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* नीतिवाक्यामृत *
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देते हैं क्या अनेक सूक्ष्म जीय भी आगमप्रमाणमे मिद्ध पाये जाने हैं। इसलिए नैनिकरुप इनका यावतो. घन त्याग करे ॥३॥ अब भावकोंके उत्तरगुणोंका निर्देश करते हैं। :--
५अमानत (अहिंसा, मत्य, अनीम, ब्रह्मचर्य और परिप्रहपरिमाणाणुनत), ३ गुणन (दिन. देराकत, और अनर्थदंडवत) और ५ शिक्षाबत (मामायिक, प्रोपयोषवाम, भोगावभागरिमा और पात्रदान) ये श्रावकोंके १८. उत्तरगुण है, ॥१क्षा
उनमें हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिप्रा इन पांच पापोंक एकदश त्यागको अगुवन कहते हैं ।सा
प्रशस्त कार्यों (अहिंसा आदि ) में प्रनि करना और अप्रशन्न कार्यो ( हिंमा आदि ) का स्याग करना उसे व्रत कहा गया है ।।३।।
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिवार इन पाक्रिया में प्रवृनि कानंग इम लोकमे भयान'. दुःख और परलोकमें दुर्गेतिके दुःग्य भोगने पड़ने है । अब अहिंसाणुव्रतका कथन करते है :
काम और क्रोधादि कपायोंके वश होकर प्राणियोंक प्राणांका यान करना या उन्हें मानसिक पीड़ा पहुंचाना हिमा है । इसके विपरीत रागद्वेप और माह आदि कपायाको त्यागकर प्राणियोंकी पना करना और यत्नाचाररूर प्रवृनि करना अहिमा है ।।४॥
जो मनुष्य देवताओं की पूजा, अतिश्रमार, पितृकम गचं साटन और मामा श्रादिक मन्त्री लिय तथा औषधि सेवनमें और मयाम बचने के लिये किसी भी प्राणीकी हिंमा नहीं करना उमा २४ अहिंमानाम अगुवन है ।।६।।
दयालु पुरुप झामन, शय्या, माग, अन्न श्री जो कुछ भी मर पदार्थ है नई येथन कता.' भी बिना नंग्य शोध संबन न करे |
गृह के कार्य (कूटना और पीमना आदि) इन्त्रभाल करके करान चाहिय और ममम्न न पहा (दूध, घी, मेल और जलादि) कपड़ेसे छानकर उपयोगी जाने चाहिये ||
विवेक मनुष्य अहिंसातकी रक्षा के लिये और मृत्वगुणांकी विशुद्धिक लिये इस नोक, और पा. लोकमें दुःखदेनेवाले रात्रिभोजनका त्याग को ||
व्रती पुरुष अनेक जीवोंकी योनि अचार, पत्ता बाली शाम, घुणा हुआ अन्न, पुष्प, मूल और पद
पीपल आदि उनम्बर फलोंका सेवन न करे एवं प्रमगशिमे व्याव (मोना आदि ) का भक्षण न करे ॥१३॥ - कोई मी पदार्थ चाई यह अमित्र हो या मित्र याद बह अपने योग्य काल और पवित्र क्षेत्री मर्यादाको छोड़ चुका है तो वह अभय है ।।।।
देखो यानल प्रा. पृ.3: