Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
View full book text
________________
४६
षष्टाध्यायस्य प्रथमः पादः अर्थ:-परि-उपसर्गात् परस्य व्यो धातोर्त्यपि प्रत्यये परतो विकल्पेन सम्प्रसारणं न भवति।
उदा०-परिवीय यूपम् (सम्प्रसारणम्)। परिव्याय यूपम् (सम्प्रसारणं न)।
आर्यभाषा: अर्थ-(परे:) परि उपसर्ग से परे (व्यः) व्या (धातो:) धातु को (ल्यपि) ल्यप् प्रत्यय परे होने पर (विभाषा) विकल्प से (सम्प्रसारणम्) सम्प्रसारण (न) नहीं होता है।
__ उदा०-परिवीय यूपम् (सम्प्रसारण)। यूप-यज्ञस्थूणा को आच्छादित करके। परिव्याय यूपम् (सम्प्रसारण नहीं)। अर्थ पूर्ववत् है।
सिद्धि-(१) परिवीय । परि+व्या+क्त्वा। परि+व्या+ ल्यप् । परि+व इ आ+ल्यप । परि+वि+य। परि+वी+य। परिवीय+सु । परिवीय+० । परिवीय।
यहां परि' उपसर्गपूर्वक व्यञ् संवरणे' (भ्वा० उ०) धातु से पूर्ववत् क्त्वा प्रत्यय और उसे ल्यप् आदेश है। वचिस्वपियजादीनां किति' (६।१।१५) से प्राप्त सम्प्रसारण का इस सूत्र से प्रतिषेध नहीं है।
(२) परिव्याय । यहां परि-उपसर्गपूर्वक व्या' धातु से पूर्ववत् क्त्वा प्रत्यय और उसे ल्यप्' आदेश है। 'वचिस्वपियजादीनां किति' (६।१।१५) से प्राप्त सम्प्रसारण का इस सूत्र से विकल्प पक्ष में प्रतिषेध है।
न वेति विभाषा' (१।१।४३) से निषेध और विकल्प की विभाषा संज्ञा है। अत: यहां विभाषा-वचन से वचिस्वपियजादीनां किति' (६।१।१५) से प्राप्त सम्प्रसारण का न' से प्रतिषेध होकर 'वा' से विकल्प का विधान किया जाता है।
।। इति सम्प्रसारणप्रकरणम् ।।
आकारादेशप्रकरणम् शिति
(१) आदेच उपदेशेऽशिति।४५। प०वि०-आत् ११ एच: ६।१ उपदेशे ७।१ अशिति ७।१।
स०-श चासौ इत् शित्, न शित् अशित्, तस्मिन्-अशिति (कर्मधारयगर्भितनञ्तत्पुरुषः)।
अनु०-धातोरित्यनुवर्तते। अन्वय:-उपदेशे एचो धातोराद् अशिति ।