Book Title: Jain Bauddh Tattvagyana Part 02
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन-बौद्ध तत्वज्ञान - दूसरा भाग। । लेखकब्रह्मचारी सीतलप्रसादजी। - - लाला महावीरप्रसादजी जैन एडवोकेट-हिसारकी पूज्य माताजी श्रीमती ज्वालादेवीकी ओरसे 'जैनमित्र' के ३८वे वर्षके ग्राहकोंको मेंट। - Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-बौद्ध तत्वज्ञान। दूसरा भाग। सम्पादक - श्रीमान् ब्रह्मचारी मीतलप्रसादजी, [अनक जैन शास्त्रोके टाकाकार सम्पादन कर्ता तथा अध्यात्म प्रथाक रचयिता ] प्रकाशक - मूलचन्द किसनदास कापड़िया, मालिक, दिगम्घा जनपुस्तकालय-सूरत । raulidubartim Hamanuadanand हिसारनिवासा श्रामान् लाला लाचारप्रसारमा जन ण्डनाटका प्रय माताजा श्रीमता लाशीजाका जारसे 'अनामित्र के ३८ वकिग्राराको मत। A प्रथम वृत्ति] वीर स० २४६४ प्रति १२००+२०० e ndamana 24 RASTRRAZEERRRRRIAL- KUMAZIABAR Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुरच मुद्रकिसनगम कार्याया " जनविजय " प्रिंटिंग प्रेस, गावीचौक सूरत । ---- ॥ प्रकाशक मूलचन्द्र किसनदास कापडिया, मालिक तिगम्बर जनपुस्तकालय कादिभवन-सूरत । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - भूमिका। X जैन बौद्ध तत्वज्ञान पुस्तक प्रथम भाग सन् १९३२ में लिख कर प्रसिद्ध की गई है उसकी भूमिकामें यह बात दिखलाई जाचुकी है कि प्राचीन बौद्ध धर्मका और जैनधर्म का तत्वज्ञान बहुत अशमें मिलता हुआ है । पाली साहित्यको पढ़नेसे बहुत अंशमें जैन और बौद्धकी साम्यता झलकती है। आजकल सर्वसाधारणमें जो बौद्ध धर्मके सम्बन्धमें विचार फैले हुए है उनमे पाली पुस्तकोंमें दिखाया हुआ कथन बहुत कुछ विलक्षण है। सर्वथा क्षणिकवाद बौद्धमत है यह बात प्राचीन ग्रन्थक पढ़नेसे दिलमें नहीं बैठता है। सर्वथा क्षणिक माननेसे निर्वाणमें बिलकुल शू-यता आजाती है। पर तु पाली साहित्यमे निर्वाणके विशेषण है जो किसी विशेषको झल काते है । पाली कोषमे निर्वाणके लिये ये शब्द आये है-' मुम्बो (मुरबा) निरोधो, निव्वान, दीप, वराहक्खय (तृप्णाका क्षय) तान (क्षक), लेन (लीनता) अरूव सत (शात), असखत (असस्कृत), मिव (मानम्दरूप), अमुन्त अमूर्तीक), सुदुटस ( अनुभव करना कठिन है ), परयन (श्रेष्ठ मार्ग), सग्म ( शरणभुत) निपुण, मनन्त, अक्स्वर (मक्षय), दु खक्खय, अद्वापज्झ ( सत्य ), अनालयं (उच्च गृह), विवट्ट ( ससार रहित), खेम, केवल, अपवग्गो (अपवर्ग), विगगो, पणीत ( उत्तम ), अच्चुत पद ( न मिटनेवाला पद) योग खेम, पार, मुक्त (मुक्ति ) विशुद्धि, विमुत्ति ( विमुक्ति) असखत धातु ( मसस्कृत धातु ), सृद्धि, निव्वुत्ति ( निर्वृत्ति)।' Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि निर्वाण अभाव या शून्य हो तो ऊपर लिखित विशेषण नहीं बन सक्ते है । विशेषण विशेष्यके ही होते है । जब निर्वाण विशेष्य है तब वह क्या है, चेतन है कि अचेतन । अचेतनक विशेषण नहीं होसक्ते । तब एक चेतन द्रव्य रह जाता है। केवल, भजात, अक्षय, मसस्कृत धातु मादि साफ साफ निर्वाणको कोई एक परसे मिल अजन्मा व ममर, शुद्ध एक पदार्थ झलकाते है। यह निर्वाण जैन दर्शनके निर्वाणसे मिल जाता है जहापर शुद्धात्मा या परमात्माको अपनी केवल स्वतत्र सत्ताको रखनेवाला बताया गया है । न तो वहा किसी ब्रह्ममें मिलना है न किसीके परतत्र होना है, न गुणरहित निर्गुण होना है। बौद्धोंका निर्वाण वेदात साख्यादि दर्शनों के निवा णके साथ न मिलकर जैनोंक निर्वाणके साथ भलेप्रकार मिल जाता है। यह वही मात्मा है जो पाच स्कधकी गाड़ीमें बैठा हुआ ससार चक्रमें घूम रहा था । पाचों स्कोंकी गाड़ी मविद्या और तृष्णाके क्षयसे नष्ट होजाती है तब सर्व सस्कारित विकार मिट जाते है, जो शरीर व अन्य चित्त सस्कारोंमें कारण होरहे थे । जैसे अग्निके सयोगसे जल उबल रहा था, गर्म था, सयोग मिटते हो वह जल परम शात स्वभावमें होजाता है वैसे ही सस्कारित विज्ञान व रूपका सयोग मिटते ही अजात अमर आत्मा केवल रह जाता है। परमा नन्द, परम शात, अनुभवगम्य यह निर्वाणपद है, वैसे ही उसका साधन भी स्वानुभव या सम्यकममाधि है। बौद्ध साहित्यमें जो निर्वाणका कारण अष्टागिकयोग बताया है वह जैनोंके रत्नत्रय मार्गसे मिल जाता है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकूचारित्रकी एकता अर्थात् निश्चयसे शुद्धात्मा या निर्वाण स्वरूप अपना श्रद्धान व ज्ञान व चारित्र या स्वानुभव ही निर्वाण मार्ग है । इस स्वानुभव के लिये मन, वचन, कायकी शुद्ध क्रिया कारणरूप है, तत्वस्मरण कारणरूप है, आत्मबलका प्रयोग कारणरूप है। शुद्ध भोजनपान कारणरूप है, बौद्ध मार्ग है। सम्यग्दर्शन, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्म, सम्यकू आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि । सम्यग्दर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञानमे सम्यक् सकल्प सम्यक्चारित्र में शेष छ गर्मित है। मोक्षमार्गके निश्चय स्वरूपमें कोई भेद नहीं दीखता है । व्यवहार चरित्रमें जब निर्ग्रथ साधु मार्ग वस्त्ररहित प्राकृतिक स्वरूपमें है तब बौद्ध भिक्षुके लिये सवत्र होनेकी आज्ञा है । व्यवहार चारित्र सुलभ कर दिया गया है । जैसा कि जैनोंमें मध्यम पात्रोंका या मध्यम व्रत पालनेवाले श्रावकका ब्रह्मचारियोंका होता है । अहिसाका, मत्री, प्रमोद, करुणा, व माध्यस्थ भावनाका बौद्ध और जैन दोनोंमे बढिया वर्णन है । तत्र मासाहारकी तरफ जो शिथिलता बौद्ध जगतमें आगई है इसका कारण यह नहीं दीखता है कि तत्वज्ञानी करुणावान गौतमबुद्धने कभी मास लिया हो या अपने भक्तो मासाहारकी सम्मति दी हो, जो बात लकावतार सूत्रमे जो मस्कृत से चीनी भाषामें चौथी पाचवीं शताब्दी में उल्था किया गया था, साफ साफ झलकती है। पाली साहित्य सीलोन में लिखा गया जो द्वीप मत्स्य व मासका Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) घर है, वहार भिक्षुओंको भिक्षा में अपनी हिंसक अनुमोदना के विना मास मिल जाये तो ले ले ऐसा पाली सूत्रोंमें कहीं कहीं कर दिया गया है । इस कारण मासका प्रचार होजानेसे प्राणातिपात विरमण व्रत नाम मात्र ही रह गया है। बौद्धोंके लिये ही कसाई लोग पशु मारते व बाजारमे वेचते है । इस बातको जानते हुए भी बौद्ध ससार यदि मासको लेता है तब यह प्राणातिपात होनेकी अनु मति से कभी बच नहीं सक्ता । पाली बौद्ध साहित्य में इस प्रकारको शिथिलता न होती तो कभी भी मासाहारका प्रचार न होता । यदि वर्तमान बौद्ध तत्वज्ञ सूक्ष्म दृष्टिसे विचार करेंगे तौ इस तरह मासा हारी होने से अहिसा व्रतका गौरव बिलकुल खो दिया है । जब अन्न व शाक सुगमता से प्राप्त होसक्ता है तब कोई बौद्ध भिक्षु या गृहस्थ मासाहार करे तो उसको हिलाके दोषसे रहित नहीं माना जाता है व हिंसा होने में कारण पड जाता है । यदि मासाहारका प्रचार बौद्ध साधुओं व गृहस्योंसे दूर हो जावे तो उनका चारित्र एक जैन गृहस्थ या त्यागी के समान बहुत कुछ मिल जायगा । बौद्ध भिक्षु रातको नहीं खाते, एक दफे भोजन करते, तीन काल सामायिक या ध्यान करते, वर्षाकाल एक स्थल रहते, पत्तियोंको घात नहीं करते है । इस तरह जैन और बौद्ध तत्वज्ञान में समानता है कि बहुतसे शब्द जैन और बौद्ध साहित्य के मिळते है । जैसे आस्रव, सवर आदि । पाली साहित्य यद्यपि प्रथम शताब्दी पूर्वके करीब सीलोनमे लिखा गया तथापि उसमे बहुतसा कथन गौतमबुद्ध द्वारा कथित Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) बिलकुल शुद्ध है, है ऐसा माना जा सक्ता है । ऐसा तो कहा नहीं जा सक्ता । जैन साहित्य मिलने का कारण यह है कि गौतमबुद्धने जब घर छोडा तर ६ वर्षके बीच में उन्होंने कई प्रचलित स धुके चारित्रको पाळा । उन्होंन दिगम्बर जैन साधु के चारित्रको भी पाला । अर्थात् नग्न रहे, क्शलोंच किया, उद्दिष्ट भोजन न ग्रणक्रिया बादि । जैसा कि मज्झिमनिकाय के महासिंहनाद नामके १२ वे सूत्रसे प्रगट है । दि० जैनाचार्य नौमा शतान्दीमें प्रसिद्ध देवसेनजी कृत दर्शनसारसे झलकता है कि गौतमबुद्ध श्री पार्श्वनाथ तीर्थकर की परि पाटी प्रसिद्ध पिहितास्त्रच मुनिके साथ जैन मुनि हुए थे, पीछे मतभेद होनेस अपना धर्म चलाया । जैन बौद्ध तत्त्वज्ञान प्रथम भागकी भूमिका से प्रगट हाल कि प्राचीन जैन्धर्म और बौद्धधर्म एक ही समझा जाता था । जैसे जैनोंमें दिगम्बर व शेतावर भेद होगय वैसे ही उस समय निर्ग्रय धर्म भेदरूप बुद्ध धर्म होगया था । पाली पुस्तकों का बौद्ध धर्म प्रचलिन बौद्ध धर्मसे विलक्षण है । यह बात दुमरे पश्चिमीय विद्वानोंने भी मानो है । मिश्रण रहित है, बौद्ध साहित्य के (1) Sacred book of the East Vol XI 1889– by T W Rys Davids, Max Muller Intro Page 22 - Budhism of Pa/1_Pitakas_15 not only a quite different thing from Budhism as hitherto conmmonly received, but is autogonistic to it Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ (८) अर्थात् - इस पाली पिटकका बौद्ध धर्म साधारण अबतक प्रचलित बौद्ध धर्मसे मात्र बिलकुल भिन्न ही नहीं है, किन्तु उससे विरुद्ध है । (2) Lite of the Budha by Edward J Thomas MA (1927) P 204 They all agree in holding that primitive teaching must have been some thing different from what the earliest scriptures and commentatus thought it was अर्थात- इस बात से सब सहमत है कि प्राचीन शिक्षा अवश्य उससे भिन्न है जो प्राचीन ग्रा और उसके टीकाकारोंने समझ लिया था । 1 बौद्ध भारतीय भिक्षु श्री राहुल साह यायन लिखित बुद्धचर्या हिंदीमे प्रगट है । पृ० ४८१ सानगामसुत्त कहता है कि जब गौतम बुद्ध ७७ वर्षके थे तब महावीरस्वामीका निर्माण ७२ वर्षमें हुआ था | जैन शास्त्रोंसे प्रगट है कि महावीरस्वामीने ४२ वर्षकी आयु तक अपना उपदेश नहीं दिया था। जब गोल्म बुद्ध ४७ वर्षके थे तब महावीर स्वामीने अपना उपदेश प्रारम्भ किया । गौतम बुद्धने २९ वर्षकी आयु घर छोड़ा। छ वर्ष साधना किया । ३५ दषकी आयुमै उपदेश प्रारम्भ किया । इससे प्रगट है कि महावीर स्वामीका उपदेश १२ वर्ष पीछे प्रगट हुआ तब इनके पहले श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकरका ही उपदेश प्रचकित था । उसके अनुमार ही बुद्धने जैन चारित्रको पाला | जैसी असहनीय कठिन तपस्या बुद्धने की ऐसी आज्ञा जैन शास्त्रोंमे नहीं है। शक्तितस्तपका उपदेश Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९ ) है कि आत्म रमणा बढे उतना ही बाहरी उपवासादि तप करो । गौतम मर्यादा रहित किया तब घबड़ाकर उसे छोड़ दिया और जैनोंके मध्यम मार्ग के समान श्रावकका सरल मार्ग प्रचलित किया । पाली सूत्रों के पढ़ने से एक जैन विद्यार्थीको वैराग्यका अदभुत आनन्द आता है व स्वानुभवपर लक्ष्य जाता है, ऐसा समझकर मैने मज्झनिकाय के चुने हुए २५ सूत्रोंको इस पुस्तक में भी राहुल aa हिंदी उल्था के अनुसार देकर उनका भावार्थ जैन सिद्धात से मिलान किया है। इसको ध्यानपूर्वक पढनेसे जैनको और बौद्धोंको तथा हरएक तत्वखोजीको बड़ा ही काम व आनद होगा । उचित यह है कि जैनोंको पाली बौद्ध साहित्यका और बौद्धोंको जैनोंके प्राकृत और संस्कृत साहित्यका परस्पर पठन पाठन करना चाहिये । यदि मासाहारका प्रचार बन्द जाय तो जैन और बौद्धों के साथ बहुत कुछ एकता होती है । पाठकगण इस पुस्तकका रस लेकर मेरे परिश्रमको सफल करें ऐसी प्रार्थना है । हिसार ( पंजाब ) ३-१२-१९३६ } ब्रह्मचारी सीतलप्रसाद जैन । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त परिचयधर्मपरायणा श्रीमती ज्वालादेवीजी जैन-हिसार । ___ यह “ जैन बौद्ध तत्वज्ञान " नामक बहुमूल्य पुस्तक जो " जैनमित्र "के ३८वें वर्षके ग्राहकोंक हाथोमें उपहार के रूपमें प्रस्तुत है, वह श्रीमती ज्वालादेवीजी, धर्मपत्नी ला० ज्वालाप्रसादजी व पूज्य माता ला. महावीरप्रसादजी वकीलकी ओरसे दी जारही है। श्रीमतीजीका जन्म विक्रम संवत् १९४०में झझर (रोहतक) में हुवा था । आपके पिता ला० सोहनलालजी वहापर अर्जी नवीसीका काम करते थे। उस समय जैनसमाजमे स्त्रीशिक्षाकी तरफ बहुत कम ध्यान दिया जाता था, इसी कारण श्रीमतीजा भी शिक्षा ग्रहण न कर सकी । खद है कि आपके पितृगृहमें इससमय कोई जीवित नहीं है । मात्र भापकी एक बहिन है, जो कि सोनी पतमें व्याही हुई है। आपका विवाह सोलह वर्षकी आयुमें ला० ज्वालाप्रसादजी जैन हिसार वालोंके साथ हुआ था। लालाजी असली रहनेवाले रोहतकके थे । वहा मोहल्ला 'पीयवाड़ा में इनका कुटुम्ब रहता है, जो कि 'हाटवाले' कहलाते है । वहा इनके लगभग वीस घर होंगे। वे प्राय सभी बड़े धर्मप्रेमी और शुद्ध भाचरणवाले साधारण स्थितिके गृहस्थ है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) परिषद के उत्साही और प्रसिद्ध कार्यकर्ता ला० तनसुखरायजी जैन, जो कि तिलक बीमा कपनी देहलीके मैनेजिंग डायरेक्टर है, वह इसी खानदान में से है । आप जैन समाजके निर्भीक और ठोस कार्य करनेवाले कर्मठ युवक ३ । अभी हाल में आपने जैन युवकों की बेकारीको देखकर दस्तकारीकी शिक्षा प्राप्त करनेवाले १० छात्रोंको १ वर्षतक भोजनादि निर्वाह खर्च देन की सूचना प्रकाशित की थी, जिसके मूलस्वरूप कितने हो युवक छात्र देहला में आपके द्वारा उक्त शिक्षा प्राप्त कर रहे है । जैन समाजको आपसे बडी २ आशायें हे, और समय आनेपर वे पूण भी अवश्य होंगी । इनके अतिरिक्त ला० मानसिहजी ला० प्रभूदयालजी ला० अमीर सिहजी ला० गणपतिरायजी, ला० टेकचदजी आदि इसी खान्दानक धर्मप्रेमी व्यक्ति है । इनका अपने खान्दानका पीथवाडा में एक विशाल दि० जैन मंदिरजो भी है, जोकि अपन हो व्यय से बनाया गया है । इस खान्दानमें शिक्षा की तरफ विशेष रुचि है जिसके फलस्वरूप कई ग्रेजुएट और वकील है । ला०ज्वालाप्रसादजी के पिता चार भाई थे। १-ला० कुइनलालजी, २ - का० अमनसिंहजी, ३-ला० केदारनाथजी, ४ - ला० सरदारसिहजी | जिनमे ला ० कुन्दनलालजीके सुपुत्र ला० मानसिंहजा, ला० अमन सिंहजी के सुपुत्र ला ० मनफूलसिंहजी व का० वीरमान सिंहजी है । ला० केदारनाथजी के सुपुत्र ला ० ज्वालाप्रसादजी तथा ला० घासीरामजी और ला० सरदारसिहजी के सुपुत्र ला० स्वरूपसिंहजी, का० जगतसिंहजा और गुलाबसिंहजी हैं। जिनमें से का० Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (42) जगतसिंहजी बा० महावोरप्रसादजी वकीलके पास ही रहकर कार्य करते है | ला जगतसिहजी सरल प्रकृतिके उदार व्यक्ति है। आप समय २ पर व्रत उपवास और यम नियम भी करते रहते है । आप त्यागियों और विद्वानोंका उचित सत्कार करना अपना मुख्य कर्तव्य समझते है । हिसार में ब्रह्मचारीजीके चातुर्मास के समय आपने बडा सहयोग प्रगट किया था । उक्त चारों भाइयो में परस्पर बड़ा प्रेम था, किसी एककी मृयुपर सब भाई उसकी और एक दूसरेकी सतानको अपनी सतान समझते थे । ला० ज्वालाप्रसादनीके पिता का ० केदारनाथजी फतिहाबाद (हिसार) में अर्जीनवीसीका काम करते थे, और उनकी मृत्युपर ला ज्वालाप्रसादजी फतिहावादसे आकर हिसार में रहने ar गये, और वे एक स्टेट में मुलाजिम होगये थे । वे अधिक घन बान न थे, किन्तु साधारण स्थिति के शात परिणामी, सतोषी मनुष्य थे । उनका गृहस्थ जीवन सुख और शांतिसे परिपूर्ण था । सिर्फ ३२ वर्षकी अल्प आयु में उनका स्वर्गवास होजाने के कारण श्रीमतीभी २७ वर्षकी आयुमे सौभाग्य सुख से वचित होगई । पतिदेवकी मृत्यु के समय आपके दो पुत्र थे । जिसमें उस समय महावीरप्रसादजीकी आयु ११ वर्ष और शातिप्रसादजीकी आयु सिर्फ छ मासकी थी । किन्तु ला० ज्वालाप्रसादजी (ला० महावीरप्रसजी के पिता ) की मृत्यु के समय उनके चाचा ला० सरदारसिंहजी जीवित थे उस कारण उन्होंने ही श्रीमती जीके दोनों पुत्रोंकी रक्षा व शिक्षाका भार अपने ऊपर लेलिया और उन्होंकी देखरेख में Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (93) आपके दोनों पुत्रोंकी रक्षा व शिक्षाका समुचित प्रबन्ध होता रहा । किंतु सन् १९९८ में ला० सरदार सिंहजीका भी स्वर्गवास होगया । अपने बाबा सरदार सिंहजी की मृत्युके समय श्री० महावीरप्रसादजीने एफ० ए० पास कर लिया था और साथ ही ला० सम्मनलालजी जैन पट्टीदार हासी ( जो उस समय ग्वालियर स्टेट के नहरक महकमा में मजिस्ट्रेट थे ) निवासी की सुपुत्री के साथ विवाह भी होगया था। श्री० शातिप्रसादजी उस समय चौथी कक्षा में पढ़ते थे । अपने बाबाजीकी मृत्यु होनानेपर श्री० महावीरप्रसादजी उस समय अधीर और हताश न हुये, किन्तु उन्होंने अपनी पूज्य माताजी ( श्रीमतो ज्वालादेवाजी ) की आज्ञानुसार अपने श्वसुर ला० सम्मत लालजीकी सम्मति व सहायतामे अपनी शिक्षा वृद्धिका क्रम अगाडी चालू रखने का ही निश्चय किया, जिसके फलस्वरूप वे लाहौर में ट्यूशन लेकर कालेज में पढने लगे । इस प्रकार पढते हुये उन्होंने अपने पुरुषार्थ वलसे चार वर्षमे वकालतका इम्तिहान पास कर लिया और सन् १९२२ में वे वकील होकर हिसार आगये । हिसार में वकालत करते हुये आपने असाधारण उन्नति की, और कुछ ही दिनोंमें आप हिमारमें अच्छे वकीलोंमें गिने जाने लगे । आप बड़े धर्मप्रेमी और पुरुषार्थी मनुष्य हैं। मातृ भक्ति आपमें कूट कूटकर भरी हुई है। आप सर्वदा अपनी माताकी आज्ञानुसार काम करते है | अधिक से अधिक हानि होनेपर भी माताजीकी आज्ञा का उल्लघन नहीं करते है । आप अपने छोटे भाई श्री० शान्तिप्रसादजी के ऊपर पुत्र के समान स्नेहदृष्टि रखते हैं । उनको भी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) मापने पढाकर वकील बना लिया है, और अब दोनों माई वकालत करते है । आपने अपनी माताजीकी आज्ञानुसार करीब १५, १६ हजारकी लागतसे एक सुदर और विशाल मकान भी रहने के लिये बना लिया है। रोहतक निवासी ला० अनूसिहजीकी सुपुत्रीके साथ श्री० शान्तिप्रसादजीका भी विवाह होगया है। अब श्रीमतीजीकी आज्ञानुमार उनके दोनों पुत्र तथा उनकी स्त्रिय कार्य संचालन करती हुई मापसमें बडे प्रेमसे रहती है। श्री० महावीरप्रसादजीके मात्र तोन कन्यायें है जिनमें बडी कन्या (राजदुलारीदेवी) आठवी कक्षा उत्तीर्ण करनेके अतिरिक्त इस वर्ष पञ्जाबकी हिदीरत्न परीक्षा में भी उत्तीर्णता प्राप्त कर चुकी है। छोटी कन्या पाचवीं कक्षा पढ़ रही है, तीसरी अभी छोटी है। श्रीमतीजीकी एक विश्वा ननद श्रीमती दिलभरीदेवी ( पति देवकी बहिन ) है, जो कि मापके पास ही रहती है । श्रीमतीजी १०-१२ वर्षसे चातुर्मापके दिनों में एकवार ही भोजन करती है किन्तु पिछले डेढ सालसे तो हमेशा ही एक दफा भोजन करती हैं, इसके अतिरिक्त बेला, तेला आदि पकारके व्रत उपवास समय२ पर करती रहती हैं। आपका हरसमय धर्मध्यानमें चित्त रहता है। जैनबदी मूलबद्रीको छोड़कर भाग्ने अपनी ननद के साथ समस्त जैन तीर्थो की यात्रा कीहुई है। श्री सम्मेदशिखरजीकी यात्रा तो आपने दोवार की है। गतवर्ष आपकी आज्ञानुसार ही आपके पुत्र बा० महावीरप्रसादजीने श्री० ब्र० सीतलप्रसादजीका हिसारमें चातुर्मास करवाया था, जिससे सभी भाइयों को बड़ा धर्मलामा हुमा । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) हिसार में बा० महावीर प्रसादजी वकील एक उत्साही और सफल कार्यकर्ता हैं। हिसारकी जैन समाजका कोई भी कार्य आपकी सम्मति विना नहीं होता । भजैन समाज में भी आपका काफी सन्मान है । इस वर्ष स्थानीय रासलीला कमेटीने सर्वसम्मति से आपको सभापति चुना है। शहर के प्रत्येक कार्यमें आप काफी हिस्सा लेते है । जैन समाज के कार्योंमें तो आप खास तौरपर भाग लेते है | आपके विचार बड़े उन्नत और धार्मिक है। हिसारकी जैन समाजको आपसे बडी२ आशाए है, और वे कभी अवश्य पूर्ण भी होंगी । आपमें सबसे बडी बात यह है कि आपके हृदय में साप्रदायिकता नहीं है जिसके फलस्वरूप आप प्रत्येक सप्रदाय के कार्यों में विना किसी भेदभाव के सहायता देते और हिस्सा लेते है । आप प्रतिवर्ष काफी दान भी देते रहते है । जैन भजैन सभी प्रकार के च शक्तिपूर्वक सहायता देते हैं । गतवर्ष आपने श्री ० ब ० सीतलप्रसादजी द्वारा लिखित 'आत्मोन्नति या खुदकी तरक्की' नामका ट्रेक्ट छपाकर वितरण कराया था । औ' इस वर्ष भी एक ट्रेक्ट छपाकर वितरण किया जाचुका है। आने करीब ३०० ) - ४००) की लागत से अपने बाबा का० सग्दारसिंहजी की स्मृतिमें " अपाहिज आश्रम " सिरसा (हिसार) में एक सुन्दर कमरा भी बनवाया है । पके ही उद्योगसे गतवर्ष ब्र० जीके चातुर्मासके अवसरपर सिरसा (हिसार) में श्री मदिरजी की आवश्यकता देखकर एक दि० जैन मंदिर बनानेक विषय में विचार हुआ था, प्रेरणा से का० केदारनाथजी बनन हिसारने उस समय आपकी ही १०००) और बा० Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) फूलचदजी वकील हिसारने ५००) प्रदान किये थे। श्री मदिरजीके लिये मौकेकी जमीन मिल जाने पर शीघ्र ही मदिर निर्माणकार कार्य प्रारम्भ किया जायगा। इसमें सन्देह नहीं कि बा० महावीरप्रसादजी वकील आज कलके पाश्चात्य ( इगरेजी) शिक्षा प्राप्त युवकोंमें भावाद स्वरूप है । वस्तुत आप अपनी योग्य माताके सुयोग पुत्र हैं। आपकी माताजी ( श्रीमती ज्वालादेवीजी) बड़ी नेक और समझदार महिला है । श्रीमतीजी प्रारम्भसे ही अपने दोनों पुत्रोंको धार्मिक शिक्षाकी ओर प्रेरणा करती रही हैं, इसीका यह फल है। ऐसी माताओंको धन्य है कि जो इस प्रकार अपने पुत्रोंको धार्मिक बना देती है। मन्तमें हमारी भावना है कि श्रीमतीजी इसी प्रकार शुभ कार्यों में प्रवृत्ति रखती रहेंगी और साथ ही अपने पुत्रोंको भी धार्मिक कार्योंकी तरफ प्रेरणा करती हुई अपने जीवन के शेष समयको व्यतीत करेंगी। निवेदकप्रेमकुटीर, ) अटेर (ग्वालि पर ) निवासी हिसार (पजाब) ४ बटेश्वरदयाल बकेवरिया शास्त्री, ता ५-११-३७६०) ( सिद्धान्तभूषण, विद्यालकार) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dossss.. MassacRASH Lussunsun. sunusunsI...sss. HTTOOTBATTITUTIODuTITaim Musian. ThanapahcNEAJSans HSDOGan HOSTATIOstsADhanSTUTI +tritratTITITIONus43000uDCLODS ++LESO Pha na as. . .sa ... ... ... ... ... ... ... . . . us ... . . HEL. ... ... ... .. . ... . . .. . . .. ... . . ... ... ... ... . . .. ... ... ... ... ... ... ... ... ... . . ... ... ... श्रीमती ज्वालादेवीजी जैन, पूज्य माताजी, श्री० पा० महावीरप्रसादजी जैन वकील हिसार (पंजाब)। ... . ... .. IS....... ......... . .... ........ ... . . ... ............ .. . . ...... ...... ...... ......... ........ . ... . . ... . ............................ ..... ........ .OPA N . RSDAHAARPAN.............. .HARRIORAINRNS San T H I TI.......... . . ... Page #20 --------------------------------------------------------------------------  Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) मनिनिकाय मुलपर्यायसूत्र (२) ससूत्र (३) (8) (9) (६) (८) (९) (१०) (११) (१२) (१३) (१४) (१५) (१६) (१७) (१८) (१९) (२०) (२१) (२२) (२३) (२४) (२५) " " "" 99 "" " "" "" "" "" "" "" " " "" "" " "" 27 ܕܕ "" "" "" 33 विषय-सूची । " मैग्वसूत्र चौथा अन गणसूत्र वस्त्रसूत्र म लेखसूत्र सम्यग्दृष्टिसूत्र स्मृतिप्रस्थान सुत्र चूलसिंहनादसूत्र महादु खस्कसूत्र चूलदु खस्क सूत्र अनुमानसूत्र चेतो खिचसूत्र देवावितकसूत्र वितर्कस स्थान सूत्र ककचूयम गद्दुपमसूत्र वल्मिक सूत्र रथविनीत सूत्र निवायसूत्र महासारोपमसूत्र महागोर्सिंगसूत्र महागोपाळक सूत्र चूडगोपाल कसूत्र महातृष्णा सक्षय १८ ३० ३६ ४६ ५६ ६९ ८७ ९७ १०८ ११५ १२१ १२९ १४१ १४९ १६० १७८ १८४ १९२ १९८ २०६ २१२ २१९ २२५ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) लेखककी प्रशस्ति (२७) बौद्ध जैन शब्द समानता (२८) जैन प्रन्थोंके श्लोकादिकी सूची, जो इस ग्रन्थ में है शुद्धिपत्र | पृ० ४ १२ १२ १४ १७ १८ १५ १९ fo १९ २० २० २३ २५ 9. Van ला० १९ १४ ३८ ३ २६ ६ ३२ १४ ३५ ३५ ३७ ४१ V w 30 ६ ७ २३ १२ १६ (१८) ३ अशुद्ध सर्व नय उत्पन्न भव सेवासव अज्ञान रोग प्रीि मुक्त मुक्त मुक्त तिच जिससे मान न कि हमने विप्प कर मुक्त निस्सण निर्मक शुद्ध सर्व रूप उत्पन्न भव अ स्रव बढ़ता है सर्वा अज्ञान होने प्रीति युक्त युक्त युक्त चित्त जिसे भाव जिससे इसने २५२ २५६ २५६ वियय्य करे युक्त निस्सरण निर्बक Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) पृ० ला. ४१ १३ ५५ १६ अशुद्ध शुद्ध मुक्त युक्त वानापने नानापने भानन्द्र भापतन मानन्त आयतन सशयवान सशयवान न भनादि भानन्द लोम मस्थि (मैद) अस्मि (मै हू) सन्तों सत्वों मार्द माय माष्टागिक बालकपना वाल पकना लाभ ५७ ५७ ५८ ३ ८ ८ V V " " " W वेदना ससार संस्कार ६३ २० ६८ १८ भन्यथा तथा ਰਥ भज्ञात वचन इष्ट " " 3 तत्त्व भजात विषय दृष्टि मात्म भविद्या भाप्त मात . ८९ ३ ८९ १० ९० २० ९८ ७ ११० १५ मविज्ञा मात्म काय मिथ्यादृष्टी काम सम्यग्दृष्टी Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ० ला० १२९ १७ १३१ १४ १३३ १४९ १ १५२ १६० १५ १७९ १७९ రి १६१ १२ १६२ १६४ ७ १६ १ १ १७ १८४ २० १८७ १४ १९२ १ २०८ २१२ २२० १० S २२० १४ २२९ २१ २३५ २० 0 २३७ ५ २३७ १६ २४१ ४ (20) अशुद्ध अल्पापाद बाधित अर्चाकाक्षी फकचूयम तृष्णा अलगद्दमय बेड़ी विस्तरण आपत्ति केक दे कर्म असजष्ट गुप्ति विवाय सप्त शीतव्रत प्रज्ञानी शुद्ध अव्यापाद अबाधित अर्थाकाक्षी सशय छोक स्त्री मालश्य कफ चूपम तृण अल गहुपम बेड़े अससष्ट प्राप्ति निवाय वियुक्ति विमुक्ति भक्तियों मक्खियों मिस्तरण अनित्य फेंक दे कूर्म सत्त्व शीलव्रत प्रज्ञाकी सक्षय छोड़ 0 आलस्य Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GD जैन बौद्ध तत्वज्ञान | ( दूसरा भाग ) (१) बौद्ध मज्झिनिकाय मूलपर्याय सूत्र । इस सूत्र गौतम बुद्ध अवक्त आत्मा या निर्वाणका इस तरह दिखलाया है कि जो कुछ अल्पज्ञानीके भीतर विकल या विचार होते है इन सबको दूर करके उस बिंदु पर पहुचाया है जहा उसी समय ध्याताकी पहुच होता है जब वह सर्व सकला विकल्पोंसे रहित समाधिद्वारा किसी अनुभवजन्य अनिर्वचनीय तत्वमें लय हो जाता है । यह एक स्वानुभवका प्रकार है । इस सूत्रका भाव इन वाक्योंसे जानना चाहिये। ' जो कोई भिक्षु भत् क्षीणास्तव (गंगादिसे मुक्त ), ब्रह्मचारी, कृतस्य भारमुक्त, सत्य तत्वको प्राप्त, भव बन्धन मुक्त, सम्यग्ज्ञान द्वारा मुक्त ई पहचान कर न पृथ्वीको मानता है न पृथ्वी मेरी है मानता है, न पृथ्वीको अभिनन्दन करना है। इसका कारण यही है कि उसका राग द्वष, मो : क्षय होगया है, वह वीतराग होगया है । भी पृ वी को पृश्वीके तौरपर पृ वी द्वारा मानता है, इसीतरह वह नीचे लिखे विकल्पों को भी अपना नहीं मानत न Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] दूसरा भाग । है। वह पानीको, तेजको, वायुको, देवताओंको अनत आकाशको, विज्ञानको, देखे हुएको, सुने हुएको, स्मरणमें प्राप्तको, जाने गएको, एकपनेको, नानापन्का, सर्वको तथा निर्वाणको भी अभिन न्दन नहीं करता है। तथागत बुद्ध भी ऐसा ही ज्ञान रखत' है क्योंकि वह जानता है कि तृष्णा खोका मूल है। तथा जो भव भवमें जन्म लेता है उसको जरामरणभावी है। इसलिये तथागत बुद्ध सर्व ही तृष्णा के क्षयर विरागमे, निरोधमे, त्यागम, विसर्जनमे यथार्थ परम ज्ञानके जानकार है 1 भावार्थ - मूल पर्याय सूत्रका यह भाव है कि एक अनिर्वचनीय अनुभगम्य तत्व ही सार है । पर पदार्थ सर्व त्यागने योग्य है । कर्म, करण अपादान सम्बध इन चार सरकोंसे पर पदार्थसे यहा तक सम्बन्ध इटया है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इन चार पदा से बने हुए दृश्य जगत को देखे व सुने हुए व स्मरणमें आए हुए ज्ञानसे तिष्ठे हुए विकल्पोंको सर्व आकाशको सर्व इन्द्रिय व मन द्वारा प्राप्त विज्ञानको अपना नहीं है यह बताकर निर्वाणके साथ भी रागभावक विक्लवको मिटाया है । सर्व प्रकार रागद्वेष मोहको, सर्व प्रकार तृष्णा को हटा देनपर जो कुछ भी शेष रहता है वही सत्य तत्व है । इसीलिये ऐसे ज्ञाताको क्षीणास्रव, कृतकृत्य सत्यव्रतको प्राप्त व सम्यज्ञान द्वारा मुक्त कहा है । यह दशा वही है जिसको समाधि प्राप्त दशा कहते है, जहा ऐसा मगन होता है कि मै या तू का व क्या मैं हू क्य नहीं हूँ इस बानका कुछ भी चितवन नहीं होता है । चिन्तन | करना मना है सूक्ष्म तब मनसे बाहर है। जो Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद तत्वज्ञान। सर्व प्रकारके चिन्तवनको छोडता है वही उस स्वानुभवको पहुचता है। जिससे मूल पदार्थ जो आप है सो अपने हीको प्राप्त होजाता है। यही निर्वाणका मार्ग है व इसोकी पूर्णता निर्वाण है । बौद्ध ग्रथोंमें निर्वाणका मार्ग आठ प्रकार बताया है । १सम्यग्दर्शन, २- सम्यक् सकल्प ( ज्ञान ), ३-सम्यक् वचन, ४-- सम्यक् कर्म, ५-सम्यक् आजीविका ६-सम्यक व्यायाम, ७-सम्यक् स्मृति, ८-सम्यक समाधि । सम्यक् समाधिमें पहुचनेसे स्मरणका विकल्प भी समाधिके सागरमें डूब जाता है । यही मार्ग है जिसके सर्व आस्रव या राग द्वेष मोह क्षय होजाते हैं और यह निर्वाणरूप या मुक्त होजाता है। वह निर्वाण कैसा है, उमके लिये इसी मज्झिमनिकायके अरिय परिएषन सूत्र न० २६ से विदित है कि वह "भजात, अनुत्तर, योगक्खेम, अजर, अव्याधि, अमत, अशोक, असश्लिट्ठ निव्वाण अघि गतो अधिगतोखो मे अयधम्मो दुद्दसो, दुरन बाधा, सतो, पणीतो, मतकावचरो, निपुणो, पडित वेदनीयो । " निर्वाण अजात है पैदा नहीं हुई है अर्थात् स्वाभाविक है, अनुपम है, परम कल्याणरूप है या ध्यान द्वारा क्षेमरूप है, जरा रहित है, न्याधि रहित है, मरण रहित है, अमर है, शोक व क्लेशोंसे रहित है। मैंने उस धर्मको जान लिया जो धर्म गंभीर है, जिसका देखना जानना कठिन है, जो शात है, उत्तम है, तर्कसे बाहर है, निपुण है, पण्डितोंके द्वारा अनुभबगम्य है। पाली कोषमें निर्वाणके नीचे लिखे विशेषण है-- ___मुखो (मुख्य), निरोधो (ससारका निरोध ), निव्वान, दीप, तण्हक्सम (तृष्णाका क्षय), तान (रक्षक), लेन (लीनता) मरूप, Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] दूसरा भाग । पश सतें (शात), असतं (मसस्कृत या महज स्वाभाविक ) सिव (मन रूपमुत्त (मूर्ती) सुदुहम (कठिनतामे अनुभव योग्य, यनं (श्रेष्ठ मार्ग), सण ( शरणभूत निपुण, उना, अवम्बर (क्षय), aara (दुखका नाश, अव्यापज्ज्ञ (सत्य) मनाव्य ( उच्चग्रह), विवह (ससार हिल, खेम देवल अपत्रग्गो (अपवर्ग) विरागो, वणीत (उत्तम), अच्चुतप (अविनाशी पद), पार योगखेम मुत्ति (मुक्त), विशुद्धि, विमुत्ति, (विमुक्ति) अमत धातु - समस्त धातु) सुद्धि, निवृत्ति (निर्वृत्ति) इन विशेषणोका विशेप्य क्या । वही निर्वाण है । वह क्या है, सो भी अनुभवगम्य है 1 3 यह कोई अभावरूप पार्थ नहीं होता । जो अभाव रूप कुछ नहीं मानते है उनके लिये मुझे यह प्रगट कर देना है कि अभाव या शून्यकेय विशेषण नहा होमक्ते कि निर्वाण अजात हैव अमृत है व अक्षय है व शान है व अनत है व पंडितों द्वारा अनुभवगम्य है | कोई भो बुद्धिमान बिल्कुल अभाव या शु यकी ऐसी तारीफ नहीं कर सक्ता है। अजात व अमर ये दो शब्द किसी गुप्त aast बताते है जो न कभी जन्मता है न मरता है वह सिवाय शुद्ध आत्मतत्व और कोई नहीं होसक्ता । शांति व आनद अपने में लीन होने से ही आता है । अभावरूप निर्वाणके लिये कोई उद्यम नहीं कर सक्ता । इन्द्रियों व मनके द्वारा जाननेयोग्य सर्व नय, वेदना, सज्ञा, संस्कार व विज्ञान ही ससार है, इनसे परे जो कोई है ant निर्वाण है तथा वही शुद्धात्मा है। ऐसा ही जैन सिद्धात भी मानता है । The doctrine of the Budha by George Grimm Leipzic Germany 1926. A Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | {" Page 350 351 Bliss 15 Nibhan, Nibhan highest bliss { Dhammapada ) आनन्द निर्वाण है, आनन्द निर्वाण है, निर्वाण परम सुख है ऐसा धम्मपदमें यह बात ग्रिम साहबने अपनी पुस्तक बुद्ध शिक्षा में लिखो है 1 Some sayings of Budha-by Woodword Ceylon 1925. Page 2 - 1 - 4 Search after the unsurpassed perfect security which is Nibhan Goal is incomparable security which is Nibban अनुपम व पूर्ण शरणकी खोज करो, यही निर्वाण है । अनुपम शरण निर्माण है ऐसा उद्देश्य बनाओ। यह बात वुडवर्ड साहबने पनी बुद्धवचन पुस्तक में लिखी है 1 The life of Budha by Edward J Thomas r927 Page 187 It is unnecessary to discuss the Vew that Nirvan means the extinction of the individual, no such View has ever been supported from the texts भावार्थ - यह तर्क करना व्यर्थ है कि निर्वाण में व्यक्तिका नाच है बौद्ध ग्रंथोंमें यह बात सिद्ध नहीं होती है । मैन भी जितना बौद्ध साहित्य देखा है उससे निर्माण का यही स्वरूप झलकता है जैसा जैन सिद्धातने माना है कि वह एक अनुair अविनाशी आनदमय परमशात पदार्थ है । जैन सिद्धानमें भी मोक्षमार्ग सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्य चारित्र तीन कहे हैं, जो बोद्धोंक अष्टाग मार्ग से मिल जाते हैं । सम्यक दर्शन में सम्यक्दर्शन गर्मित है, सम्यग्ज्ञान में सम्यक् सकस्थ गर्भित है, सम्यक चारित्र में शेष छ गर्भित है । जैन सिद्धात में निश्वम सम्यकूचारित्र आत्मध्यान व समाधिको कहते हैं । इसके लिये जो Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। कारण है उसको व्यवहार चारित्र कहते हैं। जैसे मन, वचन, कायकी शुद्धि, शुद्ध भोजन, तपका प्रयत्न, तथा तत्वका स्मरण । जिस तरह इरा मूल पर्याय सूत्रमें समाधिक लाभके लिये सर्व भपनेसे परसे मोह छुढाया है उसी तरह जन सिद्धातमें वर्णन है । जैन सिद्धांतमें समानता। श्री कुन्दकुन्दाचार्य समयसारमें कहते हैअहमेद एदमह, अहमेदस्सेव होमि मम एद । अण्ण ज पर दव, सचित्ता वित्तमिस्स पा ॥ २५ ॥ मासि मम पुष्धमेद अहमेद चावि धकालालि। होहिदि पुणोवि मज्झ, अहमे चावि होम्सामि ॥ २६ ॥ एवतु मसभूद मादावयव्य करेदि सम्मुढो । भूदत्य जाणतो, ण करेदि दु त असम्मुढो ॥ २७ ॥ भावार्थ-आपसे जुदे जितने भी पर द्रव्य है चाहे वे सचित्त स्त्री पुत्र मित्र आदि हों या अचित्त सोना चादी आदि हो या मिश्र नगर देशादि हों, उनके सम्बन्धमें यह विवा करना कि मैं यह हू या यह मुझ रूप है, मैं इसका हूँ या यह मेरा है, यह पहले मेरा था या मैं पूर्वकालमें इस रूप था या मेरा भागामी होनायगा या मैं इस रूप होजाऊगा, अज्ञानी ऐसे मिथ्या विकल्प किया करता' है, ज्ञानी यथार्थ तत्वको जानता हुआ इन झूठे विकल्पोंको नहीं करता है । यहा सचित्त, मचित्त, मिश्रमें सर्व अपनेसे जुदे पदार्थ भागए हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति व पशुजाति, मानवजाति देवजाति व प्राणरहित सर्व पुद्गल परमाणु मादि भाकाश, काल, धर्म अधर्म द्रव्य व ससारी जीवोंके सर्व प्रकारके शुभ व अशुभ भाव का Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | f७ दशाए - केवल आप अकेला बच गया । वही मै हू वहीं मैं था वहा मैं रहूगा । मेरे सिवाय अन्य मै नहो हू, न कभी था न कभी हूगा । जैसे मूल पर्याय सूत्र विवेक या भदविज्ञानको बताया है वैसा ही यहा बताया है । समयसारम और भी स्पष्ट कर दिया हैमहमिको खलु सुद्धो दमणणाणमइओ सयारूवी | णवि अस्थि मज्झ किचित्र अण्ण परमाणुमित्त ॥ ४३ ॥ भावार्थ - मै एक अक्ला ह, निश्चयसे शुद्ध हू, दर्शन व ज्ञान स्वरूप हू, सदा ही अमुर्ती हू, अन्य परमाणु मात्र भी मेरा कोई नहीं है। श्री पूज्यपादस्वामी समाधिशनकमें कहत है - स्वबुद्धया यावद्गृहणीयात्कायवाक् चेतमा त्रयम् । ससारस्ताव देतेषा भेदाभ्यासे तु निर्वृति ॥ ६२ ॥ भावार्थ - जबतक मन, वचन काय इन तीनों में से किमीको भी आत्मबुद्धिसे मानता रहेगा वहातक ससार है, भेदज्ञान होनेपर मुक्ति हो जायगी । यहा मन वचन काय में सर्व जगतका प्रपञ्च आगया । क्योंकि विचार करनेवाला मन है । वचनोंमे कहा जाता है, शरीर से काम किया जाता है । मक्षिका उपाय भेद विज्ञान ही है । ऐसा अमृतचंद्र आचार्य समयसारकलश में कहने है + / भावज्ञामच्छिन्नवाग्या । तावद्यावत्पराच्छन्वा ज्ञान ज्ञान प्रतिष्ठते ॥ ६-६ ॥ 9 भावार्थ - भेदविज्ञान की भावना लगातार उस समय तक करते रहो जबतक ज्ञान परसे छूटकर ज्ञानमें प्रतिष्ठाको न पावे अर्थात् जबतक शुद्ध पूर्ण ज्ञान न हो । इस मूल पर्याय सूत्र में इसो भेदविज्ञानको बताया है । -654- Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृमरा भाग। (२)मज्झिमनिकाय सव्वामवसूत्र या सर्वास्तवस्त्र। इम सूत्रमें मारे अनवॉक सक'का उपदेश गौतमबुद्धन निया है। आम्रव और सवर शब्द - 1 मिनालमें शब्दोंके यथार्थ भर्थमें दिम्बलाए गए है। जैनमिद्धा में परम णुओंके कध बनते रहन है उनमें से सूक्ष्म स्कर झामाणवर्गण" है जो सर्वत्र लोकमें याप्त हैं। मन, वचन, कायका क्रिया मेसे य अपने पास खिंच मानी हे और पाप या पुण्यरूपम जान है। जिन भावोंसे ये आनो हैं उनको भावास्रव कहते है ५ उन आना द्रव्यासव कहन है । उनके विरोधो रोहयाले भ वाको भावसन कहते हैं और कर्मवर्ग णाओंके रुक जानेको द्रव्यसबर कहन है। इम बौद्ध सूत्र में भावान बोंका कथन इस तरहपर किया है-भिक्षुओ! जिा धर्मों के सनम करनेमे उस भीता अनुत्पन्न १. म असम (कामनारूपो मल) उत्पन होता है और उत्पन्न म त्रास बढ़ता है, उत्पन्न भव असध (जन्मनेकी इच्छा रूपी ग्ल) उत्पन्न होता है और उत्पन्न भव अनु स्पन अविद्या असत्र (अज्ञानरूपी मन) उत्तन होता है और उत्पन्न अविना म सा बदना है इस धर्मों से नहीं करना योग्य है। नोट-यहा काम भाव जन्म भाव न मज्ञान भावको मूल भाषा सा बताकर समाधि भावमें ही पहचाया है, जहा निष्क म भाव है न जन्मनेकी इच्छा है न मात्मज्ञानको छोटकर कोई आराम है। निर्विकल्प समाधिके भीतर प्रवेश कराया है। इसी लिये इसी सूत्र में कहा है कि जो इस समाधिक बाहर होता है वह कहहियोंके भीतर फस जाता है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ ९ 66 (१) मेरा आत्मा है, (२) मेरे भीतर आत्मा नहीं है, (३) आत्मा को ही आत्मा समझता हू (४) आत्माको ही अनात्मा सम झता हूँ, (५) अनात्माको ही आत्मा समझता हू, (६) जो वह मेरा खात्मा अनुभव कर्ता (वेदक ) तथा अनुभव करने योग्य (वेब) और तहा तहा (अपने ) मल बुर कर्मोंके विपाकको अनुभव करना है वह यह मेरा आत्मा नित्य, भुत्र शाश्वत, अपरिवर्तनशील (अबि परिणाम धर्मा) है, अनन्त वर्षो तक वैसा ही रहेगा । भिक्षुओ इसे कहते है दृष्टिमल (मतवाद), दृष्टिगहन (दृष्टिका घना जंगल ), दृष्टिकी मरुभूमि ( दृष्टिका तार ), दृष्टिका 'टा ( दृष्टि विशु), दृष्टिका फदा (दृष्ट सयोजन ) । भिक्षुओ ! दृष्टिके फदेवें फपा नाड़ी पुरुष जन्म जरा मरण शोक, रोदन कदन, दुस्ख दुर्मनस्कता और हैरानियोंमे नहीं छूटता दुखसे परिमुक्त नहीं होता ।" 1 नोट ऊपरी छ दृष्टियोंका विचार जहातक रहेगा वहातक स्वानुभव नहीं होगा । मैं हू वा मैं हीं हू, क्या हू का नहीं है, कैसा था कैमा इङ्गा इत्यादि सर्व वह विजाल है जिसके भीतर कमनमे रागद्वेष मोह नहीं दूर होत वीतरागभाव नहीं पेश ठा है | हम कथनको पढ़ा कोई कोई ऐना मतलब लगाते है कि गौव मबुद्ध किसी शुद्धबुद्धपूर्ण एक आत्मा जो निर्माण स्वरूप है उमको भी नहीं जानते थे। जो ऐसा मानेगा उसके मलमें निर्माण मा रूप होजाएगा। यदि वे आत्माका सर्वथा अभाव मानते तो मेरे मीतर आत्मा नहीं है, इस दूसरी दृष्टिने नहीं कहते । वास्तवमें यहां सर्व विचारोंके अभावकी तरफ सकेत है । यही बात जैन सिद्धातमें समाधिकमें इस प्रकार बताई है Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। येनात्मनाऽनुभूयेऽहमात्मनैवात्मनात्मनि । सोऽह न तन्न सा नासौ नको न द्वा न वा महु ॥ २३ ॥ यदभावे सुषुनोऽह यगावे ध्युत्थित पुन । अतीन्द्रियमनिर्देश्य तत्सतसवेद्यमस्म्यहम् ॥ २४ ॥ भावार्थ-इन दो श्लोकोमें समाधि प्राप्त की दशाको बताया है। समाधि प्राप्तके भीतर कुछ भी विचार नहीं होता है कि मैं क्या इ क्या नहीं है । जिस स्वरूपसे मैं अपने ही भीतर अपने ही द्वारा अपने रूपसे ही अनुभव करता है, वही मैं है । न मैं नपुसक हू न स्त्री हू न पुरुष ई, न मै एक हू न दो इ न बहुत है । जिस किसी वस्तुक अक्षाभमें मैं सोया हुभा था व जिसके लाभमें मैं जाग उठा वह मैं एक इन्द्रियोंसे भतीत हू, जिसका कोई नाम नहीं है जो मात्र मापसे ही अनुभव करनेयोग्य है । समयसार कलशमें यही बात कही है। य एव मुक्त्वानयपक्षपात स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्य । विकल्पजाळच्युतशान्तचित्तास्त एक साक्षादमृत पिबति ॥२४॥ भावाथ-जो कोई सर्व अपेक्षाओंके विचाररूपी पक्षपातको कि में ऐसा हू व ऐसा नहीं हू छोड़कर अपने आपमें गुप्त होकर हमेशा रहते है अर्थात् स्वानुभवमें या समाधिमे मगन होजाते है वे ही सर्व विकल्पोंके जालसे छूटकर शात चित्त होते हुए साक्षात् अमृतका पान करते हैं। यही सवरभाव है । न यहा कोई कामना है, न कोई जन्म लेने की इच्छा है, न कोई अज्ञान है, शुद्ध पात्मज्ञान है। मही मोक्षमार्ग है। ___इसी सूत्रमें बुद्ध बचन है “जो यह ठीकसे मनमें करता है कि यह दु.ख है, यह दुःख समुदय (दुःखका कारण) है, यह दुःखका Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । निरोध है, यह दु ख निरोधकी ओर लेजानेवाला मार्ग (प्रतिपद) है उसके तीन सयोजन (बन्धन) छूट जाते है । (१) सकाय दिट्ठी, (२) विचिकिच्छा, (३) सीलव्धत परामोसो अर्थात् सक्काय दृष्टि (निर्वाणरूपके सिवाय किसी अन्यको आपरूप मानना, विचिकित्सा(आपमें मशय) शोलवत परामर्श ( शील और व्रतोंको ही पाकनसे मैं मुक्त होजाऊगा यह अभिमान )।" इसका भाव यही है कि जहानक निर्वाणको नहीं समझा कि वह ही दुखका नाशक है वहातक समारमें दुख ही दुख है । भविद्या और तृष्णा दु ख कारण हे, निर्वाणका प्रेम होते ही ससाकी सर्व तृष्णा मिट जाती है। निवाणका उपाय सम्यग्समाधि है। व- तय हो होगी जब निर्वाणक सिवाय किसी आपको भापरूप न माना जा व निर्वाणमें सशय न हो व बाहगं चारित्र व्रत शीक पवार आदि अहकार छोड़ा जावे। परमार्थ मार्ग सम्यग्समाधि भाव है। इसी स्थल पर इस सूत्रमें लेख है-भिक्षुओ। यह दर्शनस प्रहानव मानव कहे जाते है । यहा दर्शनमे मतलब सम्यग्दर्शनसे है ! सम्यग्नशनस मिथ्यादर्शनरूप आम्रवभाव रुक जाता है, यही बात जैन सिद्धातमें कही है श्री उमास्वामी महाराज तत्वार्थसूत्रमें कहते हैं “मिध्यादर्शनविरतिपमादकषाययोगाव-पहेत" ॥१-८॥ "शकाकाक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिपशमा सस्तवा मम्यग्दृष्टेग्ती चारा "॥ २३-७० ।। भावार्थ-कौके भासव तथा बधके कारण भाव पाच है-(१) मिथ्यादर्थन, (२) हिंसा, असत्य, चोरी, कुचीक व परिग्रह पांच भवि. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] रर रति, (३) प्रमाद, (४) क्रोधादि कषाय, (५) मन वचन कायकी क्रिया । जिसको आत्मतत्वका सच्चा वृद्धान होगया है कि वह निर्वाणरूप है, सर्व सासारिक प्रपोंस शून्य है, रागादिरहित है, पग्मगात है, मानदरूप है, अनुभवगम्य है उपोक है सम्यग्दर्शन गुण प्रगट होना है तब उसके भीतर पाच दोष नहीं रहने चाहिये । (१) शकातत्वमें सदेह । (२) काक्षा किसो भो विषयभोगको इच्छा नहीं, अविनाशी निर्वाणको ही उपादेय या ग्रहणयोग्य न मानके सासारक सुखी बालाका होना, (३) वि चकित्सा - ग्लानि-सर्व वस्तुओंका यथार्थ रूपसे समझकर किसीसे द्वेषभाव रखना (४) जो सम्यग्दर्शनसे बिरुद्ध मिथ्यादर्शनको रखता है उसकी मनमें प्रशसा करना (५) उसकी बचनसे स्तुति करना । दूसरा भाँग । AA उमेश सूत्र में है कि भिक्षुओं मेसनद्वार पहाव सव है। भिक्षुओं यहा कोई भिक्षु ठीक्से जानकर चक्षु इद्रि सयम करके विहरता है तब चक्षु इन्द्रियसे असयम करक बिहरनेपर जो पीडा व दाह उत्पन्न करनेवाले न हो तो वे चक्षु इदयमवर शुक्त हो पर विहार करत नहीं होते। इसी तरह भो इद्रय घण इंद्रिय, जिल्हा इ द्रय, शय ( सर्शन ) इद्रिय मन इद्रिसयम करके विहरनस पाडा व दाहकारक का सत्र उत्पन्न नहीं होने 2 97 भावार्थ - यहा यह बताया है कि पाच इंद्रिय तथा मनके विषयोंमें रागभाव करने से जो आसव भाव होते हैं वे मासव पाच इंद्रिय और मनके रोक लेने पर नहीं होते हैं । जैन सिद्धात में भी इंद्रियोंके व मनके विषयमें रमनेसे आसव Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वान। --- ramainamurwwwmmmmmm हाना बताया है व उनके रोकनेमे संबर होता है ऐसा दिखाया है। इन लहोंके रोकनेपर ही समाधि होती है। श्री पज्यपादस्वामी समाधिशतक में कहते हैमन्द्रयाण मयम्यस्तिमितेनान्तरात्मना। यत्क्षण पश्तो म ति तत्तत्व परमात्मन ॥ ३० ॥ भावार्थ-जब सर्व इन्द्रियोंको सयममें लाकर भीतर स्थिर होकर अन्तरात्मा या सम्यग्दृष्टि जिम क्षण जो कुछ भी अनुभव करता है वहा परमात्माका या शुद्धा त्माका स्वरूप है। __आगे इसी सर्वास्रवसूत्रमें कहा हे-भिक्षुओं! "यहा भिक्षु ठीकसे जानकर सर्दी गर्मा, भूख प्यास, मक्खो मच्छर हवा धूप, सरी, सर्पा दिक माघातको सहनेमें समर्थ होता हे बाणीसे निकले दुवचन तथा शरीर में उत्पन्न ऐसी दुखमय, तीव्र तीक्ष्ण कटुक भवाछित, अरुचिकर प्राणहर पीड़ाओंको स्वागत करनेवाले स्वभावका होता है। जिनक अधिवासना न करनेसे (न सहनेसे) दाह और पीड़ा देनेवाले भास्रव उत्पन्न होते है और अधिवासना करनेसे वे उत्पन्न नहीं होते । यह अधिवासना द्वारा प्रहातव्य आस्रव कहे जाते है।" यहा पर परीषहोंके जीतनेको सवर भाव कहा गया है । यही बात जैनसिद्धातमें कही है । वहा सवरके लिये श्री उमास्वामी महाराजने तत्वार्थसूत्रमें कहा है “आस्रपनिरोध सघर ॥ १॥ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजय चारित्रै "॥२-०९॥ भावार्थ-भासवका रोकना सवर है। वह सवर गुप्ति (मन, वचन, कायको वश रखना), समिति (मलेप्रकार वर्तला, देखाएर Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसरा भाग। चलना आदि) धर्म ( क्रोधादिको जीतकर उत्तम क्षमा आदि), अनुप्रेक्षा (मसार अनित्य है इ यादि भावना ), परोषह जय (कष्टोको जीतना) तथा चारित्र ( योग्य व्यहार व निश्चय चारित्र ममाधिभाव) से होता है। "क्षुत्पिपामाशीतोष्ण शम्शक न यार तिस्त्रीचनिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनाऽळाभरोगतृणम्पनीमल मत्कार पुरस्कार प्रज्ञाऽज्ञ नादर्श नानि ।। ९-१० १॥ भावार्थ- नीचे लिखी बाइस बातोंको शातिसे सदना चाहिये(९) भूख, (२) प्यास, (३) शर्दी, (४) गर्मी (५) डास मच्छर, (६) नमता, (७) अरति (ठीक मनोज्ञ वस्तु न होनेपर दुख) (८) स्त्री (स्त्री द्वारा मनको डिगान की क्रिया), (९) चलनेका कष्ट, (१०) बैठने का कष्ट, (११) सोने का कष्ट, (१२) आक्रोश-गाली दुर्वचन, (१३ वर या मारे पीटे जानेका कष्ट, (१४) याचना (मागना ही), (१५) अलाभ-भिक्षा न मिलनेपर खेद, (१६) रोग-पोडा, (१७) तृण स्पर्श-काटेदार झाडीका स्पर्श (१८) मल-शरीरके मैल होनेपर ग्लानि (१९) आदर निरादर (२०) प्रज्ञा-बहु ज्ञान होनेपर घमड (२१) अज्ञान-रोगपर खेद (२१) अदर्सन-ऋद्धि सिद्ध न होनेपर श्रद्धानका बिगाडना" जैन साधुगण इन बाईस बातोंको जीतते हैं तब न जीतनेसे जो आस्रव होता सो नहीं होता है। इसी सर्वास्रव सूत्रमें है कि भिक्षुओ। कौनसे विजोदन (हटाने) द्वारा प्रहातव्य भास्रव है । भिक्षुओं ! यहा (एक) भिक्षु ठीकसे जानकार उत्पन्न हुए । काम वितर्क (काम वासना सम्बन्धी सकल्प विकल्प) का स्वागत नहीं करता, (उसे) छोडता है, हटाता है, भलग Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१५ करता है, मिटाता है, उत्पन्न हुए व्यापाद वितर्क (द्रोहके ख्याल) का, उत्पन्न हुए, विहिंसा वितर्क (अति हिसाके ख्याल) का, पुन पुन उत्पन्न होनेवाले, पापी विचारो (धर्मो)का स्वागत नहीं करता है । भिक्षुओ ! जिसके न हटनेसे दाह और पीड़ा देनेवाले मानव उत्पन्न होते हैं, और विनोद न करनेसे उत्पन्न नहीं होते। जैन सिद्धातके कहे हुए भासव भावोंमें षाय मी है जैसा ऊपर लिखा है कि मिथ्यात्व, अविरति,प्रमाद, कषाय और योग ये पाच आसवभाव है। क्रोध, मान, माया, लोभसे विचारोंको रोकने से कामभाव, द्वेषभाव, हिंसकभाव व अन्य पापमय भाव रुक जाते है। इसी सवालव सूत्रमें है कि भिक्षु भो! कौनसे भावना द्वारा प्रहातव्य आस्रव है ? भिक्षुओं! यहा (एक) भिक्षु ठोक्ये जानकर विवेकयुक्त, विरागयुक्त, निरोधयुक्त मुक्ति परिणामवाले स्मृति सबोध्यगकी भावना करता है। ठीकसे जानकर स्मृति, धमविचय, वीर्यविचय, प्रीति, प्रश्रब्धि, समाधि, उपेक्षा सबोध्यगकी भावना करता है। नोट-सबोधि परम ज्ञानको करने है, उसके लिये जो अग उपयोगी हो उनको सबोध्यग + है वे सात ई-स्मृति (सत्यका स्मरण), धर्मविचय (धर्मका विचार) वीर्यविचय (अपनी शक्तिका उपयोग करनेका विचार), प्रीएि तोष), प्रश्रब्धि (शाति), समाधि (चित्तकी एकाग्रता), उपेक्षा (वैर न्य )। जन सिद्धातमें सवरके कारणों में अनुमक्षाको ऊपर कहा गया है। वारवार विचारनेको या भारता करनेको अनुप्रेक्षा कहते है। वे भावनाएं बारह हैं उनमें स्रव मूत्र में कही हुई भावनाएं । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] दूसरा भाव।। गर्भित होजाती हैं । १ - अनित्य (समारकी अवस्थाए नाशवन्त है), २- अशरण ( मरणसे कोई रक्षक नहीं है, ३-संसार (सगार दुख मय है ), ४- एकत्व ( अफले ही सुख दुख भोगना पडता है आ है सर्व कर्म आदि दिन है), ५- अन्यत्र (शरीर मासे भिन्न हैं ) ६ - अशुचित्व (मानवका यह शरीर महान अप बिन है), ७ आत्र (मोंक आनेके क्या २ भाव हैं) ८-संबर ( कर्मोंक रोकने के क्या क्या भाव है ) ९ निर्जश (के क्ष क्रनेक क्यार उपाय है), १०-लोक ( जगत जाव अजीव द्रव्योंका समूह अकृत्रिम व अनादि अनंत है ) ११ - बोधिदुर्लभ ( रत्नत्रम धर्मका मिलना दुर्लभ है), १२ - धम ( आत्माका स्वभाव धर्म है) । इन १२ भावनाओ चितवनसे वैराग्य छाजाता है- परिणाम शात होजाते है । नोट पाठकगण देखेंगे कि अवभाव हो ससार भ्रमणके कारण हैं व इनके रोकनेहीसे ससारका अत है । यह कथन जैन सिद्धात और बौद्ध सिद्धातका एकसा ही है । इम सर्वास्रव सूत्रके अनुसार जैन सिद्धात भावासवों को बताकर उनसे कर्म पुद्गल खिचकर आता है, वे पुद्गल पाप या पुण्य रूपसे जीवके साथ चले आए हुए कार्माण शरीर या सूक्ष्म शरीरक साथ बघ जाते हैं । और अपने विपाक पर फल देकर या विना फल दिये झड जाते हैं । यह कर्म सिद्धातकी बात यहा इस सूत्र में नहीं है । 1 जैन सिद्धात में आसवभाव व संवरभाव ऊपर कहे गए हैं उनका स्पष्ट वर्णन यह है Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | आस्रवभाव | (१) मिथ्यादर्शन (२) अविरति हिंसादि सवरभाव । (३) प्रमाद (असावधानी) (४) कषाय क्रोध, मान, माया, कोभ । (५) योग - मन, वचन, कायकी क्रिया | विशेष रूप से सवरके भाव कहे है सम्यग्दर्शन पत्र - भहिसा, मत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग, [ ७ या १२ अविरतिभाव, पाच इंद्रिय व मनको न रोकना तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा सकायका विराधनः अपमाद वीतरागभाव योगोंकी गुप्ति (१) गुप्ति - मन, वचन, कार को रोकना । (२) समिति पाच - (१) देवकर चलना । (२) शुद्ध वाणी कहना । (३) शुद्ध भोजन करना । (४) देखकर ना उठाना (५) देखकर मलमूत्र करना । (३) धर्म दश - (१) उत्तम क्षमा, (२) उत्तम मार्दव (कोमलता), (३) उत्तम आर्जव (सरळता ), (४) उत्तम सत्य, (५) उत्तम शौच ( पवित्रता) (६) उत्तम सयम, (७) उत्तम तप, ( ८ ) उत्तम त्याग २ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ दूसरा भाग । या दान, (९) उत्तम आकिचन (ममत्व त्याग), (१०) उत्तम ब्रह्मचर्य । (४) अनुप्रेक्षा - भावना बारह नाम ऊपर कहे है | (५) परीषद जय - बाइस परीषह जीतना - नाम ऊपर कहे है। (६) चारित्र - पाच ( १ ) सामायिक या समाधि भाव- शात भाव, (२) छेदोपस्थापन, समाधि से गिरकर फिर स्थापन, (३) परिहार विशुद्धि-विशेष हिसाका त्याग, (४) सूक्ष्म सावराय - अत्यल्प लोभ शेष, (५) यथाख्यात - नमुनेदार वीतराग भाव । इन सवरके भावों को जो साधु पूर्ण पालता है उसक कर्म पुळका आना बिळ कुल बद होजाता है । जितना कम पालता है उतना कर्मोंका आव होता है। अभिप्राय यह है कि मुमुक्षुको आम्रवकारक भावों से बचकर सवर भाव वर्तन योग्य है । । (३) मज्झिमनिकाय - भय भैरव सूत्र चौथा । इस सूत्र में निर्भय भावकी महिमा बताई है कि जो साधु मन वचन कायसे शुद्ध होते है व परम निष्कम्प समाधि भावके अभ्यासी होते है वे वनमें रहते हुए किसी बातका मय नहीं प्राप्त करते । एक ब्राह्मणसे गौतमबुद्ध वार्तालाप कररहे है ब्राह्मण कहता है - " हे गौतम! कठिन है अरण्यवन खड और सूनी कुटिया ( शय्यासन), दुष्कर है एकाग्र रमण, समाधि न प्राप्त होनेपर अभिरमण न करनेवाले भिक्षुके मनको अकेला या यह वन मानो हर लेता है । "" गौतम - ऐसा ही है ब्रह्मण ! सम्बोधि ( परम ज्ञान ) प्राप्त होने से पहले बुद्ध न होने के वक्त, जब मैं बोधिसत्व (ज्ञानका उम्मेद Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन बौद्ध तत्वज्ञान। [९ ही था तो मुझे भी ऐसा होता था कि कठिन है अरण्यवास। मेरे मनमें ऐसा हुआ-जो कोई अशुद्ध कायिक कर्मसे युक्त । य. ब्राह्मण अरण्यका सेवन करते है, अशुद्ध कायिक कर्मके । कारण वह आप श्रमण-ब्राह्मण बुरे भय भैरव ( भय और पता) का आह्वान करते है। ( लेकिन ) मै तो अशुद्ध (क कर्ममे मुक्त हो मरण्य सेवन नहीं कर रहा हूँ। मेरे क कर्म परिशुद्ध हैं। जो परिशुद्ध कायिक कर्मवाले आर्य प सेवन करते हैं उनमें से मै एक हूं। ब्राह्मण अपने भीतर परिशुद्ध कायिक कर्मके भावको देखकर, मुझे अरण्यमें विहार का और भी अधिक उत्साह हुआ। इसी तरह जो कोई अशुद्ध क कर्मवाले, अशुद्ध मानसिक कर्मवाले, अशुद्ध आजीवाले श्रमण ब्राह्मण अरण्य सेवन करते है वे भयभैरवको । है । मै अशुद्ध वाचिक, व मानसिक कर्म व आजीविकासे हो अग्ण्य सेवन नहीं कर रहा है, किन्तु शुद्ध वाचिक, सेक कर्म, व आजीविकाके भावको अपने भीतर देखकर अरण्यमें विहार करनेका और भी अधिक उत्साह हुआ। हे T! तब मेरे मनमें ऐसा हुआ । जो कोई श्रमण ब्राह्मण लोभी (वासनाओं) में तीव्र रागवाले वनका सेवन करते हैं या हिंसा-व्यापन्न चित्तवाले और मनमें दुष्ट सकल्पवाले या स्त्यान रिक आलस्य) गृद्धि (मानसिक आलस्य) से प्रेरित हो, या । और अशांत चित्तवाले हो, या लोभी, काक्षावाले और लु हो, या अपना उत्कर्ष (बड़प्पन चाहने) वाले तथा को निन्दनेवाले हो, या जड़ और भीरु प्रकृतिघाले हो, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०। दूसरा भाग। या लाभ, सत्कार प्रशसाकी चाहना करते हो, या आलसी उद्योगहीन हो, या नष्ट स्मृति हो और सूझसे वचित हो. या व्यग्र और विभ्रात चित्त हो, या पुष्पुज्ञ (अज्ञानी) भेड़गूगे जसे हो, वनका सेवन करते हैं वे इन टोषों के कारण अकुशल भय भैरवको बुलाते हैं। मै इन दोषोंसे युक्त हो वनक सेवन नहीं कर रहा हू । जो कोई इन दोषोंसे मुक्त न होकर वनका सेवन करते है उनमेंसे मै एक हू । इस तरह हे ब्राह्मण | अपने भीतर निर्लोभताको, मैत्रीयुक्त चिसको, शारीरिक व मानसिक आलस्यके अभावको, उपशात तित्तपनेको, निःशक भावको, अपना उत्कर्ष व परनिन्दा न चाहनेवाले भावको, निर्भयताको, अल्प इच्छाको, वीर्यपनेको, स्मृति सयुक्तताको, समाधि सम्पदाको, तथा प्रज्ञासम्पदाको देखता हुआ मुझे अरण्यमें विहार करनेका और भी अधिक उत्साह उत्पन्न हुआ। तब मेरे मनमें ऐसा हुआ जो यह सम्मानित व अमिलक्षित (प्रसिड) रातिया है जैसे पक्षकी चतुर्दशी, पूर्णर्मासी और अष्टमीकी रातें है बैसी रातोंमें जो यह भयप्रद रोमाचकारक स्थान हैं जैसे मारामचैत्य, बनचैत्य, वृक्षचैत्य वैसे शयनासनोंमें विहार करनेसे शायद तब भयभैरव देखू । तब मैं वैसे शयनासनोंमें विहार करने लगा। तब ब्राह्मण ! वैसे विहरते समय मेरे पास मृग माता था या मोर काठ गिरा देता या हवा पत्तोंको फरफराती तो मेरे मनमें जरूर होता कि यह वही भय भैरव आरहा है। तब ब्राह्मण मेरे मनमें होता कि क्यों मैं दूसरेसे भयकी भाकाक्षा विहररहा हु ? क्यों न मैं जिस जिस भवस्था खता। जैसे मेरे पास वह भयौरव भाता है Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | 1 [ २१ वैसी वैसा अवस्था में रहते उस भयभैरवको हटाऊँ । जब ब्राह्मण टहलते हुए मेरे पास भयभैरव आता तब मै न खडा होता, न बैठता न लेटता । टहलते हुए ही उस भयभैरवको हटाता । इसी तरह खडे होते, बैठे हुए व लेटे हुए जब कोई भय भैरव आता मैं वैसा ही रहता, निर्भय रहता । ब्राह्मण ! मैने अपना वीर्य या उद्योग भारम किया था । मेरी मूढता रहित स्मृति जागृत थी, मेरी काय प्रसन्न व आकुलता रहित थी, मेरा चित् समाधि सहित एकाग्र था । (१) सो मैं कामोंमे रहित, बुरी बातोंसे रहित विवेकसे उत्पन्न सवितर्क और सविचार प्रीति और सुखवाले प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगा । २) फिर वितर्क और विचारके शात होनेपर भीतरी शांत व चित्तको एकाग्रता वाले वितर्क रहित विचार रहित प्रीति सुख वाले द्वितीय ध्यानको प्राप्त हो बिहरने लगा । ( ३ ) फिर प्रीतिसे विरक्त हो उपेक्षक बन स्मृति और अनुभवसे युक्त हो शरीर से सुख अनुभव करते जिसे आर्य उपेक्षक, स्मृतिमान् सुख विहारी कहते हैं उस तृतीय ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगा । ( ४ ) फिर सुख दुखके परित्याग से चित्तोल्लास व चित्त सत्तापके पहले ही अस्त होजानेसे, सुख दुख रहित जिसमें उपेक्षा से स्मृतिकी शुद्धि होजाती है, इस चतुर्थ ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगा । सो इसप्रकार चित्तके एकाम, परिशुद्ध, अगण ( मल ) रहित, मृदुभूत, स्थिर, और समाधियुक्त होजानेपर पूर्व जन्मोंकी स्मृतिके लिये मैंने चित्तको झुकाया । इसप्रकार आकार और उद्देश्य सहित नेक प्रकारके पूर्व निवासको स्मरण करने लगा। इसप्रकार प्रमाद Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] दूसरा भाग। रहित व आत्मसयम युक्त विहरते हुए, रातके पहले पहरमें मुझे यह पहली विद्या प्राप्त हुई, अविद्या नष्ट हुई, तम नष्ट हुआ, मालोक उत्पन्न हुना। लो इसप्रकार वित्तको एकाग्र परिशुद्ध होनपर प्राणियोंके मरण और जन्मक ज्ञान के लिये चित्तको झुकाया । सो मैं अगानुम् विशुद्ध, दिव्य' र अन्छे बुरे, सुवर्ण दुर्वण, सुगति वाले, दुर्गतिपाले प्राणियोंको मरते उत्पन्न होते देखन ले। कर्मनुमार (यथा कम्मवगे) गतिको प्राप्त होते प्राणियोंको पहचानने लगा। जो प्राणधारी कायिक दुराचारसे युक्त, वाचिक दुराचारसे युक्त, मानसिक दुराचारसे युक्त, आर्योंके निन्दक मिथ्यादृष्टि, मिथ्यादृष्टि कर्मको रखनेवाले (मिथ्यादृष्टि कम्म समादाना) थे वे काय छोडनेपर मरने के बाद दुर्गति पतन, नर्कमें प्राप्त हुए है । जो प्राणधारों काायक, नाचक, मासिक सदाचारस युक्त आर्योंक भनिन्दक सम्यदृष्टि (सच्चे सिद्धातवाले) सम्यदृष्टि सम्बर्ध वर्मका करनेवाले (सम्मदिट्ठी कम्म समादाना) वे काय छोडनपर मरने के बाद सुगति, स्वर्गलोकको प्राप्त हुए हैं । इसप्रकार अमानुष विशुद्ध दिव्यचक्षुसे प्राणियों को पहचानने लगा । रातके मध्यम पहरमें यह मुझे दूसरी विद्या प्राप्त हुई फिर इस प्रकार समाधियुक्त व शुद्ध चित्त होते हुए आस्रवोंके भयके ज्ञानके लिये चित्तको झुकाया। यह दुःख है, यह दुःखका कारण है, यह दुःख निरोध है, यह दुःख निरोधका साधन (दुःनिरोध, गामिनीप्रतिपद्,) इसे यथार्थसे जान लिया। यह बास्रव है, यह आस्रवका कारण है, यह आस्रव निरोष है, यह आस्रव निरोधका साधन है यथार्थ जान लिया। सो इसप्रकार Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२३ देखते जानते मेरा चित्त काम, भव, व अविद्याके आस्रवोंसे मुक्त होगया । विमुक्त होजान्पर 'छूट गया' ऐसा ज्ञान हुआ। “ जन्म खतम होगया, ब्रह्मचर्य पूरा होगया करना था सो कर लिया अब वहा करने लिये कुछ शेष नही है" इस तरह रात्रिक अतिम पहरमे यह मुझे तिसरी विद्या प्राप्त हुई। अविद्या चली गई, विद्या उत्पन्न हुई, तम विघटा, आलोक उत्पन्न हुआ। जैसा उनको होता हो जो अप्रमत्त उद्योगशील त.वज्ञानी है। नोट-ऊपरका कथन पढकर कौन यह कह सक्ता है कि गौतम बुद्धका माधन उस निर्वाणके लिये था जो अभाव (annihilation) रूप है, यह बात बिलकुल समझमे नहीं आती। निर्वाण सदभाव रूप है, वह कोई अनिर्वचनीय अजर अमर शात व आनन्दमय पदार्थ है ऐसा ही प्रतीतिमे आता है। वास्तवमे उसे ही जैन लोग सिद्ध पद शुद्ध पद, परमात्म पद, निज पद, मुक्त पद कहते है। इसी सूत्रमे कहा है कि परमज्ञान प्राप्त होनेक पहले मै ऐसा था। वह परमज्ञान वह विज्ञान नहीं होसक्ता जो पाच इद्रि व मनकेद्वारा होता है, जो रूपके निमित्तसे होता है, जो रूप, वेदना, सज्ञा, सस्कारसे विज्ञान होता है। इस पंचस्कघीय वस्तुसे भिन्न ही कोई परम ज्ञान है जिससे जैन लोग शुद्ध ज्ञान या केवलज्ञान कह सक्ते है। इस सूत्रमे यह बताया है कि जिन साधुओंका या सतोंका अशुद्ध मन, वचन, कायका आचरण है व जिनका भोजन अशुद्ध है उनको वनमें भय लगता है। परन्तु जिनका मन वचन कायका चारित्र व भोजन शुद्ध है व जो लोभी नहीं हैं, हिंसक नहीं हैं, भानसी नहीं हैं, उद्धत नहीं है, सशय Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] दूसरा भाग। सहित नहीं है, परनिन्दक नहीं है, भीम नहीं है, सत्कार व लाभके भूखे नहीं है, स्मृतिवान है, निराकुल है, प्रज्ञावान हे उनको वनमें भय नहीं प्राप्त होता, वे निर्भय हो वनमें विचरते है । समाधि और प्रज्ञाको सम्पदा बताई है। किसकी सम्पदा-अपने आपकी-निर्वाणको सर्व परसे भिन्न जाननेको ही प्रज्ञा या भेदविज्ञान कहते हैं। फिर आपका निर्वाण स्वरूप पदार्थके साथ एकाग्र होजाना यही समाधि है, यही बात जैन सिद्धातमें कही है कि प्रज्ञा द्वारा समाधि प्राप्त होती है। फिर बताया है कि चौदम, अष्टमी, व पूर्णमासीकी रातको गौतमबुद्ध वनमे विशेष निर्भय हो समाधिका अभ्यास करते थे। इन रातोंको प्रसिद्ध कहा है । जैन लोगोंमे चौदस अष्टमीको पर्व मान कर मासमें ४ दिन उपवास करनेका व ध्यानका विशष अभ्यास करने का कथन है । कोई कोई श्रावक भी इन रातोंमें वनमें ठहर विशेष ध्यान करते हैं । मम्यादृष्टी कैसा निर्भय होता है यह बात भलेप्रकार दिखलाई है। यह बात झलकाई है कि निर्भयपना उसे ही कहते है जहा अपना मन ऐसा शात सम व निराकुल हो कि भाप जिस स्थिति हो वैसा ही रहते हुए नि शक बना रहे। किसी भयको आते देखकर जरा भी भागनेकी व धबड़ानेकी चेष्टा न करे तो वह भयप्रद पशु आदि भी ऐसे शात पुरुषको देखकर स्वयं शात होजाते हैं आक्रमण नहीं करते हैं। निर्मय होकर समाधिभावका अभ्यास करनेसे चार प्रकारके ब्यानको जागृत किया गया था । (१) जिसमे निर्वाणभावमें प्रीति हो व सुख प्रगटे तथा वितर्क व विचार भी हो, कुछ चिन्तवन भी हो, यह पहला ध्यान है। (२) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१५ फिर वितक व विचार बद होनेपर प्रीति व सुख सहित भाव रह जावे यह दुसरा ध्यान है । (३) फिर प्रीति सम्बधी राग चला जाव वैराग्य बढ जावे निर्वाण मानके स्मरण सहित सुखका अनुभव हो सो तीसरा ध्यान है । (४) वैराग्यकी वृद्धिसे शुद्ध व एकाग्र स्मरण हो सो चौथा ध्यान है। ये चार ध्यानकी श्रेणिया हैं जिनको गौतमबुद्धने प्राप्त किया । इसी प्रकार जैन सिद्धातमे सरागध्यान व वीतराग व्यानका वर्णन किया है। जितना जितना राग घटता है ध्यान निर्मल होता जाता है। फिर यह बताया है कि इस समाघियुक्त ध्यानसे व आत्म सयमी होनेसे गौतमबुद्धको अपने पूर्व भव स्मरणमे आए फिर दुसरे प्राणियोंके जन्म मरण व कर्तव्य स्मरणमें आए कि मिथ्या दृष्टी जीव मन वचन कायके दुराचारसे नर्क गया व सम्यग्दृष्टी जीव मन वचन कायके सुभाचार से स्वर्ग गया। यहा मिथ्यादृष्टी शब्द के साथ कर्म शब्द लगा है । जिसके अर्थ जैन सिद्धान्तानुसार मिथ्यात्व कर्म भी होसक्ते है । जैन सिद्धातमें कर्म पुद्गलके स्कध लोकव्यापी है उनको यह जीव जब खींचकर बाधता है तब उनमें कर्मका स्वभाव पडता है । मिथ्यात्व मावसे मिथ्यात्व कर्म बंध जाता है । तथा सम्यक्त कर्म भी है जो श्रद्धाको निर्मक नहीं रखता है। इस अपने व दुसरोंके पूर्वकालके स्मरणोंकी शक्तिको अवधि ज्ञान नामका दिव्य ज्ञान जैन सिद्धातने माना है। फिर बुद्ध कहते हैं कि जब मैंने दुख दुखक कारणको व आस्रव व आस्रवके कारणको, दुल व भास्रव निरोधको तथा दु ख व आस्रव निरोधके साधनको मले प्रकार जान लिया तब मैं सर्व इच्छामोंसे, जन्म Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसराभाग। धारणके भावसे व सर्व प्रकारकी अविद्यासे मुक्त होगया। ऐसा मुझको भीतरसे अनुभव हुआ। ब्रह्मचर्य भाव जम गया। ब्रह्म भावमें लय होगया। यह तीसरी विद्या स्वरूपानन्दके लाभकी बताई है। यहातक गौतमबुद्धकी उन्नती बात कही है। इस सूत्रमें निर्भय रहकर विहार करनका व बानको महिमा बताई है। यह दिव्यज्ञान न कि पूर्वका स्मरण हो व समाधिमें आनन्द ज्ञान हो उस विज्ञानसे अवश्य भिन्न है जिसका कारण पाच इन्द्रिय व मन द्वारा रूपका ग्रहण है, फिर उसकी वेदना है, फिर सज्ञा है, फिर सस्कार है, फिर विज्ञान है । वह सब अशुद्ध इन्द्रियद्वारा ज्ञान है । इससे यह दिव्यज्ञान अवश्य विलक्षण है । जब यह बात है तब जो इम दिव्यज्ञानका आधार है वही वह आत्मा है जो निवाणमें भजात भमर रूपमें रहता है। सद्भावरूप निवाण सिवाय शुद्धात्माके स्वभावरूप पदके और क्या होसक्ता है, यही बात जैन सिद्धातसे मिल जाती है। जन सिद्धातके वाक्य-तत्वज्ञानी सम्यग्दृष्टोको सात तरहका भय नहीं करना चाहिये। (१) इस लोकका भय-जगतके लोग नाराज होजायंगे तो मुझे कष्ट देंगे, (२) परलोकका भय-मरकर दुर्गतिमें जाऊंगा तो कष्ट पाऊगा,(३) वेदनाभय-रोग होजायगा तो क्या करूगा, (४) अरक्षा भय-कोई मेरा रक्षक नहीं है मैं कैसे जीऊँगा (५) अगुप्ति भय-मेरी वस्तुएँ कोई उठा लेगा मैं क्या करूगा (६) मरण भय-मरण मायगा तो बड़ा कष्ट होगा (७) अकस्मात भय-कहीं दीवाल न गिर पडे भूचाल न भावे । मिथ्यादृष्टिकी शरीरमें भासक्ति Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ २७ D होती है, वह इन भयको नहीं छोड़ सक्ता है । सम्यग्दृष्टी तत्वज्ञानी है, आत्मा निर्वाण स्वरूपका प्रेमी है, ससारको अनित्य अवस्थाओंको अपने ही हुए कर्मका फल जानवर उनके होनेपर आश्चर्य य भय नहीं मान्त ह । अब यहाशक्ति रोगादसे बचने जाय रखता है, परन्तु कायरभान चित्तसे निकाल देता है । वीर सिपाहीक समान ससारमें रहता है, आत्मसंयमी होकर निर्भय रहता है 1 श्री अमृतचद्र आचार्य ने समयसार कलशमें सात भयोंके दूर रहने की बात सम्यग्दृष्टीक लिये कही है। उसका कुछ दिग्दर्शन यह हैसम्यग्दृष्टय एवं साहस मिद कर्तुं क्षमन्ते पर । यद्वत्रेऽपि पतत्यमी भयचळ त्रैलोक्यमुक्ताध्वनि ॥ सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शङ्का विहाय स्वय । जानत स्वमवध्यबोधमपुष बोधाच्च्पषन्ते न हि ॥ २२-७ ॥ भावार्थ- सम्यग्दृष्टी जीव ही ऐसा साहस करनको समर्थ है कि जहा व जब ऐसा अवसर हो कि वज्रक समान आपत्ति आरही हों जिनको देखकर व जिनके भय से तीन लोकक प्राणी भयसे भागकर मार्गको छोड़ दें तब भी वे अपनी पूर्ण स्वाभाविक निर्भयताके साथ रहते हैं । स्वयं शका रहित होते है और अपने आपको ज्ञान शरीरी जानते हैं कि मेरे आत्माका कोई वघ कर नहीं सक्ता । ऐसा जानकर वे अपने ज्ञान स्वभावसे किचित् भी पतन नहीं करते हैं । 1 प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरण प्राणा किलास्यात्मनो । ज्ञान तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित् ॥ तस्यातो मरण न किश्चन भवेत्तद्भी कुतो ज्ञानिनो । निश:क. सतत स्वम स सहज ज्ञान सदा विन्दति ॥ २७-७ ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २८] दूसरा भाग। भावार्थ-बाहरी इन्द्रिय बलादि प्राणों के नाशको मरण कहते है क्तुि इस मात्माके निश्चय प्राण ज्ञान है । वह ज्ञान सदा भवि नाशी है उसका कभी छेदन भेदन नहीं होसक्ता । इसलिये ज्ञानियोंको मरणका कुछ भी भय नहीं होता है-निशक रहकर सदा ही अपने सहज स्वाभाविक ज्ञान स्वभावका अनुभव करते रहते है । पचाध्यायीम भी कहा है परत्रात्मानुभूतेधैं विना भीति कुतस्तनी ।। भीति पर्यायमूढाना नात्मतत्वेकचेतसाम् ॥ ४९५ ।। भावार्थ-पर पदार्थोंमें आत्मापनेकी बुद्धि के विना भय कैसे होसक्ता है ? जो शरीरमें आसक्त मूढ़ प्राणी है उनको भय होता है केवल शुद्ध मात्माके अनुभव करनेवाले सम्यग्दृष्टियोंको भय नहीं होता है। ध्यानकी सिद्धिके लिय जैसे निर्भयताकी जरूरत है वैसे ही अशुद्ध भावोंको-क्रोध, मान, माया, लोभको हटानेकी जरूरत है ऐसा ही बुद्ध सूत्रका भाव है । इन सब अशुद्ध भावोंको राग द्वेष मोहमें गर्भित करके श्री नेमिचन्द्र सिद्धात चक्रवर्ती द्रव्यसग्रह ग्रंथमें कहते हैं मा मुज्झइ मा रजह मा दुस्सह इणि मत्थेसु । थिरमिच्छह जई चित्त विचित्तशाणप्पसिद्धीए ॥४८॥ भावार्थ-हे भाई ! यदि तू नानाप्रकार ध्यानकी सिद्धिके लिये चित्तको स्थिर करना चाहता है तो इष्ट व अनिष्ट पदार्थोमें मोह मत कर, राग मत कर, द्वेष मत कर । समभावको प्राप्त हो । श्री देवसेन भाचार्यने तत्वसारमें कहा है Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ २९ इदियविसय विरामे मणस्स णिल्हूरण हवे जइया | तइया त अविव्यप्प ससरूवे आपणो त तु ॥ ६ ॥ समणे णिच्चलभूये णट्टे सव्वे विनस दोहे | थक्को सुद्धसहावो वियपो णिच्चो णिच्चो ॥ ७ ॥ भावार्थ- पाचों इन्द्रियोंके विषयोंकी इच्छा न रहनेपर जब मन विध्वश होजाता है तब अपने ही स्वरूपमें अपना निर्विकल्प (निर्वाण रूप ) स्वरूप झलकता है । जब मन निश्चल होजाता है और सर्व विकल्पों का समूह नष्ट होजाता है तब शुद्ध स्वभावमई निश्चल स्थिर अविनाशी निर्विकल्प तत्व ( निर्वाण मार्ग या निर्वाण ) झलक जाता है । और भी कहा है 1 झाट्ठियो हु जोई जड़ णो सम्वेय निययमव्वाण | तो ण लहइ त सुद्ध भग्गविहीणो जहा रयण ॥ ४६ ॥ देहसुहे पडिबद्धो जेण य सोतेण लहइ ण ड सुद्ध । तच्च वियाररहिय णिच्च चिय झायमाणो हु ॥ ४७ ॥ भावार्थ - ध्यानी योगी यदि अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभव नहीं प्राप्त करे तो वह शुद्ध स्वभावको नहीं पहुचेगा जैसे- भाग्यहीन रत्नको नहीं पा सक्ता । जो देहके सुखमें लीन है वह विचार रहित अविनाशी व शुद्ध तत्वका ध्यान करता हुआ भी नहीं पासक्ता हैश्री नागसेन मुनि तत्वानुसासनमें कहते हैसोऽय समरसीभावस्तदेकीकरण स्मृत | एतदेव समाधि स्याल्लोकयफलप्रद ॥ १३७ ॥ माध्यस्थ्य समतोपेचा वैराग्य साम्यमस्पृह । वैतृष्ण्य परम. शातिरित्ये कोऽर्थोऽभिषीयते ॥ १३९ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] दूसरा भाग । भावार्थ -- जो कोई मम्मी भाव है उसीको एकीकरण या एक्यभाव कहा है, यही समाधि है इससे इस लोक में भी दिव्य शक्तिया प्रगट होती है और परलोकमें भी उच्च अवजा होती है । माध्यस्थभाव, समता उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, निस्पृहभाव तृष्णा रहितपना, परमभाव, शाति इन सबका एक ही अर्थ है । जैन सिद्धात में ध्यान सम्बधी बहुत वर्णन है, व्यानहीमे निर्वाणकी सिद्धि बताई है । द्रव्यसग्रहमें कहा है दुवि पि मोक्खहेउ झाणे पाउणदि ज मुणो णियमा । तह्मा पयत्तचित्ताजूय ज्झाणे समब्भसह ॥ ४७ ॥ भावार्थ - निश्चय मोक्षमार्ग आत्मसमाधि व व्यवहार मोक्षमार्ग अहिंसादी व्रत ये दोनों ही मोक्षमार्ग साधुको आत्मध्यानमे मिल जाते हैं इसलिये प्रयत्नाचत्त होकर तुम सब अभ्यास करो । ध्यानका भले प्रकार ----- (४) मज्झिमनिकाय - अनङ्गण सूत्र । आयुषमान् सारिपुत्र भिक्षुओंको कहते हैं-लोक में चार प्रकारके पुद्गल या व्यक्ति है । (१) एक व्यक्ति अगण ( चित्तमळ ) सहित होता हुआ भी, मेरे भीतर अंगण है इसे ठीकसे वही जानता । (२) कोई व्यक्ति अगण सहित होता हुआ मेरे मीतर अगण हैं इसे ठीक से जानता है । (३) कोई व्यक्ति अगण रहित होता हुआ मेरे भीतर अगण नहीं हैं इसे ठीकसे नहीं जानता है । (४) कोई व्यक्ति अगण रहित होता हुआ मेरे भीतर अगण नहीं हैं इसे ठीक से जानता है । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [" इनमेसे अगण सहित दोनों व्यक्तियोंमें पहला व्यक्ति हीन है, दुसरा व्यक्ति श्रेष्ठ है जो अगण है इस बातको ठीकसे जानता है। इसी तरह अगण रहित दोनोंमे से पहला हीन है। दूसरा श्रेष्ठ है जो अगण नहीं है इस बातको ठीकसे जानता है। इसका हेतु यह है कि जो व्यक्ति अपने भीतर अगण है इसे ठीक से नहीं जानता है। वह उस अगणके नाशक लिये प्रयत्न, उद्योग व वीर्यारभ न करेगा। वह राग, द्वेष, मोह मुक्त रह मलिन चित्त ही मृत्युको प्राप्त करेगा जैसे-कासेकी थाली रज और मलसे लिप्त ही कसेरेके यहासे घर लाई जावे उसको लानेवाला मालिक न उसका उपयोग करे न उसे साफ करे तथा कचरेमे डालदे तब वह कासे की थाली कालातरमें और भी अधिक मैली हो जायगी इसीतरह जो अगण होते हुए उसे ठीकसे नहीं जानता है वह अधिक मलीनचित्त ही रहकर मरेगा । जो व्यक्ति अगण सहित होने पर ठीकसे जानता है कि मेरे भीतर मल है वह उस मलके नाशके लिये वीर्यारम्भ कर सकता है, वह राग, द्वेष, मोह रहित हो, निर्मल चित्त हो मरेगा । जैसे रज व मलसे लिप्त कासेकी थाली लाई जावे, मालिक उसका उपयोग करे, साफ करे, उसे कचरेमें न डाले तब वह स्तु कालातरमें अधिक परिशुद्ध होजायगी। जो व्यक्ति अगण रहित होता हुमा भी उसे ठीकसे नहीं जानता है वह मनोज्ञ (सुदर) निमित्तोंके मिलने -नकी ओर मनको झुका देगा तब उसके चित्तमे राग चिपट जाय -वह राग, द्वेष मोह सहित, मलीनचित्त हो मरेगा। जैसे बाजारसे कासेकी थाली शुद्ध लाई जावे परन्तु उसक मालिक न उसका उपयोग करे, Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। न उसे साफ रक्खे-कचरेमे डालदे तो यह थाली कालातरमें मैली होजायगी। जो व्यक्ति अगण रहित होता हुआ ठीकसे जानता है वह मनोज्ञ निमित्तोंकी तरफ मनको नहीं झुकाएगा तब वह गगसे लिप्त न होगा। वह रागद्वेष मोहरहित होकर, अंगणरहित व निर्मलचित्त हो मरेगा जैसे-शुद्ध कासे की थाली कसेरेके यहासे लाई जावे। मालिक उसका उपयोग करें, साफ रक्खें उसे कचरेमे न डाले तब वह थाली कालातरमें और भी अधिक परिशुद्ध और निर्मल होजायगी। तब भोग्गलापनने प्रश्न किया कि अंगण क्या वस्तु है ? तब सारिपुत्र कहते हे -पाप, बुराई व इच्छाकी परतंत्रताका नाम अंगण है, उसके कुछ दृष्टात नीचे प्रकार हैं (१) हो सकता है कि किसी भिक्षुके मनमें यह इच्छा उत्पन्न हो कि मैं अपराध करू तथा कोई भिक्षु इस बातको न जाने । कदाचित् कोई भिक्षु उस भिक्षुकके बारेमें जान जावे कि हमने मापत्ति की है तब वह भिक्षु यह सोचे कि भिक्षुभोंने मेरे अपराधको जान लिया । और मनमे कुपित होवे, नाराज होवे, यही एक तरहका अंगण है। (२) हो सकता है कोई भिक्षु यह इच्छा करे कि मैं अपराध करू लेकिन भिक्षु मुझे अकेले हीमें दोषी ठहरावें, सघमें नहीं, कदा चित् भिक्षुगण उसे सबके बीच में दोषी ठहरावें, अकेले मे नहीं । तब वह भिक्षु इस बातसे कुपित होजावे यह जो कोप है वही एक तर इका अंगण है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ww जैन बौद्ध तत्वज्ञान । (३) होसकता है कोई भिक्षु यह इच्छा करे कि मै अपराध करू, मेरे बराबरका व्यक्ति मुझे दोषी ठहरावे दूसरा नहीं । कदाचित् दुसरेने दोष ठहराया इस बातसे वह कुपित होजावे, यह कोप एक तरहका अगण है। (४) होसकता है कोई भिक्षु यह इच्छा करे कि शास्ता (बुद्ध) मुझे ही पूछ पूछकर धर्मोपदेश करे दूसरे भिक्षुको नहीं । कदाचित शास्ता दूसरे भिक्षुको पूछ कर धर्मोपदेश करे उसको नहीं, इस बातसे वह भिक्षु कुपित होजावे, यह कोप एक तरहका अगण ह । (५) होसकता है कि कोई भिक्षु यह इच्छा करे कि मै ही माराम ( आश्रम ) में आये भिक्षुओंको धर्मोपदेश करू दुसरा भिक्षु नहीं। होसकता है कि अन्य ही भिक्षु धर्मोपदेश करे, ऐमा सोच कर वह कुपित होजावे । यही को। एक तरहका अगण है। (६) होसकता है किसी भिक्षुको यह इच्छा हो कि भिक्षु मेग ही सत्कार करें, मेरी ही पूजा करे, दूसरे की नहीं। होसकता है कि भिक्षु दूसरे भिक्षुकी सत्कार पूजा करे इससे वह कुपित होजावे यह एक तरहका अगण है। इत्यादि ऐमी । बुराइयों और इच्छाकी परतत्रताओंका नाम अगण है । जिस किसी कि भिक्षुकी यह बुगइया नष्ट नहीं दिखाई पड़ती है सुनाई देती है, चाहे वह बनवासी, एकात कुटी निवासी, भिक्षान्नभोजी आदि हो उसका सत्कार व मान स ब्रह्मचारी नहीं करते क्योंकि उसकी बुगइश नष्ट नहीं हुई है। जैसे कोई एक निर्मल कासेकी थाली बाजारसे लावे, फिर उसका मालिक उसमे मुर्दे साप, मुर्दै वुत्ते या मुर्दै मनुष्य ( के मास ) को भरकर Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] दूसरा भाग । दुसरी कासेकी थाली से ढककर बाजारमे रखदें उसे देखकर लोग कहे कि अहो ! यह चमकता हुआ क्या रक्खा है। फिर ऊपरकी थालीको उठाकर देखें । उसे देखते ही उनके मनमें वृणा, प्रतिकूलता, जुगुसा उत्पन्न होजावे, भूखे को भी खाने की इच्छा न हो, पेटभरों की तो बात ही क्या। इसी तरह बुराइयोंसे भरे भिक्षुका सत्कार उत्तम पुरुष नहीं करते । परन्तु जिस किसी भिक्षुकी बुराइया नष्ट होगई हैं उसका सत्कार सब्रह्मचारी करते है । जैसे एक निर्मल कासेकी थाली बाजारसे लाई जावे उसका मालिक उसमें साफ किये हुए शालीके चाबलको अनेक प्रकारके सूप (दाल) और व्यनन (साग भाजी) के साथ सजाकर दूसरी कासेकी थालीसे ढककर बाजारमें रखदें, उसे देखकर लोक कहे कि चमकता हुआ क्या है ? थाली उठाकर देखें तो देखते ही उनके मन में प्रसन्नता, अनुकूलता और भजुगुप्सा उत्पन्न होजावे, पेटभरेकी भी खाने की इच्छा हो जावे, भूखोंको तो बात ही क्या है । इसी प्रकार जिसकी बुराइया नष्ट होगई है उसका सत्पुरुष सत्कार करते है । नोट- इस सूत्र में शुद्ध चित्त होकर धर्ममाधनकी महिमा बताईं है तथा यह झलकाया है कि जो ज्ञानी है वह अपने दोषोंको मेट सक्ता है। जो अपने भावको पहचानता है कि मेरा भाव यह शुद्ध है वह अशुद्ध है वही अशुद्ध भावोंके मिटानेका उद्योग करेगा । प्रयत्न करते करते ऐसा समय आयगा कि वह दोषमुक्त व वीतराग होजावे । जैन सिद्धाद में भी प्रतीके लिय विषयकषाय व शल्य व गार आदि दोषोंके मेटने का उपदेश है । उसे पाच इन्द्रियोंकी Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [३५ इच्छाका विजयी, क्रोध, मान, माया, लोभरहित व माया, मिथ्यात्व भोगोंकी इच्छारूप निदान शल्यसे रहित तथा मान बड़ाई व पूजा आदिकी चाहसे रहित होना चाहिये । श्री देवसेनाचार्य तत्वसारमें कहते हैलाहालाहे सरिसो सुहदुक्खे तह य जीविए मरणे । बधो भरयसमाणो झाणममत्थो हु सो जोई ॥ ११॥ रायादिया विभाषा पहिरतरउहविप्प मुत्तूण । एयग्गमणो झायहि णिरजण णिययअप्पाण ॥ १८॥ भावार्थ-जो कोई साधु लाभ व अलाभ, सुख व दु खमें, जीवन या मरणमें, बन्धु व मित्रमे समान बुद्धि रखता है वही ध्यान करनेको समर्थ होसक्ता है। रागादि विभावोंको व बाहरी व मनके भीतस्के विकल्पोंको छोड़कर एकाग्र मन होकर अब आपको निरजन रूप ध्यान कर मोक्ष के पात्र ध्यानी साधु कैसे होते है। श्री कुलभद्राचार्य सारसमुच्चयमें कहते है सगादिरहिता धीरा रागादिमळवर्जिता । शान्ता दान्तास्तपोभूषा मुक्तिकाक्षणतत्परा ॥ १९६ ॥ मनोवाकाययागेषु प्रणिधानपरायणा । वृतात्या ध्यानसम्पन्नास्ते पात्र करुणापरा ॥ १९७ ॥ भग्रहो हि शमे येषा विग्रह कर्मशत्रुभि । विषयेषु निरासङ्गास्ते पात्र यतिसत्तमा ॥ २० ॥ यैर्ममत्व सदा त्यक्त स्त्रकायेऽपि मनीषिभि । ते पात्र सयतात्मान. सर्वसत्यहिते रता ॥ २०२॥ भावार्थ-जो परिग्रह भादिसे रहित है, धीर हैं, राग, द्वेष, मोहके मलसे रहित है, शातचित्त हैं, इन्द्रियों के दमन करनेवाले हैं, Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। तपसे शोभायमान हैं, मुक्तिकी भावनामें तत्पर हैं मन, वचन व कायको एकाग्र रखनेमें तत्पर है, सुचारित्रवान है, ध्यानसम्पन्न है व दयावान हैं वे ही पात्र हैं। जिनका शातभाव पानेका हठ है, जो कर्मशत्रुओंसे युद्ध करते है, पाचों इन्द्रियोंके विषयोंसे भलिप्त हैं वे ही यतिवर पात्र है। जिन महापुरुषोंने शरीरसे भी ममत्व त्याग दिया है तथा जो सयमी हैं व सर्व प्राणियोके हितमें तत्पर हैं के ही पात्र है। इस सूत्रका तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टी ही अपने भावोंकी शुद्धि रख सक्ता है। सम्यक्तीको शुद्ध भावोंकी पहचान है, वह मैलपनेको भी जानता है। अतएव वही भावोंका मक हटाकर अपने भावोंको शुद्ध कर सक्ता है। (५) मज्झिमनिकाय-वस्त्र सूत्र । गौतम बुद्ध भिक्षुओंको उपदेश करते है जैसे कोई मैला कुचैला वस्त्र हो उसे रङ्गरेजके पास ले जाकर जिस किसी रङ्गमें डाले, चाहे नीलमें, चाहे पीतमें, चाहे लालमें, चाहे मजीठके रगमें, वह बद रङ्ग ही रहेगा, अशुद्ध वर्ण ही रहेगा । ऐसे ही चित्तके मलीन होनेसे दुर्गति अनिवार्य है। परन्तु जो उजला साफ वस्त्र हो उसे रङ्गरेजके पास लेजाकर जिस किसी ही रङ्गमे डाले वह सुरग निकलेगा, शुद्ध वर्ण निकलेगा, क्योंकि वस्त्र शुद्ध है। ऐसे ही चित्तके मन् उपक्लिष्ट मर्थात् निर्मल होने पर सुगति अनिवार्य है । भिक्षुभो ! चित्र के उपक्लेश या मल हैं (१) अभिदया या Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ ३७ विषयों का लोभ, (२) व्यापाद या द्रोह, (३) क्रोध, (४) उपनाह या पाखड, (५) भ्रक्ष (अभरख), (६) प्रदोष (निष्ठुरता), (७) ईर्षा, (८) मात्सर्य (परगुण द्वेष), (९) माया, (१०) शठता, (११) स्तम्भ (जड़ता ), (१२) सारभ (हिंसा), (१३) मान, (१४) अतिमान, (१५) मद, (१६) प्रमाद । जो भिक्षु इन मलको मल जानकर त्याग देता है वह बुद्धमें अत्यन्त श्रद्धासे मुक्त होता है । वह जानता है कि भगवान अत् सम्यक् - सबुद्ध ( परम ज्ञानी ), विद्या और आचरण से सपन्न, सुगत, लोकविद, पुरुषोंको दमन करने (सन्मार्गपर लाने के लिये अनुपम चाबुक सवार, देव मनुष्योंके शास्ता ( उपदेशक ) बुद्ध ( ज्ञानी ) भगवान है । यह धर्म में अत्यन्त श्रद्धा से मुक्त होता है, वह समझता है कि भगवानका धर्म स्वाख्यात (सुन्दर रीति से कहा हुआ) है, साहटिक ( इसी शरीरमे फल देनेवाला ), अकालिक ( सद्य फलप्रद ), एपिश्यिक (यह दिखाई देनेवाला) औपनयिक (निर्वाणके पास लेजानेवाला ), विज्ञ ( पुरुषोंको ) अपने अपने भीतर ही विदित होनेवाला है। वह सघमें अत्यन्त श्रद्धा से मुक्त होता है, वह समझता है भगवानका श्रावक (शिष्य) सघ सुमार्गारूढ़ है, ऋजुप्रतिपन्न ( सरक मार्गपर आरूढ़ ) है, न्यायप्रतिपन्न है, सामीचि प्रतिपन्न है ( ठीक मार्गपर आरूढ़ है ) जब भिक्षुके मल त्यक्त, वमित, मोचित, नष्ट व विसर्जित होते हैं तब वह अर्थवेद (अर्थज्ञान), धर्मवेद ( धर्मज्ञान) को पाता है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। धर्मवेद सम्बधी प्रमोदको पाता है, प्रमुदिर को मोष होता है, प्रीतिवानकी काया शाल होती है। प्रश्रब्ध काय सुख अनुभव करता है। मुखीका चित्त एकाग्र होता है। ऐमे शीलवाला, ऐसे धर्मवाला, ऐसी प्रज्ञावाला भिक्षु चाहे काली (भूमी आदि) चुनकर बने शालीक भातको भनेकरूप (दाल) व्यजन (सागभाजी) के साथ खावे तौभी उसको अन्तराय ( विन) नहीं होगा। जैसे मैला कुचैला वस्त्र स्वच्छ जलको प्राप्त हो शुद्ध साफ होजाता है, उल्कामुल (भट्टीकी घड़िया )में पढ़कर सोना शुद्ध साफ होजाता है। वह मैत्री युक्त चित्तसे सर्व दिशाओंको परिपूर्ण कर विहरता है । वह सबका विचार रखनेवाला, विपुल, अप्रमाण, वैररहित, द्रोहरहित, मैत्री युक्त चित्तसे सारे लोकको पूर्णकर विहार करता है। इसी तरह वह करुणायुक्त चित्तसे, मुदितायुक्त चित्तसे, उपेक्षायुक्त चित्तसे युक्त हो सारे लोकको पूर्णकर विहार करता है। ___ वह जानता है कि यह निकृष्ट है, यह उत्तम है, इन (लौकिक) समाओसे ऊपर निस्सण (निकाम) है। ऐसा जानते, ऐसा देखते हुए उसका चित्त काम (वासनारूपी) आस्रवसे मुक्त होजाता है, भव आस्रवसे, अविद्या भासवसे मुक्त होजाता है। मुक्त होजाने पर 'मुक्त होगया है यह ज्ञान होता है और जानता है-जन्म क्षीण होगया, ब्रह्मचर्यवास समाप्त होगया, करना था सो कर लिया, अब दुसरा यहा (कुछ करनेको) नहीं है। ऐसा भिक्षु स्नान करे विवाही मात (नहाया हुमा) कहा जाता है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [३९ उस समय सुदरिक भारद्वाज ब्राह्मणने कहा क्या आप गौतम वाहुका नदी चलेगे। तब गौतमने कहा वाहुका नदी क्या करेगी। ब्राह्मणने कहा वाहुका नदी पवित्र है, बहुतसे लोग वाहुका नदीमें अपने किये पापोंको वहाते है । तब बुद्धने ब्रह्मणको कहा - वाहुका, अविस्क, गया और सु दरिकामें । सरस्वती, और प्रयाग तथा बाहुमती नदीमें । कालेकोवाला मूढ चाहे कितना न्हाये, शुद्ध नहीं होगा। क्या करेगी सुन्दरिका, क्या प्रयाग और क्या बाहुबलिका नदी! पापकर्मी कतकिल्विष दुष्ट नरको नहीं शुद्ध कर सकते । शुद्धके लिये सदा ही फल्गू है, शुद्ध के लिये सदा ही उपोसन्य (व्रत) है। शुद्ध और शुचिकर्माके व्रत सदा ही पुरे होते रहते हैं। ब्राह्मण ! यहीं ठहर, सारे प्राणियोंका क्षेमकर । यदि तू झूठ नहीं बोलता यदि प्राण नहीं मारता। यदि विना दिया नहीं लेता, श्रद्धावान मत्सर रहित है। गया जाकर क्या करेगा, क्षुद्र जलाशय भी तरे लिये गया है। नोट-जैसे इस सूत्रमे वस्त्रका दृष्टात देकर चित्तकी मलीनताका निषेध किया है वैसे ही जैन सिद्धातमें कहा है। श्री कुदकुंदाचार्य समयसारमे कहते हैवत्थस्स सेदभावो नह णासेदि मलविमेळणाच्छण्णो । मिच्छत्तमलोच्छण्ण तह सम्मत्त खु णादव्व ॥ १६४ ॥ वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलविमेळणाच्छण्णो। अणमोबाण तहमाण होति मावि ! Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। वत्थस्स सेदभावो जह णासे दि मळविमेलणाच्छण्णो। तह दु कसायाच्छण्ण चारित्त होदि णादव ॥ १६६॥ भावार्थ-जैसे वस्त्रका उजलापन मलके मैलसे ढका हुमा नाश हो जाता है वैसे ही मिथ्यादर्शनके मैलसे ढका हुआ जीवका सम्यग्दर्शन गुण है ऐसा जानना चाहिये । जैसे वस्त्रका उजलापन मलके मैलसे ढका हुआ नाशको प्राप्त होजाता है वैसे अज्ञानके मैकसे ढका हुमा जीवका ज्ञान गुण जानना चाहिये । जैसे वस्त्रका उजलापन मलके मैकसे ढका हुआ नाश होजाता है वैसे कषायके मलसे ढका हुमा जीवका चारित्र गुण जानना चाहिये। जैसे बौद्ध सूत्रमें चित्तके मळ मोलह गिनाए हैं वैसे जैन सिद्धातमें चित्तको मलीन करनेवाले १६ कषाय व नौ नोकषाय ऐसे २५ गिनाए हैं। देखो तत्वार्थसूत्र उमास्वामी कृत-अध्याय ८ सूत्र ९ । ४-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ-ऐसे कषाय जो पत्थरकी लकी (के समान बहुत काल पीछे हटें। यह सम्यग्दर्शनको रोकती है। ४-अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ-ऐसी कषाय मो हलकी रेखाके समान हो, कुछ काल पीछे मिटे । यह गृहस्थके व्रत नहीं होने देती है। ४-प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ-ऐसी कषाय जो वालूके भीतर बनाई लकीरके समान शीघ्र मिटे । यह साधुके चारित्रको रोकती है। ५-सज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ-ऐसी कवाय जो Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन बौद्ध तत्वज्ञान । यानीमें लकीर करनेके समान तुर्त मिट जावे । यह पूर्ण वीतरागताको रोकती है। ९-नोकषाय या निर्मल कषाय जो १६ कषायोके साथ साथ काम करती है-१-हास्य २ शोक, ३ रति, ४ भरति, ५ भय, ६ जुगुप्सा, ७ स्त्रीवेद, ८ पुरुषवेद, ९ नपुसकवेद । उसी तत्वार्थसूत्रम कहा है अध्याय ७ सूत्र १८ में । निःशल्यो व्रती-व्रतधारी साधु या श्रावकको शल्य रहित होना चाहिये । शल्य काटेके समान चुभनेवाले गुप्तभावको कहते है । वे तीन हैं (१) मायाशल्य-कपटके साथ व्रत पालना, शुद्ध भावसे नहीं। (२) मिथ्याशल्प-श्रद्धाके विना पालना, या मिथ्या श्रद्धाके साथ पालना। (३) निदान शल्य-भोगोंकी आगामी प्राप्तिकी तृष्णासे मुक्त हो पालना। जैसे इस बुद्धसूत्रमे श्रद्धावानको शास्ता, धर्म और सघमें श्रद्धाको दृढ़ किया है वैसे जैन सिद्धान्तमें आप्त भागम, गुरुमें श्रद्धाको दृढ़ किया है। आगमसे ही धर्मका बोध लेना चाहिये । श्री समंतभद्राचार्य रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें कहते हैं श्रद्धान परमार्थानामाप्तागमतपोभूनाम् ।। त्रिमूढापोढमष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ ४ ॥ भावार्थ-सम्यग्दर्शन या सच्चा विश्वास यह है कि परमार्थ या सच्चे आत्मा (शास्तादेव), आगम या धर्म, तथा तपस्वी गुरूमें पक्की श्रद्धा होनी चाहिये, जो तीन मूढ़ता व आठ मदसे शून्य हो तथा माठ अग सहित हो। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m ४२] दूसरा भाग। आप्त उसे कहते है जो तीन गुण सहित हो । जो सर्वज्ञ, वीतराग तथा हितोपदेशी हो। इन्हींको मर्मत, सयोग केवली जिन, सकल परमात्मा, जिनेन्द्र आदि कहते है। आगम प्राचीन वह है जो आप्तका निर्दोष वचन है । गुरु वह है जो आरम्भ व परिग्रहका त्यागी हो, पाचों इन्द्रियोंकी भाशासे रहित हो, मात्मज्ञान व भात्मध्यानमें लीन हो व तपस्वी हो। तीन मूढता-मूर्खतासे कुदेवोंको देव मानना देव मूढता है। मूर्खतासे कुगुरुको गुरु मानना पाखण्ड मूढता है । मूर्खतासे लौकिक रूढि या वहमको मानना लोक मूढता है। जैसे नदीमें स्नानसे धर्म होगा। आठ मद-१ जाति, २ कुल, ३ रूप, ४ बल, ५ धन, ६ मधिकार, ७ विद्या, ८ तप इनका घमड करना । __ आठ अग-१ निःशकित (शका रहित होना व निर्मल रहना)। २ निःकाक्षित-भोगोंकी तरफ श्रद्धाका न होना। ३ निर्विचिकित्सित-किसीके साथ घृणाभाव नहीं रखना। ४ अमूढदृष्टि-मूढताकी तरफ श्रद्धा नहीं रखना । ५ उपगृहन-धर्मात्माके दोष प्रगट न करना । ६ स्थितिकरण-अपनेको तथा दूसरोंको धर्ममें मजबूत करना । ७ वात्सल्य-धर्मात्मामोंसे प्रेम रखना, ८ प्रभावना-धर्मकी उन्नति करना व महिमा फैलाना। जैसे बुद्ध सूत्रों धर्मके साथ स्वाख्यात शब्द है वैसे जैन सूत्रमें है। देखो तत्वासूत्र उमास्वामी मध्याय ९ सत्र । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | धर्म स्वाख्या तत्व | प इम बुद्ध सूत्रमें कहा है कि धर्म वह है जो इसी शरीर में अनुभव हो व जो भी विदित हो निर्वाणकी तरफ ले जाने वाला हो तब इसमे सिद्ध है कि धर्म कोई वस्तु है जो अनुभवगम्य है, वह शुद्ध आत्मा के सिवाय दूसरी वस्तु नहीं हो सक्ती है। शुद्धात्मा ही निर्वाण स्वरूप है। शुद्धात्माका अनुदव करना निर्वाणका मार्ग है । शुद्धात्मा शाश्वत रहना निर्वाण ह । यदि निर्माणको अभाव माना जावे तो कोई अनुभव योग्य धर्म नहीं रह जाता है जो निर्वाणको लेजा सके। आगे चलके कहा है कि जो मलोंसे मुक्त होजाता है वह अर्थवेद, धर्मवेद, प्रमोद, व एकाग्रताको पाता है। यहा जो अर्थज्ञान, धर्मज्ञान शब्द है वे बताते हैं कि परमार्थ रूप निर्वाणका ज्ञान व इसके मार्ग रूप धर्मका ज्ञान, इस धर्मक अनुभवसे आनन्द होता है । आनन्दसे ही एका ध्यान होता है । [ ४३ ―――― श्री देवसेनाचार्य तत्वसार जैन ग्रथमे कहते हैसथिक उपज्जह कोवि सासभ भावो । जो अपणो सहावो मोक्खस्स य कारण सो हु ॥ ६१ ॥ भावार्थ- सर्व मन वचन कायके विकल्पोंके रुक जानेपर कोई ऐसा शाश्वत् भाव प्रगट होता है जो अपना ही स्वभाव है। वही मोक्षका कारण है। श्री पूज्यपादस्वामी इष्टोपदेशमें कहते हैंस्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारबाहि स्थिते । नायते परमानद कश्विद्योगेन योगिन ॥ ४७ ॥ भावार्थ- जो मात्मा के स्वरूपमें लीन होजाता है ऐसे योगी के योगके बलसे व्यवहारसे दूर रहते हुए कोई अपूर्व आनन्द उत्पन Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] दूसरा भाग। हो जाता है। जब तक किसी शाश्वत् मात्मा पदार्थकी सत्ता न स्वी कार की जायगी तबतक न तो समावि होसक्ती है न सुखका अनु भव होमक्ता है, न धर्मवेद व अर्थीद होसक्ता है । ऊपर वुद्ध सूत्र में सामकके भीतर मैत्री, प्रमोद, करुणा व माध्यस्थ ( उपेक्षा) इन चार भावोकी महिमा बताई है यही बात जैन सिद्धान्तमें तत्वार्थमूत्रमें कही है मंत्रीप्रमोद कारुण्यमाध्यस्पानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु ॥ ११-७॥ भावार्थ-व्रती साधकको उचित है कि वह सर्व प्राणी मात्रपर मैत्रीभाव रक्खे, सबका भला विचारे, गुणोंसे जो अधिक हो उनपर प्रमोद या हर्षभाव रक्खे, उनको जानकर प्रसन्न हो, दुखी प्राणियोंपर दयाभाव रक्खे, उनके दु खोंको मेटनेकी चेष्टा बन सके तो करे, जिनसे सम्मति नहीं मिलती है उन सबपर माध्यस्थ भाव रक्खे, न राग करे न द्वेष करे। फिर इस बुद्ध सूत्रमे कहा है कि यह हीन है यह उत्तम है उन नामोंके ख्यालसे जो परे जायगा उनका ही निकास होगा । यही बात जैन सिद्धातमें कही है कि जो समभाव रवेगा, किसीको बुग व किसीको अच्छा मानना त्यागेगा वही भवसागरसे पार होगा। सारसमुच्चयमें श्री कुलभद्राचार्य कहते हैं समता सर्वभूतेषु यः करोति सुमानस । ममत्वमावनिर्मुक्तो यात्यसौ पदमव्ययम् ॥ २१३ ॥ भावार्थ-जो कोई सत्पुरुष सर्व प्राणी मात्रपर समभाव रस्वता है और ममताभाव नहीं रखता है वही अविनाशी निर्वाण पदको *पालेता है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ ४५ इस बुद्ध सूत्र मे यह बात बताई है कि जलके स्नानसे पवित्र नहीं होता है । जिसका आत्मा हिसादि पापोंसे रहित है वही पवित्र है । ऐसा ही जैन सिद्धात में कहा है । I सार समुच्चय में कहा है— शीतजले स्नातु शुद्धिरस्य शरीरिण । न तु स्नातस्य तीर्थेषु सर्वेष्वपि महीतले ॥ ३१२ ॥ रागादिवर्जित स्नान ये कुर्वन्ति दयापरा । तेषा निर्मलता योगर्न च स्नातस्य वारिणा ॥ ३१३ ॥ आत्मान स्नापयेन्नित्य ज्ञाननारेण चारुणा | येन निर्मळता याति जीवो जन्मान्तरेष्वपि ॥ ३९४ ॥ सत्येन शुद्धयते वाणी मनो ज्ञानेन शुद्धयति । गुरुशुश्रूषया काय शुद्धिरेष सनातन ॥ ३१७ ॥ भावार्थ - इस शरीरधारी प्राणीकी शुद्धि शोलत्रत रूपी जलमें स्नान करने से होगी। यदि पृथ्वीभरको सर्व नदियोंसे स्नान करले तौ भी शुद्धि न होगी । जो दयावान रागद्वेषादिको दूर करनेवाले समभावरूपी जल मे स्नान करते है, उन ही भीतर ध्यानमें निर्मलता होती है । जलमे स्नान करनेसे शुद्धि नहीं होती है । पवित्र ज्ञानरूपी जलसे आत्माको सदा स्नान कराना चाहिये । इस स्नानसे यह जीव परलोकमे भी पवित्र होजाता है । सत्य वचनसे वचनकी शुद्धि है, मनकी शुद्धि ज्ञानसे है, शरीर गुरुकी सेवा से शुद्ध होता है, सनातनसे यही शुद्धि है । हिताकाक्षीको यह तत्वोपदेश ग्रहण करने योग्य है । *Q30% Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] दुसरा भाग । (६) मज्झिमनिकाय सल्लेख सूत्र | भिक्षु महाचुन्द गौतमबुद्ध से प्रश्न करता है - जो यह आत्म बाद सम्बन्धी या लोकवाद सम्बन्धी अनेक प्रकारकी दृष्टिया (दर्शनगत) दुनिया में उत्पन्न होती है उनका प्रहाण या त्याग कैसे होता है ? गौतम समझाते हैं जो ये दृष्टिया उत्पन्न होती है, जहा ये उत्पन्न होती है, जहा यह आश्रय ग्रहण करती हैं, जहा यह व्यवहन होती है वहा यह मेरा नहीं " " न यह मैं हू " " न मेरा यह आत्मा है " इसे इसप्रकार यथार्थ रीतिसे ठीकसे जानवर देखने पर इन दृष्टियोंका प्राण या त्याग होता है । Li होता है यदि कोई भिक्षु कार्मोसे विरहित होकर प्रथम ध्यानको या द्वितीय भ्यानको या तृतीय त्यानको या चतुर्थ ध्यानको प्राप्त हो विहरे या कोई भिक्षु रूप सज्ञा (रूपके विचार ) को सर्वथा छोड़ने से, प्रतिघ ( प्रतिहिसा ) की सज्ञाओंके सर्वथा मस्त हो जानेसे वानापने की सज्ञामोंको मनमें न करनेसे 'आकाश अनन्त ' है इस आकाश आनन्द्र आपतनको प्राप्त हो विहरे या इस आपतनको अतिक्रमण करके ' विज्ञान अनन्त ' है - इस विज्ञान आनन्द आपतनको प्राप्त हो विहरे या इस आपतनको सर्वथा अति क्रमण करके 'कुछ नहीं' इस आकिंचन्य आपतनको प्राप्त हो विहरे इस पतनको सर्वथा अतिक्रमण करके नैत्रसंज्ञा-नासंज्ञा मापतन ( जहा न संज्ञा ही हो न असज्ञा ही हो ) को प्राप्त हो विहरे । उस भिक्षुके मनमें ऐसा हो कि सल्लेख ( तप ) के साथ विहर Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [४७ रहा हू। लेकिन आर्य विनयमें इन्हें सल्लेख नहीं कहा जाता। मार्य विनयमें इन्हें इष्टधर्म-सुखविहार ( इसी जन्ममें सुखपूर्वक विहार ) कहते है या शान्तविहार कहते हैं। किन्तु सल्लेख तप इस तरह करना चाहिये-(१) हम अहिंसक होंगे, (२) प्राणातिपातसे विरत होंगे, (३) अदत्त ग्रहण न करेंगे, (४) ब्रह्मचारी रहेंगे, (५) मृषावादी न होंगे, (६) पिशुनभाषी (चुगलखोर) न होंगे, (७) परुष (कठोर) भाषी न होंगे, (८) सप्रलापी (नकवादी) न होंगे, (९) भभिध्यालु (लोभी) न होंगे, (१०) व्यापन्न ( हिंसक ) चित्त न होंगे, (११) सम्यक्दृष्टि होंगे, (१२) सम्यक् समरूपधारी होंगे, (१३) सम्यक्भाषी होंगे, (१४) सम्यक् काय कर्म कर्ता होंगे, (१५) सम्यक् माजीविका करनेवाले होंगे, (१६) सम्यक् व्यायामी होंगे, (१७) सम्यक् स्मृतिधारी होंगे, (१८) सम्यक् समाधिधारी होंगे, (९) सम्यक्ज्ञानी होंगे, (२०) सम्यक् विमुक्ति भाव सहित होंगे, (२१) स्यानगृद्ध (शरीर व मनके आलस्य) रहित होंगे, (२२) उद्धत न होंगे, (२३) सशयवान होंगे, (२४) क्रोधी न होंगे, (२५) पनाही (पाखडी) न होंगे, (२६)मक्षी (कीनावाले) न होंगे, (२७) प्रदशी (निष्ठुर) न होंगे, (२८) ईर्षारहित होंगे, (२९) मत्सरवान न होंगे, ३०) शठ न होंगे, (३१) मायावी न होंगे, (३२) स्तब्ध (जड) न होंगे, (३३) भभिमानी न होंगे, (३४) सुवचनभाषी होंगे, (३५) कल्याण मित्र (भलोंको मित्र बनानेवाले) होंगे, (३६) अप्रमत्त रहेंगे, (३७, श्रद्धालु रहेंगे, (३८) निर्लज्ज न होंगे, (३९) अपत्रदी (उचितम को माननेवाले) होंगे, (४०) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] दूसरा भाग 1 बहुश्रुत होंगे, (४१) उद्योगी होंगे, (४२ ) उपस्थित स्मृति होंगे, (४३) प्रज्ञा सम्पन्न होंगे, (४४) सादृष्टि परामर्शी ( ऐहिक लाभ सोचनेवाले), आधानग्रही (हटी), दुष्प्रतिनिसर्गी (कठिनाई से त्याग करनेवाले) न होंगे। अच्छे घर्मो के विषय में विचारके उत्पन्न होने को भी मैं हितकर कहता हू । काया और वचनसे उनके अनुष्ठान के बारेमे तो कहना ही क्या है, ऊपर कहे हुए (४४) विचारोंको उत्पन्न करना चाहिये । 1 जैसे कोई विषम (कठिन) मार्ग है और उसके परिक्रमण (त्याग) के लिये दूसरा सममार्ग हो या विषम तीर्थ या घाट हो व उसक परिक्रमणके लिये समतीर्थ हो वैसे ही हिंसक पुरुष पुद्गल (व्यक्ति) को अहिंसा ग्रहण करने योग्य है, इसी तरह ऊपर लिखित ४४ बातें उनके विरोधी बातोंको त्यागकर ग्रहण योग्य है । जैसे - कोई भी भकुशल धर्म (बुरे काम) है वे सभी अघोभाव (अधोगति) को पहुचानेवाले हैं । जो कोई भी कुशल धर्म (मच्छे काम) है वे सभी उपरिभाव (उन्नति की तरफ) को पहुचानेवाले है वैसे ही हिंसक पुरुष पुद्गलको अहिंसा ऊपर पहुचानेवाली होती है । इसीतरह इन ४४ बातोंको जानना चाहिये । 1 जो स्त्रय गिरा हुआ है वह दूसरे गिरे हुएको उठाएगा यह सभव नहीं है किंतु जो आप गिरा हुआ नहीं है वही दूसरे गिरे हुएको उठाएगा यह समय है । जो स्वय अदान्त (मनके संयमसे रहित) है, अविनीत, अपरि निर्वृत ( निर्वाणको न प्राप्त ) है वह दुसरेको दान्त, विनीत व परिनिर्वृच करेगा यह सभव नहीं । किंतु Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [४९ जो स्वय दान्त, विनीत, परिनिर्वृत्त है वह दुसरेको दान्त, विनीत, परिनिर्वृत्त करेगा यह सभव है। ऐसे ही हिसक पुरुष के लिये अहिंसा परिनिर्वाण के लिये होती है। इसी तरह ऊपर कही ४० बातोंको जानना चाहिये । यह मैने सल्लेख पर्याय या चितुप्पाद पर्याय या परिक्रमण पर्याय या उपरिभाव पर्याय या परिनिर्वाण पर्याय उपदेशा है । श्रावको (शिष्यों) के हितैषी, अनुकम्पक, शास्ताको अनुकम्पा करके जा करना चाहिये वह तुम्हारे लिये मैने कर दिया। ये वृक्षमूल है, ये सूने घर हैं, व्यानरत होओ, प्रमाद मत करो, पीछे अफसोस करने वाले मत बनना । यह तुम्हारे लिये हमारा अनुशासन है । नोट-सल्लेख सूत्रका यह अभिप्राय प्रगट होता है कि अपने दोषोंको हटाकरके गुणोंको प्राप्त करना । सम्यक् प्रकार लेखना या कृश करना सल्लेखना है। अर्थात् दोषोंको दूर करना है। ऊपर लिखित ४० दोष वास्तवमें निर्वाणके लिये बाधक है । इनहीके द्वारा ससारका भ्रमण होता है। समयसार ग्रथमें जैनाचार्य कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैंसामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णति बधकत्त रो। मिच्छत्त अविरमण कसाय जोगा य बोद्धव्या ॥ ११६॥ भावार्थ-कर्मबन्धके कर्ता सामान्य प्रत्यय या मास्रवभाव चार कहे गए है । मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और योग । आपको आपरूप न विश्वास करके और रूप मानना तथा जो अपना नहीं है उसको अपना मानना मिथ्यादर्शन है। आप वह आत्मा है जो निर्वाण स्वरूर है, अनुभवगम्य है । वचनोंसे इतना ही कहा जा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] दूसरा भाग । 1 मक्ता है कि वह जानने देखनेवाला, अमूर्ती, अविनाशी, अखड, परम शांत व परमानदमई एक अपूर्व पदार्थ है । उसे ही अपना स्वरूप मानना सम्यग्दर्शन है । मिथ्यादर्शनके कारण अहकार और ममकार दो प्रकारके मिश्याभाव हुआ करते है । तत्वानुशासनमें नागसेन मुनि कहते हैंये कर्मकृता भाषा परमार्थनयेन चात्मनो भिन्ना | तत्रात्माभिनिवेशोऽइकारोऽs यथा नृपति ॥ १५ ॥ शश्वदनात्मीयेषु स्वतनुप्रमुखेषु कर्मजनितेषु । मात्मीयाभिनिवेशो ममकारो मम यथा देह ॥ १४॥ भावार्थ - जितने भी भाव या अवस्थाए कर्मोंके उदयसे होती है वे सब परमार्थदृष्टि से आत्माके असली स्वरूपमे भिन्न हैं। उनमें अपनेपनेका मिथ्या अभिप्राय सो अहकार है । जैसे मै राजा हू । जो सदा ही अपने से भिन्न हैं जैसे शरीर, घन, कुटुम्ब आदि । जिनका सयोग कर्मके उदयसे हुआ है उनमें अपना सम्बन्ध जोड़ना सो ममकार है, जैसे यह देह मेरा है । अविरति - हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील परिग्रहसे विरक्त न होना अविरति है । श्री पुरुषार्थसिद्धिउपाय ग्रन्थमें श्री अमृतचद्राचार्य कहते हैंखलु कषाययोगात्प्राणाना द्रव्यभावरूपाणाम् । परोपणस्य करण सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥ ४३ ॥ प्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिर्हिति जिनागमस्य सक्षेप ॥ ४४ ॥ भावार्थ- जो क्रोध, मान, माया, या कोमके वशीभूत हो मन Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [५१ वचन कायके द्वारा भाव प्राण और द्रव्य प्राणोंको कष्ट पहुंचाया जाय या घात किया जाय सो हिंसा है । ज्ञानदर्शन सुख शाति मादि आत्माके भाव प्राण है । इनका नाश भावहिसा है । इंद्रिय, बल, मायु, श्वासोश्वासका नाश द्रव्यहिसा है । पाच इन्द्रिय, तीन बल-मन, वचन, काय होते है । पृथ्वी, जल, अमि, वायु, वनस्पति, एकेंद्रिय प्राणियोंके चार प्रकार होते है। स्पर्शनइन्द्रिय, शरीरबल, भायु, श्वासोश्वास, द्वेन्द्रिय प्राणी लट, शख आदिके छ प्राण होते हैं। ऊपरके चारमें रसनाइन्द्रिय व वचनबल बढ़ जायगा । तेन्द्रिय प्राणी चीटी, खटमल आदिके सात प्राण होते है। नाक बढ जायगी । चौन्द्रिय प्राणी मक्खी, भौरा आदिके माठ प्राण होते है, आख बढ़ जायगी, पचेंद्रिय मन रहितके नौ प्राण होते हैं। कान बढ़ जायगे। पचेंद्रिय मनसहितके दश होते हैं । मनवल बढ़ जायगा। प्राय सर्व ही चौपाए गाय, भैस, हिरण, कुत्ता, बिल्ली भादि सर्व ही पक्षी कबुतर, तोता, मोर भादि, मछलिया, कछुवा मादि, तथा सर्व ही मनुष्य, देव व नारकी प्राणियोंके दश प्राण होते हैं । जितने अधिक व जितने मूल्यवान प्राणीका घात होगा उतना ही अधिक हिंसाका पाप होगा। इस द्रव्य हिंसाका मूल कारण भावहिंसा है। भावहिंसाको रोक लेनेसे अहिंसावत यथार्थ होजाता है। जैसा कहा है-रागद्वेषादि भावोंका न प्रगट होना ही अहिंसा है । तथा उनका प्रगट होना ही हिंसा है यह जैनागमका सक्षेप कथन है। निर्वाण साधकके भावहिंसा नहीं होनी चाहिये। