) पार्श्वनाथ का अपने पिता के साथ युद्ध-विषयक संवाद (3/13-15)
3) पार्श्वनाथ और तापस का संवाद (6/9) एवं,
(4) मरुभूति और राजा अरविन्द का संवाद (11/12) काशी नरेश हयसेन की राजसभा में राजा रविकीर्ति का दूत आता है। वह अपने स्वामी की अन्तर्व्यथा को महाराज हयसेन के सम्मुख उपस्थित कर देता है। महाकवि ने राजदूत के सन्देश को इतने आकर्षक और मनोहर ढंग से प्रस्तुत किया है कि उससे आजकल के राजदूत का आभास होने लगता है। उसके प्रत्येक कथन में तर्क के साथ भावनाओं को उद्वेलित करने की पूर्ण क्षमता है।
वह अपने कथन को हृदयस्पर्शी बनाने के लिये सर्वप्रथम रविकीर्ति के पिता शक्रवर्मा की संसार-विरक्ति और दीक्षा-ग्रहण कर सुख-संवाद उपस्थित करता है'। महाराज हयसेन अपने श्वसुर के आत्मकल्याण की बात अवगत कर हृदय में आनन्दित होते हैं।
रविकीर्ति का दूत यहीं पर विराम नहीं ले लेता, वह महाराजाधिराज के उत्तराधिकारी रविकीर्ति की अल्पशक्ति एवं दुर्दमनीय यवनराज की अनीति की उद्घोषणा कर हयसेन में क्रोध का संचार भी करता है। यतः मनोविज्ञान की दृष्टि से वीरता की भावना जागृत करने के लिये क्रोध का आवेग आना अत्यावश्यक है। महाकवि के इस सन्दर्भ की तुलना हम महाकवि कालिदास के अभिज्ञान-शाकुन्तल' में निरूपित उस स्थल से कर सकते हैं, जिसमें शक्र का सारथी मातलि शकुन्तला के विछोह में डूबे हुए शोकमग्न दुष्यन्त में वीरत्व के संचार के लिये उसके परम मित्र विदूषक की छिपे रूप में प्रताड़ना करता है। विदूषक की चीत्कार दुष्यन्त को क्रोधाभिभूत कर देता है, जिससे दुष्यन्त में वीरत्व का संचार हो जाता है और मातलि इन्द्र की सहायता के लिये दुष्यन्त को स्वर्ग में ले जाता है।
रविकीर्ति का दूत भी यवनराज की अनीति की ऐसी अतिरंजना के साथ वर्णन करता है, जिससे हयसेन रणक्षेत्र में ससैन्य जाने के लिए तैयार हो जाते हैं। दूत के आमर्षोत्पादक कथन का उत्तर भी हयसेन बड़े ही सन्तुलित
1. पासणाह. 3/2
पासणाह. 3/5-7 3. अभिज्ञान-शाकुन्तलम, छठवाँ अंक।
पासणाह. 3/7-9
प्रस्तावना :: 51