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प्रस्तावना
३५ तथापि भवितव्यता के अनुसार सब कार्य ठीक हो जाता है। राम वस्त्रावर्त घनुषको चढ़ाकर सीताके साथ विवाह करते हैं । केकयाकी रणकलासे राजा दशरथ उसपर अधिक प्रसन्न होते हैं, उसके लिए इच्छित वर देते हैं । कारण पाकर उन्हें वैराग्य आता है । रामको राज्य देनेका अवसर आता है । केकयाकी विद्रोहात्मक भावना उमड़ती है और वह अपने पुत्र भरतको राज्य देने की बात सामने रखती है । दशरथ मनचाहा वर देनेके लिए वचनबद्ध होनेसे केकयाकी बात मान लेते हैं । राम, लक्ष्मण और सीताके साथ वनको चले जाते है । राम-लक्ष्मणकी माताओंके विलाप एवं प्रजाजनोंकी कटुक आलोचनाएँ राजा दशरथको अपने इस सत्य से विमुख नहीं कर पाती हैं । रामके चले जानेपर वे दीक्षा लेकर आत्मकल्याण करते हैं । इस प्रकरण में वाल्मीकिने राजा दशरथका केकयाके प्रति कामासक्ति आदिका वर्णन कर उनकी पर्याप्त भर्त्सना की पर रविषेणने रामपिता के चित्रण में ऐसी कोई बात नहीं आने दी कि जिससे वे गौरव के शिखरसे नीचे गिर सकें ।
[ ४ ] केकया
Shahar निखिल कला पारंगत नारी है। आचार्य रविषेणने इसकी कलाओंका वर्णन करनेके लिए एक पूरा का पूरा पर्व समाप्त किया है । इसके पुत्रका नाम भरत है। मनोविज्ञानकी यह पूर्ण पण्डिता है । मिथिलामें जब राम और लक्ष्मणका शान-शौकत के साथ विवाह होता है तब इसे भरतकी मनोदशाका भान होता है जिससे यह राजा दशरथसे एकान्तमें कहती है कि जनकके भाई कनककी पुत्री के साथ भरत के विवाहका आयोजन करो । केकयाको आज्ञानुसार राजा दशरथ वैसा ही करते हैं । यद्यपि अवसर पाकर केकयाके हृदय विमाताकी ईर्ष्या जागृत होती है पर वह पीछे चलकर बहुत पछताती है । भरत तथा अनेक सामन्तोंको साथ लेकर वह वनमें स्थित राम-लक्ष्मणको लौटाने के लिए स्वयं जाती है । बहुत अनुनय-विनय करती है पर राम टस से मस नहीं होते हैं प्रत्युत समझा-बुझाकर भरतका ही पुनः राज्याभिषेक करते हैं । केकया अपनी करनीपर पश्चात्ताप करती हुई वापस आ जाती है ।
[५] राजा जनक
लोकमें हर ले जाता है । सीताका भामण्डल के साथ रामके लिए देना निश्चित प्रशंसा करते हैं । जिसे
मिथिला के राजा जनक सीताके पिता हैं। बहुत ही विवेकी और स्वाभिमानको रक्षा करनेवाले हैं । नारदीय लीलाके कारण सीताका चित्रपट देख भामण्डल विद्याधर जो इन्हींका जन्महृत पुत्र था, सीतापर मोहित हो गया था । एक विद्याधर मायामय अश्वका रूप रख जनकको विद्याधर जनक विद्याधरकी सभा में प्रविष्ट होते हैं, विद्यावर कहते हैं तुम अपनी पुत्री विवाह कर दो पर जनक साहसके साथ कहते हैं कि हम तो सीता दशरथ के पुत्र कर चुके हैं । इस प्रकरणमें विद्याधर भूमिगोचरियोंकी निन्दा और विद्याधरोंको सुनकर जनकका आत्मतेज प्रकट होता है और विद्याधरोंकी भरी सभा में डॉट लगाते हैं कि यदि विद्याधरों को आकाश में चलनेका घमण्ड है तो आकाशमें कोआ भी चलता है । विद्याधर यदि उत्तम हैं तो उनमें तीर्थंकर जन्म क्यों नहीं लेते ? आचार्य रविषेणकी कलमके तात्कालिक उद्गार बहुत ही कौतुकावह हैं । अन्त में वज्रावर्त धनुष चढ़ानेकी शर्त स्वीकृत कर जनक मिथिला वापस आते हैं, स्वयंवर होता है, राम धनुष चढ़ा देते हैं और सीताके साथ उनका विवाह होता । विद्याधर मुँह की खाकर वापस जाते हैं । भामण्डलको विद्याधर पिताकी इस चुप्पीपर रोष आता है, वह स्वयं ही सीताहरणकी बात सोच सेनाके साथ आता है। लेकिन जाति स्मरण होनेसे उसका हृदय परिवर्तित हो जाता है । मुनिके मुखसे भवान्तर सुनता है । अयोध्या में बहन सीताके साथ भामण्डलका मिलान होता है । राजा दशरथ जनकको बुलाते हैं । चिरकालके बिछुड़े जन्महृत पुत्रके सम्मेलनसे राजा जनक और रानी विदेहाको जो आनन्द उत्पन्न होता है उसका कौन वर्णन कर सकता है ? फिर भी उस समय आचार्य रविषेणने वात्सल्य रसकी जो धारा बहायी है वह तो
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