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] दूसरा भाग। सत्यका स्वरूपयदिद प्रमादयोगादसदभिधान विधीयते किमपि । मदनृतमपि विज्ञेय तभेदा सन्ति चत्वार ॥११॥ भावार्थ-जो क्रोधादि कषाय सहिन मन, वचन व कायके द्वारा अप्रशस्त या कष्टदायक वचन कहना सो झूठ है । उसके चार भेद है स्वक्षेत्रकाकभावै सदपि हि यस्मिन्निषिद्यते वस्तु । तत्प्रथममसत्य स्यानास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ॥ ९२ ॥ भावार्थ-जो वस्तु अपने क्षेत्र, काल, या भावसे है तो भी उसको कहा जाय कि नहीं है सो पहला असत्य है। जैसे देवदत्त होनेपर भी कहना कि देवदत्त नहीं है। असदपि हि वस्तुरूप यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तै । उद्भाध्यते द्वितीय तदनृतमस्मिन्यथास्ति घट ॥९३॥ भावार्थ-पर क्षेत्र, काल, भावसे वस्तु नहीं है तो भी कहना कि है, यह दूसरा झुठ है । जसे धड़ा न होनेपर भी कहना यहा घड़ा है। वस्तु सदपि स्वरूपात्पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् । मनृतमिद च तृतीय विज्ञेय गौरिति यथाश्व ॥ ९४ ॥ भावार्थ-वस्तु जिस स्वरूपसे हो वैसा न कहकर पर स्वरूपसे कहना यह तीसरा झूठ है। जैसे घोडा होनेपर कहना कि गाम है। गहितमवधसयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामान्येन त्रैषामतमिदमनृत तुरीय तु ॥ ९५ ॥ भावार्थ- चौथा झुठ सामान्य से तीन तरहका वचन है जो बचन गर्हित हो साषय हो व अभियो । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [५३ पैशून्यहासगर्भ कर्कशमसमञ्जस प्रलपित च । अन्यदपि यदुत्सूत्र तत्सर्व गाईत गदितम् ।। ९६ ॥ भावार्थ-जो वचन चुगलीरूप हो, हास्यरूप हो, कर्कश हो, मुक्ति सहित न हो, बकवादरूप हो या शास्त्र विरुद्ध कोई भी वचन हो उसे गर्हित कहा गया है। छेदनभेदनमारणकर्षणवाणिज्यचौर्यवचनादि । तत्सावध यस्मात्प्राणिवाद्या प्रवर्तन्ते ।। ९७ ।। भावार्थ-जो वचन छेदन, भेदन, मारन, खींचनेकी तरफ या व्यापारकी तरफ या चोरी मादिकी तरफ प्रेरणा करनेवाले हों वे सब सावध वचन है, क्योंकि इनसे प्राणियोंको वध आदि कष्ट पहुंचता है। मरतिकर भीतिकर खेदकर धैरशोककलहकरम् । यदपरमपि तापकर परस्य तत्सर्वमप्रिय ज्ञेयम् ॥ ९८ ॥ भावार्थ-जो वचन भरति, भय, खेद, वैर, शोक, कलह पैवा करे व ऐसे कोई भी वचन जो मनमे ताप या दु ख उत्पन्न करे वह सर्व अप्रिय वचन जानना चाहिये ।। पवितीर्णस्य ग्रहण परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यत् । तत्प्रत्येय स्तेय सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ।। १०२ ॥ भावार्थ-कषाय सहित मन, वचन, कायके द्वारा जो बिना दी हुई वस्तुका ले लेना सो चोरी जानना चाहिये, यही हिंसा है। क्योंकि इससे प्राणोंको कष्ट पहुचाना है। यदिरागयोगान्मैथुनमभिधीयते तदब्रह्म । अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भावात् ॥ १०७ ॥ भावार्थ-जो कामभावके राग सहित मन, वचन, कायके द्वारा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ दूसरा भाग । मैथुन कर्म या स्पर्श कर्म किया जाय सो अब्रह्म या कुशील है। यहा भी भाव व द्रव्य प्राणोंकी हिसा हुआ करती है । या मूर्च्छा नामेय विज्ञातव्य परिग्रहो होष । मोहोदयादुदीर्णो मुर्च्छा तु ममत्व परिणाम ॥ १११ ॥ भावार्थ - धनादि परपदार्थोंमें मुर्च्छा करना सो परिग्रह है इसमें मोहके तीव्र उदयसे ममताभाव पाया जाता है । ममता पैदा करने के लिये निमित्त होने से धनादि परिग्रहका त्याग व्रतीको करना योग्य है। कषायके २५ भेद - वस्त्र सूत्रमें बताये जाचुके है ऊपर लिखित मिश्यात्व, अविरति, कषायके वे सब दोष भागये है बिना मन, वचन, कायसे सन्तोष या त्याग करना चाहिये । इसी तरह सूत्रमे प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ ध्यानके पीछे चार ध्यान और कहे हैं - ( १ ) आकाशानन्त्यायतन अर्थात् अनत काश है, इस भाव में रमजाना, (२) विज्ञानानन्त्यायतन अर्थात् विज्ञान अनन्त है इसमें रम जाना । यहा विज्ञानसे अभिप्राय ज्ञान शक्तिका लेना अधिक रुचता है। ज्ञान अनन्त शक्तिको रखता है, ऐसा ध्यान करना । यदि यहा विज्ञानका भाव रूप, वेदना, सज्ञा व सरकार से उत्पन्न विज्ञानको लिया जाये तो वह समझमें नहीं आता क्योंकि यह इन्द्रियजन्य रूपादिसे होनेवाला ज्ञान नाशवंत है, शात है, अनन्त नहीं होसक्ता, अनन्त तो वही होगा जो स्वाभाविक ज्ञान है। तीसरे आकिंचन्य भायतनको कहा है, इसका भी अभिप्राय झलकता है कि इस जगत में कोई भाव मेरा नहीं, है मैं तो एक केवळ स्वानुभवगम्य पदार्थ हूँ | Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [५५ चौथा नैवसंज्ञाना सज्ञा आयतनको कहा है । उसका भाव यह है कि किसी वस्तुका नाम है या नाम नहीं है इस विकल्पको हटाकर स्वानुभवगम्य निर्वाणपर लक्ष्य लेजाओ। ये सब सम्यक् समाधिक प्रकार है। मष्टाग बौद्धमार्गमें सम्यक्समाधिको सबसे उत्तम कहा है । इसी तरह जैन सिद्धात मनसे विकल्प हटानेको शून्यरूप आकाशका, ज्ञानगुणका, भाकिचन्य भावका व नामादिकी कल्पना रहितका ध्यान कहा गया है । तत्वानुशासनमे कहा हैतदेवानुभवश्चायमेकप्रय परमृच्छति । तथात्माधीनमानदमेति वाचामगोचर ॥ १७० ॥ यथा निर्वातदेशस्य प्रदीपो न प्रकपते । तथा स्वरूपनिष्ठोऽय योगी नेकाग्रयमुज्शति ॥ १७१ ॥ तदा च परमेकाप्रयाद्वहिरर्थेषु सत्खपि । अन्यन्न किंचनामाति स्वमेवात्मनि पश्यत ।। १७२।। भावाथ-आपको आपसे अनुभव करते हुए परम एकाग्र भाव होजाता है। तब वचन अगोचर स्वाधीन अनादि प्राप्त होता है। जैसे हवाके झोकेसे रहित दीपक कापता नहीं है वैसे ही स्वरूपमें ठहरा हुमा योगी एकाग्र भावको नहीं छोड़ता है। तब परम एकाग्र होनेसे व अपने भीतर भापको ही देखनेसे बाहरी पदाथोंके मौजूद रहते हुए भी उसे कुछ भी नहीं झलकता है। एक आत्मा ही निर्वाण स्वरूप अनुभवमें आता है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६] दूसरा भाग। (७) मज्झिमनिकाय सम्यग्दृष्टि सूत्र । गौतमबुद्ध के शिष्य सारिपुत्रने भिक्षुओको कहा-सम्यक्दृष्टि कही जाती है । कैसे मार्य श्रावक सम्यग्दृष्टि ( टीक सिद्धातवाला) होता है। उसकी दृष्टि सीधी, वह धर्ममें अत्यन्त श्रद्धावान, इम मधर्मको प्राप्त होता है तब भिक्षुजोंने कहा, सारिपुत्र ही इसका मर्थ कहे। सारिपुत्र कहने लगे-जब आर्य श्रावक अकुशल (बुराई) को जानता है, भकुशल मूल को जानता है, कुशल (भलाई) को जानता है, कुशल मूलको जानता है, तब वह सम्यक्दृष्टि होता है । इन चारोंका भेद यह है । (१) प्राणातिपात (हिंसा) (२) भदत्तादान (चोरी), (३) काममे दुराचार, (४) मृषावाद (झठ), (५) पिशुनवाद (चुगली), (६) पम्प वचन (कठोर वचन), (७) सपलाप (बकवाद), (८) अभिव्या (लाम), (९) व्यापाद (प्रतिहिंसा), (१०) मिथ्यादृष्टि (झूठी धारणा) अकुशल है । (१) लोभ, (२) द्वेष, (३) मोह, अकुशल मूल है। इन ऊपर कही दश बातोंसे विरति कुशल है । (१) भलोभ, (२) अद्वेष, (३) अमोह कुशल मूल है । जो आर्य श्रावक इन चारोंको जानता है वह राग-अनुशव (मल) का परित्याग कर, प्रतिध (पतिहिंसा या द्वेष) को हटाकर अस्थि (मैद) इस दृष्टिमान (धारणाके मभिमान) अनुशयको उन्मूलन कर भविद्याको नष्ट कर, विद्याको उत्पन्न कर इसी जन्ममें दु.खोंका अन्त करनेवाला सम्यग्दृष्टि होता है। जब मार्य श्रावक आहार, आहार समुदय (माहारकी Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [५७ उत्पत्ति ), आहार विरोध और माहार निरोध गामिनी प्रतिपद, ( आहारके विनाशकी ओर लेजाने मार्ग) को जानता है तब वह सम्यग्दृष्टि होता है। इनका खुलासा यह है-सन्तोंकी स्थिति होनेकी सहायताके लिये भूतों (प्राणियों) के लिये चार आहार है-(१) स्थूक या सूक्ष्म कवलिंकार (ग्रास करके खाया जानेवाला) आहार, (२) स्पर्श, (३) मनकी सचेतना, (४) विज्ञान, तृष्णाका समुदय ही माहारका समुदय (कारण) है । तृष्णाका निरोध-आहारका निरोध है । आर्द-आप्तगिक मार्ग आहार निरोधगामिनी प्रतिपद है जैसे (१) सम्यग्दृष्टि, (२) सम्यक् सकल्प, (३) सम्यक् वचन, (४) सम्यक् कर्मान्त (कर्म), (५) सम्यक् मानीव (भोजन), (६) सम्यक् व्यायाम (उद्योग), (७) सम्यक् स्मृति, (८) सम्यक् समाधि । जो इनको जानकर सर्वथा रागानुशमको परित्याग करता है वह सम्यग्दृष्टि होता है । जब आर्य श्रावक (१) दुख, (२) दु ख समुदय (कारण), (३) दु ख निरोध, (४) दु ख निरोधगामिनी प्रतिपदको जानता है तब वह सम्यग्दृष्टि होता है । इसका खुलाशा यह है-जन्म, जरा, व्याधि, मरण, शोक, परिदेव (रोना), दुख दौर्मनस्य (मनका सताप), उपायास (परेशानी) दुख है। किसीकी इच्छा करके उसे न पाना भी दु ख है । सक्षेपमें पाचों उपादान (विषयके तौरपर ग्रहण करने योग्य रूप, वेदना, सज्ञा, सस्कार, विज्ञान ) स्कध ही दुख है। वह जो नन्दी उन उन भोगोंको अभिनन्दन करनेवाली, रागसे सयुक्त फिर फिर जन्मनेकी तृष्णा है जैसे (१) काम (इन्द्रिय सभोग) की तृष्णा, (२) भव (जन्मने) की तृष्णा, (३) विभव (धन) की तृष्णा । ग्रह दुःख समुदय (कारण) है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] दूसरा भाग । जो उस तृष्णाका सम्पूर्णतया विराग, निरोध, त्याग, प्रति निसर्ग, मुक्ति, अनालय (कीन न होना) वह दुःख निरोध है । ऊपर लिखित आर्य अष्टांगिक मार्ग दु ख निरोधगामिनि प्रतिपद है। जब आर्य श्रावक जरा मरणको, इसके कारणको, इसके निरोधको व निरोधके उपायको जानता है तब यह सम्यग्दृष्टि होता है । प्राणियों के शरीर में जीर्णता, खाडित्य (दात टूटना ), पालित्य ( बालकपना ), बलित्वक्ता (झुर्री पडना ), आयुक्षय, इन्द्रिय परिपाक यह जरा कही जाती है। प्राणियोंका शरीरोंसे च्युति, भेद, अन्तर्धान, मृत्यु, मरण, कधोंका विलग होना, कलेवरका निक्षेप, यह मरण कहा जाता है । जाति समुदय ( जन्मका होना) जरा मरण समुदय है । जाति निरोध, जरा मरण निरोध है । वही अष्टागिक मार्ग निरोधका उपाय है । जब आर्य श्रावक तृष्णाको, तृष्णाके समुदयको, उसक निरोधको तथा निरोध गामिनी प्रतिपदको जानता है तब घह सम्यग्टष्ट होता है। तृष्णाके छ आकार हैं - (१) रूप तृष्णा (२) शब्द तृष्णा, (३) गन्ध तृष्णा, (४) रस तृष्णा, (५) स्पर्श तृष्णा, (६) धम ( मनके विषयोंकी ) तृष्णा । वेदना ( अनुभव ) समुदय ही तृष्णा समुदय है ( तृष्णाका कारण ) है । वेदना निरोध ही तृष्णा निरोष है। वही अष्टांगिक मार्ग निरोध प्रतिपद है । जब भार्य श्रावक वेदनाको, वेदना समुदयको, उसके निशेषको तथा निरोधगामिनी प्रतिपदूको जानता है Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mar mmmm जैन बौद्ध तत्वज्ञान। सम्यदृष्टि होता है । वेदनाके छ प्रकार है (१) चक्षु सस्पर्शजा (चथुक सयोगसे उत्पन्न ) वेदना, (२) श्रोत्र सस्पर्शजा वेदना, (३) त्राण मस्पर्शजा वेदना, (४) जिहा सस्पर्शजा वेदना, (५) काय सस्पर्शजा वेदना, (६) मनः सस्पर्शजा वेदना। स्पर्श (इन्द्रिय और विषयका सयोग) समुदय ही वेदना समुदय है (वेदनाका कारण है । ) स्पर्शनिरोधसे वेदनाका निरोध है । वही आष्टागिक मागे वेदना विरोध प्रतिपटू है। जब आर्य श्रावक स्पर्श (इन्द्रिय और विषयके सयोग)को, स्पर्श समुदयको, उसके निरोधको, तथा निरोधगामिनी प्रतिपदको जानता है लब सम्यक्दृष्टि होती है। स्पर्शके छ प्रकार है (१) चक्षु-सस्पर्श (२) श्रोत्र-सस्पर्श, (३) घाण-सस्पर्श, (४) जिह्वा-सस्पर्श, (५) काय-सस्पर्श, (६) मन-सस्पर्श । षड् आयतन (चक्षु, श्रोत्र, घाण, जिह्वा, काय या तन तथा मन ये छ इन्द्रिया) समुदय ही स्पर्श समुदय ( स्पर्शका कारण ) है। षडायतन निरोधसे स्पर्श निरोध होता है । वही अष्टागिक मार्ग निरोधका उपाय है। जब आर्य श्रावक षडायतनको, उसके समुदयको, उसके निरोधको, उस निरोधके उपायको जानता है तब वह सम्यम्दृष्टि होता है । ये छ भायतन ( इन्द्रिया) हैं-(१) चक्षु, (२) श्रोत्र, (३) घ्राण, (४) जिहा, (५) काय, (६) मन । नामरूप (विज्ञान और रूप Mind and Matter ) समुदय षडायतन समुदय (कारण) है। नामरूप निरोध षडायतन निरोध है। वही अष्टागिक मार्ग उस निरोधका उपाय है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] दूसरा भाग । जब भार्य श्रावक नामरूपको, उसके समुदयको, उसके निरोधको व निरोधके उपायको जानता है तब वह सम्यग्दृष्टि होता है - (१) वेदना - ( विषय और इन्द्रियके सयोगसे उत्पन्न मन पर प्रथम प्रभाव ), ( २ ) संज्ञा - ( वेदना के अनन्तरकी मनकी अवस्था ), (३) चेतना - ( सज्ञाके अनन्तरकी मनकी अवस्था ), (४) स्पर्श - मनसिकार ( मनपर सस्कार ) यह नाम है । चार महाभृत ( पृथ्वी, जल, आग, वायु ) और चार महाभूतों को लेकर (वन) रूप कहा जात है । विज्ञान समुदय नाम रूप समुदय है, विज्ञान निरोध नामरूप निरोध है, उसका उपाय यही आष्टागिक मार्ग है जब आर्य श्रावक विज्ञानको, विज्ञानके समुदयको, विज्ञान निरोधको व उसके उपायको जानता है तब वह सम्यग्दृष्टि होता है । छ विज्ञानके समुदाय ( काय ) है - (१) चक्षु विज्ञान, (२) श्रोत्र विज्ञान, (३) प्राण विज्ञान, (४) जिह्वा विज्ञान, (५) काय विज्ञान, (६) मनो विज्ञान । सस्कार समुदय विज्ञान समुदय है । सरकार निरोध विज्ञान निरोध है । उसका उपाय यह भष्टागिक मार्ग है । 1 जब आर्य श्रावक सस्कारोको, सस्कारोके समुदयको, उनके निरोधको, उसके उपायको जानता है तब वह सम्यग्दृष्टि होता है । संस्कार ( क्रिया, गति) तीन हैं- (१) काय सरकार, (२) वचन सरकार, (३) चित्त सरकार । अविद्या समुदय सरकार समुदय है, अविद्या निरोध सरकार निरोध है । उसका उपाय यही आष्टागिक मार्ग है । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। जब आर्य श्रावक अविद्याको, भविद्या समुदय, अविद्या निरोधको व उसके उपायको जानता है तब वह सम्यग्दृष्टि होता है । दु खके विषयमें अज्ञान, दु ख समुदयके विषयमें अज्ञान, दुम्ब निरोधके विषयमे अज्ञान, दुख निरोध गामिनी प्रतिपदके विषयमें अज्ञान अविद्या है । आस्रव समुदय अविद्या समुदय है । मानव निरोध, अविद्या निरोध है । उसका उपाय यही माष्टागिक मार्ग है। जब आर्य श्रावक आस्रव (चित्तमल)को, आस्रव समुद यको, आस्रव निरोधको, उसके उपायको जानता है तब बह सम्यग्दृष्टि होता है। तीन सास्रव है-(१) काम आस्रव, (२) भव ( जन्म नेका) मास्रव, (३) भविद्या आस्रव । भविद्या समुदय अस्रव समु दय है । अविद्या निरोध भास्रव निरोध है। यही आष्टागिक मार्ग सुखका उपाय है। इस तरह वह सब रागानुशुसय (रागमल) को दूरकर, प्रतिघ (प्रतिहिसा) अनुशयको हटाकर, मस्मि (मै हू ) इस दृष्टिमान ( धारणाके अभिमान ) अनुशयको उन्मूलन कर, अविद्याको नष्टकर, विद्याको उत्पन्न कर, इसी जन्ममें दुखोंका भन्त करनेवाला होता है। इस तरह आर्य श्रावक सम्यक्ष्टि होता है। उसकी दृष्टि सीधी होती है। वह धर्ममें अत्यन्त श्रद्धावान हो इस सद्धर्मको प्राप्त होता है। नोट-इस सूत्रमें सम्यग्दृष्टि या सत्य श्रद्धावानके लिये पहले ही यह बताया है कि वह मिथ्यात्वको तथा हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील व लोभको छोड़े, तथा उनके कारणोंको त्यागे। मोद Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] दूसरा भाग । लोभ ( राग ), द्वेष, व मोहको छोडे, वह वीतरागी होकर अहकारका त्याग करे | निर्वाणके सिवाय जो कुछ यह अपनेको मान रहा था, उस भावको त्याग करे तब यह अविद्यासे हटकर विद्याको या सच्चे ज्ञानको उत्पन्न करेगा व इसी जन्म में निवाणका अनुभव करता हुआ सुखी होगा, दु खोंका अन्त करनेवाला होगा। यदि कोई निर्वाण स्वरूप आत्मा नहीं हो तो इस तरहका कथन होना ही समय नहीं है । अभावका अनुभव नहीं होसक्ता है । यहा स्वानुभवको ही सम्यक्त कहा है। यही बात जैन सिद्धातमें कही है। विद्याका उत्पन्न होना ही आत्मीक ज्ञानका जन्म है । आगे चलकर बताया है कि तृष्णाके कारणसे चार प्रकारका आहार होता है । (१) भोजन, (२) पदार्थों का रागसे स्पर्श, (३) मनमें उनका विचार, (४) तत्सम्बन्धी विज्ञान । जब तृष्णाका निरोष होजाता है तब ये चारों प्रकारके आहार बद होजाते है । तब शुद्ध ज्ञानान दका ही आहार रह जाता है । सम्यकदृष्टि इस बातको जानता है । यह बात भी जैन सिद्धांत के अनुकूल है । साधन अष्टाग मार्ग है जो जैनोंके रत्नत्रय मार्ग से मिल जाता है । फिर बताया है कि दुख जन्म, जरा, मरण, माघि, व्याषि तेथा विषयोंकी इच्छा है जो पांच इन्द्रिय व मनद्वारा इस विषयोंको ग्रहण कर उनके वेदन, आदिसे पैदा होती है। इन दुखका कारण काम या इन्द्रियभोगकी तृष्णा है, भावी जन्मकी तथा संपदाकी तृष्णा है। उनका निरोध तब ही होगा जब माष्टाग मार्गका सेवन करेगा । यह बात भी जैन सिद्धांत से मिलती है। सासारीक सर्व दुःखोंका Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [३३ मूल विषयोंकी तृष्णा है । सम्यक् प्रकार स्वस्वरूपके भीतर रमण करनेसे ही विषयोंकी वासना दूर होती है। फिर बताया है कि जरा मरणका कारण जन्म है। जन्मका निरोध होगा तब जरा व मरण न होगा। फिर बताया है पाच इन्द्रिय और मनके विषयोंकी तृष्णाकी उत्पत्ति इन छहोंके द्वारा विषयोंकी वेदना है या उनका अनुभव है। केलका कारण इन छहोंका और विषयोंका संयोग है । इस सयोगका कारण छहों इन्द्रियोंका होना है। इनकी प्राप्ति नामरूप होनेपर होती है। नामरूप अशुद्ध ज्ञान सहित शरीरको कहते हैं। शरीरकी उत्पत्ति पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुसे होती है वही रूप है । नामकी उत्पत्ति वेदना, सज्ञा, चेतना सस्कारसे होती है । विज्ञान ही नामरूपका कारण है। पाच इन्द्रिय और मन सम्बन्धी ज्ञानको विज्ञान कहते हैं, उसका कारण सस्कार है। सस्कार मन, वचन, काय सम्बन्धी तीन है । इसका सस्कार कारण भविद्या है । दुख, दु खके कारण, दु ख निरोध और दु ख निरोध मार्गके सम्बन्धमें अज्ञान ही अविद्या है । अविद्याका कारण मानव है अर्थात् चित्तमल है वे तीन है-काम भाव (इच्छा), भव या जन्मनेकी इच्छा, मविद्या इस अ स्रवका भी कारण भविद्या है। मानव अविद्याका कारण है। __ इस कथनका सार यह है कि मविद्या या अज्ञान ही सर्व ससारके दुखोंका मूल है। जब यह रागके वशीभूत होकर अज्ञा. नसे इन्द्रियोंके विषयोंमे प्रवृत्ति घरता है तब उनके अनुभवसे संज्ञा होजाती है । उनका संसार पड़ जाता है। सस्कारसे विज्ञान होती Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] दुसरा भाग । 1 है । अर्थात् एक सरकारोंका पुन होजाता है । उसीसे नामरूप होता है । नामरूप ही अशुद्ध प्राणी है, सशरीरी है । इस सर्व विद्या व उनके परिवारको दूर करनेका मार्ग सम्य दृष्टि होकर फिर आष्टा मार्गको पालना है । मुख्य सम्यकूपमा धिका अभ्यास है । सम्यग्दृष्टि वही है जो इस सर्व अविद्या आदिको त्यागने योग्य समझ ले, इन्द्रिय व मनके विषयोंसे विरक्त होजावे । राग, द्वेष, मोहको दूर कर दे । यहा भी मोहसे प्रयोजन अहकार ममकार से है । आपको निर्वाणरूप न जानकर कुछ और समझना । आपके सिवाय परको अपना समझना मोह या मिरयाहति है । इससे पर इष्ट पदार्थोंमे राग व अनिष्टमें द्वेष होता है । अविद्या सम्बन्धी रागद्वेष मोह सम्यकदृष्टिके नहीं होता है । उसके भीतर विद्याका जन्म होजाता है, सम्यक्ज्ञान होजाता है । वह निर्वा का अत्यन्त श्रद्धावान होकर सत्य धर्मका लाभ लेनेवाला सम्यक् ष्ट होजाता है। जैन सिद्धातको देखा जायगा तो यही बात विदित होगी कि ज्ञान सम्बन्धी राग व द्वेष तथा मोह सम्यकदृष्टि नहीं होता है । जैन सिद्धात कर्म सबन्धको स्पष्ट करते हुए, इसी बातको सम झाया है । इस निर्माण स्वरूप आत्माका स्वरूप ही सम्यग्दर्शन या स्वात्म प्रतिति है परन्तु अनादि कालसे उनका प्रकाश पाच प्रका ant कर्म प्रकृतियोंके आवरणसे या उनके मैलसे नहीं हो रहा है। चार अनंतानुबन्धी (पाषाणकी रेखाके समान) क्रोध, मान, माया, कोभ और मिथ्यात्व कर्म । अनंतानुबंधी माया और कोमको मज्ञान Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद तलवान । [६५ सबन्धी राग व क्रोध और मानको अज्ञान सबन्धी द्वेष कहते है। मिथ्यात्वको मोह कहते है । इस तरह राग, द्वेष, मोहके उत्पन्न करनेवाले कर्मों का सयोग बाधक है। जैन सिद्धात्मे पुद्गल (Matter) के परमाणुओंके समुदायसे बने हुए एक खास जातिके स्कोंको कार्माण वर्गणा Karme molecules कहते है। जब यह ससारी प्राणीसे सयोग पाते हे तब इनको कर्म कहते है। कर्मविपाक ही कर्म फल है। ___ जब तक सम्यग्दर्शनके घातक या निरोधक इन च कर्मों को दबाया या क्षय नहीं किया जाता है तब तक सम्यग्दर्शनका उदय नहीं होता है। इनके असरको मारनेका उपाय तत्व अभ्यास है। तत्व अभ्यासके लिये चार बातोंकी जरूरत है-(१) शास्त्रोको पढकर समझना, (२) शास्त्रज्ञाता गुरुओंसे उपदेश लेना (३) पूज्यनीय परमात्मा अरहत और सिद्धको भक्ति करना । (४) एका तमे बैठकर स्वतत्व परतत्वका मनन करना कि एक निर्वाण स्वरूप मेरा शुद्धात्मा ही खतत्व है, ग्रहण करने योग्य है तथा अन्य सर्व शरीर वचन व मनके सस्कार व कर्म आदि त्यागने योग्य है। शरीर सहित जीवनमुक्त सर्वज्ञ वीतराग पदधारी आत्माको भरहत परमात्मा कहते है। शरीर रहित -अमूर्तीक सर्वज्ञ वीतराग पदधारी आत्माको सिद्ध परमात्मा कहत है। इसीलिय जैनागममें कहा है चत्तारि मगल-माहतमगल, सिद्वमगल, साहूमगल, केवलिपण्णत्तो धम्मो मगल ॥ १॥ चत्तारि लोगुत्तमा-भरहत लोगुत्तमा, सिद्धलोगुत्तमा, साडूलोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा ॥२॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] दसरा भाग। चत्तारि सरण पधज्जामि-अरहतसरण पयज्जामि, सिद्धसरण पध्वजामि, साहू सम्ण पञ्चज्जामि, केवलिण्णत्तो धम्मो सरण पत्रज्जामि । चार मगल है अरहत मगल है, सिद्ध मगल है, साधु मगल है, केवलीका कहा हुआ धर्म मगल ( पापनाशक ) है । चार लोक्मे उत्तम हैंअरहत, सिद्ध, माधु व केवली कथित धर्म । चारकी शरण जाता है - अरहत, सिद्ध साधु व केवली कथित धर्म । धर्मके ज्ञान के लिये शास्त्रोंको पढकर दुखके कारण व दुख मेटनेके कारणको जानना चाहिये। इसीलिये जैन सिद्धातमें श्री उमास्वामीने कहा है-" तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन " २१ तत्व सहित पदार्थोंको श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। तत्व सात है" जीवाजीवास्रवबधसवरनिर्जरामोक्षास्तत्व" जीव, अजीव, भास्रव, बघ, सदर, निर्जरा और मोक्ष, इनसे निर्वाण पानेका मार्ग समझमे माता है। मैं तो अजर अमर, शाश्वत अनुभव गोचर, ज्ञानदर्शनस्वरूप व निर्वाणमय अखण्ड एक अमूर्तीक पदाथ ह। यह जीव तत्व है। मेरे साथ शरीर सूक्ष्म और स्थूल तथा बाहरी जड़ पदार्थ, या भाकाश, काल तथा धर्मास्तिकाय (गमन सहकारी द्रव्य) और अधर्मास्तिकाय ( स्थिति सहकारी द्रव्य ) ये सब अजीव हैं, मुझसे भिन्न हैं। कार्माण शरीर जिन कर्मवर्गणाओं (Karmac molecules) मे बनता है उनका खिंचकर माना सो आस्रव है। तथा उनका सूक्ष्म शरीर के साथ बघना बब है। इन दोनोंका कारण मन, वचन कायकी क्रिया तथा कोष दि कषाय है। इन भावों के रोकनेसे Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [६७ उनका नहीं आना सवर है । ध्यान समाधिसे कर्मोका क्षय करना निर्जरा है । सर्व कर्मोंसे मुक्त होना, निर्वाण काम करना मोक्ष है। इन सात तत्वोंको श्रद्धानमे लाकर फिर साधक अपने मात्माको परसे भिन्न निर्वाण स्वरूप प्रतीत करके भावना भाता है। निरतर अपने आत्माके मननसे भावोंमे निर्मकता होती है तब एक समय माजाता है जब सम्यग्दर्शनके रोकनेवाले चार मनतानुबन्धी कषाय और मिथ्यात्वका उपशम कर देता है और सम्यग्दशनको प्राप्त कर लेता है। जब सम्यग्दर्शनका प्रकाश झलकता है तब आत्माका साक्षात्कार होजाता है-स्वानुभव होजाता है। इसी जन्ममें निवा णका दर्शन होजाता है। सम्यग्दर्शन के प्रतापसे सच्चा मुख स्वादमें आता है । अज्ञान सम्बन्धी राग, द्वेष, मोह सब चला जाता है, ज्ञान सम्बन्धी रागद्वेष रहता है । जब सम्यग्दृष्टी श्रावक हो अहिंसादि अणुव्रतोंको पालता है तब रागद्वेष कम करता है । जब वही साधु होकर अहिंसादि महाव्रतोंको पालता हुआ सम्यक् समाधिका मले प्रकार साधन करता है तब अरहत परमात्मा हो जाता है । फिर. आयुके क्षय होनेपर निर्वाण लाभकर सिद्ध परमात्मा होजाता है। पचाध्यायी कहा हैसम्यक्त वस्तुत सूक्ष्म केवलज्ञानगोचरम् । गोचर खावधिस्वान्तपर्ययज्ञानयोयो ॥ ३७५ ॥ मस्त्यात्मनो गुण कश्चित् सम्यक्त्व निर्विकल्पक । तद्दङ्मोहोदयान्मिथ्यास्वादुरूपमनादित ॥ ३७७ ॥ भावार्थ:-सम्यग्दर्शन वास्तवमें केवलज्ञानगोचर अति सूक्ष्म गुण है या परमावधि, सर्वावधि व मन पर्ययज्ञानका भी विषय है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] दूसरा भाग। बह निर्विकल्प अनुभव गोचर भात्माका एक गुण है । वह दर्शन मोहनीयके उदयसे अनादि कालसे मिथ्या सादु रूप होरहा है। तद्यथा स्वानुभूतौ वा तत्काले वा तदात्मनि । मस्त्यवश्य हि सम्यक्त्व यस्मात्ता न विनापि तत् ॥४०॥ भावार्थ:-जिस आत्मामें जिस काल स्वानुभूति है (मात्माका निर्वाण स्वरूप साक्षात्कार होरहा है) उस मात्मामें उस समय अवश्य है' सम्यक्त्व है । क्योंकि विना सम्यक्तके स्वानुभूति नहीं होसक्ती है। सम्यग्दृष्टिम प्रशम, सवेग, अनुकम्पा, आस्तिवय चार गुण होते है। इनका लक्षण पचाध्यायीमें है --- प्रशमो विषयेषुच्चेर्भावक्रोधादिकेषु च ! लोका सख्यातमात्रेषु स्वरूपाच्छिथिल मन ॥ ४२६ ॥ भा०-पाच इन्द्रियके विषयों में और असख्यात लोक प्रमाण क्रोधादि भावोंमें स्वमावसे ही मनको शिथिलता होना प्रशम या शाति है। सवेग परमोत्साहो धर्मे धर्मफले चि।। सधर्मेष्वनुरागो वा प्रीतिर्वा परमेष्ठिषु ॥ ४३१॥ भा०-साधक मात्माको धर्ममे व धर्मके फलमे परम उत्साह होना सवेग है। अन्यथा साधर्मियों के साथ अनुराग करना व भरहत, सिद्ध, भाचार्य, उपाध्याय, साधुमें प्रेम करना भी सवेग है। अनुकम्पा क्रिया ज्ञेया सर्वसत्त्वेष्वनुग्रह । मैत्रीभावोऽथ माध्यस्थ नैःशल्य वैरवर्जनात् ॥ ४४६ ॥ भावार्थ-सर्व प्राणियोंमें उपकार बुद्धि रखना अनुकम्पा (दया) कहलाती है अथवा सर्व प्राणियोंमें मैत्रीभाव रखना भी मनु Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [ ३९ पा है या द्वेष बुद्धिको छोडकर माध्यस्थ भाव रखना या वैरभाव छोडकर शल्य रहित या कषाय रहित होना भी अनुकम्पा है । वास्तिक्य तत्सद्भावे स्वत सिद्धे विनिश्वति । धमे हेतौ च धर्मस्य फले चाऽऽत्मादि धर्मवत् ॥ ४५२ ॥ भावार्थ- स्वत सिद्ध तत्वोंके सद्भावमें, धर्ममें, धर्मके कारमे, व धर्मके फल में निश्चय बुद्धि रखना आस्तिक्य है । जैसे आत्मा यदि पदार्थोंके धर्म या स्वभाव है उनका वैसा ही श्रद्धान करना भास्तिक्य है । तत्राय जीवसज्ञो य स्वसवेद्यचिदात्मक | सोहमन्ये तु रागाद्या या पौगलिका अभी || ४५७ ॥ भावार्थ - यह जो जीव सज्ञाधारी आत्मा है वह स्वसवेव (अपने आपको आप ही जाननेवाला) है, ज्ञानवान है, वहीं मै हू । शेष जितने रागद्वेषादि भाव हैं वे पुद्गलमयी हैं, मुझसे भिन्न हैं, त्यागने योग्य हैं, तब खोजियोंको उचित है कि जैन सिद्धात देखकर सम्यग्दर्शनका विशेष स्वरूप समझें । *246 (८) मज्झिमनिकाय स्मृतिप्रस्थानसूत्र । गौतम बुद्ध कहते है - भिक्षुओ । ये जो चार स्मृति प्रस्थान हैं वे सत्वोंके कष्ट मेटने के लिये, दुख दौर्मनस्य के अतिक्रमणके लिये, सत्यकी प्राप्तिके लिये, निर्वाणकी प्राप्ति और साक्षात्कार करने के लिये मार्ग है । (१) काय काय अनुपश्यी ( शरीरको उसके असल स्वरूप केश, नस्त्र, मलमूत्र आदि रूपमें देखने वाला ), Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०] दूसरा भाग (२) वेदनाओंमें वेदनानुपश्यी ( सुख, दुख व न दुख सुख इन तीन चित्तकी अवस्थारूपी वेदनाओंको जैसा हो वैसा देखनेवाला । (३) चित्तमे चित्तानुपश्यी. (४) धर्मोमे धर्मानुपश्यी हो उद्योगशील अनुभव ज्ञानयुक्त, स्मातेवान् लोकमें (ससार या शरीर) मे (मभिध्या) लोभ और दौर्यभस्म (दु ख) को हटाकर विहरता है। (१) कैसे भिक्षु कायमें कायानुपश्यी हो विहरता है। भिक्षु आराममें वृक्षके नाचे या शुन्यागारमें भासन मारकर, शरीरको सीधा कर, स्मृतिको सामन रखकर बैठता है । वह स्मरण रखते हुए श्वास छोड़ता है, श्वास लेता है। लम्बो या छोटी श्वास लेना सीखत। है, कायके सस्कारको शात करते हुए श्वास लेना सीखता है, कायक भीतरी और बाहरी भागको जानता है, कायकी उत्पत्तिको देखता है. कायमें नाशको देखता है। कायको कायरूप जानकर तृष्णासे अलिप्त हो विहरता है। लोकमें कुछ भी (मै मेरा करके, नहीं ग्रहण करता है। भिक्षु जाते हुए, बैठते हुए, गमन-मागमन करते हुए, सकोड़ते, फैलाते हुए, खाते पीते, मलमूत्र करते हुए, खड़े होते, सोते जागते, बोलते, चुप रहत जानकर करनेवाला होता है। वह पैरसे मस्तक तक सर्व मा उपागोंको नाना प्रकार मलोंसे पूर्ण देखता है। वह कायकी रचनाको देखता है कि यह पृथ्वी, जल, ममि, वायु इन चार पातु से बनी है। वह मुर्दा शरीरकी छिन्नभिन्न दशाको देखकर शरीरको उत्पत्ति व्यय स्वभावी जानकर कायको कायरूप जानकर विहरता है। (२) मिश्र वेदनाओंमें वेदनानुपश्यी हो कैसे विहरता है। पुख वेदनाभोंको अनुभव करते हुए "मुख वेदना अनुभव Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ ७१ कर रहा हू" जानता है। दुख वेदनाको अनुभव करते हुए " दुख वेदना अनुभव कर रहा हू" जानता है 1 अदुःख सुख वेदनाको अनुभव करते हुए "अदु ख असुख वेदनाको अनुभव कर रहा हू' जानता है । (३) भिक्षु चित्तम चित्तानुपश्यी हो कसे विहरता हैवह सराग चित्तको " सराग चित्त है " जानता है । इसी तरह विराग चित्तको विराग रूप, सद्वेष चित्तको सद्वेष रूप, वीत द्वेषको वीत द्वेष रूप, समोह चित्तको समोहरूप, वीत मोह चित्तको वीत मोहरूप, इसी तरह सक्षिप्त, विक्षिप्त, महद्गत, अमहद्गत, उत्तर, अनुत्तर, समाहित ( एकाग्र), असमहित, विमुक्त, अविमुक्त चित्तको जानकर विहरता है । (४) भिक्षु धर्मोम धर्मानुपश्यी हो कैसे विहरता है - भिक्षु पाच नीवरण में धर्मानुपथ्यो हो विहाल है। वे पाच नीवरण है - (१) कामच्छन्द - विद्यमान कामच्छन्दकी, अविद्यमान काम च्छन्दशी, अनुत्पन्नकामच्छन्दकी कसे उत्पत्ति होती है । उत्पन्न कामच्छन्दका कैसे विनाश होता है । विनष्ट कामच्छन्दकी आगे फिर उत्पत्ति नहीं होती, जानता है । इसी तरह ( २ ) व्यापाद (द्रोहको), (३) हत्या गृद्ध ( शरीर व मनकी अलसता ) को, (8) उदुष्चकुक्कुच्च (उद्वेग-खेद ) को तथा (५) विचिकित्सा ( सशय ) को जानता है । यह पाच उपादान स्कध धर्मोंमें धर्मानुपश्यी हो विहरता है । वह अनुभव करता है कि यह (१) रूप है, यह रूपकी उत्पत्ति है । यह रूपका विनाश है, (२) यह वेदना है - यह Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] दूसरा भाग। वेदनाकी उत्पत्ति है, यह वेदनाका विनाश है, (३) यह सज्ञा हैयह सज्ञाकी उत्पत्ति है, यह मज्ञाका विनाश है (४) यह सरकार है, यह सस्कारकी उत्पत्ति है, यह सस्कारका विनाश है, (५) यह विज्ञान है-यह विज्ञानकी उत्पत्ति है, यह विज्ञानका विनाश है। वह छ शरीके भीतरी और बाहरी मायतन धर्मों में धर्म अनु भव करता विहरता है, भिक्षु-(१) चक्षुको व रूपको अनुभव करता है। उन दोनोंका संयोजन कैसे उत्पन्न होता है उमे भी मनुभव करता है, जिस प्रकार अनुत्पन्न सयोजनकी उत्पत्ति होती है उसे भी जानता है । जिस प्रकार उत्पन्न सयोजनका नाश होता है उसे भी जानता है। जिस प्रकार नष्ट सयोजनकी मागे फिर उत्पत्ति नहीं होती से भी जानता है । इसी तरह (२) श्रोत्र व शब्दको, (३) घ्राण व गधको (४) जिहा व रसको (५) काया व स्पर्शको (६) मन व मनके धर्मोको। इस तरह भिक्षु शरीरके भीतर और बाहरवाले छ आयतन धर्मों का स्वभाव अनुभव करते हुए विहरता है। वह सात बोधिअंग धर्मोमें धर्म अनुभव करता विहरता है (१) स्मृति-विद्यमान भीतरी ( अध्यात्म ) म्मृति बोधिअगको मेरे भीतर स्मृति है, अनुभव करता है। अविद्यमान स्मृतिको मेरे भीतर स्मृति नहीं है, अनुभव करता है। जिस प्रकार अनुत्पन्न स्मृतिकी उत्पत्ति होती है उसे जानता है, जिस प्रकार स्मृति बोधिभगकी भावना पूर्ण होती है उसे भी जानता है। इसी तरह (२) धर्मविषय (धर्म भन्वेषेण), (३) वीर्य, (४) पीकि, (५) प्रब्धि (शाति), Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । (६) समाधि, (७) उपेक्षा बोधि अगोंके सम्बन्धमें जानता है । (बोधि (परमज्ञान) प्राप्त करनेमें ये सातों परम सहायक हैं इसलिये इनको बोधिअग कहा जाता है) ___वह भिक्षु चार मार्य सत्य धर्मोमें धर्म अनुभव करते विहरता है । (१) यह दुःख है, ठीक २ अनुभव करता है, (२) यह दुःखका समुदय या कारण है, (३) यह दुःख निरोध है, (४) यह दुःख निरोधकी ओर लेजानेवाला मार्ग है, ठीक ठीक अनुभव करता है। इसी तरह भिक्षु भीतरी धर्मोमें धर्मानुपश्यी होकर विहरता है। मलम (अलिप्त) हो विहरता है। लोकमें किसीको भी “ मै और मेरा" करके नहीं ग्रहण करता है । जो कोई इन चार स्मृति प्रस्थानोको इस प्रकार सात वर्ष भावना करता है उसको दो फलोंमें एक फल अवश्य होना चाहिये । इसी जन्ममे आज्ञा (अईत्व) का साक्षात्कार वा उपाधि शेष होनेपर अनागामी भवि रहनेको सात वर्ष, जो कोई छ वर्ष, पाच वर्ष, चार वर्ष, तीन वर्ष, दो वर्ष, एक वर्ष, सात मास, छ. मास, पाच मास, चार मास, तीन मास, दो मास, एक मास, अर्ध मास या एक सप्ताह भावना करे वह दो फलों से एक फल अवश्य पावे । ये चार स्मृति प्रस्थान सत्वोंके शोक कष्टकी विशद्धिके लिये दुख दौर्मनस्यके अतिक्रमणके लिये, सत्यकी प्राप्तिके लिये, निर्वाणकी प्राप्ति और साक्षात् करने के लिये एकापन मार्ग है। नोट इस सूत्रमें पहले ही बताया है कि वे चार स्मृतियें निर्वाणकी प्राप्ति और साक्षात्कार करने के लिये मार्ग हैं। ये वाक्य Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४] दूसरा भाग। प्रगट करते हैं कि निवाण कोई अस्ति रूप पदार्थ है जो प्राप्त किया जाता है या जिसका साक्षात्कार किया जाता है । वह अभाव नहीं है । कोई भी बुद्धिमान अभावके लिये प्रयत्न नहीं करेगा। वह मस्ति रूप पदार्थ सिवाय शुद्धात्माके और कोई नहीं होसक्ता है । वही अज्ञात, अमर, शात, पडित वेदनीय है । जैसे विशेषण निर्वा णके सम्बन्धमे बौद्ध पाली पुस्तकोंमे दिय हुए हैं। __ ये चारों स्मृति प्रस्थान जैन सिद्धातमे कही हुई बारह मपे क्षाओंमें गर्भित होजाती है। जिनक नाम भनित्य, मशरण मादि सर्वास्रव सूत्र नामके दूसरे अध्यायमें कहे गए है। (१) पहला स्मृति प्रस्थान-शरीरके सम्बन्धमें है कि वह साधक पवन सचार या प्राणायामकी विधिको जानता है। शरीरके भीतर बाहर क्या है, कैसे इसका वर्ताव होता है। यह मल, मूत्र तथा रुधिरादिसे भरा है। यह पृथ्वी आदि चार धातुओंसे बना है। इसके नाशको विचार कर शरीरसे उदासीन होजाता है। न शरीर रूप मैं हू न यह मेरा है । ऐसा वह शरोरसे अलिप्त होजाता है। जैन सिद्धातमें बारह भावनाभोंके भीतर अशुचि भावनामें मही विचार किया गया है। श्री देवसेनाचार्य तत्त्वसारमे कहते हैं-- मुक्खा विणासख्यो चेयणपरिवजिमो सयादेहो । तस्स ममत्ति कुणतो बहिरप्पा होइ सो जीमो ॥ ४८ ॥ रोय सरण पडण देहस्स य पिच्छिऊण अरमरण । जो मप्पाण झायदि सो मुच्चइ पच देहेहि ॥ ४९ ॥ भावाय-यह शरीर मूर्ख है, भवानी है, नाशवान है, व सदा Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [७५ ही चेतना रहित है। जो इसके भीतर ममता करता है वह जीद बहिगमा मुढ है। ज्ञानी भात्मा शरीरको रोगोंसे भरा हुआ, सड़ नवाका, पडनवाला व जरा तथा मरणसे पूर्ण देखकर इससे तृष्णा छोड देता है और अपना हो ध्यान करता है । वह पाच प्रकार के शरीरसे छूटकर शुद्ध व अशरीर होजाता है । जैन सिद्धातमें सर्व प्राणियोंके सम्बन्ध करनेवाल पाच शरारोंको माना है। (१) औदारिक शरीर-वह स्थूल शरीर जो बाहरो दीखनेवाला मनुष्य पशु, पक्षी, काटादि, वृक्षादि, सर्व तिर्थचोंक होता है । (२) वैक्रियिक शरीर-जो देव तथा नारकी जीवोंका स्थूल शरीर है । (३) आहारकतपमा मुनियोक मस्तकसे बनकर किसी मरहन्त या श्रुतके पूर्ण ज्ञाताके पास जानवाला व मुनिके सशयको मिटानवाला यह एक दिव्य शरीर है । (४) तेजस शरीर-बिजलीका शरीर electric body (५) कार्माण शरीर-पाप पुण्य कर्मका बना शरीर ये दोनो शरीर तेजर और कार्माण सर्व ससारो जीवोंके हर दशामें पाए जाने हैं । एक शरीरको छोडते हुए य दो शरीर साथ साथ जाते है । इनसे भी जब मुक्ति होती है तब निर्वाणका लाम होता है। श्री पूज्यपाद स्वामी इष्टोपदेशम कहते हैमवति प्राप्य यत्सयमशुचीनि शुचीन्यपि । स काय सततापायस्तदर्थं प्रार्थना वृथा ॥ १८॥ भावार्थ-जिसकी सगति पाकर पवित्र भोजन, फूलमाला वस्त्रादि पदार्थ अपवित्र होजाते है । वे जो क्षुधा आदि दु खोंसे पीडित हैं व नाशवान हैं उस कामके लिये तृष्णा रखना वृथा है । इसकी रक्षा करते२ भी यह एक दिन अवश्य छूट जाता है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] दुसरा भाग । श्री गुणभद्राचार्य आत्मानुशासनम कहते हैं - अस्थिस्थळतुळाकलापघटित नद्ध शिरास्त्र गुभिधर्माच्छादितमन्त्रसान्द्रपिशितप्ति सुगुप्त ग्लै । कर्मागतिभिरायुरुच्चनिगळाळग्न शरीगळय कारागारमवेहि ते इतमते प्रति वृथा मा कृथा ॥ ५८ ॥ भावार्थ- हे निर्बुद्धि ! यह शरोररूपी कैदखाना तेरे लिय कर्मरूपी दुष्ट शत्रुओंने बनाकर तुझे कैश्मे डाल दिया है । यह कैदखाना हड्डियोंके मोटे समूहोंसे बनाया गया है, नशके जालसे बधा गया है । रुधिर, पीप, माससे भग है, चमड़े से ढका हुआ है, आयुरूपी बेडियोंसे जकड़ा है। ऐसे शरीर में तु वृथा मोह न कर । श्री अमृतचन्द्राचार्य तत्वार्थसार में कहते हैंनाना कृमिशताकीर्णे दुर्गन्धेमपूति । 1 1 मात्मनश्च परेषा च क शुचित्व शरीरके ॥ ३६-६ ॥ भावार्थ - यह शरीर अनेक तरहके सैंकड़ों कांडोंसे भरा है भूकसे पूर्ण है। यह अपनेको व दुसरेको अपवित्र करनेवाला है, ऐसे शरीरमें कोई पवित्रता नहीं है, यह वैराग्यके योग्य है । (२) वेदना - दूसरा स्मृति प्रस्थान यह बताया है कि सुखको सुख, दुखको दुख, असुख अदुखको असुख भदु ख - जैमा इनका स्वरूप है वैसा स्मरणमें लेवे । सासारिक सुखका भाव तब होता है जब कोई इष्ट वस्तु मिल जाती है उस समय मैं सुखी यह भाव होता है। दुस्खका भाव तब होता है जब किसी अनिष्ट वस्तुका संयोग हो या इष्ट वस्तुका बियोग हो या कोई रोगादि पीड़ा हो । जब हम किसी ऐसे कामको कर रहे हैं, जहा रागद्वेष तो हैं परन्तु Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बोद तत्वज्ञान। सुख या दुखके अनुभवका विचार नहीं है, उस समय भदुख मसुख भावका अनुभव करना चाहिये जैसे हम पत्र लिख रहे हैं, मकान साफ कर रहे है, पढ़ा रहे है। जैन शास्त्रमे कर्मफल चेतना और कर्म चेतना बताई है। कर्मफल चेतनामें मैं सुखी या मैं दुखी ऐसा भाव होता है। कर्म चेतनामें केवल राग व द्वेषपूर्वक काम करनेका भाव होता है, उस समय दु ख या सुखका भाव नहीं है । इसीको यहा पाली सूत्रमे अदु ख असुखका अनुभव कहा है, ऐसा समझमें माता है । ज्ञानी जीव इन्द्रियजनित सुखको हेय मर्थात् त्यागने योग्य जानता है, मात्मसुखको ही सच्चा सुख जानता है । वह सुख तथा दुखको भोगते हुए पुण्य कर्म व पाप-कर्मका फल समझकर न तो उन्मत्त होता है और न क्लेशभाव युक्त होता है। जैन सिद्धातमें विपाकविचय धर्मध्यान बताया है कि मुख व दुखको अनुभव करते हुए आन ही कर्मों का विपाक है ऐसा समझना चाहिये। श्री तत्वार्थसारमे कहा हैद्रव्यादिपत्यय कर्म फलानुभवन प्रति । भवति प्रणिधान यद्विपाकविचयस्तु स ॥ ४२-७ ॥ भावार्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल मादिक निमित्तसे जो कर्म अपना फल देता है उस समय उसे अपने ही पूर्व किये हुए कर्मका फल अनुभव करना विपाक विचय धर्मध्यान है। इष्टोपदेशमें कहा हैवासनामात्रमेवैतत्सुख दुःख च देहिना। तथा युद्वेजयत्येते भोगा रोगा इवापदि ॥ ६॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] दूसरा भाग। भावार्थ-ससारी प्राणियोंके भीतर अनादिकालकी यह वासना है कि शरीरादिमें ममता करते हैं इसलिये जब मनोज्ञ इन्द्रिय विषयकी प्राप्ति होती है तब सुख, जब इसके विरुद्ध हो तब दुख अनुभव कर लेते है । परन्तु ये ही भोग जिनसे सुख मानता है भापत्तिके समय, चिन्ताके समय रोगके समय अच्छे नहीं लगने है । मुग्व प्याससे पीडित मानवको सुदर गाना बजाना व सुदर स्त्रीका सयोग भी दुखदाई भासता है, अपनी कल्पनासे यह प्राणी सुखी दुखी होजाता है । तत्वसारमे कहा है - भुजतो कम्मफल कुणइ ण गय च तह य दोस वा। सो सचिय विणासइ अहिणवकम्म ण बधे ॥ ११ ॥ भुजतो कम्मफल भाव मोहेण कुणइ सुहमसुह । जइ त पुणोवि बध णाणावरणादि भट्ठविड ।। ६२ ॥ भावार्थ-जो ज्ञानी कर्मो का फल सुख या दु ख भोगत हुए उनके स्वरूपको नसाका तैसा जानकर गग व द्वेष नहीं करता है वह उस सचित कर्मको नाश करता हुमा नवीन कर्मोको नहीं बाघता है, परन्तु जो कोई मज्ञानी कर्मोका फल भोगता हुमा मोहसे सुख व दु खमें शुभ या अशुभ भाव करता है अर्थात् मैं सुखी या मैं दुखी इस भावनामें लिप्त होजाता है वह ज्ञानावरणादि माठ प्रकारके कर्मोको बाध लेता है। श्री समन्तभद्राचाय सासारिक सुखकी भसारता बताते हैंस्वयभूस्तोत्रमें कहा हैशः हृदोन्मेषचल हि सौख्य तृष्णामयाप्यायनमानहेतुः। तृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजस्र तापस्तदायासयतीत्यवादीः ॥१३॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ ७९ भावार्थ - हे समवनाथ स्वामी । आपने यह उपदेश दिया है कि ये इन्द्रियोंके सुख विजली के चमत्कार के समान नाशवान है। इनके भोगने से तृष्णाका रोग बढ जाता है। तृष्णाकी वृद्धि, निरन्तर चिंताका आताप पैदा करती है। उस आतापसे प्राणी कष्ट पाता है। श्री रत्नकरण्डमें कहा है कर्मपरवशे सान्ते दु खैान्तरितदये । पापबीजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकाक्षणा स्मृता ॥ १२ ॥ भावाथ - मम्यक दृष्टी इन्द्रियोंके सुखोंमे श्रद्धा नहीं रखता है च समझता है कि ये सुग्व पूर्व बाधे हुए पुण्य कर्मों के आधीन हैं, अन्त सहित हैं, इनके भीतर दुख भरा हुआ है। तथा पाप कर्मके के कारण हैं । श्री कुलभद्राचार्य सार समुच्चयमे कहते हैइन्द्रियप्रभव सौख्य सुखाभास न तत्सुखम् । तच्च कर्मविषन्याय दुखदानैकपण्डितम् ॥ ७७ ॥ भावार्थ- इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाला सुख सुखसा झलकता है परन्तु वह सच्चा सुख नहीं है । इससे कर्मों का बन्ध होता है व केवल दुखोंको देने में चतुर है । शक्रचापसमा मोगा सम् दो जलदोपमा । यौवन नकरेखेव सर्वमेतदशाश्वतम् ॥ १५१ ॥ भावाथ - ये भोग इन्द्रधनुषक समान चचल, हैं छूट जाते हैं, ये सम्पदा बादलोंके समान सरक जती है, यह युबानी जलमें खींची हुई रेखाके समान नाश होज ती है । ये सब भोग, सम्पत्ति व युवानी आदि क्षणभंगुर हैं व अनित्य हैं । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] दूसरा भाग । (३) तीसरी स्मृति यह बताई है कि चित्तको जैसा हो वैस जाने । इसका भाव यह है कि ज्ञानी अपने भावोंको पहचाने। मन परिणामोंमें राग, द्वेष, मोह, आकुलता, चचलता, दीनता हो तब वैसा जाने । उसको त्यागने योग्य जाने और जब भावमें राग, द्वेष, मोह न हो, निराकुल चित्त हो, स्थिर हो, व उदार हो तब वैसा जाने । वीतराग भावोंको उपादेय या ग्रहण योग्य समझे । पाचवें वस्त्र सूत्र में अनन्वानुबन्धी क्रोध आदि पश्वीस कषा योंको गिनाया गया है। ज्ञानी पहचान लेता है कि कब मेरे कैसे भाक किस प्रकार के राग व द्वेषसे मलीन है। जो मैलको मैल व निर्मलताको निर्मक जानेगा वही मैळसे हटने व निर्मलता प्राप्त करने का यत्न करेगा। सार समुच्चय में कहते हैं रागद्वेषमयो जीव कामक्रोधवश यत । लोभमोहमद विष्ट ससारे सर त्यसौ ॥ २४ ॥ कामको तथा मोहत्रयोऽव्ये ते महाद्विष । एतेन निर्जिता यावत्तावत्सौख्य कुतो नृणाम् ॥ २६ ॥ भावार्थ- जो जीव रागी है, द्वेषी है व काम तथा क्रोधके वश है लोभ या मोह या मदसे घिरा हुआ है वह ससार में भ्रमण करता है । काम, क्रोध, मोह या रागद्वेष मोह ये तीनों ही महान् शत्रु हैं। जो कोई इनके वशमें जबतक है तबतक मानवोंको सुख कहासे होता है । (४) चौथी स्तुति धर्मोके सम्बन्धमें है । (१) पहली बात यह बताई है कि ज्ञानीको पाच नीवरण दोषोंके सम्बन्धमें जानना चाहिये कि (१) कामभाव, (२) द्रोहभाव, Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ ८१ (३) आळरूप, (४) उद्वेग - खेद (५) सशय । ये मेरे भीतर है या नहीं हैं तथा यदि नहीं है तो किन कारणोंसे इनकी उत्पत्ति हो सक्ती है। तथा यदि है तो उनका नाश कैसे किया जावे तथा मैं कौनसा यत्न करू कि फिर ये पैदा न हों। आत्मोन्नति में ये पाच दोष बाधक है (२) दूसरी बात यह बताई है कि पाच उपादान एकधोंकी उत्पत्ति व नाशको समझता है । सारा ससारका प्रपचजाल इनमें गर्भित है । रूपसे वेदना, वेदनास सज्ञा, सज्ञा से सस्कार, सरकार से विज्ञान होता है । ये सर्व अशुद्ध ज्ञ है जो पाच इद्रिय और मनके कारण होते है । इनका नाश तत्व मननसे होता है । तत्वसारमे कहा है रूस तूसह णिच्च इदियविसयेहिं सगओ मूढो । सकसा पण्णाणी गाणी एदो दु वित्ररीदो || ३१ ॥ भावार्थ - अज्ञानी क्रोध, मान, माया लोभके वशीभूत होकर सदा अपनी इन्द्रियोंसे अच्छे या बुरे पदार्थों को ग्रहण करता हुआ रागद्वेष करके भाकुलित होता है । ज्ञानी इनसे अलग रहता है । बौद्ध साहित्य में इन्हीं पाच उपादान स्कंधों के क्षयको निर्वाण कहते हैं जिसका अभिप्राय जैन सिद्धांतानुसार यह है कि जितने भी विचार व अशुद्ध ज्ञानके भेद पाच इन्द्रिय व मनके द्वारा होते हैं, उनका जब नाश होजाता है तब शुद्ध आत्मीक ज्ञान या केवल ज्ञान प्रगट होता है । यह शुद्ध ज्ञान निर्माण स्वरूप आत्माका स्वभाव है । (३) फिर बताया है कि चक्षु आदि पाच इन्द्रिय और मनसे पदार्थों का सम्बन्ध होकर जो रागद्वेषका मल उत्पन्न होता है, उसे Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] दुसरा भाग। नानता है कि कैसे उत्पन्न हुमा है तथा यदि वर्तमानमें इन छ विषयोंका मल नहीं है तो वह भागामी किन२ कारणोंसे पैदा होता है उनको भी जानता है तथा जो उत्पन्न मक है वह कैसे दूर हो इमको भी जानता है तथा नाश हुआ राग द्वेष फिर न पैदा हो उसके लिये क्या सम्हाल रखना इसे भी जानता है। यह स्मृति इन्द्रिय और मनके जीतने के लिये बडी ही आवश्यक है। निमित्तोंको बचानेसे ही इन्द्रिय सम्बन्धी राग हट सक्ता है। यदि हम नाटक, खेल, तमाशा देखेंगे, शृगार पूर्ण ज्ञान सुनेंगे, अत्तर फुलेल सूपेंगे, स्वादिष्ट भोजन रागयुक्त होकर ग्रहण करेंगे, मनोहर वस्तुओंको स्पर्श करेंगे, पूरित भोगोंको मनमें स्मरण करेंगे व अगामी भोगोंकी वाछा करेंगे तब इन्द्रिय विषय सम्बन्धी राग द्वेष दूर नहीं होता । यदि विषय राग उत्पन्न होजाये तो उसे मल जानकर उसके दूर करने के लिये आत्मतत्वका विचार करे । आगामी फिर न पैदा हो इसके लिये सदा ही ध्यान, स्वाध्याय, व तत्व मननमें व सत्सगतिमें व एकात सेवन में लगा रहे। जिसको भात्मानन्दकी गाढ रुचि होगी वह इन्द्रिय वचन सम्बन्धी मलोंसे अपनेको बचा सकेगा। ध्यानीको स्त्री पुरुष नपुसक रहित एकात स्थानके सेवनकी इसीलिये मावश्यक्ता बताई है कि इन्द्रियों के विषय सम्बन्धी मक न पैदा हों। तत्वानुशासनम कहा हैशुन्य गारे गुहायां वा दिवा वा यदि वा निशि । स्त्रीपशुक्लीम जीवानां क्षुद ण मप्यगोवरे ॥९॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । अन्यत्र वा क्वचिदशे प्रशस्ते प्रासुके समे । चेतनाचेतनाशेषध्यानविघ्नविजिते ॥ ९१ ।। भूतले वा शिलापट्टे सुखासीन स्थितोऽथवा । समझज्यायत गात्र नि कपावयव दधत् ॥ ९२ ॥ नासामन्यस्तनिष्पदलोचनो मदमुच्छ्वसन् । द्वात्रिशदोषनिर्मुक्तकायोत्सर्गव्यवस्थित ॥ ९३ ॥ प्रत्याहृत्याक्षलुटाकास्तदर्थेभ्य प्रयत्नत । चिता चाकृष्य सर्वेभ्यो निरुध्य ध्येयवस्तुनि ॥ ९४ ॥ निरस्तनिद्रो निर्भीतिनिरालस्यो निरतर । खरूप वा पररूप वा ध्यायेदतर्विशुद्धये ॥ ९५ ॥ भावार्थ-ध्यानीको उचित है कि दिन हो या रात, सूने स्थानमे या गुफामें या किसी भी ऐसे स्थानमें बैठे जो स्त्री, पुरुष, नपुसक या क्षुद्र जतुओंसे रहित हो, सचित्त न हो, रमणीक, व सम भूमि हो जहापर किसी प्रकारके विघ्न चेतनकृत या अचेतनकृत ध्यानमें न हो सकें । जमीन पर या शिलापर सुस्वासनसे बैठे या खडा हो, शरीरको सीधा व निश्चल रखे, नाशाग्रदृष्टि हो, लोचन पलक रहित हो, मद मद श्वास माता हो, ३२ दोषरहित कामसे ममता छोड़के, इन्द्रिय रूपी लुटेरोंको उनके विषयोंकी तरफ जानेसे प्रयत्न सहित रोककर तथा चित्तको सर्वसे हटाकर एक ध्येय वस्तुमें लगावे। निन्द्राका विजयी हो, आलसी न हो, भयरहित हो। ऐसा होकर अतरङ्ग विशुद्ध भावके लिये अपने या परके स्वरूपका ध्यान करे । एकात सेवन व तत्व मनन इन्द्रिय व मनके जीतनेका उपाय है। (४) चौथी बात इस सत्रमें बताई है कि बोधि या परम Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४1 मानकी प्राप्तिके लिये सात बातोकी जरूरत है। यह परमज्ञान्द विज्ञानसे भिन्न है, यह परमज्ञान निर्वाणका साधक व स्वय निर्वाण रूप है। इससे साफ झलकता है कि निर्वाण मभावरूप नहीं है किंतु परमज्ञान स्वरूप है। वे सात बातें है-(१) स्मृति-तत्वका स्मरण निर्वाण स्वरूपका स्मरण, (२) धर्म विचय-निर्वाण साधक धर्मका विचार, (३) वीर्य-आत्मबलको व उत्साहको बढ़ाकर निर्वाणका साधन करे । (४) प्रीति-निर्वाण व निर्वाण साधनमें प्रेम हो, (५) प्रश्रब्धि-शाति हो राग द्वेष मोह हटाकर मावोंको सम रखे, (६) समाधि-ध्यानका अभ्यास करे, (७) उपेक्षा-वीतरागता-जब वीतरागता आजाती है तब स्वात्मरमण होता है । यही परम ज्ञानकी प्राप्तिका खास उपाय है। तत्वानुशासनमें कहा हैसोऽय समरसीभावस्तदेकीकरण स्मृत । एतदेव समाधि स्याल्लोकद्वयफळप्रद ॥ १३७ ॥ किमत्र महुनोक्तेन ज्ञात्या श्रद्धाय तत्त्वत । ध्येय समस्तमप्येतन्माध्यस्थ्य तत्र बिभ्रता ।। १३८ ॥ माध्यस्थ्य समतोपेक्षा वराग्य साम्यमस्पृह । वैतृष्ण्य परमः शांतिरित्येकोऽर्थोऽभिधीयते ॥ १३९ ॥ मावार्थ-जो यह समरससे भरा हुमा भाव है उसे ही एकाग्रता कहते हैं, यही समाधि है। इसीसे इस लोकमें सिद्धि व परलोक सिद्धि प्राप्त होती है। बहुत क्या कहे-सर्व ही ध्येय वस्तुको भले प्रकार जानकर व श्रद्धानकर ध्यावे, सर्व पर माध्यस्थ मा स्खे। माध्यस्थ, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, निस्पृहता, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [८५ बृष्णा रहितता, परम भाव, शाति इत्यादि उसी समरसी भावके ही भाव हैं इन सबका प्रयोजन मात्मव्यानका सम्बन्ध है। इनमें जो धर्मविचय शब्द या है-ऐसा ही शब्द जैन सिद्धातमे धर्मभ्यानके भेदोंमें आया है। देखो तत्वार्य सूत्र " माज्ञापायविपाकसस्थानविचयाय धर्म्य ॥३६॥९ धर्मध्यान चार तरहका है (१) मज्ञ'विचय-शास्त्रकी माज्ञाके अनुसार तत्वका विचार, (२) अपाय विचय-मेरे व अन्योंके राग द्वेष मोहका नाश कैसे हो, (३) विपाक विचय-कर्मोके अच्छे या बुरे फलको विचारना, (४) सस्थान विचय-लोकका या अपना स्वरूप विचारना। बोधि शब्द भी जैनसिद्धातमे इसी अर्थमें माया है। देखो बारह भावनाओं के नाम। पहले सर्वातवसूत्रमें कहे है। ११वीं भावना बोधि दुर्लभ है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, गर्मित परम ज्ञान या आत्मज्ञानका लाभ होना बहुत दुर्लभ है ऐसी भावना करनी चाहिये। (५) पाचमी बात यह बताई है कि वह भिक्षु चार बातोंको ठीक२ जानता है कि दुख क्या है, दुखका कारण क्या है। दुखका निरोध क्या है तथा दुख निरोधका क्या उपाय है । जैन सिद्धातमें भी इसी बातको बतानेके लिये कर्मका सयोस जहातक है वहातक दुख है । कर्म सयोगका कारण मानव और बध तत्व बताया है। किन२ भावोंसे कर्म भाकर बध जाते हैं, दुखका निरोध कर्मका क्षय होकर निर्वाणका लाभ है। निर्वाणका Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] दुसरा भाग । 1 भोग सवर तथा निर्जरा तत्व बताया है । अर्थात् रत्नत्रय धर्मका साधन है जो बौद्धोंके अष्टाग मार्गसे मिल जाता है । तस्वानुशासन में कहा है art four चास्य हेयमित्युपदर्शित । दुखसुखयोर्यस्माद्वीनमिद द्वय ॥ ४ ॥ मोक्षस्तत्कारण चतदुपादेयमुदाहृत । उपादेय सुख यस्मादस्मादाविर्भविष्यति ॥ ९ ॥ स्युर्मथ्यादर्शनज्ञान चारित्राणि समासत । aur traiऽन्यस्तु त्रयाणामेव विस्तर ॥ ८ ॥ ततस्त्व हेतूना समस्ताना विनाशत | प्रणाशन्मुक्त सम्म भ्रमिष्यसि ससृतौ ॥ २२ ॥ स्यात्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रितयात्मक । मुक्तिहेतुर्जिनोपज्ञ निर्जरासवर क्रिया ॥ २४ ॥ भावार्थ - is iर उसका कारण त्यागने योग्य है । क्योंकि इनहीसे त्यागने योग्य सासारिक दुख सुखकी उत्पत्ति होती है। मोक्ष और उसका कारण उपादेय है। क्योंकि उनसे ग्रहण करने योग्य आत्मानंदकी प्राप्ति होती है । बधके कारण सक्षेप से मिथ्यादर्शन, मिथ्या ज्ञान तथा मिथ्याचारित्र है। इन्ही तीनका विस्तार बहुत है। हे भाई! यदि तु बंधके सब कारणोंका नाश कर देगा तो मुक्त होजायगा, फिर संसार में नहीं भ्रमण करेगा। मोक्षके कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र यह रत्नत्रय धर्म है। उन होके सेवनसे माप्त समाधि प्राप्त होने से सबर व निर्जरा होती है, ऐसा जिनें ने कहा है। इस स्मृतिप्रस्थान सूत्रके अंत में कहा है कि जो इन Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। (८७ चार स्मृति प्रस्थानोंको मनन करेगा वह अरहत पदका साक्षात्कार करेगा । उसको सत्यकी प्राप्ति होगी, वह निर्वाणको प्राप्त करेगा व निर्वाणको साक्षात् करेगा । इन वाक्योंसे निर्वाणके पूर्वकी अवस्था जैनोंके अर्हत पदसे मिलती है और निर्वाणकी अवस्था सिद्ध पदसे मिलती है। जैनोंमें जीवनयुक्त परमात्माको अरहन्त कहते है जो सर्वज्ञ वीतराग होते हुए जन्म भरतक धर्मोपदेश करते है । वे ही जब शरीर रहित व कर्म रहित मुक्त होजाते है तब उनको निर्वाणनाथ या सिद्ध कहते हैं। यह सूत्र बडा ही उपकारी है व जैन सिद्धातसे बिलकुल मिल जाता है। (९) मज्झिमनिकाय चूलसिंहनाद सूत्र । गौतम बुद्ध कहते है-भिक्षुओ होसक्ता है कि अन्य तैर्थिक ( मतवाले ) यह कहें। आयुष्मानोको क्या माश्वास या बल है जिससे यह कहते हो कि यहा ही श्रमण है। ऐसा कहनेवालोंको तुम ऐसा कहना-भगवान जाननहार, देखनहार, सम्यक् सम्बुद्धने हमें चार धर्म बताए है। जिनको हम अपने भीतर देखते हुए ऐसा कहते है 'यहा ही श्रवण है।' ये चार धर्म है-(१) हमारी शास्तामें श्रद्धा है, (२) धर्ममें श्रद्धा है, (३) शील (सदाचार)में परिपूर्ण करनेवाला होना है, (४) सहधर्मी गृहस्थ और प्रवजित हमारे प्रिय हैं। हो सकता है अन्य मतानुवादी कहे कि हम भी चारों बातें मानते हैं तब क्या विशेष है। ऐसा कहनेवालोंको कहना क्या Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] दुसरा भाग। आपकी एक निष्ठा है या पृथक् ? वे ठीकसे उत्तर देंगे एक निष्ठा है। फिर कहना क्या यह निष्ठा सरागके सम्बन्धमें है या वीतरागके सम्बन्धमें है वे ठीकस उत्तर देंगे कि वीतरागके सम्बन्धमे है, इसी तरह पूछनेपर कि वह निष्ठा क्या सद्वेष, समोह, सतृष्णा, सउपादान (ग्रहण करनेवाले), अविद्वान, विरुद्ध, या प्रपचारामके सम्बन्धमे है या उनके विरुद्धोंमे है तब वे ठीकसे विचारकर कहेंगे कि वह निष्ठा वीतद्वेष, वीतमोह, वीत तृष्णा, अनुपादान, विद्वान, अविरुद्ध , निष्पपचाराममे है। भिक्षुओ । दो तरहकी दृष्टिया हैं-(१) भव (संपार) दृष्टि, (२) विभव ( अससार ) दृष्टि । जो कोई भवदृष्टि में लीन, भवष्टको प्राप्त, भवधिमें तत्पर है वह विभव दृष्टिसे विरुद्ध है। जो विभवदृष्टिमे लीन, विभवदृष्टिको प्राप्त, विभवदृष्टिमें तत्पर है वह भवष्टि से विरुद्ध है। जो श्रमण व ब्राह्मण इन दोनों दृष्टियों के समुदय ( उत्पत्ति ), मम्तगमन, भास्वाद भादि नव ( परिणाम ), निस्सरण ( निकास )को यथार्थतया नहीं जानते वह सराग, सद्वेष, समोह, सतृष्णा, सउपादान, भविद्वान, विरुद्ध, अपचरत है। जो श्रमण इन दोनों दृष्टियोंके समुदय आदिको यथार्थ तया जानते हैं वे वीतराग, वीतद्वेष, वीतमोह, वीततृष्णा, अनुपा पान, विद्वान, अविरुद्ध तथा मप्रपच रत्त हैं व जन्म, जरा, मरणमे छूटे है। ऐसा में कहता है । मिक्षुमो ! चार उपादान हैं-(१) काम (इन्द्रिय भोग ) उपादान, (२) दृष्टि (धारणा ) उपादान, (३) शीलबत उपादान, (१) मारमवाद उपादान। कोई कोई श्रमण ब्राह्मण सर्व उपादानके स्यागका मत रखनेवाले अपनेको कहते हुए भी सारे उपादान त्याग Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन बौद्ध तत्वान। [६९ नहीं करते । या तो केवल काम उपादान त्याग करते हैं या काम और इष्ट उपादान त्याग करते है या काम, दृष्टि और शीलवत उपादान त्याग करते है। किंतु मार्तवाद उपादानको त्याग नहीं करते क्योंकि इस बातको ठीकसे नहीं जानते । भिक्षुओ। ये चारों उपादान तृष्णा निदानवाले हैं, तृष्णा समुदयवाले हैं, तृष्णा जातिवाले हैं और तृष्णा प्रभववाले हैं। तृष्णा वेदना निदानवाली है, वेदना स्पश निदानवाली है, स्पर्श षडायतन निदानवाला है। षडायतन नाम-रूप निदानवाला है। नाम-रूप विज्ञान निदानवाला है। विज्ञान सस्कार निदानवाला है। सस्कार अविज्ञा निदानवाले हैं। भिक्षुओ ! जब भिक्षुकी अविद्या नष्ट होजाती है और विद्या उत्पन्न होजाती है। अविद्याके विरागसे, विद्याकी उत्पत्तिसे न काम उपादान पकड़ा जाता है न दृष्टि उपादान न शीलवत उपादान न भात्मवाद-उपादान पकड़ा जाता है। उपादानोंको न पकड़नेसे भयभीत नहीं होता, भयभीत न होनेपर इसी शरीरसे निर्वाणको प्राप्त होजाता है “जन्म क्षीण होगया, ब्रह्मचर्यवास पूरा होगया, करना था सो कर लिया, और अब यहा कुछ करनेको नहीं है-" यह जान लेता है। नोट-इस सूत्रमें पहले चार बातोको धर्म बताया है (१) शास्ता (देव) में श्रद्धा, (२) धर्ममें श्रद्धा, (३) शीलको पूर्ण पालना, (४) साधर्मीसे प्रीति । फिर यह बताया है कि जिसकी श्रद्धा चारों धर्मोंमें होगी उसकी श्रद्धा ऐसे शास्ता व धर्ममें होगी, जिसमें राग नहीं, द्वेष Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० ] दूसरा भाग । नहीं, मोह नहीं, तृष्णा नहीं, उपादान नहीं हो। । तथा जो विद्वान य ज्ञानपूर्ण दो, जो विरुद्ध न हो व जो प्रपचमें रत न हो । जैन सिद्धातमें भी शास्ता उसे ही माना है जो इस सर्व दोषोंसे रहित हो तथा जो सर्वज्ञ हो । स्वात्मरमी हो तथा धर्म भी वीतराग विज्ञान रूप आप्तरमण रूप माना है । तथा सदाचारको सहाई जान पूर्णपने पालने की आज्ञा है व साधर्मीसे वात्सल्यभाव रखना सिखाया है । समभद्राचार्य रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहते है - मनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । भवितव्य नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ ५ ॥ क्षुत्पिपासाजरातङ्कजन्मान्तक भयस्मया । न रागद्वेषमोहाच यस्याप्त स प्रकीत्यते ॥ ६॥ शास्ता या आप्त वही है जो दोषोंसे रहित हो, सर्वज्ञ हो व आगमका स्वामी हो । इन गुणोंसे रहित आप्त नहीं हो सक्ता । जिसके भीतर १८ दोष नहीं हों वही आप्त है - (१) क्षुषा, (२) त्रषा, (३) जरा, (४) रोग, (५) जन्म, (६) मरण, (७) भय, (८) आश्चर्य, (९) राग, (१०) द्वेष, (११) मोह, (१२) चिंता, (१३) स्वेद, (१४) स्वेद ( पसीना ), (१५) निद्रा, (१६) मद, (१७) रति, (१८) शोक । आत्मस्वरूप ग्रंथमें कहा है रामद्वेषादयो पेन जिता कर्ममहामटा । काचक्रविनिर्मुक्त' स जिन परिकीर्तितः ॥ २१ ॥ hreat बोधेन बुद्धिवान् स जगत्रयम् । मनन्तज्ञानसंकीर्णे त तु बुद्धं नमाम्यहम् ॥ ३९ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [९१ सर्वद्वन्द्वविनिमुक्त स्थानमात्मस्वभावजम् | प्राप्त परमनिर्वाण येनासौ सुगत स्मृत ॥ ४१ ॥ भावार्थ-जिसने कर्मोंमें महान योद्ध' स्वरूप रागद्वेषादिको जीत लिया है व जो जन्म मरणके चक्रमे छूट गया है वह जिन कहलाता है। जिसने केवलज्ञान रूपी बोधसे तीन लोकको जान लिया व जो अनन्त ज्ञानसे पूर्ण है उस बुद्धको में नमन करता हू। जिसने सर्व उपाधियोंसे रहित आत्मीक स्वभावसे उत्पन्न परम निर्वाणको प्राप्त कर लिया है वही सुगत कहा गया है । धर्मध्यानका स्वरूप तत्वानुशासनमे कहा हैसदृष्टिज्ञान्वृत्तानि धर्म धर्मेश्व विदु । तस्माधटनपेत हि धर्थं तद्धयानमभ्यधु ॥५१॥ मात्मन परिणामो यो मोइक्षोभविवर्जित । स च धर्मोपेत यत्तस्मात्तद्धर्म्यमित्यपि ॥ १२ ॥ भावार्थ-सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रको धर्मके ईश्वरोंने धर्म कहा है। ऐसे धर्मका जो ध्यान है सो धर्मध्यान है । निश्चयसे मोह व क्षोभ ( रागद्वेष ) रहित जो आत्माका परिणाम है वही धर्म है, ऐसे धर्मसहित ध्यानको धर्मध्यान कहते है। ___ आत्मा निर्वाण स्वरूप है, मोह रागद्वेष रहित है ऐसा भद्धान सम्यग्दर्शन है व ऐसा ज्ञान सम्यग्ज्ञान है व ऐसा ही ध्यान सम्यक्चारित्र है। तीनोंका एकीकरण आत्माका वीतरागभाव आत्मतल्लीन रूप ही धर्म है। पुरुषार्थसिद्धयुपायमें कहा है बद्धोधमेन नित्यं लब्ध्वा समय च बोधिळामस्य । पदमवकम्ब्य मुनीना कर्तव्य सपदि परिपूर्णम् ॥ २१ ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ] दूसरा भाग । शीतके सम्बध कहते है कि रत्नत्रयके लाभके समयको पाकर उद्यम करके मुनियोंके पदको धारणकर शीघ्र ही चारित्रको पूर्ण पालना चाहिये । इसी ग्रन्थमे माधर्मीजनोंसे प्रेम भावका बताया हैअनवरतमहिसाया शिवसुखद मीनिबन्धने में । सर्वेष्वपि च सधर्मिषु परम वात्सल्यमाठाला म् ॥ २९ ॥ भावार्थ धर्मात्माका कर्तव्य है कि निरंतर मोक्ष सुखकी लक्ष्मी के कारण महाघर्ममें तथा सर्व हो साधर्मीजनों में परम प्रेम रखना चाहिये । मागे चलके इसी सूत्र में कहा है कि दृष्टिया दो हैं- एक ससार दृष्टि, दूसरी अससार दृष्टि । इसीको जैन सिद्धातमें कहा है व्यवहार दृष्टि तथा निश्चय दृष्टि । व्यवहार दृष्टि देखती है कि शुद्ध वस्थाओंकी तरफ लक्ष्य रखती है, निश्चय दृष्टि शुद्ध पदार्थ या निर्वाण स्वरूप आत्मापर दृष्टि रखती है। एक दूसरेसे विशेष है । सलारलीन व्यवहाराक्त होता है । निश्चय दृष्टिसे अज्ञान है, निश्वय दृष्टिवाळा ससारसे उदासीन रहता है। आवश्यक्ता पडने पर व्यवहार करता है परन्तु उसको त्यागनेयोग्य जानता है । इन दोनों दृष्टियों को भी त्यागनेका व उनसे निकलनेका जो संकेत इस सूत्र में किया है वह निर्विकल्प समाधि या स्वानुभवकी अवस्था है । वहा साधक अपने आपमें ऐसा तल्लीन होजाता है कि वहा न व्यवहारनयका विचार है न निश्चयनयका विचार है, यही वास्तवमें निर्वाण मार्ग है । उसी स्थितिमें साधक सच वीतराग, ज्ञानी व विरक्त होता है । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | जैन सिद्धातके वाक्य इस प्रकार हैंपुरुषार्थसिद्धयपायमें कहा हैनिश्वयमिह भूतार्थं व्यवहार वर्णयन्त्यभूतार्थम् । भूतार्थो विमुख प्राय सर्वोऽपि समर ॥ ९ ॥ भावार्थ - निश्चय दृष्टि सत्यार्थ है, व्यवहार दृष्टि अनित्यार्थ है क्योंकि क्षणभगुर ससारकी तरफ है । प्राय संमारके प्राणी सत्य पदार्थ के ज्ञान से बाहर है - निश्वदृष्टिको या परमार्थदृष्टिको नहीं जानते है । [ ९३ समयसार कलश में कहा है 1 एकस्य भावो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्य खलु चिच्चिदेव ॥ ३६-३ ॥ भावार्थ-व्यवहारनय या दृष्टि कहती है कि यह आत्माकमसे बन्Eा हुआ है । निश्चय दृष्टि कहती है कि यह आत्मा कर्मों से बघा हुआ नहीं है । ये दोनों पक्ष भिन्न २ दो दृष्टियोंके है, जो कोई इन दोनों पक्षको छोडर स्वरूप गुप्त होजाता है उसके अनुभवमें चैतन्य चैतन्य स्वरूप ही मासता है । और भी कहा हैय एत्र मुक्तवानयपक्षपात स्वरूपगुप्ता विनसन्ति नित्य ॥ विकल्पजाळच्युतशान्तचित्तास्त एव साक्षादमृत पिन्ति ॥ २४-३॥ 1 भावार्थ- जो कोई इन दोनों दृष्टियों के पक्षको छोड़कर स्वस्वरूपमें गुप्त होकर नित्य ठहरते है, सम्यक् समाधिको प्राप्त कर लेते हैं वे सर्व विकल्प जालोंसे छूटकर शात मन होते हुए साक्षात् आनन्द अमृतका पान करते हैं, उनको निर्वाणका साक्षात्कार होजाता है, वे परम सुखको पाते है। और भी कहा है: Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४] दूसरा भाग। व्यवहार विमूढदृष्टय परमार्थ कलयन्ति नो जना । तुषबोधविमुग्धबुद्धय कलयन्तीह तुष न तन्दुरम् ॥ ४८ ॥ भावार्थ-जो व्यवहारदृष्टिमें मूढ है वे मानव परमार्थ सत्यको नहीं जानते है। जो तुषको चाक्क समझकर इस अज्ञानको मनमे धारते है वे तुषका ही अनुभव करते है, उनको तुष ही चावल भामता है। वे चावलको नहीं पासक्ते। निर्वाणको सत्यार्थ समझना यह भस मार दृष्टि है । समाधिशतकमें पूज्यपादस्वामी कहने हैं देहान्तरगतेबीज देहेऽस्मिन्नात्मभावना । बीज विदेहनिष्पत्तेगत्मन्येवात्मभाषना ॥ ७४ ॥ भावार्थ-इम शरीरमें या शरीर सम्बन्धी सर्व प्रकार मसोंमें आपा मानना वारवार शरीरके पानेका बीज है। किंतु अपने ही निर्वाण स्वरूप में आपेकी भावना करनी शरीरसे मुक्त होन का बीज है। व्यवहारे सुषुप्तो य स जागत्यात्मगोचरे । जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे ॥ ७८ ॥ मात्मानमन्तरे दृष्ट्वा दृष्ट्वा देहादिक महि । तयोरन्तर विज्ञानाद-पासादच्युतो भवेत् ॥ ७९ ॥ भावार्थ-जो व्यवहार दृष्टिमें सोया हुभा है अर्थात् व्यवहारसे उदासीन है वही आत्मा सम्बन्धी निश्चय दृष्टिसे जाग रहा है । जो व्यवहार में जागता है वह आत्माके अनुभव के लिये सोया हुमा है। अपने मात्माको निर्वाण स्वरूप भीतर देखके व देहादिकको बाहर देखके उनके मेदविज्ञानसे आपके अभ्याससे यह भविनाशी मुक्ति या निर्वाणको पाता है। मागे चलके इस सूत्रमें चार उपादानों का वर्णन किया है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ ९५ 1 (१) काम या इन्द्रियभोग उपादान, (२) दृष्टि उपादान, (३) शीलव्रत उपादान, (४) आत्मवाद उपादान ! इनका भाव यही है कि ये सब उपादान या ग्रहण सम्यक् समाधिमें बाधक हैं । काम उपादान में साधक के भीतर किंचित् भी इन्द्रियभोगकी तृष्णा नहीं रहनी चाहिये । दृष्टि उपादान में न तो ससारकी तृष्णा हो न अससारकी तृष्णा हो, समभाव रहना चाहिये । अथवा निश्चय नय तथा व्यवहार नय किसीका भी पक्षबुद्धिमें नहीं रहना चाहिये। तब समाधि जागृत होगी । शीरव्रत उपादानमें यह बुद्धि नहीं रहनी चाहिये कि मैं सदाचारी हू । साधुके व्रत पाळता हू, इससे निर्वाण हो जायगा | यह आचार व्यवहार धर्म है । मन, वचन, कायका वर्तन है । यह निर्वाण मार्गसे भिन्न है । इनकी तरफसे अहकार बुद्धि नहीं रहनी चाहिये । आत्मवाद उपादानमें आत्मा सम्बन्धी विकल्प भी समाधिको बाधक है । यह आत्मा नित्य है या अनित्य है, एक है या अनेक है, शुद्ध है या अशुद्ध है, है या नहीं है । किस गुणवाला है, पर्यायवाका है इत्यादि आत्मा सम्बन्धी विचार समाधिके समय बाधक है । वास्तव में आत्मा वचन गोचर नहीं है, वह तो निर्वाण स्वरूप है, अनुभव गोचर है। इन चार उपादानोंके त्यागसे ही समाधि जागृत होगी। इन चारों उपादानोंके होनेका मूळ कारण सबसे अतिम अविद्या बताया है । और कहा है कि साधक भिक्षुकी अविद्या नष्ट होजाती है, विद्या उत्पन्न होती है अर्थात् निर्वाणका स्वानुभव होता है तब वहा चारों ही उपादान नहीं रहते तब वह निर्वाणका स्वय अनुभव करता है और ऐसा, जानता है कि मै कृतकृत्य हू, ब्रह्मचर्य पूर्ण हू, मेरा ससार क्षीण होगया । 1 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ] दूसरा भोगे । जैन सिद्धात मे स्वानुभवको निर्वाण मार्ग बताया है और वह स्वानुभव तब ही प्राप्त होगा जब सर्व विकल्पोंका या विचारोंका या दृष्टियोंका या कामवासनाओंका या अहकारका व ममकारका त्याग होगा । निर्विकल्प समाधिका लाभ ही यथार्थ मोक्षमार्ग है । जहा साधक के भावोंमें स्वात्मरसवेदनके सिवाय कुछ भी विचार नहीं है, वह आप्तत्वमें निर्वाण स्वरूप अपने आत्माको आपसे ग्रहण कर लेता है तब सब मन, वचन, कायके विकल्प छूट जाते हैं । समयसार कलशम कहा है अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनित विभ्रत् पृथक् वस्तुतामादानोज्झनशून्यमेतदमल ज्ञान तथावस्थितम् । मध्याद्यन्तविभागमुक्त सहजस्फार प्रभाभासुर शुद्धज्ञानघनो यथास्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति ॥४२॥ भावार्थ- ज्ञान ज्ञानस्वरूप होक ठहर गया, और सबसे छूट कर अपने आत्मा में निश्वक होगया, सबसे भिन्न वस्तुपने को प्राप्त हो गया । उसे ग्रहण त्यागका विकल्प नहीं रहा, वह दोष रहित होगया तत्र आदि मध्य अन्त विभागसे रहित सहज स्वभावसे प्रकाशमान होता हुआ शुद्ध ज्ञान समूहरूप महिमाका धारक यह आत्मा नित्य उदय रूप रहता है 1 उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत्तथात्तमा देयमशेषतस्तत् । यदात्मनः सहत सर्वशक्तेः पूर्णस्य सन्धारणमात्मनीह ॥ ४३ ॥ भावार्थ- जब आत्मा अपनी पूर्ण शक्तिको संकोच करके अपने में ही अपनी पूर्णताको धारण करता है तब जो कुछ सर्व छोड़ना था सो Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [९७ छूट गया तथा जो कुछ सर्व ग्रहण करना था सो ग्रहण कर लिया। भावार्थ एक निर्वाणस्वरूप आत्मा रह गया, शेष सर्व उपादान रह गया। समाधिशतकमे पूज्यपादस्वामी कहते है - यत्पर प्रतिपाद्योइ यत्परान प्रतिपादये। उन्मत्तचेष्टित तन्मे यदह निर्विकल्पक ॥ १९॥ भावार्थ-मै तो निर्विकल्प हू, यह सब उन्मत्तपनेकी चष्टा है कि मै दुसरोंसे आत्माको समझ लूँगा या मैं दूसरोंको समझा दूं। येनात्मनाऽनुभूयेऽइमात्मनैवात्मनात्मनि । सोऽह न तन्न सा नासौ नको न द्वौ न वा बहु ॥ २३ ॥ भावार्थ-निस स्वरूपसे मै अपने हो द्वारा अपनमें अपने ही समान अपनेको अनुभव करता हू वही मैं हू । अर्थात् अनुभवगोचर हूं। न यह नपुसक है न स्त्री है, न पुरुष है, न एक है, न दो है, न बहुत है, पर्याप्त सह लिग व सख्याकी कसनासे बाहर है। (१०) मज्झिमनिकाय महादुःखस्कंध सूत्र । गोतमबुद्ध कहते है-भिक्षुओ । क्या है कामों ( भोगों) का भास्वाद, क्या है अदिनव ( उनका दुष्परिणाम), क्या है निस्करण (निकास) इसी तरह क्या है रूपों। तथा वेदनाओंका आस्वाद, परिणाम और निस्सरण । (१) क्या है कामोका दुष्परिणाम-यहा कुल पुत्र जिस किसी शिल्पसे चाहे मुद्रासे या गणनासे या सख्यानसे या कृषिसे या वाणिज्यसे, गोपालनसे या बाण-अस्त्रसे या राजाकी नौहरीसे या Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८] दसरा माग। किसी शिल्पसे शीत उष्ण पीडित, डंस, मच्छर, धूप हवा आदिसे उत्पीड़ित, भूख प्याससे मरता आजीविका करता है। इमी जन्ममें कामके हेतु यह लोक दु खोंका पुज है । उस कुल पुत्रको यदि इस प्रकार उद्योग करते, मेहनत करते वे भोग उत्पन्न नहीं होते (जिनको वह चाहता है) तो वह शोक करता है दुखी होता है, चिलाता है, छाती पीटकर रुदन करता है, मूर्छित होता है । हाय । मेरा प्रयत्न व्यर्थ हुमा, मेरी मिहनत निष्फल हुई, यह भी कायका दुष्परिणाम है । यदि उस कुलपुत्रको इसप्रकार उद्योग करते हुए भोग उत्पन्न होते हैं तो वह उन भोगोंकी रक्षाके लिये दु ख दौर्मनस्य झेलता है। कहीं मेरे भोग राजा न हरले, चोर न हर लेजावे, आग न दाहे, पानी न बहा लेजावे, अप्रिय दायार न हर लेजावे । इस प्रकार रक्षा करते हुए यदि उन मोगोंको राजा भादि हर लेते हैं या किसी तरह नाश होजाता है तो वह शोक करता है। जो भी मेरा था वह भी मेरा नहीं रहा। यह भी कामोका दुष्परिणाम है। कामोंके हेतु राजा भी राजाओंसे लड़ते हैं, क्षत्रिय, ब्राह्मण, गृहपति वैश्य भी परस्पर झगड़ने हैं, माता पुत्र, पिता पुत्र, माई भाई, भाई बहिन, मित्र मित्र, परस्पर झगड़ते है । कलह विवाद करते, एक दुसरेपर हाथोंसे भी आक्रमण करते, डडोंसे व शस्त्रोंसे भी भाक्रमण करते हैं। कोई वहा मृत्युको प्राप्त होते हैं, मृत्यु समान दुखको सहते हैं। यह भी कामोका दुष्परिणाम है। कामोंके हेतु ढाल तलवार लेकर, तीर धनुष चढ़ाकर, दोनों तरफ व्यूह रचकर संग्राम करते हैं, मनेक मरण करते हैं। यह भी कामोंका दुष्परिणाम है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। ___ कामोंके हेतु चोर चोरी करते हैं, सेंध लगाते है, गाव उजाड डालते है, लोग परस्त्रीगमन भी करते है तब उन्हें राजा लोग पकडकर नानाप्रकार दड देते है । यहातक कि तलवारसे सिर कटवाते है। वे यहा मरणको प्राप्त होते है। मरण समान दु ख नहीं। यह भी कामोका दुष्परिणाम है। कामोंके हेतु-काय, वचन, मनसे दुश्चरित करते है। वे मरकर दुर्गतिमे, नरकमें उत्पन्न होते हैं । भिक्षुओ-जन्मान्तरमें कामोंका दुष्परिणाम दु वपुंज है। (२) क्या है कामोका निस्सरण (निकास ) भिक्षुभो । कामोंसे रागका परित्याग करना कामोंका निस्सरण है। भिक्षुओ ! जो कोई श्रमण या ब्राह्मण कामोंके आस्वाद, कामोंके दुष्परिणाम तथा निस्मरणको यथाभूत नहीं जानते वे स्वय कामोंको छोड़ेंगे व दूसरोको वैसी शिक्षा देगे यह सभव नहीं । (३) क्या है भिक्षुओ! रूपका आम्वाद ? जैस कोई क्षत्रिय, ब्राह्मण, या वैश्य कन्या १५ या १६ वर्षकी, न लम्बी न ठिगनी, न मोटी न पतली, न काली परम सुन्दर हो वह अपनेको रूपवान भनुभव करती है। इसी तरह जो किसी शुभ शरीरको देखकर सुख या सोमनस्स उत्पन्न होता है यह है रूपका आस्वाद । (४) क्या है रूपका आदिनव या दुष्परिणाम-दुसरे समय उस रूपवान बहनको देखा जावे जब वह अस्सी या नव्वे वर्षकी हो, या १०० वर्षकी हो तो वह अति जीर्ण दिखाई देगी, लकड़ी लेकर चलती दिखेगी । यौवन चला गया है, दात गिर गए हैं, बाल Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.] दूसरा भागः। सफेद होगए है। यही रूपका आदिनव है। जो पहले मुद्रर थी सो अब ऐसी होगई है। फिर उसो भगिनी को देखा जावे कि यह रोगस पीड़ित है, दु स्थित है, मल मुत्रले लिपी हुई है, दूमरों द्वार उठाई जाती है, सुलाई जाती है । यह वही है जो पहले शुम था यह है रूपका आदिना । फिा -सी भगिनीको मृतक देखा जाद जो एक या दो या तीन दिनका पड़ा हुआ है। वह का; गृद्ध, कुत्ते, शृगाल मादि प्राणियोंसे खाया जारहा है । हड्डी, माम, नसे मादि अगर है । सर जग है, घड अलग है । इत्यानि दुर्दशा यह सब रूपका लादिनव या दुष्परिणाम है। (५) क्या रूपका निस्तारन -सर्व प्रकार के रूपोंसे रागका परित्याग यह है रूपका निस्मरण । जो कोई श्रमण या ब्राह्मण इतरह स्पका आस्वाद नहीं करता है, दुष्परिणाम तथा निस्सरण पर्याय रूपसे जानना है वह अपने भी रूपको वैसा जानेगा, पर के रूपको भी वैसा जानेगा। (६) क्या है वेदनाओका आस्वाद यहा भिक्षु कामोंस विरहित, नुरी बातोंमे विरहित सवितर्क सविचार विधेकसे उत्पन्न प्रीति और सुखवाले प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगता है। उस समय वह न अपनेको पीड़ित करने का ख्याल रखता है न दुसरेको न दोनोंको, वह पीड़ा पहुचानेसे रहित वेदनाको अनुभव करता है । फिर वही भिक्षु वितर्क और विचार शात होनेपर भीतरी शाति और चित्तकी एकाग्रतावाले वितर्क विचार रहित प्रीति सुख वाले द्वितीय ध्यानको प्राप्त हो विहरता है। फिर तीसरे फिर चौथे Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमघौद्ध तत्त्वज्ञान । [१०१ ध्यानको प्राप्त हो विहरता है । तब भिक्षु सुख और दुखका त्यागी होता है, उपेक्षा व स्फूर्तिसे शुद्ध होता है। उस समय वह न अपनेको न दुसरेको न दोनोंको पीडित करता है, उस समय वेदनाको वेदता है। यह है मव्याबाध वेदना आस्वाद । (७) क्या है वेदनाका दुष्परिणाम-वेदना अनित्य, दुख और विकार स्वभाववाली है। (८) क्या है वेदनाका निस्सरण-वेदनाओंसे रागका हटाना, गगका परित्याग, इसतरह जो कोई वेदनाओंका आस्वाद नहीं करता है, उनके आदिनव व निस्सरणको यथार्थ जानता है, वह स्वयं वेदनाओंको त्यागेंगे व दुसरेको भी वैसा उपदेश करेंगे यह सभव है। नोट-इस वैराग्य पूर्ण सूत्रमें कामभोग, रूप तथा वेदनाओंमे वैराग्य बताया है तथा यह दिखलाया है कि जिस भिक्षुको इन तीनोंका गग नहीं है वही निर्वाणको अनुभव कर सकता है। बहुत उच्च विचार है। (९) काम विचार-काम भोगोंके आस्वादका तो सर्वको पता है इसलिये उनका वर्णन करनेकी जरूरत न समझकर काम भोगोंकी तृष्णासे व इन्द्रियोंकी इच्छासे प्रेरित होकर मानव क्या क्या खटपट करते है व किस तरह निराश होते है व तृष्णाको बढ़ाते है या हिंसा, चोरी आदि पाप करते हैं, राज्यदड भोगते है, फिर दु खसे मरते हैं, नर्कादि दुर्गतिमें जाते हैं, यह बात साफ साफ बताई है। जिमका भाव यही है कि प्राणी असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, सेवा इन छ माजीविकाका उद्यम करता है, वहा उसके तृष्णा अधिक Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] दूसरा भाषा होती है कि इच्छित धन मिले। यदि सतोषपूर्वक करे तो सताप कम हो। असतोषपूर्वक करनेसे बहुत परिश्रम करता है। यदि सफल नहीं होता है तो महान शोक करता है। यदि सफल होगया, इच्छिन धन प्राप्त कर लिया तो उस धनकी रक्षाकी चिन्ता करके दुखित होता है । यदि कदाचित् किसी तरह जीवित रहते नाश होगया तो महान दुख भोगता है या आप शीघ्र मर गया तो मैं धनको भोग न सका ऐसा मानकर दुख करता है । मोग सामग्रीके लामके हेतु कुटुम्बी जीव परस्पर लड़ते है, राजालोग लड़ते है, युद्ध होजाने है, भनेक मरते हैं, महान् कष्ट उठाते है। उन्हीं भोगोंकी लालसासे धन एकत्र करनेके हेतु लोग झूठ बोलते, चोरी करते, डाका डालत परस्त्री हरण करते है । जब वे पकड़े जाते है, राजाओं द्वारा भारी दंड पाते हैं, सिर तक छेदा जाता है, दु स्वसे मरते हैं। इन्हीं काम भोगकी तृष्णावश मन वचन कायके सर्व ही अशुभ योग कहाते है जिनसे पापकर्मका वध होता है और जीव दुर्गतिमें जाकर दुख भोगते हैं । जो कोई काम भोगकी तृष्णाको त्याग देता है वह इन सब इस लोक सम्बन्धी तथा परलोक सम्बन्धी दुस्खोंसे छुट जाता है। वह यदि गृहस्थ हो तो सतोषसे मावश्यक्तानुसार कमाता है, कम खर्च करता है, न्यायसे व्यवहार करता है। यदि धन नष्ट होजाता है तो शोक महीं करता है। न तो वह राज्यदंड भोगता है न मरकर दुर्गतिमें जाता है। क्योंकि वह भोगोंकी तृष्णासे ग्रसित नहीं है। न्यायवान धर्मात्मा है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व मुर्छासे रहित है। साधु तो पूर्ण विरक्त होते हैं। वे पाचों इन्द्रियोंकी इच्छाओंसे बिलकुल विरक्त होते हैं । निर्वा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१०३ णके अमृतमई रसके ही प्रेमी होते है । ऐसे ज्ञानी कामरागसे छूट जाने है। जैन सिद्धातमें इन काम भोगोंकी तृष्णासे बुराईका व इनके त्यागका बहुत उपदेश है । कुछ प्रमाण नीचे दिया जाते है सार समुच्चयमे कुलभद्राचार्य कहते हेवर हालाहल भुक्त विष तद्भवनाशनम् । न तु भोगविष भुक्तमनन्तभवदु खदम् ॥ ७६॥ भावार्थ-हालाहल विष का पीना अच्छा है, क्योंकि उसी जन्मका नाश होगा, परन्तु भोगरूपी विषका भोगना अच्छा नहीं, जिन भोगोंकी तृष्णासे यहा भी बहुत दु स्व सहने पड़ते है और पाप बाधकर परलोकमें भी दु ख भोगने पडते है । अग्निना तु प्रदग्धाना शमोस्तोति यतोऽत्र वै । स्मरवन्हिप्रदग्धाना शमो नास्ति भवेष्वपि ॥ ९२ ॥ भावार्थ-अग्निसे जलनेवालोंकी शाति तो यहा जलादिसे हो जाती है परन्तु कामकी मग्निसे जो जलते है उनकी शाति भव भवमें नहीं होती है। दु खानामाकरो यस्तु ससारस्य च वर्धनम् । स एव मदना नाम नराणा स्मृतिसूदन ॥९६ ॥ भावार्थ:-जो कई दु खोंकी खान है, जो संसार भ्रमणको बढ़ानेवाला है, वह कामदेव है। यह मानवोंकी स्मृतियोंको भी नाश करनेवाला है। चित्तसदूषण कामस्तथा सद्गतिनाशन । महत्तध्वसनधासौ कामोऽयंपाम्परा ॥ १.३॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ mana दूसरा भाग। भावार्थ-कामभाव चित्तको मलीन करनेवाला है। सदाचाका नाश करनेवाला है । शुभ गतिको बिगाड़नेवाला है । काम भाव अनर्थों की सततिको चलानवाला है। भवभवमें दुम्वदाई है। दोषाणामाकर कामो गुणाना च विनाशकृत् । पापस्य च निजो मन्धु परापदा चव सगम ॥ १०४ ॥ भावार्थ-यह काम दोषोंकी खान है, गुणोंको नाश करनेवाला है, पापोंका अपना बन्धु है, बडी२ आपत्तियोंका सगम मिलानेवाला है। कामी त्यजति सवृत्त गुरोधर्णीि हिय तथा । गुणाना समुदाय च चेत स्वास्थ्य तथव च ।। १०७ ॥ तस्मात्काम सदा हेयो मोक्षसोख्य जिवक्षुभि । ससार च परित्यक्तु वा नियतिसत्तमे ॥ १०८ ॥ भावाथ-कामभावसे गृमित प्राणी सदाचारको, गुरुकी वाणाको, लज्जाको, गुणों के समूहको तथा मनकी निश्चलनाको खो देता है। इसलिये जो साधु सपारके त्यागकी इच्छा रखते हों तथा मोश्यके सुखके ग्रहणकी भावनासे उत्साहित हों उनको कामका भाव सदा ही छोड देना चाहिये। इष्टोपदेशमें श्री पूज्यपादस्वामी कहते हैंभारम्भे ताप्कान्प्राप्ताव तृप्तिप्रतिपादकान् । मंते सुदुस्त्यजान् कामान् काम क सेवते सुध' ॥ १७ ॥ भावार्थ-मोगोंकी प्राप्ति करते हुए खेती भादि परिश्रम उठाते हुए बहुत क्लेश होता है, बड़ी कठिनतासे भोग मिलने हैं, भोगते हुए तृप्ति नहीं होती है। जैसे २ भोग भोगे जाते हैं तृष्णाको नाम बढ़ती जाती है। फिर प्राप्त भोगोंको छोडना वहीं चाहता है। हटते Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१०५ हुए मनको बडी पीडा होती है। ऐसे भोगोंको कोई बुद्धिमान मेवन नहीं करता है । यदि गृहस्थ ज्ञानी हुआ तो मावश्यक्तानुसार अल्प भोग मतोषपूर्वक करता है-उनकी तृष्णा नहीं रखता है। आत्मानुशासनम गुणभद्राचार्य कहते हैकृपयाप्त्वा नृपतीनिषेव्य बहुशो भ्रान्त्वा बनेऽम्मोनिधौ । कि क्लिश्नासि सुखार्थमत्र सुचिर हा कष्टमज्ञानन ॥ तैल त्व सिकता स्वय मृगयसे वाञ्छेद् विषाज्जीवितु । नन्याशाग्रह निग्रहात्तक सुख न ज्ञातमत्त्वया ॥ ४२ ॥ भावाथ-खेती करके व कराके बीज बुवाफर, नाना प्रकार राजाओंकी सेवा कर, वनमें या समुद्रमें धनार्थ भ्रमणकर तूने सुखके लिये अज्ञानवश दीर्घकालसे क्यो कष्ट उठाया है। हा । नेग कष्ट वृथा है। तू या तो वालू पेलकर तेल निकालना चाहता है या विष खाकर जीना चाहता है। इन भोगोंकी तृष्णामे तुझे सच्चा सुख नहीं मिलेगा। क्या तृने यह बात अब तक नहीं जानी है कि तुझे सुख तब ही प्राप्त होगा जब तू माशारूपी पिशाचको वशमें कर लेगा? दुसरी बात इस सूत्रमें रूपके नाशकी कही है। वास्तवमें यह यौवन क्षणभगुर है, शरीरका स्वभाव गलनशील है, जीर्ण होकर कुरूप होजाता है, भीतर महा दुर्गंधमय अशुचि है। रूपको देखकर राग करना भारी अविद्या है। ज्ञानी इसके स्वरूपको विचार कर इसे पुद्गलपिंड समझकर मोहसे बचे रहते हैं। आठवें स्मृति प्रस्थान सूत्रमें इसका वर्णन हो चुका है। तो भी जैन सिद्धातके » कुछ बाक्य दिये जाते हैं... Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] दूसरा भाग । श्री चन्द्रकृत वैराग्य मणिमाला में है। माकुरु यौवननगृहगर्व तब कालस्तु हरिष्यति सबै । इदमिदमफल हित्वा मोक्षपद च गवेषय मत्त्वा ॥ १८॥ नीलोत्पलदलगतजळचपल इदजालविद्युत्समतरळ । कि न वेत्सि ससारमसार भ्रात्य जानासि त्व सार ||१९|| भावाथ - यह युवानीका रूप, वन, घर आदि इन्द्रजालक समान चचल हैं व फल रहित है, ऐसा जानकर इनका गर्व न कर । जब मरण आयगा तब छूट जायगा ऐसा जानकर तू निर्वाणकी खोज कर । यह ससारके पदार्थ नीलकमल पत्तेपर पानीकी बुन्दक समान या इन्द्रधनुष के समान या विजलाके समान चचल हैं। इनको तू असार क्यों नहीं देखता है। भ्रमसे तु इनको सार जान रहा है। मूलाचार भनगार भावना में कहा है— भट्टिणिण णालिणिवद्ध कलिमकभरिद किमिउठपुण्ण । मसविलित्त तयपडिछण्ण सरीरघर त सददमचोक्ख || ८३ ॥ एदार सरीरे दुग्गधे कुणिमपूदियमचोक्खे | सढणपढणे सारे राग ण करिंति सप्पुरिसा ॥ ८४ ॥ भावार्थ - यह शरीररूपी घर हड्डियोंसे बना है, नसोंसे बबा है, मक मूत्रादिसे भरा है, कीड़ोंसे पूर्ण है, माससे मरा है, चमड्रेस ढका है, यह तो सदा ही अपवित्र है। ऐसे दुर्गंधित, पीपादिसे भरे अपवित्र सडने पढने वाले, सार रहित, इस शरीर से सत्पुरुष राम नहीं करते हैं। तीसरी बात वेदनाके सम्बन्धमें कही है। कामभोग सम्बन्धी सुख दु:ख वेदनाका कथन साधारण जानकर जो ध्यान करते हुए Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१०७ भा सात की वेदना झलकती है उसको यहा वेदनाका आस्वाद कहा है। वह वेदना भी अनित्य है। आरमानन्दसे विलक्षण है। अतएव दु वा है। विकार स्वभावरूप है। इसमे अतीन्द्रिय सुख नहीं है। इस प्रकार सर्व तरहकी वेदनाका राग त्यागना आवश्यक है। जैन सिद्धातमें जहा सूक्ष्म वर्णन किया है वहा चेतना या वेदनाके तीन भद विय है। (१) कर्मफल चेतना-कर्मो का फल सुख अथवा दु ख भागन हुए यह भाव होना कि मै सुखी हू या दुखी हू। (२) कर्म चेतना-राग या द्वेषपूर्वक कोई शुभ या अशुभ काम करते हुए यह वेदना कि मै अमुक काम कर रहा हू (३) ज्ञानचेतना-ज्ञ न स्वरूपकी ही वेदना या ज्ञानका आनद लेना । इनमें पहला दोको अज्ञान चेतना कहकर त्यागने योग्य कहा है । ज्ञानचतना शुद्ध है व ग्रहणयोग्य है। श्री पचास्तिकायमे कुंदकुदाचार्य कहते हैकम्माण फलमेका एको कज्ज तु णाण मधएको । चेदयदि जीवरासी चेदनाभावेण तिविहेण ॥ ३८ ॥ भावार्थ -कोई जीवराशिको कर्मों के सुख दुख फलको वेदे है, कोई जीवराशि कुछ उद्यम लिये सुख दुखरूप कर्मोके भोगनेके निमिस इष्ट अनिष्ट विकल्परूप कार्यको विशेषताके साथ वेदे हैं और एक जीयराशि शुद्ध ज्ञान हीको विशेषतासे वेदे है। इस तरह चेतना तीन प्रकार है। ये वेदनायें मुख्यतासे कौन२ वेदते है ?-- सम्वे खलु कम्मफल थावरकाया तसा हि कज्ज जुद । पाणिचमदिक्कता णाण विदति ते जीवा ॥ ३९॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] दूसरा भाग ! भावार्थ-निश्चयसे सर्व की म्या वर मायिक जीव-पृ.वी, जल, स्वग्नि, वायु तथा वनस्पति कायिक जी सुम्च्यतामे कर्मफल चाना रखते है अर्थात् क्मो का फल उप तथा र ख वेदने हे । द्वेन्द्रियादि सर्व त्रसजीव कर्मफल चेतना सहित कम चेतनाको भी मुर यतासे वेदते हैं तथा अतीन्द्रिय ज्ञानी मईत् आदि शुद्ध ज्ञान चेतनाको ही वेदते है। समयसार कलशमें कहा है ज्ञानम्य सचेतनयय नित्य प्रकाशते ज्ञानमतीय शुद्ध। मज्ञानसचेतनया तु धाम्न बोमस्य शुद्धि निरुणद्धि बन्ध ॥३१॥ भावार्थ-ज्ञान के अनुभवम ही ज्ञान निरन्तर अत्यात शुद्ध झलकता है। अज्ञानके अनुभवसे वध द्रौडकर आता है और ज्ञानकी शुद्धिको रोकता है । भावार्थ-शुद्न ज्ञानका बेदन ही हितकारा है। (११) मज्झिमनिकाय चूल दुःख स्वध सूत्र। एक दफे एक महानाम शाक्य गौतम बुद्ध के पास गया और कहने लगा-बहुत समयसे मैं भगवानके उपदिष्ट धर्मको इस प्रकार जानता हू । लोभ चित्तका उपक्लेश (मक ) है, द्वेष चित्तका उपक्लेश है, मोह चित्तका उपक्लेश है, तो भी एक ममय लोमवाले धर्म मेरे चित्तको चिपट रहते है तब मुझे ऐसा होता है कि कौनसा धर्म ( वात ) मेरे भीतर (अध्यात्म ) से नहीं छूटा है। बुद कहते हैं-वही धर्म तरे भीतरसे नहीं हटा जिससे एक समय लोभधर्म तेरे चित्तको चिपट रहते हैं। हे महानाम ! यदि वह धर्म भीतरसे छूटा हुआ होता तौ तु परमें वास न करता, कामोप Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१०९ भाग न करता। चू कि वह धर्म तेरे भीतरसे नहीं छूटा इसलिये तु गृहम्य है, कामोपभोग करता है। ये कामभोग अप्रसन्न करनेवाले, बहुत दु ख देनेवाले, बहुत उवायास ( कष्ट ) देनेवाले है। इनमे आदिनव ( दुष्परिणाम ) बहुत है। जब क्षार्य श्रावक यथार्थत अच्छी तरह जानकर इसे देग्व लेता है, तो वह कामोंसे अलग अकुशल धर्मोसे पृथक हो, प्रीतिसुष्व या उनसे भी शाततर सुख पाता है। तब वह कामोंकी ओर न फिानेवाला होता है। मुझे भी सम्बोधि प्राप्ति के पूर्व ये काम होते थे। इनमे दुष्परिणाम बहुत है ऐसा जानते हुए भी मै कामोंसे अलग शातता सुख नहीं पासका । जब मैंने उससे भी शाततर सुख पाया तब मैने भरनेको कामोंकी ओर न फिरनेवाला जाना। क्या है कामोका आस्वाद -य पाच काम गुण है (१) इष्टमनोज्ञ चक्षुमे जाननेयोग्य रूप, (२) इष्ट--मनोज्ञ श्रोत्रसे जाननेयोग्य शब्द, (३) इष्ट-मनोज्ञ घ्राणविज्ञेय गध, (४) इष्ट-मनोज्ञ जिह्वा विज्ञेय रस, (५) इष्ट-मनोज्ञ कायविज्ञेय स्मशे । इन पाच काम गुणोक कारण जो सुस्व या सौमनस्य उत्पन्न होता है यही कामों का आस्वाद है। ___ कामोंका आदिनव इसके पहले अव्यायमें कहा जाचुका है। इस सूत्रमें निग्रंथ ( जैन ) साधुओसे गौतमका वार्तालाप दिया है उसको अनावश्यक समझकर यहा न देकर उसका सार यह है। परस्पर यह प्रश्न हुआ कि राजा श्रेणिक बिम्बसार अधिक सुख विहारी है या गौतम तब यह वार्तालापका सार हुआ कि राजा मगध श्रेणिक बिम्बसारसे गौतम ही मधिक सुख विहारी है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] दूसरा भाग। नोट-इस सूत्रका सार यह है कि राग द्वेष मोह ही दु ग्वके कारण है। उनकी उत्पत्तिके हेतु पाच इन्द्रियों के विषयोंकी लालसा है। इन्द्रिय भोग योग्य पदार्थों का सग्रह अर्थात् परिग्रहका सम्बन्ध जहातक है वहातक राग द्वेष मोहका दूर होना कठिन है। परिग्रह ही सर्व सासारिक कष्टोंकी भूमि है। जैन सिद्धातमें बनाया है कि पहले तो सम्यग्दृष्टी होकर यह बात अच्छी तरह जान लेनी चाहिये कि विषयभोगोंसे सच्चा सुख नहीं प्राप्त होता है-मुखमा दिखता है परन्तु सुख नहीं है । अतीन्द्रिय सुख जो अपना स्वभाव है वही सच्चा सुख है। करोड़ों जन्मोंमे इस जीवने पाच इन्द्रियोंके सुख भोगे है परन्तु यह कभी तृप्त नहीं होसका। ऐसी श्रद्धा होजाने पर फिर यह सम्यग्दृष्टी उमी समय तक गृहस्थमें रहता है जबतक भीतरसे पूरा वैराग्य नहीं हुमा । घरमें रहता हुआ भी वह अति लोभसे विरक्त होकर न्यायपूर्वक व सतोषपूर्वक आवश्यक इन्द्रिय भोग करता है तब वह अपनेको उस अवस्थासे बहुत अधिक सुख शातिका भोगनेवाला पाता है। जब वह मिथ्यादृष्टी था तो भी गृहवासकी आकुलतासे वह बच नहीं सक्ता । उसकी निरन्तर भावना यही रहती है कि कब पूर्ण वैराग्य हो कि कब गृहवास छोड़कर साधु हो परम सुख शातिका स्वाद लू । जब समय बाजाता है तब वह परिग्रह त्यागकर साधु होजाता है । जैनोंमें वर्तमान युगके चौवीस महापुरुष तीर्थकर होगए हैं, जो एक दुसरेके बहुत पीछे हुए। ये सब राज्यवशी क्षत्रिय थे, जन्मसे आत्मज्ञानी थे। इनमें से बार हवें वासपूज्य, उन्नीसवें मल्लि, बाईसवें नेमि, तेईसवें पार्श्वनाथ, Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ १११ चौवीसर्वे महावीर या निग्रन्थनाथपुत्रने कुमारवयमें - राज्य किये विना ही गृहवास छोड दीक्षा ली व साधु हो आत्मध्यान करके मुक्ति प्राप्त की । शेष - १ ऋषभ, २ अजित, ३ सभव, ४ अभिनंदन, ५ सुमति, ६ पद्मप्रभ, ७ सुपार्श्व ८ चद्रप्रभु, ९ पुष्पदंत, १० सीतल, ११ श्रेयाश, १३ विमल, १४ अनत, १५ धर्म, १६ शांति, १७ कुथु, १८ अरह, २० मुनिसुव्रत, २१ नमि इस तरह १० तीर्थंकरोंने दीर्घकालतक राज्य किया, गृहस्थके योग्य कामभोग भोगे, पश्चात् अधिक वय होनेपर गृहत्याग निर्ग्रथ होकर आत्मध्यान करके परम सुख पाया व निर्वाण पद प्राप्त कर लिया । इसलिये परिग्रहके त्याग करने से ही लालसा छूटती है । पर वस्तुका सम्बन्ध लोभका कारण होता है । यदि १०) भी पास है तो उनकी रक्षाका लोम है, न खर्च होने का लोभ है । यदि गिर जाय तो शोक होता है । जहा किसी वस्तुकी चाह नहीं, तृष्णा नहीं, राग नहीं वहा ही सच्चा सुख भीतर से झलक जाता है। इसलिये इस सूत्रका तात्पर्य यह है कि इन्द्रिय भोग त्यागने योग्य हैं, दु खके मूल हैं, ऐसी श्रद्धा रखके घरमे वैराग्य युक्त रहो । जब प्रत्याख्यानावरण कषाय ( जो मुनिके सयमको रोकती है) का उपशम होजावे तब गृहत्याग साधुके अध्यात्मीक शाति और सुखमें विहार करना चाहिये । तत्वाथ सूत्र ७ में अध्यायमे कहा है कि परिग्रह त्यागके लिये पाच भावनाए भानी चाहिये - मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रयविषयरागद्वेषर्वज्जनानि पञ्च ॥ ८ ॥ भावार्थ - इष्ट तथा अनिष्ट पाच इन्द्रियों के विषयोंमें या पदार्थोंमें रागद्वेष नहीं रखना, मावश्यक्तानुसार समभाव से भोजनपान कर लेना । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] दूसरा भाग। "परिग्रहः ॥ १७ ॥ पर पदार्थोंमें ममत्व भाव ही परिग्रह है। बाहरी पदार्थ ममत्व भाव के कारण है इसलिये गृहस्थी प्रमाण करता है, साधु त्याग करता है । वे दश प्रकारके हे।"क्षेत्रवास्तु हिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्पप्रमाणातिकमा "॥२९॥ (१) क्षेत्र (भमि), (२) वास्तु (मकान), (३) हिरण्य (चादी), (४) सुवर्ण (सोना जवाहरात), ५ धन (गो, भेंस, घोड़े, हाथी), ६ धान्य (अनाज), ७ दासी, ८ दास, ९ कुप्य (कपड़े), १० भाड (वर्तन) "अगार्यनगारश्च" । १९ । व्रती दो तरहके है-गृहस्थी (सागार) व गृहत्यागी ( अनगार )। " हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥१॥ " देशसर्वतोऽणुमहती" ॥२॥ "अणुव्रतोऽगारी ॥ २० ॥ भावार्थ-हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील (भब्रह्म, तथा परिग्रह, इनसे विरक्त होना व्रत है । इन पापोको एकदेश शक्ति के अनुसार त्यागनेवाला अणुव्रती है। इनको सर्वदेश पूर्ण त्यागनेवाला महाव्रती है । अणुव्रती सागार है, महाव्रती अनगार है । अतएव अणुव्रती अल्प सुखशातिका भोगी है, महाव्रती महान सुखशातिका भोगी है। श्री समतभद्राच र्य रत्नकरण्डश्रावकाचारमे कहते हैमोहति मापहरणे दर्शनळाभादवाप्तसज्ञान । रागद्वेषनिवृत्त्यै चरण प्रतिपद्यते साधु ॥ ४७ ॥ भावार्थ-मिथ्यात्वके अधकारके दूर हो जानेपर जब सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्ज्ञानका लाभ होजावे तब साधु राग द्वेषके हटाने के लिये चारित्रको पालते हैं। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ १२३ रागद्वेषनिवृत्ते हिंसादिनिवर्तना कृता भवति । अनपेक्षितार्थवृत्ति व पुरुष सेवते नृपतीन् ॥ ४८ ॥ भावार्थ - राग द्वेष के छूटने से हिंसादि पाप छूट जाते है । जैसे जिसको धन प्राप्तिकी इच्छा नहीं है वह कौन पुरुष है जो राजाखोकी सेवा करेगा । हिसानृतौयेभ्यो मैथुनसेवापरिग्रहाभ्या च । असत्य, पापप्रणालिकाम्यो विरति सज्ञस्य चारित्रम् ॥ ४९ ॥ भावार्थ- पाप कर्मको लानेवाली मोरी पाच है - हिसा, चोरी, मैथुनसेवा तथा परिग्रह । इमसे विरक्त होना हो सम्यग्ज्ञानीका चारित्र है । सकल विकल चरण तत्सकल सर्वसङ्गविरतानाम् । अनगाराणा विकल सागाराणा ससङ्गानाम् ॥ ५० ॥ भावार्थ:- चारित्र दो तरह का है - पूर्ण (सकल) अपूर्ण (विकल) जो सर्व परिग्रह के त्यागी गृहरहित साधु है वे पूर्ण चारित्र पालते है । जो गृहस्थ परिग्रह सहित है वे अपूर्ण चारित्र पालते है । कषायैरिन्द्रियैर्दुष्टकुळी क्रियते मना । तत वर्तुं न शक्नोति भावना गृहमेधिनी ॥ भावार्थ - गृहस्थीका मन क्रोधादि कषाय तथा दुष्ट पाचों इन्द्रियोंकी इच्छाए इनमे व्याकुल रहता है। इससे गृहस्थी आत्माकी भावना (भले प्रकार पूर्ण रूप से ) नींवर सक्ता है । श्री कुदकुदाचार्य प्रवचन नरमे कहते हैं जेसि विसयेसु रदी ते सिं दुख विषाण स्वभाव | जदि तण हि सम्भाव वावारोणत्थि विसयत्थ ॥ ६४-१ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] दूसरा भाग। भावार्थ-जिनकी इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रीति है उनको स्वाभाविक दुख ज नो । जो पीड़ा या आकुलता न हो तो विषयों के भोगका व्यापार नहीं होसक्ता । ते पुण उदिण्णतण्हा दुहिदा तण्हाहिं विसयसौख्याणि । इच्छति अणुइवति य आमरण दुक्खमतत्ता ॥ ७९ ॥ भावार्थ-ससारी प्राणी तृष्णाके वशीभूत होकर तृष्णाकी दाहसे दुखी हो इन्द्रियों के विषयसुखोंकी इच्छा करते रहते है और दुखोंसे सतापित होते हुए मरण पर्यंत भोगते रहते है ( परन्तु तृप्ति नहीं पाते )। स्वामी मोक्षपाहुडमे कहते हैताम ण णज्ज, अप्पा विसरसु णरो पवट्टर जाम । विसए वित्तचित्तो जोई जाणेइ अाण ॥ ६६ ॥ जे पुण विमय विग्त्ता अप्पाणाऊण भाषणासहिया । छडति चाउरम तवगुणजुत्ता ण सदेहो ॥ ६८ ॥ भावार्थ-जबतक यह नर इन्द्रयोंके विषयोंमें प्रवृत्ति करता है तबतक यह आत्माको नहीं जानता है । जो योगी विषयोंसे विरक्त है वही आत्माको यथार्थ जानता है। जो कोई विषयोंसे विरक्त होकर उत्तम भावना के साथ आत्माको जानते है तथा साधुके तप व मूलगुण पालने है वे अवश्य चार गति रूप ससारमें छूट जाते हैं इसमें सदेह नहीं। श्री शिवकोटि आचार्य भगवतीआराधनामें कहते हैंअप्यायत्ता मकिपदी भोगरमण परायत्त । भोगरदीए, चहदो, होदि ण अझप्परमणेपण ॥ १२७० ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ ११५ भोगरदीए णासो नियदो विग्वा य होंति अदिवडुगा | झपरदीए सुभाविदाए ण णासो ण विग्धो वा ॥ १२७१ ॥ णचा दुरतमध्व मत्ताणमतप्पय अविस्साम । भोगसुह तो तला विरदो मोक्खे मदि कुज्जा ॥ १२८३॥ भावार्थ - अध्यात्म में रति स्वाधीन है, भोगोंमें रति पराधीन है। भोगे तो छूटना पड़ता है, अध्यात्म रतिमे स्थिर रह सक्ता है । भोगोंका सुख नाश सहित है व अनेक विनोंसे भरा हुआ है । परन्तु भलेप्रकार भाया हुआ आत्मसुख नाश और विघ्नसे रहित है । इन इन्द्रियोंके भोगोंको दुखरूपी फल देनेवाले, अथिर, अशरण, तृप्ति कर्ता तथा विश्राम रहित जानकर इनसे विरक्त हो, मोक्षके लिये भक्ति करनी चाहिये । (१२) मज्झिमनिकाय अनुमानसूत्र । एक दफे महा मौद्गलायन बौद्ध भिक्षुने भिक्षुओंसे कहा - चाहे भिक्षु यह कहता भी हो कि मैं आयुष्मानो ( महान भिक्षु ) के वचन ( दोष दिखानेवाले शब्द ) का पात्र हू, किन्तु यदि वह दुर्वचनी है, दुर्वचन पैदा करनेवाले धर्मोंसे युक्त है और अनुशासन (शिक्षा) ग्रहण करने में अक्षत्र और अप्रदक्षिणा ग्राही ( उत्साह र हित ) है तो फिर सब्रह्मचारी न तो उसे शिक्षाका पात्र मानते है, न अनुशासनीय मानते हैं न उस व्यक्तिमे विश्वास करना उचित मानते हैं । दुर्वचन पैदा करनेवाले धर्म - (१) पापकारी इच्छाओंके वशीभूत होना, (२) क्रोधके वश होना, (३) क्रोधके हेतु ढोंग करना, (४) क्रोध हेतु डाह करना, (५) क्रोधपूर्ण वाणी कहना, (६) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा माग। बशेष दिखलानेपर दोष दिखलानेवाले की तरफ हिसक भाव करना, (७) दोष दिखलानेवालेपर क्रोध करना, (८) दोष दिखलानेवालेपर उल्टा आरोप करना, (९) दोष दिखलानेवालेके साथ दूसरी दूसरी बात करना, बातको प्रकरणसे बाहर ले जाता है, क्रोध, द्वेष अप्रत्यय (नाराजगी) उत्पन्न कराता है । (१०) दोष दिखलानेवालेका साथ छोड देना, (११) अमरखी होना, (१२) निष्ठुर होना, (१३) इर्षालु व मत्सरी होना, (१४) शठ व मायावी होना (१५) जड और अतिमानी होना, (१६) तुरन्त लाभ चाहनेवाला, हठी व न त्यागनेवाला होना। इसके विरुद्ध जो भिक्षु सुवचनी है वह सुवचन पैदा करनेवाले धर्मोसे युक्त होता है, जो ऊपर लिखे १६ से विरक्त है। वह मनु शासन ग्रहण करनेमें समर्थ होता है, उत्साहसे ग्रहण करनेवाला होता है। सब्रह्मचारी उसे शिक्षाका पात्र मानते है, अनुशासनीय मानते है, उसमें विश्वास उत्पन्न करना उचित समझते है। भिक्षुको उचित है कि वह अपने हीमे अपने को इस प्रकार समझावे । जो व्यक्ति पापेच्छ है, पापपूर्ण इच्छाओं के वशीभूत है, वह पुद्गक (व्यक्ति) मुझे अप्रिय लगता है, तब यदि मै भी पापेच्छ या पापपूर्ण इच्छाओंके वशीभूत हूगा तो मैं भी दूसरोंको अप्रिय हूगा । ऐसा जानकर भिक्षुको मन ऐसा दृढ़ करना चाहिये कि मैं पापेच्छ नहीं हूंगा। इसी तरह ऊपर लिखे हुए १६ दोषों के सम्बन्धमें विचार कर अपनेको इनसे रहित करना चाहिये । भावार्थ-यह है कि भिक्षुको अपने माप इस प्रकार परीक्षण करना चाहिये । क्या मैं पापके वशीभूत हूँ, क्या मैं क्रोधी है। इसी Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैन बौद्ध क्त्वज्ञान । [११७ जरह क्या मै ऊपर लिखित दोषोंके वशीभूत हू। यदि वह देखे कि वह पापके वशीभूत है या क्रोधके वशीभूत है या अन्य दोषके वशीभूत है तो उस भिक्षुको उन बुरे अकुशल धर्मोके परित्यागके लिये उद्योग करना चाहिये । यदि वह देखे कि उसमें ये दोष नहीं हैं तो उस भिक्षुको प्रामोघ (खुशी ) के साथ रातदिन कुशल धर्मोको सीखते विहार करना चाहिये । जैसे दहर (भल्पायु युवक ) युवा शौकीन स्त्री या पुरुष परिशुद्ध उज्वल भादर्श (दर्पण) या स्वच्छ जलपात्रमें अपने मुख्के प्रतिबिम्बको देखते हुए, यदि वहा रज (मैल) या अगण (दोष)को देखता है तो उस रज या अगणके दूर करनेकी कोशिश करता है। यदि वहा रज या भगण नहीं देखता है तो उसीसे सतुष्ट होता है कि महो मेरा मुख परिशुद्ध है। इसी तरह भिक्षु अपनेको देखे । यदि अकुशल धर्मोको अप्रहीण देखे तो उसे उन अकुशल धर्मोके नाशके लिये प्रयत्न करना चाहिये। यदि इन अकुशल धर्मोको पहीण देखे तो उसे प्रीति व प्रामोधके साथ रातदिन कुशल धर्मोको सीखते हुए विहार करना चाहिये। नोट-इस सूत्रमें मिक्षुओंको यह शिक्षा दी गई है कि वे अपने भावोंको दोषोंसे मुक्त करें। उन्हे शुद्ध भावसे अपने भावोंकी शुद्धतापर स्वय ही ध्यान देना चाहिये । जैसे अपने मुखको सदा स्वच्छ रखनेकी इच्छा करनेवाला मानव दर्पणमें मुखको देखता रहता है, यदि जरा भी मैल पाता है तो तुरत मुखको रूमालसे पोछकर साफ कर लेता है। यदि अधिक मैल देखता है तो पानीसे धोकर साफ करता है। इसीतरह साधुको अपने आप अपने दोषोंकी जाच Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] दूसरा भाग। करनी चाहिये। यदि अपने भीतर दोष दोख तो उनको दूर करनका पुरा उद्योग करना चाहिये । यदि दोष न दीखें तो प्रसन्न होकर आगामी दोष न पैदा हो इस बातका प्रयत्न रखना चाहिये । यह प्रयत्न सत्सगति और शास्त्रोंका अभ्यास है। भिक्षुको बहुत करक गुरुके साथ या दूसरे साधुके साथ रहना चाहिये। यदि कोई दोष अपनेमें हो और अपनेको वह दोष न दिखलाई पड़ता हो और दुसरा दोषको बता दे तो उसपर बहुत सतोष मानना चाहिये । उसको धन्यवाद देना चाहिये । कभी भी दोष दिलानेवाले पर क्रोध या द्वेषभाव नहीं करना चाहिये । जैसे किसीको अपने मुखपर मैलका धब्बा न दीखे और दूसरा मित्र बता दें तो वह मित्र उसपर नाराज न होकर तुर्त अपने मुखके मैलको दूर कर देता है। इसीतरह जो सरल भावसे मोक्षमार्गका साधन करते है वे दोषोंके बतानेवाले पर सतुष्ट होकर अपने दोषोंको दूर करनेका उद्योग करते है। यदि कोई साधु अपने में बड़ा दोष पाते है तो अपने गुरुसे एकातमें निवेदन करते हैं और जो कुछ दह वे देते हैं उसको बड़े आनन्दसे स्वीकार करते है। जैन सिद्धातमें पच्चीस कषाय बताए है, जिनके नाम पहले कहे जा चुके हैं। इन क्रोध, मान, माया लोभादिके वशीभूत हो मानसिक, “वाचिक, व कायिक दोषोंका होजाना सम्भव है । इस लिये साधु नित्य सबेरे व संध्याको प्रतिक्रमण ( पश्चाताप ) करते हैं व मागामी दोष न हो इसके लिये प्रत्याख्यान (त्याग)की भावना भाते हैं। साधुके भावोंकी शुद्धताको ही साधुपद समझना चाहिये । