Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन- -प्रथम उद्देशक
वस्तु जैसी और वस्तुतः जिस स्वरूप में है उसे वैसी और उस रूप में न मानकर मिथ्याग्रहवश विपरीत रूप में मानना । ऐसा मिथ्यात्व ( मिथ्यादर्शन) दो प्रकार का होता है - ( १ ) यथार्थ तत्त्वों में श्रद्धा न होना, (२) अयथार्थ वस्तु पर श्रद्धा करना । पहला मूढ़दशा में होता है, दूसरा विचारदशा में । इस दृष्टि से मिथ्यात्व के १० भेदों का उल्लेख भी जैनागम स्थानांग सूत्र में किया है - - ' जीव में अजीव की मान्यता या श्रद्धा, अजीव में जीव की श्रद्धा, धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म मानना, साधु को असाधु और असाबु को साबु मानना, संसार के मार्ग को मोक्षमार्ग और मोक्ष मार्ग को संसार-मार्ग मानना और आठ कर्मों से मुक्त में अमुक्त की और अमुक्त में मुक्त की मान्यता रखना ।' मिथ्यात्व के विविध कारणों की दृष्टि से भी मिथ्यात्व के ५ एवं २५ प्रकार शास्त्रों में बताये गये हैं । यों तो पाँच भेदों में ही २५ भेदों का समावेश हो जाता है । ये पाँच प्रकार ये हैं, जो मिथ्यात्व के कारणों की उद्घोषणा करते हैं - ( १ ) अभिग्रहिक, (२) अनाभिग्रहिक, (३) सांशयिक, (४) अनाभोगिक एवं ( ५ ) आभिनिवेशिक । तत्त्व की परीक्षा किये बिना ही पक्षपातपूर्वक एक सिद्धान्त का आग्रह करना और अन्य पक्ष का खण्डन करना अभिग्रह मिथ्यात्व है । गुण-दोष की परीक्षा किये बिना ही सब पक्षों को बराबर समझना अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व है । देव, गुरु, धर्म या सिद्धान्त के विषय में संशयशील बने रहना, कोई निर्णय न करना कि इसका स्वरूप यह है या वह ? इस प्रकार संशय के झूले में झूलते रहना सांशयिक मिथ्यात्व है । विचारशून्य एकेन्द्रियादि जीवों की तरह विशेष ज्ञानविकलतापूर्वक जो मिथ्यात्व हो, यह अनाभोगिक मिथ्यात्व है तथा अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी उसकी स्थापना के लिये दुरभिनिवेश ( दुराग्रह - हठ ) करना आभिनिवेशिक मिथ्यात्व है । इसी प्रकार तीन प्रकार के मिथ्यात्व भी हैं - अक्रिया, अविनय, अज्ञान । ये मिथ्यात्व विपरीत श्रद्धा के अर्थ में नहीं किन्तु क्रिया, विनय और ज्ञान असम्यक् हों, दोष दूषित हों, उनको पकड़े रखने के अर्थ में ये मिथ्यात्व हैं । इसी प्रकार मिथ्यात्व के ६ स्थान भी सन्मतितर्क में बताये गये हैं
१. दसविहे मिच्छत्ते पण्णत्ते तं जहा -- अधम्मे धम्म सण्णा, धम्मे अधम्म सण्णा अमग्गे मण्णा, मग्गे उमग्ग सगा । अजीवेसु जीव सण्णा, जीवेसु अजीवसण्णा, असासु सहुसण्णा, साहुसु अपाहुसण्णा, अमुत्तेसु मुत्तसण्णा, मुत्तेसु अमुत्तमण्णा । - स्थानांग, सूत्र ७३४
२. धर्मसंग्रह अधिकार २, श्लोक २२, कर्मग्रन्थ भा० ४, गा० ५२ । ३. तिविहे मिच्छते पण्णते, तं जहा अकिरिया, अविणए, अणाणे ।
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- स्थानांग, स्था० ३
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