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* नीतिवाक्यामृत
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जो व्यक्ति बहुत आरम्भ और परिग्रह रखता है, दूसरों को धोखा देता है और दुराचारी है वह हंस ( दयालु ) किस प्रकार हो सकता है ? नहीं हो सकता ||१३||
शाकाने पुण्यको प्रकाशरूप और पापको अन्धकाररूप माना है इससे जिसके हृदयमें दयारूपी सूर्यका प्रकाश हो रहा है उसमें अन्धकाररूपपाप क्या रह सकता है ? नहीं रह सकता ||१४||
अहिंसा धर्म के माहात्म्यसे मनुष्य दीर्घजीवी, भाग्यशाली, धनाढ्य, सुन्दर और यशस्वी होता है ||१५|| अब सस्यागुतका' निरूपण करते हैं
सत्यवादी मनुष्य प्रयोजनसे अधिक बोलना, दूसरोंके दोषोंको कहना और असभ्य वचनोंका बोलना छोड़कर सदा उचकुलको प्रगट करनेवाले प्रिंथ, हितकारक और परिमाणयुक्त वचन बोले ॥१॥
ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिये जिससे दूसरे प्राणियोंको और उसे भयानक आपत्तियोंका सामना करना पड़े |२॥
सत्यवादीको सौम्य प्रकृतियुक्त, सदाचारी, हितैषी, प्रियवादी, परोपकारी और दयालु होना चाहिये ||३||
भेद ( दूसरोंके निश्चित अभिप्रायको प्रकाशित करना) परनिन्दा, चुगलीकरना, झूठे दस्तावेज आदि सिखाना और झूठी गवाही देना इन दुर्गा गोंको छोड़ना चाहिये क्योंकि इससे सत्यत्रत न होना है ||४||
जिस वाणी से गुरु आदि प्रमुदित होते हैं वह मिया होनेपर भी मिथ्या (झूठी नहीं समझी जानी ||५| सत्यवादी आत्मप्रशंसा और परनिन्दाका त्यागकर दूसरोंके विद्यमान गुणोंका घात न करता हुआ अपने विद्यमान गुणोंको न कहे ||६||
क्योंकि परनिन्दा और आत्मश्लाघा मे मनुष्यको नीचगोत्र और उसका त्याग करनेसे उच्चगोत्रका बंध होता है
जो व्यक्ति दूसरों के साथ सद्व्यवहार करता है उसे स्वयं वैसा ही व्यवहार प्राप्त होता है; अतएव fas मनुष्यको प्राणीमात्रके साथ कभीभी दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिये ||
जो मनुष्य दूसरे प्राणियों में अज्ञानविकारका प्रसार करते हैं वे स्वयं अपनी धमनियों में उसके प्रवाह सिवन करते हैं ॥६॥
लोकमें प्राणियों के चित्तरूपी वस्त्र जब दोषही जलसे व्याप्त होते हैं तब गुरु ( वजनदार - पानी) होजाते हैं। परन्तु जब वे गुरूपी गर्मीसे युक्त होते हैं तब लघु (सूक्ष्म- पुण्यशाली) हो जाते हैं ||१२||
सत्यवादी पुरुषको सत्यके प्रभावसे वचनसिद्धि प्राप्त होती है एवं उसकी वाणी मान्य होती है ।।११।। ओ मनुष्य अपनी इच्छा, ईर्ष्या, क्रोध और हर्षादिकके कारण झूठ बोलता है वह इस लोक में जिह्वाछेदन आदिके दुःख और परलोक में दुर्गेतिके दुःग्योंको प्राप्त होता है ||१२||
और धर्म free में प्रवृत्त हुए मनुष्य को इसलोक में अमिट अपकीति और परलोकमं चिरकालीन दुर्गतिके दु:ख होते हैं ||१३||
१ देखो यशस्तिलक श्र० ७ ।