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [११९ समभाव या शातभाव मोक्ष साधक है, रागद्वेष मोहभाव मोक्ष मार्गमें वाधक है । ऐसा समझ कर अपने भावोंकी शुद्धिका सदा प्रयत्न करना चाहिये। श्री कुलभद्राचार्य सार समुच्चयमें कहते हैंयथा च जायते चेत सम्यकछुद्धि सुनिर्मलाम् । तथा ज्ञानविदा कार्य प्रयत्ननापि भूरिणा ॥१६१॥ भावार्थ-जिस तरह यह मन मले प्रकार शुद्धिको या निर्मलताको धारण करे उसी तरह ज्ञानीको बहुत प्रय न करके आचरण करना चाहिये। विशुद्ध मानस यस्य रागादिमलव जितम् । ससाराग्य फल तस्य सफल समुपस्थिरम् ॥१६२॥ भावाथ-जिसका मन रागादि मैलसे रहित शुद्ध है उसीको इस जगतमे मुख्य फल सफलतासे प्रप्त हुआ है । विशुद्धपरिणामेन शानिर्भवति सर्वत । सक्लिष्टन तु चित्तेन नास्ति शानिर्भवष्यपि ॥१७२॥ भावार्थ-निर्मल भावोंके होनेसे सर्व तरफसे शाति रहती है परन्तु क्रोधादिसे-दु खित परिणामोंसे भवभवमें भी शाति नहीं मिक सक्ती। सक्लिष्टचेतसा पुसा माया ससारवर्धिनी । विशुद्धचेतसा वृत्ति सम्पत्तिवित्तदायिनी ॥१७३॥ भावार्थ-सक्लेश परिणामधारी मानवोंकी बुद्धि ससारको बढ़ानेवाली होती है, परन्तु निर्मल भावधारी पुरुषोंका वर्तन सम्यग्दर्शनरूपी धनको देनेवाला है, मोक्षकी तरफ लेजानेवाला है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० । दूसरा भाग। परोऽप्युत्पथमापन्नो निषेधु युक्त एव स । कि पुन स्वमनोत्यर्थं विषयोत्पथयायिवत् ॥ १७ ॥ भावार्थ दूसरा कोई कुमार्गगामी होगया हो तो भी उसे मनाही करना चाहिये, यह तो ठोक है परन्तु विषयोंके कुमार्गमें जानेवाले अपने मनको भतिशयरूप क्यों नहीं रोकना चाहिये ? भवश्य रोकना चाहिये। अज्ञान द्यदि मोहाद्यत्कृत कर्म सुकुत्सरम् । ब्यावर्तयेन्मनस्तस्मात् पुनस्तन्न समाचरेत् ॥ १७६॥ भावार्थ-यदि अज्ञानके वशीभूत होकर या मोहके आधीन होकर जो कोई अशुभ काम किया गया हो उससे मनको हटा लेवे फिर उस कामको नहीं करे। धर्मस्य सचये यत्न कर्मणा च परिक्षये । साधूना चेष्टित चित्त सर्वपापप्रणाशनम् ॥ १९३ ॥ भावार्थ-साधुओं का उद्योग धर्मके सग्रह करनेमे तथा कर्माके क्षय करनेमें होता है तथा उनका चित्त ऐमे चारित्रके पालनमे होता है जिससे सर्व पापोंका नाश होजावे । साधकको नित्य प्रति अपने दोषोंको विचार कर अपने भावोंको निर्मल करना चाहिये। श्री अमितगति भाचार्य सामायिक पाठमें कहते हैंएकेन्द्रियाद्या यदि देव देहिन प्रमादत सचरता इतस्तत । क्षता विमिना मिलिता निपीडिता तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठित तदा ॥५॥ . भावार्थ-हे देव ! प्रमादसे इधर उधर चलते हुए एकेन्द्रिय मादि प्राणी, यदि मेरे द्वारा नाश किये गये हों, जुदे किसो गए. हो, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद तत्वज्ञान । [१२१ मिला दिये गए हों, दुखित किये गए हों तो यह मेरा अयोग्य *कार्य मिथ्या हो । अर्थात् मैं इस भूलको स्वीकार करता हू । विमुक्तिमार्गप्रतिकूलवर्तिना भया कषायाक्षवशेन दुर्षिया । चारित्रशुद्धर्यदकारिलोपन तदस्तु मिथ्या मम दुष्कृत प्रभो ॥ ६॥ ___ भावार्थ-मोक्षमार्गसे विरुद्ध चलकर, क्रोधादि कषाय व पाचों इन्द्रियोंके वशीभूत होकर मुझ दुर्बुद्धिने जो चारित्रमें दोष लगाया हो वह मेरा मिथ्या कार्य मिथ्या हो अर्थात् मै अपनी भूलको स्वीकार करता हूँ। विनिन्दनालोचनगईणरह, मनोवच कायकषायनिर्मितम् । निहन्मि पाप भवदु खकारण भिषगविष मत्रगुणैरिवाखिल ॥ ७ ॥ ___ भावार्थ-जैसे वैद्य सर्पले सर्व विषको मत्रोंको पढ़कर दूर कर देता है वैसे ही मैं मन, वचन, काय तथा क्रोधादि कषायोंके द्वारा किये गए पापोंको अपनी निन्दा, गर्दा, मालोचना आदिमे दूर करता हू, प्रायश्चित्त लेकर भी उस पापको धोता है। (१३) मज्झिमनिकाय चेतोखिलसूत्र। गौतमबुद्ध कहते है-भिक्षुओ। जिस किसी भिक्षुके पाच चेतोखिल (चित्तके कील ) नष्ट नहीं हुए, ये पाचों उसके चित्तमें वद्ध है, छिन्न नहीं है, वह इस धर्म विषयमें वृद्धिको प्राप्त होगा यह सभव नहीं है। पांच चेतोखिळ-(१) शास्ता, (२) धर्म, (३) सघ, (४) शील, इन चारमें सदेह युक्त होता है, इनमें श्रद्धालु नहीं होता। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] दूसरा भाग। इसलिये उसका चित्त तीव्र उद्योगक लिये नहीं झुकता। चार चेतो खिल ना ये है (५) सब्रह्मचारियोंक विषयमें कुपित, असतुष्ट, दुषितचित्त होता है इसलिये उसका चित्त तीव्र उद्योगके लिये नहीं झुकता, ये पाच चेतोखिल हैं। इसी तरह जिस किसी भिक्षुके पाच चित्तबधन नहीं कटे होते हैं वह धर्म विनयमें वृद्धिको नहीं प्राप्त हो सकता। पाच चित्तबधन-(१) कामों ( कामभोगो) में भवीतराग, अवीतप्रेम, अविगतपिपास, भविगत परिदाह, अविगत तृष्णा रखना, (२) कायम तृष्णा रखना, (३) रूपमें तृष्णा रखना ये तीन चित्तबधन है, (४) यथेच्छ उदग्भर भोजन करक शय्या सुख, स्पर्श सुख, आलस्य सुखमें फसा रहना यह चौथा है, (५) किसी देवनिकाय देवयोनिका प्रणिधान (दृढ़ कामना) रखके ब्रह्मचर्य आच रण करता है। इस शील, व्रत, तप, या ब्रह्मचर्यसे मैं देवता या देवता से कोई होऊं यह पाचमा चित्त बधन है। इसके विरुद्ध-जिस किसी भिक्षुके ऊपर लिखित पाच चेतो खिक प्रहीण है, पाच चित्तवन्धन समुच्छिन्न हैं. वह इस धर्ममें वृद्धिको प्राप्त होगा यह सभव है। ऐसा भिक्षु (१) छन्दसमाधि प्रधान सस्कार युक्त ऋद्धिवा दकी भावना करता है, (२) वीर्यसमाधि प्रधान सस्कार युक्त ऋद्धि पादकी भावना करता है, (३) चित्तसमाधि प्रधान संस्कार युक्त ऋद्धिपादकी भावना करता है, (४) इंद्रियसमाधि प्रधान सस्कार युक्त ऋद्धिपादकी भावना करता है, (५) विमर्श (उत्साह) समाति Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -ar on जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [ १२३ प्रधान सस्कार युक्त ऋद्धिपादकी भावना करता है। ऐसा भिक्षु निर्वेद ( वैराग्य ) के योग्य है, सबोधि ( परमज्ञान ) के योग्य है, सर्वोत्तम योगक्षेम (निर्वाण ) की प्राप्तिक लिये योग्य है । जैसे आठ, दस या बारह मुर्गी के अंडे हों य मुर्गीद्वारा भले प्रकार सेये, परिस्वेदित, परिभावित हों, चाहे मुर्गीकी इच्छा न भी हो कि मेरे बच्चे स्वस्तिर्पूवक निकल आवे तोभी वे बच्चे स्वस्तिपूर्वक निकक मानेक योग्य है। ऐसे ही भिक्षुओ । उत्सोढिके पद्रह अगोंसे युक्त भिक्षु निर्वेदके लिये, सम्बोधिक लिये, अनुत्तर योगखेम प्राप्ति के लिय योग्य है। नोट-इस सूत्रमे निर्वाणके मार्गमे चलनेवालेके लिये पद्रह बातें उपयोगी बताई है (१) पाच चित्तके काटे-नहीं होने चाहिये। भिक्षुकी अश्रद्धा, देव, धर्म गुरु चारित्र तथा साधर्मी साधनोंमे होना चित्तके काटे हैं। जब श्रद्धा न होगी तब वह उन्नति नहीं कर सकता । इस लिये भिक्षुकी दृढ़ श्रद्धा भादर्श भाप्तमें, धर्ममें गुरुमें, व चारित्रमें व सहधर्मियोंमे होनी चाहिये, तब ही वह उत्साहित होकर चारि त्रको पालेगा, धर्मको बढावेगा, भादर्श साधु होकर मरहंत पदपर पहुंचनेकी चेष्टा करेगा। (२) पाच चित्त बन्धन-साधकका मन पाच बातोंमें उलझा नहीं होना चाहिये । यदि उसका मन कामभोगोंमें, (२) शरीरकी पुष्टिमें, (३) रूपकी सुन्दरता निरखनेमे, (४) इच्छानुकूल भोजन करके सुखपूर्वक लेटे रहने, निन्द्रा लेने व आलस्यमें समय बितानेमें Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] दूसरा भाग। (५) व आगामी देवगतिके भोगोंके प्राप्त करनेमे उलझा रहेगा खो वह ससारकी कामनामे लगा रहनेसे मुक्तिके माधनको नहीं कर मकेगा । साधकका चित्त इन पाचों बातोंसे वैराग्य युक्त होना चाहिये। (३) पाच उद्योग-साधकका उद्योग होना चाहिये कि वह (१) छन्द समाधियुक्त हो, सम्यक् समाधिके लिये उत्साहित हो, (२) वीर्य समाधियुक्त हो, आत्मवीर्यको लगाकर सम्यक् समाधिके लिये उद्योगशील हो, (३) चित्त समाधिके लिये प्रयत्नशील हो, कि यह चित्तको रोककर समाधिमें लगावे, (४) इन्द्रिय समाधिइन्द्रियोंको रोककर अतीन्द्रिय भावमें पहुचनेका उद्योग करे, (५) विमश समाधि-समाधिके आदर्शपर चढ़नेका उत्साही हो । आत्मध्यानके लिये मन व इन्द्रियोंको निरोधकर भीतरी उत्साहसे, भात्म वीर्यको लगाकर स्मरण युक्त होकर भात्मसमाधिका लाभ करना चाहिये । निर्विकल्प समाधि या स्वानुभवको जागृत करना चाहिये । इसीसे यथार्थ विवेक या वैराग्य होगा, परम ज्ञानका नाम होगा व निर्वाण प्राप्त होसकेगा। जो ठीक ठीक उद्योग करेगा वह फलको न चाहते हुए भी फल पाएगा जैसे-मुर्गी अडोंका ठीकर सेवन करेगी तब उनमेसे बच्चे कुशलपूर्वक निकलेंगे ही । इस मूत्रमें भी मोक्षकी सिद्धिका अच्छा उपदेश है। जैन सिद्धातके कुछ वाक्य दिये जाते हैं। व्यवहार सम्यक्तमें देव, मागम या धर्म, गुरुकी श्रद्धाको ही सम्यक्त कहा है । रत्नमालामें कहा है सम्यक्त्व सर्वजन्तूना श्रेयः श्रेथ पद'र्थिना । विना तेन व्रत सर्वोऽप्पकरूप्यो मुक्तिहेतवे ॥ ६ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१२५ निर्विकल्पश्चिदानन्द परमेष्ठो सनातन । दोषातोतो जिनो देवस्तदुपज्ञ श्रुति परा ॥७॥ निम्बरो निरारम्भो नित्यानन्दपदाथिन । धर्मदिक्कर्म धक् साधुगुरुरित्युच्यते बुधै ॥ ८॥ अमीषा पुण्यहेतुना श्रद्धान तन्निाद्यते । तदेव परम तत्व तदेव परम पदम् ॥९॥ सवेगादिपर शान्तस्तत्वनिश्चयवानर । जन्तुर्जन्मजरातीत पदवीमवगाहते ॥ १३ ॥ भावार्थ-कल्याणकारी पदार्थो का श्रद्धान रखना सर्व प्राणीमात्रका कल्याण करनेवाला है। श्रद्धानके विना सर्व ही व्रतचारित्र मोक्षके कारण नहीं होसक्ते। प्रथम पदार्थ सच्चा शास्ता या देव है जो निर्विक्स हो, चिदानद पूर्ण हो, परमात्म पदधारी हो, स्वरूपकी अपेक्षा सनातन हो, सर्व रागादि दोष रहित हो, कर्म विजई हो वही देव है । उसीका उपदेशित वचन सच्च। शास्त्र है या धर्म है । जो वस्त्रादि परिग्रह रहित हो, खेती आदि भारम्भसे मुक्त हो, नित्य भानन्द पदका अर्थी हो, धर्मकी तरफ दृष्टि रखता हो वही साधु या गुरु कर्मों को जलानेवाला बुद्धिवानों द्वारा कहा गया है । इस तरह देव, शास्त्र या धर्म तथा साधुका श्रद्धान करना, जो पुण्यके कारण है, सम्यग्दर्शनरूपी परम तत्व कहा गया है, यही श्रद्धा परमपदका कारण है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य पंचास्तिकायमें कहते हैअरहतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा । अणुगमण वि गुरूण पसत्थरागोत्ति वुच्चति ॥ १३६ ॥ भावार्थ-साधकका शुभ राग या प्रीतिभाव वही कहा जाता Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] दूसरा भाग । है जो उसकी अरहंत व सिद्ध परमात्मामें व साधुमे भक्ति हो, धर्म नानका उद्योग हो तथा गुरुओंकी आज्ञानुसार चारित्रका पालन हो । स्वामी कुदकुन्दाचार्य प्रवनसारमें कहते है ण हवदि समणोत्ति मदो सजमतवत्तसपजुत्तोवि । दि इदि ण मत्थे आदयमाणे जिणक्खादे || ८५-३ ॥ भावार्थ- जो कोई साधु सयमी, तपस्वी व सूत्रके ज्ञाता हो रन्तु जिन कथित आत्मा आदि पदार्थोंमें जिसकी यथार्थ श्रद्धा नहीं है वह वास्तव में श्रमण या साधु नहीं है । स्वामी कुन्दकुन्द मोक्षपाहुडमें कहते है देव गुरुम्म भत्तो साहम्मिय सजदे अणुरतो । सम्मत्तमुहतो झाणरओ होइ जोई सा ॥ ५२ ॥ भावार्थ जो योगी सम्यग्दर्शनको धारता हुआ देव तथा गुरकी भक्ति करता है, साधर्मी सयमी साधुओंमें प्रीतिमान है बड़ी ध्यान मे रुचि करनेवाला होता है । शिवकोटि आचार्य भगवती आराधना में कहते है व्रहतसिद्धचेइय, सुदे य धम्मे य साधुवग्गे य । आयरियेसूवज्झा, एसु पवयणे दसणे चावि ॥ ४६॥ भत्ती पूषा वण्णज-, णण च णासणमवण्णवादस्स | मासादणपरिहारो, दसणविणओ समासेण ॥ ४७ ॥ भावार्थ - श्री अरहत शास्ता आप्त, सिद्ध परमात्मा, उनकी मूर्ति, शास्त्र, धर्म, साधु समूह, आचार्य, उपाध्याय, वाणी और सम्यग्दर्शन इन दस स्थानोंमें भक्ति करना, पूजा करनी, गुणका वर्णन, कोईं निन्दा करे तो उसको निवारण करना, अविनयको Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१२७ हटाना, यह सब सक्षेपसे सम्यग्दर्शनका विनय है । व्रतीमें माया, मिथ्या, निदान तीन शल्य नहीं होने चाहिये । अर्थात् कपटमे, अश्र द्धासे व भोगाकाक्षासे धर्म न पाले। तत्वार्थसारमे कहा हैमायानिदानमिथ्यात्वशल्याभावविशेषत । माहिंसादिवतोपेतो व्रतीति व्यपदिश्यते ॥ ७८ ॥ भावार्थ-वी अहिंसा मादि व्रतोंका पालनेवाला व्रती कहा जाता है जो माया, मिथ्यात्व व निदान इन तीन शल्यों कीलों व काटों) से रहित हो। मोक्षमार्गका साधक कैसा होना चाहिये । श्री कुंदकुदाचार्य प्रवचनसारमे कहते हैइहलोग णिराधक्खो अप्पडिबद्धो परिस्मि लोयमिम । जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो ॥ ४२-३।। भावार्थ-जो मुनि इस लोकमें इन्द्रियोंक विषयोंकी अभिलाषासे रहित हो, परलोकमें भी किसी पदकी इच्छा नहीं रखता हो, योग्य परिमित लघु आहार व योग्य विहारको करनेवाला हो, क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों का विजयो हो, वही श्रमण या साधु होता है। स्वामी कुदकुद बोधपाहुडम कहते हैणिण्णेहा णिलोहा णिम्मोहा णिजियार णिक्कलुमा । णिमय णिरासभावा पन्धज्जा एरिसा भणिया ।। ५०॥ भावार्थ-जो स्नेह रहित है, लोम रहित हैं, मोह रहित है, विकार रहित है, क्रोधादिकी कलुषतासे रहित है, भय रहित है, माशा तृष्णासे रहित हैं, उन्हींको साधु दीक्षा कही गई है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८] हसरा बाग। बट्टकेरस्वामी मूलाचार समयसारमे कहते हैभिक्ख चर वस रपणे थोव जेमेहि मा महू जप । दुख सह जिण णिद्दा मेत्ति भावेहि सुठु वेग्ग ॥ ४ ॥ अव्यवहारी एको शाणे एयागमणो भव णिरारभो। चत्तकसायपरिग्गह पयत्तचेट्टो असगो य ॥१॥ भावार्थ-भिक्षासे भोजन कर, वनमें रह थोडा भोजन कर, दु खोंको सह, निद्राको जीत, मैत्री और वैराग्यभावनाओंको मले प्रकार विचार कर' लोक व्यवहार न कर, एकाकी रह, ध्यानमें लीन हो, भारम्भ मत कर, क्रोधादि कषाय रूपी परिग्रहका त्यागा कर, उद्योगी रह, व असग या मोहरहित रह। जद चरे जद चिट्ठ जदमासे जद सये । जद भुजेज भासेज एव पाव ण पज्झा ॥ १२२ ।। जद तु चरमाणस्त दयापेहुस्स भिक्खुणो। णव ण बज्झदे कम्म पोराण च विधूयदि ॥ १२३ ॥ भावार्थ हे साधु । यत्नपूर्वक देखके चल, यत्नसे व्रत पाल नका उद्योग कर, यत्नसे भूमि देखकर बैठ, यत्नसे शयन कर, यत्नसे भोजन कर, यत्नस बोल, इस तरह वर्तनसे पाप बध न होगा। जो दयावान साधु यत्न र्वक आचरण करता है उनके नए कर्म नहीं बंधते, पुराने दूर होजाते है। श्री शिवकोटि भगवती आराधनामें कहते हैंजिदरागो, जिददोसो, निदिदियो जिदभमो जिदकलामओ । रदि अरदि मोहमहणो, झाणोधगमो सदा होई ॥ ६८ ॥ भावार्थ-जिसने रागको जीता है, द्वेषको जीता है, इन्द्रियोंको Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१२९ जीता है, भयको जीता है, कषायोंको जीता है, रति भरति व मोहका जिसने नाश किया है वही सदाकाल ध्यानमें उपयुक्त रह सक्ता है। श्री शुभचद्राचार्य ज्ञानार्णवम कहते हैविग्म विरम समान्मुत्र मुचप्रपचविसृज विसृज मोह विद्धि विद्धि स्वतत्त्वम् ॥ कलय कलय वृत्त पश्य पश्य स्वरूप । कुरु कुरु पुरुषार्थे निवृतानन्दहेतो ॥ ४५-१५ ।। भावार्थ-हे भाई ! तू परिग्रहसे विरक्त हो, जगतके प्रपंचको छोड़, मोहको विदा कर, आ.मतत्वको समझ, चारित्रका अभ्यास कर, भात्मस्वरूपको देख, मोक्षके सुख के लिये पुरुषार्थ कर । (१४) मज्झिमनिकाय द्वेधा वितक सूत्र । गौतम बुद्ध कहते है-भिक्षुओ। बुद्धत्व प्राप्तिक पूर्व भी बोधिसत्व होते वक्त मेरे मनमें ऐसा होता था कि क्यों न दो टुक वितर्क करते करते मै विहरू-जो काम वितर्क, व्यापाद (द्वेष) वितर्क, विहिंसा वितर्क इन तीनोंको मैन एक भागमें किया और जो नैष्काम्य (काम भोग इच्छा रहि1) वितर्क, अल्पापाद वितर्क, अविहिंसा वितर्क इन तीनोंको एक भागमें किया। भिक्षुओ ! सो इस प्रकार प्रमाद रहित, भातापी ( उद्योगी), ग्रहितत्रा (मात्म संयमी) हो विहरते भी मुझे काम वितर्क उत्पन्न होता था। सो मैं इस प्रकार जानता था। उत्पन्न हुआ ग्रह मुझे काम वितर्क और यह आत्म आवाधाके लिये है, पर आबाधा के लिये है, 'उभय आबा Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] दूसरा भाग । थाके लिये है। यह प्रज्ञानिरोधक, विघात पक्षिक (हानिके पक्षका), निर्वाण को नहीं ले जानेवाला है। यह सोचते वह काम वितर्क अस्त हो जाता था। इसतरह वार वार उत्पन्न होनेवाले काम वितर्कको मै छोड़ता ही था, हटाता ही था, अलग करता ही था। इसी प्रकार व्यापाद वितर्कको तथा विडिसा वितर्कको जब उत्पन्न होता था तब मै मलग करता ही था। भिक्षुओ ! भिक्षु जैसे जैसे अधिकतर वितर्क करता है, विचार करता है वैसे वैसे ही चित्तको झुकना होता है। यदि भिक्षुओ ! भिक्षु काम विनर्कको या व्यापादवितर्कको या विलिसा विनर्कको अधिकतर करता है तो वह निष्काम विनर्कको या भव्यापाद वित कको या अविहिंसा वितर्कको छोडता है और कामादि वितर्कको बढाता है। उसका चित्त वामादि विन की ओन या जाता है । जैसे भिक्षुओ ! वर्षाके अतिम मासमे (शाद काल्मे ) जब फसल भरो रहती है तब ग्वाला अपनी गायों की रखवाली करता है। वह उन गावोंसे वहा ( भरे हुए खेतों) से डम हाकता है, मारता है रोकता है, निवारता है। सो किस हेतु ! वह ग्वाला उन खेतोंमें चरने के कारण वध, बन्धन, हानि या निन्दाको देखता है। ऐसे ही भिक्षुओ! मै अकुशल धर्मोके दुष्परिणाम, भपकार, सक्लेशको और कुशल धर्मो में अर्थात निष्कामता आदिमें सुपरिणाम मौर परिशुद्धताको संरक्षण देखता था ।। मित्रो ! सो इस प्रकार प्रमादरहित विहरते यदि निष्कामती वितर्क, भव्यापाद वितर्क या अविहिंसा वितर्क उत्पन होता था, Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ ३१ सो मैं इस प्रकार जानता था कि उत्पन्न हुआ यह मुझे निष्कामता आदि वितर्क - यह न आत्म आबाधा, न पर आबाधा, न उभय Heart लिये है यह प्रज्ञावर्द्धक है, अविघात पक्षिक है और निर्वा urat जानेवाला है । रातको भी या दिनको भी यदि मैं ऐसा वितर्क करता, विचार करता तो मैं भय नहीं देखता। किंतु बहुत देर वितर्क व विचार करते मेरी काया क्लान्त (थकी) होजाती, कायाके क्लान्त होनेपर चित्त अपहृत ( शिथिल ) होजाता, चित्तके अपहृत होनेपर चित्त समाधिसे दूर हट जाता था । सो मैं अपने भीतर (अध्यात्ममें) ही चित्तको स्थापित करता था, बढ़ाता था, एकाग्र करता था । सो किस हेतु ? मेरा चित्त कहीं अपहृत न होजावे । भिक्षुओ । भिक्षु जैसे जैसे अधिकतर निष्कामता वितर्क, अव्यापाद वितर्क या अविहिसा वितर्कका अधिकतर अनुवितर्क करता है तो वह कामादि वितर्कको छोड़ता है, निष्कामता आदि वितर्कको बढ़ाता है । उस बाधित निष्कामला अव्यापाद, अविहिंमा वितककी ओर झुकता है । जैसे भिक्षुओ । ग्रीषमके अतिम भागमे जब सभी फसल जमाकर गाममें चली जाती है ग्वाला गायोंको रखता है । वृक्षके नीचे या चौड़ेमें रहकर उन्हें केवल याद रखना होता है कि ये गायें हैं। ऐसे ही भिक्षुओ ! याद रखना मात्र होता था कि ये धर्म हैं । भिक्षुओं ! मैनें न दबनेवालों वीर्य (उद्योग) आरंभ कर रखा था, न भूलनेवाली स्मृति मेरे सन्मुख थी, शरीर मेरा अचचक, शान्त थीं, चित समाहित एकाग्र वास में भिक्षुओं ! प्रथम ध्यानको, द्वितीय ध्यानको, तृतीय ध्यानको, चतुर्थ 1 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] दूसरा भाग । ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगा | पूर्व निवास अनुस्मरण के लिये, प्राणियोंके च्युति उत्पादके ज्ञानके लिये चित्तको झुकाता था । तथा समाहित चित्त, तथा परिशुद्ध, परिमोदात, अनगण, विगत क्लेश, मृदुभूत कम्मनीय स्थित, एकाग्र चित्त होकर आस्रवोंके क्षयके किये चित्तको झुकाता था । इस तरह रात्रिके पिछले पहर तोसरी विद्या प्राप्त हुई, अविद्या दूर हो गई, विद्या उत्पन्न हुई, तम चला मया, आलोक उत्पन्न हुआ। जैसा उद्योगशील अप्रमादी तत्वज्ञानी या आत्मसमीको होता है । गहरा जलाशय हो विहार करता है । जैसे भिक्षुओ ! किसी महावनमें महान और उसका आश्रय ले महान् मृगका समूह कोई पुरुष उस मृग समुहका अनर्थ आकाक्षी, अहित आकाक्षी, योगक्षेम आकाक्षी उत्पन्न होवे । बह उस मृग समूह के क्षेम, कल्याणकारक, प्रीतिपूर्वक गन्तव्य मार्गको बद कर दे और रहक चर ( अकेले चलने लायक ) कुमार्गको खोल दे और एक चारिका ' ( जाल ) रख दे | इस प्रकार वह महान् मृगसमूह दूसरे समय में विपत्ति तथा क्षीणताको प्राप्त होगा । और भिक्षुओ ! उस महान मृगसमुहका कोई पुरुष हिताकाक्षी योग क्षेमकाक्षी उत्पन्न होवे, वह उस मृगसमूह के क्षेम कल्याणकारक, प्रीतिपूर्वक गन्तव्य मार्गको खोल दे, एकचर कुमार्गको बन्द कर दे और (चारिका ), जालका नाश कर दें । इस प्रकार वह मृगसमूह दूसरे समय में वृद्धि, बिरूढ़ि और 今ち विपुलताको प्राप्त होवेगा 1. भिक्षुओ ! अर्थके समझाने के लिये मैंने यह उपमा कही है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१३३ यहा यह अर्थ है-गहरा महान जलाशय यह कामों ( कामनाओं, भोगों) का नाम है। महान मृगसमूह यह प्राणियोंका नाम है। अनशंकाक्षी, अहिताकाक्षी, अयोगक्षेमकाक्षी पुरुष यह मार (पापी कामदेव ) का नाम है। कुमार्ग यह आठ प्रकारके मिथ्या मार्ग हैं। जैसे-(१) मिथ्यादृष्टि, (२) मिथ्या सकल्प, (३) मिथ्या वचन, (४) मिथ्या कर्मान्त (कायिक कर्म ) (५) मिथ्या भाजीव ( जीविक) (६) मिथ्या व्यायाम (७) मिथ्या स्मृति, (८) मिथ्या समाधि । एकचर यह नन्दी-रागका नाम है, एक चारिका ( जाल ) अवि थाका नाम है। भिक्षुषों ! अर्चाकाक्षी, हिताकाक्षी, योगक्षेमाकाक्षी, मह तथागत आईत् सम्यक् सबुद्धका नाम है। क्षेम,स्वस्तिक, प्रीतिगमनीय मार्ग यह आर्य आष्टागिक मार्गका नाम है। जैसे कि(१) सम्यक्दृष्टि, (२) सम्यक् सकल्प, (३) सम्यक् वचन (४) सम्यक् कर्मान्त, (५) सम्यक् आजीव, (६) सम्यक् व्यायाम, (७) सम्यक् स्मृति, (८) सम्यक समाधि । इस प्रकार भिक्षुओं ! मैंने क्षेम, स्वस्तिक प्रीतिगमनीय मार्गको खोल दिया। दोनों ओरसे एक चारिका (भविद्या) को नाश कर दिया। भिक्षुओ! श्रावकोंके हितैषी, अनुकम्पक, शास्ताको अनुकम्पा करके जो करना था वह तुम्हारे लिये मैने कर दिया। भिक्षुओ! यह वृक्ष मूल है, ये सूने घर हैं। ध्यानरत होओ। भिक्षुओ! प्रमाद मत करो, पीछे अफसोस करनेवाले मत बनना यह तुम्हारे लिये हमारा अनुशासन है । नोट-यह सूत्र बहुत उपयोगी है, बहुत विचारने योग्य है। * दोहक वितर्कका नाम जैन सिद्धातमें भेदविज्ञान है। कामवितर्क, न्यापादवितर्क, विहिंसावितर्क इन तीनोंमें राग द्वेष Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvv १३४ दूसरा भाग। आजाते हैं। काम और राग एक है, व्यापाद द्वेषका पूर्व भाव, विहिंसा मागेका भाव है। दोनों द्वेषमे आते हैं । रागद्वेष हा ससा रका मूल है, त्यागने योग्य है और वीतरागता तथा वीतद्वेषता ग्रहण करने योग्य है। ऐसा वारंवार विचार करनेसे-राग व द्वेष जब उठे तब उनका स्वागत न करनेसे उनको स्वपर बाधाकारी जाननेसे, व वीतरागता व वीतद्वषताको स्वागत करनेसे, उनको स्वपरको अबाधा कारी जाननेसे, इस तरह भेद विज्ञानका वारवार अभ्यास करनेसे रागद्वेष मिटता है और वीतरागभाव बढ़ता है। चित्तमें रागद्वेषका सस्कार रागद्वेषको बढ़ाता है। चित्तमें वीतरागता व वीतद्वेषताका सस्कार वैराग्यको बढ़ाता है व रागद्वेषको घटाता है । ___ रागभाव होनेसे अपने भीतर आकुलता होती है चिन्ता होती है, पदार्थ मिलनेकी घबड़ाहट होती है, मिलनेपर रक्षा करने की भाकुलता होती है, वियोग होनेपर शोककी आकुलता होती है। सच्चा भात्मीक भाव ढक जाता है । कर्मसिद्धातानुसार कर्मका बम होता है। रागसे पीड़ित होकर हम स्वार्थसिद्धिके लिये दूसरोंको बाधा देकर व राग पैदा करके अपना विषय पोषण करते हैं । तीन राग होता है तो भन्याय, चोरी, व्यभिचार भादि कर लेते हैं। मति रागवश विषयभोग करनेसे गृहस्थ आप भी रोगी व निर्बल होजाता है बसस्त्रीको भी रोगी व निर्बल बना देता है। इसतरह यह राग स्वपर बाधाकारी है। इसीतरह द्वेष या हिंसक भाव भी है, अपनी शातिका नाश करता है। दूसरोंकी तरफ कटुक वचनप्रहार, वक मादि करनेसे दूसरेको बाधाकारी होता है। अपनेको कर्मका बन्ध सता तरह यह दो भी सपर बागाकारी है, मोक्षमार्गर Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोन बैद्ध तत्वज्ञान | 1 [ १३५ बाक है, ससार मार्गवर्द्धक है, ऐसा विचारना चाहिये । इसके विरुद्ध निष्कामभाव या वीतरागभाव तथा वीतद्वेष या अहिंसकभाव अपने भीतर शांति व सुख उत्पन्न करता है । कोई भाकुलता नहीं होती है । दूसरे भी जो सयोगमें आते हैं व वाणीको सुनते हैं उनको भी सुखशाति होती है। वीतराग तथा असामई भावसे किसी भी प्राणीको कष्ट नहीं दिया जासक्ता, किसीके प्राण नहीं पीड़े जाते । सर्व प्राणी मात्र अभय भावको पाते है। रागद्वेषसे जब कमौका बन्ध होता है तब वीतरागभावसे कर्मो का क्षय होकर निर्वाण प्राप्त होता है । ऐसा वारवार विचारकर भेदविज्ञानके अभ्यास से वीतराग या वीद्वेष भावकी वृद्धि करनी चाहिये तब ही ध्यानकी सिद्धि हो सकेगी। भेदविज्ञान में तो विचार होते हैं । चित्त चचल रहता है | समाधान व शाति नहीं होती है । इसलिये साधक विचार करते२ अध्यात्मरत होजाता है, अपने में एकाग्र होजाता है, ध्यानमग्न होजाता है, तब चित्तको परम शांति प्राप्त होती है। जब ध्यानमें चित्त न लगे तब फिर भेदविज्ञानका मनन करते हुए अपनेको कामभाव व द्वेषभाव या हिंसात्मक भावसे रक्षित करे । सुत्रमें ग्वालेका दृष्टान्त इसीलिये दिया है कि ग्वाला इस बातकी सावधानी रखता है कि गाएं खेतोंको न खालें। जब खेत हरेभरे होते हैं तब गायको वारवार जाते हुए रोकता है। जब खेत फसल रहित होते है तब गायको स्मरण रखता है, उनसे खेतों की हानिका भय नहीं रखता है। इसीतरह ज़ब तक कामभाव व द्वेषभाव जागृत होरहे हैं, उद्योग करते भी रामद्वेष होलादे हैं, कामको हारकार विचार करके उनसे लड़को 1 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। हटाना चाहिये । जब वे शात होगए हों तब तो सावधान होकर निश्चिन्त होकर आत्मध्यान करना चाहिये। स्मरण रखना चाहिये कि फिर कहीं किन्हीं कारणोंसे रागद्वेष न होजावें । दूसग दृष्टात जलाशय तथा मृगोंका दिया है कि जैसे मृग जलाशयके पास चरते हो, कोई शिकारी जाल बिछा दे व जालमें फमने का मार्ग खोल दें तब वे मृग जाल्मे फसकर दु ख उठाते हैं, वैसे ही ये ससारी प्राणी कामभोगोंसे भरे हुए मसारके भारी जला शयके पास घूम रहे हैं । यदि वे भोगोंकी नन्दी या तृष्णाके वशी भूत हों तो वे मिथ्या मार्गरर चलकर अविद्याके जालमें फम जावेंगे व दुख उठावेंगे। मिथ्या मार्ग मिथ्या श्रद्धान, मिथ्या ज्ञान व मिथ्या चारित्र है । यही भष्टागरूप मिथ्यामार्ग है। निवाणको हितकारी न जानना, ससारमे लिप्त रहनेको ही ठीक श्रद्धान करना मिथ्यादृष्टि है। निर्वाणकी तरफ जानेका सकल्प न करके ससास्की तरफ जानेका सकल्प या विचार करना मिथ्या सकल्प या मिथ्या ज्ञान है। शेष छ बातें मिथ्या चारित्रमें गर्मित हैं। मिथ्या कठोर दुखदाई विषय पोषक वचन बोलना, मिथ्या वचन है समारवर्द्धक कार्य करना मिथ्या कर्माह्न है, असत्यसे व चोरीसे आजीविका करके अशुद्ध, गगवर्धक, गगकारक भोजन करना, मिथ्या आजीव है। संसारवर्धक धर्मके व तपके लिय उद्योग करना, मिथ्या व्यापाद है। ससारवर्धक क्रोधादि कषायोंकी व विषय भोगोंकी पुष्टिकी स्मृति , रखना मिथ्या स्मृति है। विषयाकाक्षासे व किसी परलोकके लोभसे ध्यान लगाना मिथ्या समाधि है। यह सब भविद्यामें फंसनेका Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ १३७ मार्ग है। इससे बचने के लिये श्रीगुरुने दयालु होकर उपदेश दिया कि विषयराग छोड़ो, निर्वाणके प्रेमी बनो और अष्टांग मार्ग या सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र इस रत्नत्रय मार्गको पालो, सच्चा निर्वाणका श्रद्धान व ज्ञान रक्खो, हितकारी ससारनाशक वचन बोलो, ऐसी ही क्रिया करो, शुद्ध निर्दोष भोजन करो, शुद्ध भावके लिये उद्योग या व्यायाम करो, निर्वाणतत्वका स्मरण करो व निर्वा भाव में या अध्यात्म में एकाग्र होकर सम्यक्समाधि भजो । यही अवि द्या नाशक व विद्या के प्रकाशका मार्ग है, यही निर्वाणका उपाय है । आत्मध्यानके लिये प्रमाद रहित होकर एकात सेवनका उपदेश दिया गया है । जैन सिद्धात में इस कथन सबन्धी नीचे लिखे वाक्य उपयोगी हैसमयसारजीमें श्री कुदकुदाचार्य कहते हैं - जादू मामवाण असुचित्त च विवरीयभाव च । दुक्खस्स कारण ति य तदो नियति कुणदि जीवो ॥७७॥ भावार्थ-ये रागद्वेषादि आसव भाव अपवित्र है, निर्वाण से विपरीत है व ससार- दुखोंके कारण हैं ऐसा जानकर ज्ञानी जीव इनसे अपनेको अलग करता है। जब भीतर क्रोध, मान, माया लोभ या रागद्वेष उठ खड़े होते है अध्यात्मीक पवित्रता बिगड़ जाती है, गन्दापना या अशुचिवना होजाता है । अपना स्वभाव तो शाव है, इन रागद्वेषका स्वभाव अशात है, इससे वे विपरीत हैं | अपना स्वभाव सुखमईं है, रागद्वेष वर्तमान में भी दुख देते हैं, वे भविष्य में अशुभ कर्मबंधका दुखदाईं फळ प्रगट करते हैं। ज्ञानीको ऐसा विचारना चाहिये । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। मह मिक्को खलु सुद्धो य णिम्ममो णाणदमणसमग्गो। तमि ठिदो तचित्तो सम्वे एदे ख५ णेमि ॥ ७८ ॥ भावार्थ-मैं निर्वाण स्वरूप आत्मा एक ह, शुद्ध हू, परकी ममतासे रहित इ. ज्ञानदर्शनसे पूर्ण हू । इतसरह मै अपने शुद्ध स्वभावमें स्थित होता हुमा, उसीमें तन्मय होता हुमा इन सर्व ही रागद्वेषादि स्रबोंको नाश करता ह । समयसार कलशमें अमृतचद्राचाय कहते हैंभावयेद्भेद विज्ञानमिदमच्छिनधारया । तावद्यावत्पराच्छ्रुत्वा ज्ञान ज्ञाने प्रतिष्ठते ॥ ६-६ ॥ भेदज्ञानोच्छनकलनाच्छद्धतत्त्वोपळम्भादागप्रामप्रळयकरणारकर्मणा सवरेण । बिभ्रत्तोष पर मममळालोकमम्ळानमेक । ज्ञान ज्ञान नियतमुदित शाश्वतोद्योतमेतत् ॥ ८-६ ॥ भावार्थ-रागद्वेष बाधाकारी है, वीतरागभाव सुखकारी है, मेरा स्वभाव वीतराग है, रागद्वेष पर हैं, कर्मकृत विकार हैं। इस तरहके भेदके ज्ञानकी भावना लगातार तब तक करते रहना चाहिये जब तक ज्ञान परसे छूटकर ज्ञान ज्ञानमें प्रतिष्ठाको न पावे, अर्थात् जब तक वीतराग ज्ञान न हो जावे। भेद ज्ञानके वार वार उछलनेसे शुद्ध मात्मतत्वका लाम होता है । शुद्ध तत्वके बामसे रागद्वे घका प्राम ऊबड़ हो जाता है, तब नवीन कर्मोका भासव रुककर सवर होजाता है, तब ज्ञान परम सतोषको पाता हुमा अपने निर्मल एक स्वरूप, श्रेष्ठ प्रकाशको रखता हुमा व सदा ही उद्योत राता हुमा गपने शान स्वभावमें ही झलकता रहता है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१३९ श्रो पूज्यपादस्वामी इष्टोपदेशमें कहते हैगगद्वेषयोदीर्धनेत्राकर्षणकर्मणा । अज्ञानात्सुचिर जीव ससाराब्धौ भ्रमत्यसौ ॥ ११ ॥ भावार्थ-यह जीव चिरकालसे अज्ञान के कारण रागद्वेषसे कर्मोको खींचता हुआ इस समारसमुद्रमे भ्रमण कर रहा है। उक्त भाचार्य समाधिशतकम कहते हैं रागद्वेषादिकल्लालरलोल यन्मनोजलम् । स पश्यत्य त्मस्तत्त्व स तत्त्व नेत्रो जन ।। ३५ ।। भावार्थ-जिनका चित्त रागद्वेषादिक लहरोंसे क्षोभित नहीं है वही अपने शुद्ध स्वरूपको देखता है, परन्तु रागीद्वेषी जन नहीं देख सक्ता है । सार समुच्चयमें कहा है--- रागद्वेषमयो जीव कामक्रोधवशे यत । लोभमोहमदाविष्ट ससारे ससात्यसौ ॥ २४ ।। कषायातपत्प्ताना विषपामयमोहिनाम् । सयोगायोग खन्नाना सम्यक्त्व परम हितम् ॥ ३८ ॥ भावार्थ-जो जीव रागद्वेषमई है, काम, क्रोधके वशमें है, लोभ, मोह व मदसे गिरा हुआ है, वह ससारमें भ्रमण करता ही है । क्रोधादि कषायोंके आतापसे जो तप्त है व जो इन्द्रिय विषयरूपी रोगसे या विषसे मूर्छित है व जो अनिष्ट सयोग व इष्ट वियोगसे पीड़ित है उसके लिये सम्यग्दर्शन परम हितकारी है । मात्मानुशासनमें कहा हैमुहु. प्रसार्य सज्ज्ञान पश्यन भावान् यथास्थितान् । प्रीत्यप्रीती निराकृत्य ध्यायेध्यात्मविन्मुनि ॥ १७७ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। ___ भावार्थ-अध्यात्मका ज्ञाता मुनि वारवार सम्यग्ज्ञानको फैला कर जैसे पदार्थोका स्वरूप है वैसा उनको देखता हुआ रागद्वेषको दूर करके भात्माको ध्याता है। तत्वानुशासनम कहा हैनमुह्यति न सशेते न स्वार्थानध्ययस्यति । न रज्यते न च द्वेष्टि कितु स्वस्थ प्रतिक्षण ।। २३७ ।। भावार्थ-ज्ञानी न तो मोह करते है, न सशय करते हैं, न ज्ञानमें प्रमाद लाते है, न राग करते हैं, न द्वेष करते है, किंतु सदा अपने शुद्ध स्वरूपमे स्थित होकर सम्यक् समाधिको प्राप्त करते हैं। ज्ञानाणवम कहा हैबोध एव दृढ पाशो हृषीक मृगबन्धन । गारुडश्च महामत्र चित्रभोगिविनिग्रहे ॥ १४-७॥ भावार्थ-इन्द्रियरूपी मृगोंको बाधन के लिये सम्यग्ज्ञान ही दृढ़ फासी है तथा चित्तरूपी सर्पको वश करने के लिये सम्यग्ज्ञान ही गारुडी मंत्र है। (१५) मज्झिमनिकाय वितक संस्थान सूत्र। गौतम बुद्ध कहते है-भिक्षुको पाच निमित्तोंको समय समय पर मनमें चिन्तवन करना चाहिये । (१) भिक्षुको उचित है जिस निमित्त को लेकर, जिस निमितको मनमें करके रागद्वेष मोहवाले पापकारक अकुशल वितर्क (भाव) -उत्पन्न होते है, उस निमित्तको छोड़ दूसरे कुशल निमित्तको मनमें Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन बौद्ध तत्वज्ञान | [ १४१ करे | ऐसा करने से छन्द ( राग ) सम्बन्धी दोष व मोह सम्बन्धी अकुशल वितर्क नष्ट होते हैं, अस्त होते हैं, उनके नाशसे अपने भीतर ही चित्त ठहरता है, स्थिर होता है, एकाग्र होता है, समाहित होता है । जैसे राज सूक्ष्म आणीसे मोटी आणीको निकालकर फेंक देता है । 1 (२) उस भिक्षुको उस निमित्तको छोड़ दूसरे कुशल सबन्धी निमित्तको मनमें करने पर भी यदि रागद्वेष मोह सब घी अकुशल वितर्क उत्पन्न होते ही है तो उस भिक्षुको उन वितर्कों के आदिनव ( दुष्परिणाम ) की जाच करनी चाहिये कि ये मेरे वितर्क अकुशल हैं, ये मेरे वितर्क सावद्य (पापयुक्त) है । ये मेरे वितर्क दु खविपाक (दु ख ) है । इन वितर्कोंक आदिनवकी परीक्षा करनेपर उसके राग द्वेष मोह बुरे भाव नष्ट होते है, अस्त होते हैं, उनके नाशसे चित्त अपने भीतर ठहरता है, समाहित होता है । जैसे कोई शृगार पसद अल्पवयस्क तरुण पुरुष या स्त्री मरे साप, मरे कुत्ता या आदमीके मुर्दे कठमें लग जाने से घृणा करे वैसे ही भिक्षुको अकुशल निमितोंको छोड़ देना चाहिये । 1 (३) यदि उस भिक्षु को उन वितर्कों के आदिनवको जाचते हुए भी राग, द्वेष, मोह सम्बन्धी अकुशल वितर्क उत्पन्न होते ही है तो उस भिक्षुको उन वितको यादमें लाना नहीं चाहिये । मनमें न करना चाहिये ऐसा करने से वे वितर्क नाश होते है और चित अपने भीतर ठहरता है । जैसे दृष्टिके सामने आनेवाले रूपों के देखनेकी इच्छा न करनेवाला कोदमी आंखोंको मूंदले या दुसरेकी ओर देखने लगे । