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राजधानी कुशस्थल में प्रवेश किया था और उसी समय रविकीर्ति ने अपनी बेटी प्रभावती के परिणय का प्रस्ताव पार्श्व के सम्मुख रखा था?
किन्त तिलोयपण्णत्ती तथा पउमचरियं में पार्श्व के कशस्थल जाने तथा वहाँ उनके विवाह की चर्चा का कोई उल्लेख नहीं है। उत्तरपुराण में भी पार्श्व के कुशस्थल जाने या युद्ध में भाग लेने की चर्चा नहीं है और न वहाँ पार्श्व के विवाह की योजना का भी कोई प्रसंग उठाया गया है। महाकवि पुष्पदन्त तथा वादिराज के ग्रन्थों में भी वही स्थिति है किन्तु देवभद्रसूरि ने इस प्रसंग का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। यद्यपि कुशस्थल के राजा के नाम में एकरूपता नहीं है। देवभद्रसूरि के अनुसार कुशस्थल के राजा का नाम प्रसेनजित था और पिता का नाम नरवर्म', जबकि बुध श्रीधर ने कुशस्थल के राजा का नाम रविकीर्ति या भानुकीर्ति तथा उसके पिता का नाम शक्रवर्मा माना है। इस प्रसंग में देवभद्रसूरि ने यह कथन भी किया है कि प्रसेनजित की कन्या किन्नरियों द्वारा पार्श्व की यशोगाथ सुनकर उनके प्रति आकृष्ट हुई थी। देवभद्रसूरि ने रविकीर्ति और पार्श्व में कोई पारस्परिक संबंध नहीं बताया जबकि बुध श्रीधर ने रविकीर्ति को स्पष्ट ही पार्श्व का मामा कहा है। देवभद्रसूरि के अनुसार पार्श्व को युद्ध में जाने का अवसर ही नहीं आया क्योंकि यवनराज ने अपने मंत्रियों द्वारा पार्श्व की अलौकिकता संबंधी वार्ताएं सुनकर स्वयं ही पार्श्व के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया था। देवभद्रसरि ने यवन के इस आत्मसमर्पण के बाद। प्रभावती के विवाह की चर्चा की है, बुध श्रीधर ने विवाह के प्रसंग का उल्लेख तो किया किन्तु तदनुसार उनका विवाह सम्पन्न नहीं हो सका क्योंकि उसके पूर्व ही उन्हें वैराग्य हो गया। देवभद्रसूरि के परवर्ती प्रायः समस्त श्वेताम्बर-लेखकों ने उनके ग्रन्थ का अनुकरण किया है।
पासणाहचरिउ : महाकाव्यत्व कथावस्तु-गठन एवं शिल्प
प्रस्तुत चरित-काव्य की कथा का मूल-स्रोत आचार्य गुणभद्र (७वीं सदी) कृत उत्तरपुराण है। उसके 37वें पर्व में पार्श्वनाथ की कथा वर्णित है। महाकवि बुध श्रीधर ने उत्तरपुराण से मूलस्रोत अपनाकर भी कथा-नियोजन में चातुर्य का प्रदर्शन किया है। उत्तरपुराण अथवा अन्य पार्श्वनाथ-चरितों के प्रायः आरम्भ में ही पार्श्वनाथ की पूर्वभवावली आरम्भ हो जाती है। तत्पश्चात् पार्श्वनाथ की मूलकथा आती है। पर प्रस्तुत चरित-काव्य में प्रथमतः कवि ने मूलकथा का अंकन किया है और बाद में मूलकथा को रसमय एवं उसमें जिज्ञासा-वृत्ति को उत्पन्न करने के हेतु सहकारी अवान्तर-कथा के रूप में भवावली को निबद्ध किया है।
बुध श्रीधर का यह शिल्प काव्य-तत्व की दृष्टि से अनुपम है। यतः काव्य के पाठक को भवान्तरों के जाल में प्रथम ही उलझ जाने के कारण मूलकथा तक पहुँचने में बहुत ही प्रयास करना पड़ता है। वह सरल और सीधे रूप में आदर्श-चरित को प्राप्त नहीं कर पाता। नैतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक आदर्श, जिन्हें वह अपने नायक के जीवन से ग्रहण करना चाहता है, कथा में बहुत दूर तक उस नायक के यथार्थ स्वरूप से अज्ञात ही बना रहता है। लम्बी-चौड़ी भवावलियाँ नदी के आवत्र्तों-विवर्तों के प्रतारण के समान पाठक की चेतनावृत्ति को मूर्छित जैसा बना देती हैं। फलतः कुछ दूर तक भावों के प्रवाह में बहने के उपरान्त ही मूलकथा का वह सन्दर्भांश पाठक के हाथ आ पाता है, जिसका सम्बल पाकर ही वह समस्त कथा में अन्विति कर पाता है।
बुध श्रीधर ने सर्वप्रथम काव्य की शैली में मूलकथा आरम्भ की है। यवनराज के साथ युद्ध करने के बाद पार्श्वनाथ संसार-विरक्त होकर तपश्चरण करने लगते हैं। पूर्वभव का शत्रु कमठ का जीव, विविध रूपों में उन
1. पासणाह. 6/5-6 2. पासणाह. (मोदी) भूमिका, पृ. 38
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