Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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षष्टाध्यायस्य प्रथमः पादः अर्थ:-लिटि प्रत्यये परतो व्यो धातोरेच: स्थाने आकारादेशो न भवति।
उदा०-संविख्याय, संविव्ययिथ।।
आर्यभाषा: अर्थ-(लिटि) लिट् प्रत्यय परे होने पर (व्य:) व्यञ् (धातो:) धातु के (एच:) एच् के स्थान में (आत्) आकार आदेश (न) नहीं होता है।
उदा०-संविव्याय। उसने आच्छादित किया। संविव्ययिथ । तूने आच्छादित किया।
सिद्धि-संविव्याय। सम्+व्येञ्+लिट् । सम्+व्ये+तिम् । सम्+व्ये+णल् । सम्+व्ये-व्ये+अ। सम्+व् इ ए-व्यै+अ। सम्+वि-व्याय्+अ। संविव्याय।
यहां सम्' उपसर्गपूर्वक व्ये संवरणे' (भ्वा०उ०) धातु से लिट् प्रत्यय, उसके लकार के स्थान में पूर्ववत् तिप्' आदेश तथा उसके स्थान में णल् आदेश है। लिट्यभ्यासस्योभयेषाम्' (६।१।११७) से अभ्यास के यकार को इकार सम्प्रसारण, सम्प्रसारणाच्च' (६।१।१०५) से एकार को पूर्वरूप एकादेश होता है। 'अचो मिति (७।२।११५) से अंग को वृद्धि और उसे 'एचोऽयवायाव:' (६।११७६) से आय आदेश होता है। ऐसे ही 'थल्' प्रत्यय परे होने पर-संविव्ययिथ । यहां इडत्यर्तिव्ययतीनाम् (७।२।६६) से थल् को इट् आगम होता है। घनि
(३) स्फुरतिस्फुलत्योर्घनि।४७। प०वि०-स्फुरति-स्फुलत्यो: ६।२ घजि ७।१।
स०-स्फुरतिश्च स्फुलतिश्च तौ स्फुरतिस्फुलती, तयो:-स्फुरतिस्फुलत्योः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
अनु०-धातोः, आत्, एच इति चानुवर्तते। अन्वय:-घञि स्फुरतिस्फुलत्योर्धात्वोरेच आत्।
अर्थ:-घत्रि प्रत्यये परत: स्फुरतिस्फुलत्योर्धात्वोरेच: स्थाने आकारादेशो भवति।
उदा०- (स्फुरति:) विस्फारः, विष्फारः। (स्फुलति:) विस्फाल: विष्फालः।
आर्यभाषा: अर्थ-(घत्रि) घञ् प्रत्यय परे होने पर (स्फुरतिस्फुलत्योः) स्फुरति और स्फुलति (धातो:) धातुओं के (एच:) एच् के स्थान में (आत्) आकार आदेश होता है।