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। (४) यदि उस भिक्षुको उन वितकों के मनमें न लानेपर भी गगद्वेष मोह सम्बन्धी बुरे भाव उत्पन्न होते ही है तो उस भिक्षुको उन वितकों के सम्वार का सस्थान (कारण) मनमे करना चाहिये । ऐसा करने से वे वितर्क नाश होने हैं जैसे क्षुिओ। कोई पुरुष शीघ्र भाजाता है उसको ऐसा हो क्यों मै शीघ्र जाता है क्यों न धीरे२ चलू, वह धीरे२ चले, फिर ऐमा हो क्यों न मै बैठ जाऊँ, फिर वह बैठ जावे, फिर ऐसा हो क्यों न मै लेट जाऊँ, फिर वह लेट जावे, वह पुरुष मोटे ईर्यापथसे हटकर सुक्ष्म ईर्यापथको स्वीकार करे। इसी तरह भिक्षुको उचित है कि वह उन वितकोंके सस्कारके सस्थानको मनमें विचारे । (५) यदि उस भिक्षुको उन वितको वितक सरकार सस्था नको मनमें करनेस भो रागद्वेष मोह सम्बन्धो अकुशल वितर्क उत्पन होते ही है तो उस दातोंको दातोप. रग्वार, जिह्वाको तालूसे चिस्टा कर, चित्तसे चित्तका निग्रह करना चाहिये, सतापन व निष्पीडन करना चाहिये । ऐसा करने से वे गगद्वेष मोहभाव नाश होते है। जैसे बलवान पुरुष दुर्बलको शिरसे, कधेसे पकडकर निग्रहीत करे, निपीड़ित करे, संतापित करे। इस तरह पाच निमित्तोंके द्वारा भिक्षु वितर्कके नाना मार्गोको वश करनेवाला कहा जाता है । वह जिस वितर्कको चाहेगा उसका वितर्क करेगा। जिस वितर्कको नहीं चाहेगा उस वितर्कको नहीं करेगा। ऐसे भिक्षुने तृष्णारूपी बन्धनको हटा दिया । मच्छी तरह जानकर, साक्षात् कर, दुःखका मत कर दिया। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१४१ नोट-इस सूत्रमें रागद्वेष मोहके दूर करनेका विधान है। वास्तवमें निमित्तोंके आधीन भाव होते हैं, भावोंकी सम्हाल के लिये निमित्तोंको बचाना चाहिये । यहा पाच तरहसे निमित्तोंको टालनेका उपदेश दिया है । (१) जब बुरे निमित्त हों जिनसे रागद्वेष मोह होता है तब उनको छोडकर वैराग्यके निमित्त मिलावे जैसे स्त्री, नपुसक, बालक, शृगार, कुटुम्बादिका निमित्त छोडकर एकान्त सेवन, वन निवास, शास्त्रस्वाध्याय, साधुसगतिका निमित्त मिलावे तब वे बुरे भाव नाश होजावेंगे। (२) बुरे निमित्तोंके छोडनेपर भी अच्छे निमित्त मिलाने पर भी यदि रागद्वेष मोह पैदा हों तो उनके फलको विचारे कि इनसे मेरेको यहा भी कष्ट होगा, भविष्य में भी कष्ट होगा, मैं निर्वाण मार्गसे दूर चला जाऊगा। ये भाव अशुद्ध है, त्यागने योग्य हैं। ऐसा बार बार विचारनेसे वे रागादि भाव दूर होजावेंगे। (३) ऐसा करनेपर भी गा द्वेषादि भाव पैदा हो तो उनको स्मरण नहीं करना चाहिये। से ही चे मनमें आ मनको हटा लेना चाहिये । मनको तत्व विचारादिमें कगा देना चाहिये। (४) ऐसा करनेपर भी यदि रागद्वेष, मोह पैदा हो तो उनके सस्कारके कारणोंको विचार करे। इसतरह धीरे२ वे रागादि दुर होजायेंगे। (५) ऐसा होते हुए भी यदि रागादि भाव पैदा हों तो बला स्कार चित्तको हटाकर तत्वविचारमें लगानेका अभ्यास करना चाहिये। पुन पुन. उत्तम मावीक संस्कार से बुरे भावकि संस्कार मिट जाते है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धातानुसार मा यही बात है कि राग, द्वेष, मोहको त्यागे विना वीतरागता सहित ध्यान नहीं होसकेगा। इसलिये इन भावोंको दूर करनेका ऊपर लिखित प्रयत्न करे। दुसरा प्रयत्न आत्म ध्यानका भी जरूरी है। जितना२ आत्मध्यान द्वारा भाव शुद्ध होगा उतनार उन क्षायरूपी कर्मों की शक्ति क्षीण होगी, जो भावी कालमें अपने विषाकपर रागादि भावोके पैदा करते है इस तरह ध्यानके वलसे हम उस मोहकर्मको जितना२ क्षीण करेंगे उतनार रागद्वेषादि भाव नहीं होगा। वास्तवमें सम्यग्दर्शन ही रागादि दूर करनेका मूल उपाय है। जिसने ससारको असार व निर्वाणको सार समझ लिया वह अवश्य रागद्वेष मोहके निमित्तोंसे शृद्धापूर्वक बचेगा और वैराग्यक निमित्तोंमें वर्तन करेगा। धैर्य के साथ उद्योग करनेसे ही रागादि भावोंपर विजय प्राप्त होगी। जैन सिद्धातके कुछ उपयोगी वाक्य ये हैंसमाधिशतकमें पूज्यपादस्वामी कहते हैअविद्याभ्याससस्कारवश क्षिप्यते मन । तदेव ज्ञानसरकार स्वास्तत्वेऽवतिष्ठते ।। ३७ ॥ भावार्थ-अविद्या अभ्यासके सस्कारसे मन लाचार होकर रागी, द्वेषी, मोही होजाता है, परन्तु यदि ज्ञानका सस्कार डाला जावे, सत्य ज्ञानके द्वारा विचारा जावे तो यह मन स्वय ही मात्माके सच्चे स्वरूपमे ठहर जाता है। यदा मोहात्प्रजायेते रागद्वेषौ तपस्विन. । तदेव भावयेत्स्वस्थमात्मान शाम्यत. क्षणात् ॥ ३९॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन बौद्ध तत्कान। भावार्थ-जब किसी तस्वीके मनमें मोहके कारण रागद्वेष पैदा होजावे उसी समय उसे उचित है कि वह शान्तभावसे अपने स्वरूप ठहरकर निर्वाणम्वरूप अपने आत्माकी भावना करे । गणद्वेष कौकिक ससर्गसे होते है भतएव उसको छोडे। जनेभ्यो वाक् तत स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रमा । भवन्ति तस्मात्ससगै जनोंगो स्तस्त्यजेत् ॥ ७२ ॥ भावार्थ-जगतके लोगोंम वातालाप करनेमे मनकी चचलता होता है, तब चित्तमें राग, द्वेष, मोह विकार पैदा होजाते है। इसलिये योगीको उचित है कि मानवों क संसर्गको छोड़े। स्वामी पूज्यपाद इष्टोपदेशमें कहते है अभवञ्चित्तविक्षेपे एकाते रत्वसस्थिति । अपस्येदभियोगेन योगा व निजात्मन ॥ ३६॥ भावार्थ-तत्वोंको भले प्रकार जाननेवाला योगी ऐसे एकातमें जावे जहा चित्तको कोई क्षोभक या रागद्वेषक पैदा करनेके निमित्त न हो और वहा भासन लगाकर तत्वम्वरूपमे तिष्ठे, आलस्य निद्राको जीते और अपने निर्वाणस्वरूप अत्माका अभ्यास करे । ससारमें भकुशक धर्म या पाप पाच है-हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इनसे बचनके लिये पाच पाच भावनाए जैन सिद्धातमें बताई है । जो उनपर ध्यान रखता है वह उन पाचों पापोंसे बच सक्ता है। श्री उमास्वामी महाराज तत्वाथसूत्रमे कहते है (२) हिंसासे बचनेकी पांच भावनाएँवाङ्मनोगप्तीर्यादाननिक्षेपणसमिट म लोकिन र नमो नगनि पञ्च ||४-७|| २० Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] दुसरा भाग। (१) वचनगुप्ति-वचनकी सम्हाल, पर पीडाकारी वचन न कहा जावे, (२) मनोगुप्ति-मनमें हिंसाकारक भाव न लाऊं (३) ईयासमिति-चार हाथ जमीन आगे देखकर शुद्ध भूमिमें दिनमें चल, (४) आदाननिक्षपण समिति-देखकर वस्तुको उठाऊ व रख, (५) आलोकित पानभोजन-देखकर भोजन व पान करूँ। (२) असत्यसे बचनेकी पाच भावनाएक्रोधकोमभीरुत्यहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषण च पश्च ॥५-७॥ (१) क्रोध प्रत्याख्यान-क्रोधसे बचू क्योंकि यह मसत्यका कारण है। (२) लोभ प्रत्याख्यान लामय बचू क्याफि यह भसत्यका कारण है। (३) भीरुत्व प्रत्याख्यान-भयमे बचू क्योंकि यह असत्यका कारण है। (४) हास्य प्रत्याख्यान-हसीसे बचू क्योंकि यह असत्यका कारण है। (५) अनुवीची भाषण-शास्त्र के अनुसार वचन कहू । (३) चोरीसे बचनेकी पाच भावनाएशुन्यागारविमो चतावासपपरोषाकरणभक्ष्यशुद्धिमधर्माविसवादा पञ्च ॥६-७॥ (१) शून्यागार-शूने खाली, सामान रहिन, वन, पर्वत, मैदा नादिमें ठहरना । (२) विमोचितावास-छोड़े हुए उजडे हुए मकानमें ठहरना । (३ परोपोधाकरण-जहा आप हो कोई आवे तो मना न करे या जहा कोई रोके वहा न ठहरे । (४) भैक्ष्यशुद्धि Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [ १४७ भोजन शुद्ध व दोष रहित लेवे । (५) सधर्माविसवाद-स्वधर्मी जनसे झगडा न करे, इससे सत्य धर्मका लोप होता है । (४) कुशीलसे बचनेकी पाच भावनाए श्रीरामकथाश्रवणतन्मनोहरराङ्ग निरीक्षणपूर्व र तानुस्मरणवृष्येष्टा सस्त्रशरीरसस्कारत्यागा पञ्च ॥ ७-७ ॥ (१) स्त्रीरागकथाश्रवण त्याग - स्त्रियोंमें राग बढानेवाली कथा सुनने का त्याग, (२) तन्मनोहरांगनिरीक्षण त्याग- स्त्रियोंके मनोहर अङ्गको राग सहित देखने का त्याग, (३) पूर्वरतानुस्मरण स्याग - पहले भोगोंके स्मरणका त्याग, (४) वृष्येष्टरस त्याग - कामोद्दीपक इष्ट रस खानेका त्याग, (५) स्वशरीर सस्कार त्याग - अपने शरीर के शृगार करनेका त्याग । 1 (५) परिग्रहसे बचनेकी पाच भावनाए -ममता त्यागकी भावनाए --- " मनोज्ञ मनोज्ञ विषय रागद्वेषवज्र्जनानि पच । " अच्छे या बुरे पाच इन्द्रियोंके पदार्थों में राग व द्वेष नहीं करना । जो कुछ खानपान स्थान व सयोग प्राप्त हो उनमें संतोष रखना । इन्द्रियोंकी तृष्णाको मिटानेका यही उपाय 1 सार समुच्चयम कहा है ममत्वाज्जायते लोभो लोभाद्रागश्च जायते । रागाच्च जायते द्वषो द्वेषाद्दु. खपरपरा ॥ २३३ ॥ निर्ममत्व पर तत्व निर्ममत्व पर सुख । निर्ममत्वं पर बीज मोक्षस्य कथित बुबै ॥ २३४ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284] भावार्थ:- ममता से कोभ होता है, कोमसे राग होता है, रागसे द्वेष होता है, द्वेषसे दुखोंकी परिपाटी चलती है। इसलिये ममता रहितपना परम तत्व है, निर्मलता परम सुख है, निर्मळता ही मोक्षका परम बीज है, ऐसा विद्वानोंने कहा है । यै सतोषामृत पीत तृष्णावणासन । तैख निर्वाण सौम्यस्य कारणम् समुपार्जितम् ॥ २४७ ॥ भावार्थ- जिन्होंने तृष्णारूपी प्यास बुझानेवाले सतोषरूपी अमृतको प्रिया है उन्होंने निर्वाणसुखके कारणको प्राप्त कर लिया है !! परिग्रहपरिष्वङ्गाद्रागद्वेषश्च जायते । रागद्वेषौ महाबन्ध कर्मणा भवकारणम् ॥ २५४ ॥ भावार्थ - धन धान्यादि परिग्रहों को स्वीकार करने से राग और द्वेष उत्पन्न होता ही है । रागद्वेष ही कर्मोंके महान बबके कारण हैं उन्हींसे ससार बढ़ता है । कुससर्ग सदा त्याज्यो दोषाणा प्रविधायक । सगुणोऽपि जनस्तेन लघुता याति तत् क्षणात् ॥ २६९ ॥ भावार्थ- दोषोंको उत्पन्न करनेवाली कुसगतिको सदा छोड़ना योग्य है । उस कुसगतिसे गुणी मानव भी दमभर में हलका होजाता है । जो कोई मन, वचन, कायसे रागद्वेषोंके निमित्त बचाएगा व निज अध्यात्म में रत होगा वही समाधिको जागृत करके सुखी होगा, ससारके दुखका अन्त कर देगा | Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पौद तत्त्वान। [१४९ (१६) मज्झिमनिकाय ककचूयम (क्रकचोयम) सूत्र। गौतमबुद्ध कहते है-एक दफे मैंने भिक्षुओंको बुलाकर कहा--- भिक्षुषों ! मैं एकासन (एक) भोजन सेवन करता है । (एकासनभोजन मुजामि) एकासन भोजनका सेवन करने में स्वास्थ्य, निरोग, स्फूर्ति, बल और प्राशु विहार (कुशलपूर्वक रहना) भपनेमें पाता है। भिक्षु मों ! तुम भी एकासन भोजन सेवन कर स्वास्थ्यको प्राह करो। उन भिक्षुओंको मुझे अनुशासन करनेकी आवश्यक्ता नहीं थी। केवल याद दिलाना ही मेरा काम था जैसे-उद्यान (सुमि)में चौराहोपर कोड़ा सहित घोड़े जुता माजाने व (उत्तम घोड़ोंका) रथ खड़ा हो उसे एक चतुर स्थाचार्य, अश्वको दमन करनेवाला सारथी बाए हाथमें जोतको पकड़कर दाहने हाथमें कोडेको ले जैसे चाई, जिधर चाहे लेजावे, लौटावे ऐसे ही भिक्षुओं ' उन भिक्षुओंको मुझे मनुशासन करनेकी आवश्यक्ता न थी। केवल याद दिलाना ही मेरा काम था। इसलिये मिक्षुओ! तुम मी अकुशल (बुराई) को छोड़ो। कुशल धर्मों (अच्छे कामों) में लगी। इस प्रकार तुम भी इस धर्म विनयो वृद्धि, विरूढ़ि व विपुलताको प्राप्त होंगे। जैसे गावके पास सघन तासे आच्छादित महान साल ( साखू) का बन हो उसका कोई हितकारी पुरुष हो वह उस सालके रसको अपहरण करनेवाली टेढी हालियोंको काटकर बाहर लेजावे, वनके भीतरी भागको अच्छी तरह साफ करदे और जो सालकी शाखाएं सीधी सुन्दर तौरसे निकली हैं, उन्हें अच्छी तरह रक्खे इसप्रकार वह साल वन वृद्धि के विपु Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] दूसरा भाग । कताको प्राप्त होगा । ऐसे ही भिक्षुभो ! तुम भी बुगईं को छोड़ो कुशल श्रममें लगो, इस प्रकार धर्मे विनय में उन्नति करोगे । } भिक्षुओं भूतकाल में इसी श्रावस्ती नगरा में वैदेहिका नामकी गृहपत्नी थीं । उसकी कीर्ति फैली हुई थी कि वैदेहिका सुरत हैं, निष्कलह है और उपज्ञात है । वैदेहिका के पास काली नामकी दक्ष, आकश्यरहित, अच्छे प्रकार काम करनेवाली दासी थी । एक दफे काली दासीके मनमें हुआ कि मेरी स्वामिनीकी यह मगल कीर्ति फैला हुई है कि यह उपशात है। क्या मेरी आर्या भीतर में क्रोध के विद्य मान रहते उसे प्रगट नहीं करती या अविद्यमान रहती ? क्यों न मैं मार्याकी परीक्षा क्रू ? एक दफे काली दासी दिन चढे उठी तन आर्याने कुपित हो, सतुष्ट हो भौहें टेढी करली और कहा- क्योंरे दिन चढ़े उठती है ! सब काली दासीको यह हुआ कि मेरी भार्याके भीतर क्रोध विद्यमान है । क्यों न और भी परीक्षा करू ! काली और दिन चढ़ाकर उठी तब वैदेहिने कुपित हो कटु वचन कहा, तब कालीको यह हुआ कि मेरी आर्याके भीतर क्रोष है। क्यों न मैं और भी परीक्षा करू । तब वह तीसरी दफे और भी दिन चढ़े उठी, तब वैदेहिकाने कुपित हो किवाड़की बिलाई उसके मारदी, शिर फूट गया, तब काली दासीने शिरके लोहू बहाते पड़ोसियोंसे कहाकि देखो, इस उपचाताके कामको । तब वैदेहिकाकी अपकीर्ति फैकी कि यह अन् उपशात है। इसी प्रकार भिक्षुओं । एक भिक्षु तब ही तक सुरत, निष्फलह उपशात है, जबतक वह मप्रिय शब्द थमें नहीं पड़ता । जब उसपर Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mas जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१५१ अप्रिय शब्दपथ पड़ता है तब भी तो उस सुरत, निष्कलह और उपशात रहना चाहिये। मै उस भिक्षुको सुवच नहीं कहता जो भिक्षा आदिके कारण सुवच होता है, मृदुभाषी होना है। ऐसा भिक्षु भिक्षा दिके न मिलनेपर सुवच नहीं रहता। जो भिक्षु केवल धर्मका सत्कार करते व पूजा करते सुवच होता है, उसे मै सुवच कहता इ। इसलिये भिक्षुओं ! तुम्हें इस प्रकार सीखना चाहिये " केवल धर्मका सत्कार करते पूजा करते सुवच होऊंगा, मृदु भाषी होऊंगा ॥ भिक्षुओ ! ये पाच वचनपथ (बात कहनेके मार्ग) है जिनसे कि दूसरे तुमसे बात करते बोलते है। (१) कालसे या अकाकसे, (२) भूत (पर्याय) से या अभूतम्, (३) स्नेहसे या परुषता (क्टुता) से, (४) सार्थकतासे या निरर्थकतामे, (५) मैत्री पूर्ण चित्तसे या द्वेषपूर्ण चित्तसे । भिक्षुओ। चाहे दुसरे कालसे बात करे या भकालमे, मृतसे अमूतस या स्नेह से या द्वेषसे, सार्थक या निरर्थक, मैत्रीपूर्ण चित्तसे या द्वेषपूर्ण चित्तसे तुम्हें इस प्रकार सीखना चाहिये-- "मैं अपने चित्तको विकारयुक्त न होने दृगा और न दुवर्चन निकालूगा, मैत्रीभावस हितानुकम्पी होकर विहरूगा न कि द्वेषपूर्ण चित्तसे । उस विरोधी व्यक्तिको भी मैत्रीभाव चित्तसे मप्लावित कर विहरूगा। उमको लक्ष्य करके सारे लोकको विपुल, विशाल, अप्रमाण मैत्रीपूर्ण चित्तसे अप्लावित कर अवैरता-भव्यापादिता (द्रोहरहितता ) से परिप्लावित ( भिगोकर ) विहरूगा।" इस प्रकार भिक्षुओ! तुम्हें सीखना चाहिये। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] दसरा भाम। (१) जैसे कोई पुरुष हाथमें कुदाल लेकर पाए और वह ऐसा कहे कि मैं इस महापृ. वीको अपृथ्वी करूगा, वह जहातहा खोदे, मिट्टी फेंक और माने कि यह अपृथ्वी हुई तो क्या यह महा पृथ्वीको अपृथ्वी कर सकेगा ? नहीं, क्यों नहीं कर सकेगा ? महा पृथ्वी गभीर है, अप्रमेय है। वह अपृथ्वी (पृथ्वीका अभाव) नहीं की जासक्ती । वह पुरुष नाहक में हैरानी और परेशानीका भागी होगा। इसी प्रकार पृथ्वीके समान चित्त करके तुम्हें क्षमावान होना चाहिये ! (२) और जैसे भिक्षुओ ! कोई पुरुष लाख, हलदी, नील मा मजीठ लेकर भाए और यह कहे कि मैं आकाशमें रूप (चित्र) लिखूगा तो क्या वह आकाशमें चित्र लिख सकेगा ? नहीं, क्योंकि आकाश भरूपी है, अदर्शन है, वहा रूपका लिखना सुकर नहीं। यह पुरुष नाहकमें हैगनी और परेशानीका भागी होगा। इसी तरह पाच वचनपथ होनेपर भी तुम्हे सर्वलोकको आकाश समान चित्तम वैररहित देखकर रहना चाहिय। (३) और जैसे भिक्षुओ! कोई पुरुष जलती तृष्णाकी उम्काको लेकर आए और यह कहे कि मै इस तृष्णा उल्कासे गगानदीको सतप्त करूगा, परितप्त करूंगा तो क्या यह जलती तृण उल्कासे गंगा नदीको सतप्त कर सकेगा ? नहीं, क्योंकि गगानदी गमीर है, अपमेय है। वह जलती तृण उल्कासे नहीं सतप्त की जासकी। वह पुरुष नाह को हैरानी 'उठाएगा। इसीप्रकार पाच वचनपथके होते हुए तुम्हें यह सीखना चाहिये कि मैं सारे लेकको गगा समान चित्तसे अपमाण भवैरभावसे परिप्लावित कर विहरूगा। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन का सामान । ६३५३ (४) और जैसे एक मर्दित, मृदु, खर्खराहट रहित विलीके चमड़ेकी खाल हो, तब कोई पुरुष काठ या ठीकरा लेकर आए और बोले कि मैं इस काठसे बिल्लोकी खालको खुर्दुरी बनाऊगा तो क्या वह कर सकेगा। नहीं, क्योंकि बिल्लीकी खाल मर्दित है, मृद है, वह काठसे या ठीकरेसे खुर्दुरी नहीं की जासक्ती। इसी तरह पाचों वचनपथके होनेपर तुम्हें सीखना चाहिये कि मैं सर्वलोकको बिल्लीकी खालके समान चित्तसे वैरभावरहित भावसे भरकर बिहरूगा। (५) भिक्षुओं ! चोर लुटेरे चाहे दोनों ओर मुठिया लगे, आरेसे अग अगको चीरे तौभी जो भिक्षु मनको द्वेषयुक्त करे तो वह मेरा शासनकर (उपदेशानुसार चलनेवाला) नहीं है । वहापर भी भिक्षुओं ! ऐसा सीखना चाहिये कि मैं अपने चित्तको विकाग्युक्त न होने दूंगा न दुर्वचन निकालगा। मैत्रीमावसे हितानुकम्पी होकर विहरुगा, न द्वेषपूर्ण चित्तसे । उस विरोधीको भी मैत्रीपूर्ण चित्तसे भाप्लापित कर विहरूगा। उसको लक्ष्य करके सारे लोकको विपुल, विशाल, मप्रभाण, मैत्रीपूर्ण चित्तसे भरकर अवरता व भव्यापादितासे भरकर विहरूगा। भिक्षुओं ! इस क्रकचोयम (आरेके दृष्टातवाले ) उपदेशको निस्तर मनमें करो। यह तुम्हें चिरकालतक हित, मुखके लिये होगा। नोट-इस सूत्रमें नीचे प्रकार सुन्दर शिक्षाए है (१) भिक्षुको दिन रातम केवल दिनम एकवार भोजन करना चाहिये, यही शिक्षा गौतमबुद्धने दी थी व भाप भी एकासन करते थे। योगीको, त्यागीको, ध्यानके मभ्यासीको दिनमें एक ही Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४) दुसरा भाग ।। दफे मात्रा सहित अल्पभोजन करके काल बिताना चाहिये । स्वा स्थ्य लिये व प्रमाद त्यागके लिये व शातिपूर्ण जीवन के लिये यह बात आवश्यक है। जैन सिद्धातमें भी साधुको 'एकासन कग्नका उपदेश है। सावुके २८ मूल गुणों में यह एकासन या एकमुक्त मूलगुण है-अवश्य कर्तव्य है। ' (२) भिक्षुओंको गुरुकी आज्ञानुसार बड़े प्रेमसे चलना चाहिये । जैसा इस सूत्रमें कहा है कि मै भिक्षुओंको केवल उनका कर्तव्य स्मरण करा देता था, वे सहर्ष उनपर चलते थे। इसपर दृष्टात योग्य घोड़े सजुने रथका दिया है। हाकनेवाले के सकेत मात्रसे जिघर बह चाहे घोडे चलते है, हाकनेवालेको प्रसन्नता होती है, घोडों को भी कोई कष्ट नहीं होता है। इसी तरह गुरु व शिष्यका व्यवहार होना चाहिये। (३) भिक्षुओंको सदा इस पातमें सावधान रहना चाहिये कि वह अपने भीतरसे बुराइयोंको हटावें, राग द्वेष मोहादि भावोंको दुर करे तथा निर्वाण साधक हितकारी धर्मोको ग्रहण करें। इसपर दृष्टात सालके बनका दिया है कि चतुर माली रसको सुखानेवाली डालियोंको दूर करता है और रसदार शाखाओं की रक्षा करता है तब वह बनरूप फलता है । इसीतरह भिक्षुको प्रमादरहित होकर अपनी उन्नति करनी चाहिये। । __ (४) क्रोधादि कषायोंको भीतरसे दूर करना चाहिये। तथा निर्बल पर क्रोध न करना चाहिये, क्षमाभाव रखना चाहिये । निमित्त पड़ने पर भी क्रोध नहीं करना चाहिये । पहा वैदेहिका Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जौन बैद्ध तत्वज्ञान | [ 44 गृहिणी और काली दासका दृष्टा दिया है। वह गृहिणी ऊपरसे शात या, मातरम कोपयुक्त थी । जो दामी विनयी व स्वामिनीकी आज्ञानुसार समभाव करनदात्री यी यह यदि कुछ दे मे उठी हो तो स्वामियोको शाल भावसे कारण पूछना चाहिये । यदि वह कारण छती कोष करती तो उसका वासे उसको पतोष होजाता । वह कह देती कि शरीर अस्वस्थ होनेमे देरसे उठी हू । इम हातको देकर भिक्षुओं को उपदेश दिया गया है कि स्वार्थसिद्धिक लिये ही शात भाव न खो किन्तु धर्मलाभ के लिये शातभाव रक्खो : कोषमा वैरी है ऐसा जानकर कभी कोष न करो तथा साधुको कल पड़ने पर भी, इच्छित वस्तु न मिलने पर भी मृदुभाषी कोमक परिणामी रहना चाहिये । (५) उत्तम क्षमा या भाव अहिसा या विश्वमेम रखनेकों कड़ी शिक्षा साधुओं को दी गई है कि उनको किसी भी कारण मिलन पर दुर्वचन सुननपर या शरोरके टुकड़े किये जाने पर भी मनमें विकारभाव न लाना चाहिये, द्वेष नहीं करना चाहिये, उपसर्गकपर भी मैत्रीभाव रखना चाहिये । पाच तरहसे प्रवचन कहा जाता है - (१) समयानुमार कहना, (२) सत्य कहना, (३) प्रेमयुक्त कहना, (४) सार्थक करना, (५) मैत्रीपूर्ण चिचसे कहना | पाच तरहसे दुर्वचन कहा जाता है- (१), विना अवसर कहना, (२) असत्य कहना, (३) कठोर वचन कहना, (४) निरर्थक कहना, (५) द्वेषपूर्ण चित्तसे कहना । साधुका कर्तव्य है कि चाहे कोई सुवचन कहे या कोई दुर्वचन कहे दोनों दशाओंमे सम Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव रखना चाहिये। उसे मैत्रीभाव मनुकम्मा भाव ही रखना चाहिये। उसकी अज्ञान दशापर दयाभाव लाकर क्रोध नहीं करना चाहिये । क्षमा या मैत्रीभाव रखने के लिय साधुको नीचे लिखे दृष्टात दिये है (१) साधुको पृथ्वीके समान क्षमाशील होना चाहिये । कोई पृश्वीका सर्वथा नाश करना चाहे तौभी वह नहीं कर सक्ता, पृथ्वाका भभाव नहीं किया जासक्ता। वह पाम गंभीर है, सहनशील है। वह सदा बनी रहती है। इसी तरह भले ही कोई शरीरको नाश कर, साधको भीतरसे क्षमावान व गभीर रहना चाहिये तब उसका नाश नहीं होगा, वह निर्वाणमार्गी बना रहेगा, (२) साधुको भाकाशके समान निलेप निर्मळ व निर्विकार रहना चाहिये । जैसे माकाशमें चित्र नहीं लिखे जासकते वैसे ही निर्मल चित्तको विकारी व क्रोध युक्त नहीं बनाया जासक्ता। (३) साधुको गगा नदीके ममान शात, गभीर न निर्मक रहना चाहिये । कोई गगाको मसालमे जलाना चाहे तो असमव है, मसाल स्वय बुझ जायगी। इसीतरह साधुको कोई कितना भी कष्ट देकर क्रोधी या विकारी बनाना चाहे परन्तु साधुको गगाजलके समान शात व पवित्र रहना चाहिये । (४) साधुको विल्लीकी चिक्नी खालके समान कोमल चित्त रहना चाहिये। कोई उस खालको काष्टके टुकड़ेसे खुरखुरा करना चाहे तो वह नहीं कर सक्ता, इसीतरह कोई कितना कारण मिलावे साधुको नम्रता, मृदुता, सरलता, शुचिता, क्षमाभाव नहीं त्यागना चाहिये । (५) साधुको यदि लुटेरे आरेसे चीर भी डालें तो भी मैत्री भाव या क्षमाभावको नहीं त्यागना चाहिये। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१५७ इस सूत्रमें बहुत ही बढ़िया उत्तम मा व महिंसा धर्मका उपदेश है । जैन सिद्धातमें भी ऐसा ही कथन है। कुछ उपयोगी वाक्य नीचे दिये जाते हैश्री बट्टकेसस्वामी मूलाचार अनगारभावनामें कहते हैमक्खोमक्खणमेत्त भुनति मुणी पाणधाग्णणिमित्त । पाण धम्मणि मेत्त धम्म पि चरति मोक्खट्ठ ॥ ४९ ॥ भावार्थ-जैसे गाड़ोके पहियेमें तैल देकर रक्षा की जाती है वैस मुनिराज प्राणोंकी रक्षानिमित्त भोजन करते है । प्राणोंको धर्मके निमित्त रखते हैं। धर्मको मोक्षके लिये भाचरण करते हैं। श्री कुदकंदखामी प्रवचनसारमें कहते है-- समसत्तु वधु वग्गो समसुदुक्खो पससणिंदसमो। समलोट्टुकचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥ ६२-३॥ भावार्थ-जो शत्रु व मित्र वर्गपर समभाव रखता है सुख व दु ग्व पड़ने पर समभावी रहता है, प्रशसा व निन्दा होनेपर निर्वि कारी रहता है, ककड व सुवर्णको समान देखता है, जीने या मरने में हर्ष विषाद नहीं करता है वही श्रमण या साधु है। श्री वट्टकेरस्वामी मूलाचार अनगार भावनामें कहते हैवसुधम्मि वि विहरता पीड ण करेंति कस्सइ कयाइ। जीवेसु दयावण्णा माया जह पुत्तभडेसु ॥ ३२ ॥ भावार्थ-साधुजन पृथ्वीमे विहार करते हुए किसीको भी कभी पीड़ा नहीं देते है। वे सर्व जीवोंपर ऐसी दया रखते हैं जैसे माताका प्रेम पुत्र पुत्री भादि पर होता है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८] । दूसरा भाग। श्री गुणभद्राचार्य आत्मानुशासनमें कहते है - अधीत्य संकल श्रुत चिमुपास्य घोर तपो। यदीच्छसि फल तयोगिह हिलामपूजादिनम् ।। छिनत्सि सुतपस्तरो प्रसवमेव शून्याशय, । क्थ समुपस्प्त्य स सुरसमस्थ व फलम् ॥ १८ ॥ भावार्थ सर्व शास्त्रोंको पढ़क' तथा दार्घ कालना घोर तप भाषन कर यदि तू शास्त्रज्ञान और तपका फल इस लोक्में लाभ, पूजा, सत्कार आदि चाहता है तौ तू विवेकशून्य होकर सुदर तरूपो वृक्षके फूलको ही तोड डालता है। तब तु उस वृक्षके मोक्षरूपी पक्के फलको कैसे पा सकेगा ? तपका फल निर्वाण है, यही भावना फरनी योग्य है। श्री शुभचद्राचार्य ज्ञानार्णवमें कहने हैं अभय यच्छ भूतेषु कुरु मैत्रीमनिन्दिताम् । पश्यात्मसदश विश्व जीवलोक चराचरम् ॥ ५२-८ ॥ भावार्थ-सर्व प्राणियोंको अभयदान दो, सर्वसे प्रशसनीय मैत्रीभाव करो, जगतके सर्व स्थावर व त्रस प्राणियोंको अपने समान देखो। श्री सारसमुच्चयमें कहते है-- मैत्र्यङ्गना सदोपास्या हृदयानन्दकारिणी। या विधत्ते कतोपास्तिश्चित्त विद्वेषधर्जित ॥ २६० ॥ भावार्थ-मनको आनन्द देनेवाली मैत्रीरूपी स्त्रीका सदा सेवन करना चाहिये । उसकी उपासना करनेसे चित्तसे द्वेष निकल जाता है। सर्वसत्वे दया मेत्री य करोति सुमानस । जयत्यसावरीन् सर्वान् बाह्याभ्यन्तरसस्थितान्ना २६१ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१५९ भावार्थ-जो कोई मनुष्य सर्व प्राणीमात्रपर दया तथा मैत्रीभाव करता है वह बाहरी व भीतरी रहनेवाले सर्व शत्रुओंको नीत लेता है। मनस्याल्हादिनी सेव्या सर्वकालसुखप्रदा! उपसेध्या त्वया भद्र क्षमा नाम कुलानना ॥ २६५॥ भावार्थ-मनको प्रसन्न रखनेवाली व सर्वकाल सुख देनेवाली ऐसी क्षमा नाम कुलवधूका हे भद्र ! सदा ही तुझे सेवन करना चाहिये। आत्मानुशासनमें कहा हैहृदयसरसि यावनिमलेप्यत्यगाधै। वसति खलु कषायग्राहचक्र समन्तात् ॥ अयति गुणगणोऽय तन्न तावद्विशङ्क । समदमयमशेषैस्तान् विजेतु यतस्व ॥ २१३ ॥ भावार्थ-हे साधु । तरे मनरूपी गमार निर्मक सरोवरके भीतर जबतक सर्व तरफ क्रोधादि कषायरूपी मगरमच्छ बस रहे हैं तबतक गुणसमूह निशक होकर तेरे भीतर माश्रय नहीं कर सके। इसलिये तु यत्न करके शात भाव, इन्द्रियदमन व यम नियम मादिके द्वारा उनको जीत ।। वैराग्यमणिमालामें श्रीचद्र कहते है भ्रात, बचन कुरु सार चेत्त्व वाछसि ससृ तेपार । मोह त्यक्त्वा काम क्रोध यज भज त्व सयमवरबोध ॥ ६॥ भावार्थ-हे भाई ! यदि तु ससार समुद्र के पार जाना चाहता है तो मेरा यह सार वचन मान कि तु मोहको त्याग, कामभाव व क्रोधको छोड और तू सयम सहित त्तम ज्ञानका मजन कर । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवसेनाचार्य तत्वसारमें कहते हैपप्पसमाणा दिहा जीवा सब्वेवि तिहमणस्थावि । जो मज्झत्थो जोई ण य तूसह परसेह ।। ३७ ॥ भावार्थ-जो योगी अपने समान तीन लोकके जीवोंको देख का मध्यस्था या वैसम्यवान रहता है-२ वह किसीपर क्रोध करता है न किसीपर हर्ष करता है। (१७) मज्झिमनिकाय अलंगद्दमय सूत्र । गौतमबुद्ध कहते हैं-कोई२ मोघ पुरुष गेय, व्याकरण, गाथा, उदान, इतिवृत्तक जातक, अद्भुत धर्म, वैदरप, इन नौ प्रकार के धर्मोपदेशको धारण करते हैं वे उन धर्मोको धारण करते भी उनके अर्थको प्रज्ञासे नहीं परखते हैं । अर्थोको प्रज्ञासे परखे विना धोका भाशय नहीं समझते। वे या तो उपारग (सहायता) के लाभके लिये धर्मको धारण करते है या वादमें प्रमुख बननेके लामके लिये धर्मको धारण करते है और उसके अर्थको नहीं अनुभव करते है। उनके लिये यह विपरीत तरहस धारण क्यि धर्म अहित और दु खके लिये होते है । जैसे भिक्षुओ ! कोई अलगद्द (साप) चाहनेवाला पुरुष अलगद्दकी खोजमें घूमता हुआ एक महान् अलगद्दको पाए और उसे देहसे या पूछसे पकड़े, उसको वह अलगद्द उलटकर हाथमें, बाहमें या अन्य किसी अगमें डस ले । वह उसके कारण मरणको या मरणसमय दुखको प्राप्त होवे, ऐसे ही वह भिक्षु ठीक न समझनेवाला दुख पावेगा। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१६१ पर तु जो कोई कुलपुत्र धर्मो दशको धारण करते है, उन धर्मोको धारणकर उनके अर्थको प्रज्ञासे पावते है, प्रज्ञासे परस्वकर धर्मोक अर्थको समझते है वे उपारभ लाभ व वादमे प्रमुख बननेके लिये धर्मों को धारण नहीं करते है, वे उनके अर्थको अनुभव करते हे । उनके लिये यह सुग्रहीत वर्म चिरकाल तक हित और सुखके लिये होते है। जैस भिक्षुओ । कोई अलगद गवेषी पुरुष एक मान्च अलगद्दको देखे, उसको माप पकड़ना अनपद दडमे अच्छी तरह पक्डे। गर्दनसे ठीक तौरपर पकड़े फिर चाहे वह अलगद्द उस पुरुषक हाथ, पाव, या किसी और अगको अपने देहसे परिवेष्ठित करे, कितु वह उसके कारण मरणको व मरण समान दुखको नहीं प्राप्त होगा। __मै बेडीकी भाति निस्तरण (पार जाने) के लिये तुम्हें धर्मको उपदेशता हू, पकड रखनेके लिये नहीं । उस सुनो, अच्छी तरह मनमे करो, कहता हू जैसे भिक्षुओ ! कोई पुरुष कुमर्ग जाते एक ऐसे महान् समुद्रको प्राप्त हो जिसका इधाका तीर भयमे पूर्ण हो और उघरका तीर क्षेमयुक्त और भयरहित हो। वा न पर लेजानेवाली नाव हो न इधरस उधर जाने के लिये पुल हो। तब उपर मनमे हो-क्यों न मै तृण कष्ठ-पत्र जम कर बेहा च धू और उस बेड़े के महारे स्वस्तिपूर्वक पार उतर ज ऊ । तब व बेडा बाधकर उस बेडेके सहारे पार उतर जाए। उत्तीर्ण हो ।नेप उपक मनमे ऐमा हो - यर बेड़ा मेरा बड़ा उपकारी हुआ है क्यों न मै इमे शिरपर या Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] दूसरा भाग। कवेपर रखकर जहा इच्छा हो वहा जाऊ तो क्या ऐसा करनेवाला इस बडेमे कर्तव्य पालनेवाला हो रहीं। रितु पह उस बेटेसे दुख उठाने वाला होगा। प. तु यदि त पुरुषको ए - क्या न में इस बेडेको र र रख ६२ या पानीमें डालकर जहा इच्छा हो वहा जाऊ तो भिक्षुओ ! ऐसा करनेवाला पुरुष उस बेड़े के सम्बन्धमें कर्तव्य पालनेवाला होगा। ऐसे ही भिक्षुओ ! मैने बेडेकी भाति विस्तरणके लिये तुम्हें धर्मोको उपदेशा है, पकड रखनेके लिये नही । धर्म का बेडे समान ( कुल्लूगम ) उपदेश जानकर तुम धमको भी छोड दो अधर्मकी तो बात ही क्या ? भिक्षुओ ! ये छः दृष्टि-स्थान है। आर्यधर्मसे अज्ञानी पुरुष रूप (Matter) को यह मेरा है' 'यह मै हूँ' 'यह मेरा आत्मा है' इस प्रकार समझता है इसो तर (२) वेदनाको, (३) सज्ञाको (४) सस्कारको, (५) विज्ञानको, (६) जो कुछ भी यह देखा, सुना, याद में आया, ज्ञात, प्राप्त, पोषित (खोजा), और मन द्वारा अनुविचारित (पद र्थ) है उस भी यह मग है। यह मै हू' 'यह मा आत्मा है' इस प्रकार समझता है । जो यह (छ) दृष्टि स्थान हे सो लोक है मोई मारमा है, मै मरकर सोई नित्य, ध्रव, शाश्वत, निर्विकार (अविरिणाम धर्मा, आत्मा होऊँगा और अनन्त तक वैसा ही स्थित रहूगा । इम भी यह मेरा है यह मै हू' यह मेरा आत्मा' है इस प्रकार समझता है । पर तु भिक्षुओ । आर्य धर्मस परिचित् ज्ञनी मार्य श्रावक (१) रूपको 'यह मेरा नही' 'यह मै नही हू' 'यह मेरा आत्मा Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ १६३ नही है ' - इस प्रकार समझता है इसी तरह, (२) वेदनाको (३) सज्ञाको (४) सस्कारको, (५) विज्ञानको, (६) उसे कुछ भी देखा सुना या मनद्वारा अनुविचारित है उसको जो यह (छ) इष्टि स्थान है सो लाक है सो आत्मा है इत्यादि । यह मेरा आत्मा नहीं है । इस प्रकार समझता है । वह इस प्रकार समझते हुए अशनित्रास (मल) को नहीं प्राप्त होता । क्या है बाहर अशनिपरित्रास - किसीको ऐसा होता है अहो पहले यह मरा था, जो अब यह मरा नहीं है, महो मरा होवे, अहो उसे मै नहीं पाता हू । वह इस प्रकार शोक करता है दुखित होता है, छाती पीटकर क्रन्दन करता है । इस प्रकार बाहर शनिपरित्रास होता है । क्या है बाहरो अशनि - अपरित्रास जिस किसी भिक्षुको ऐसा नहीं होता यह मेरा या, अहो इसे मै नहीं पाता हू वह इस प्रकार शोक नहीं करता है, मूर्छित नहीं होता है । यह हैं बाहरी अशनि - अपरित्रास | क्या है भीतर अशनिपरित्रास - किसी भिक्षुको यह दृष्टि होती है । सो लोक है, सो ही आत्मा है, मै मरकर सोई नित्य, ध्रुव, शाश्वत निर्विकार होऊगा और अनन्त वर्षोंतक वैसे ही रहूगा । वह तथागत (बुद्ध) को सारे ही दृष्टिस्थानों के अधिष्ठान, पर्युत्थान (उठने), अभिनिवेश ( आग्रह ) और अनुशयों (मलों) के विनाशक लिये, सारे सरकारों को शमन के लिये, मारी उराधियोक परित्याग के लिये और तृष्णा के क्षय के लिये, विराग, निरोध ( रागादिके नाश ) और Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ दूसरा भाग। निर्वाणके लिये धर्मोपदेश करते सुनता है । उसको ऐसा होता है* मै उच्छन्न होऊंगा, और मै नष्ट होऊगा । हाय ! मै नहीं रगा ! वह शोक करता है, दुखित होता है, मूर्छित होता है । उम प्रकार अशनि परित्रास होता है। क्या है अशनि अपरित्रास, जिस किसी भिक्षुको ऊपरकी ऐसी दृष्टि नहीं होती है वह मूर्छित नहीं होता है। भिक्षुभो । उस परिग्रहको परिग्रहण करना चाहिय जो परिग्रह कि नित्य, ध्रुव, शाश्वत्, निर्विकार अनन्तवीर्य वैसा ही रहे । भिक्षुओ । क्या ऐसे परिग्रहको देखते हो । नहीं । मै भी ऐसे परि ग्रहको नहीं देखता जो अनन्त वर्षोंतक वैसा ही रहे । मै उस आत्म बादको स्वीकार नहीं करता जिसक स्वीकार करनेसे शोक, दुख व दौर्मनस्य उत्पन्न हो । न मै उस दृष्टि निश्चय (धारणाक विषय) का आश्रय लेता है जिससे शोक व दु ग्व उत्पन्न हो। भिक्षुओ ! आत्मा और आत्मीयके ही सत्यतः उपलब्ध होनेपर जो यह दृष्टि स्थान सोई लोक है सोई आत्मा है इत्यादि । क्या यह केवल पूरा बालधर्म नहीं है । वास्तवमें यह केवल पुरा बालधर्म है तो क्या माचते हो भिक्षुओ' रूप नित्य है या अनित्य - अनित्य है। जो आपत्ति है वह दुःखरूप है या सुखरूप है-दुःखरूप है। जो भनि य, दु ख स्वरूप और परिवर्तनशील, विकारी है क्या उसके लिये यह देखना-यह मेरा है, यह मै हूँ, यह मरा आत्मा है, योग्य है ? नहीं। उसी तरह वेदना, सना, संस्कार, विज्ञानको 'यह मेरा मात्मा नहीं' ऐसा देखना चाहिये । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जौन बैद्ध तत्वज्ञान । [१६५ इसलिये भिक्षुओ । भीतर ( शरीरमे ) या बाहर, स्थूल ग सूक्ष्म, उत्तम या निकृष्ट, दुर या निकट, जो कुछ भी भूत, भविष्य वर्तमान रूप है, वेदना है, संज्ञा है, सस्कार है, विज्ञान है वह सब मेरा नहीं है । 'यह मै नहीं हू' 'यह मेरा आत्मा नहीं है' ऐसा भले प्रकार समझकर देखना चाहिये। ऐमा देखनेपर बहुश्रुत आर्यश्रावक रूपमे भी निर्वेद (उदासीनता ) को प्राप्त होता है, वेदनामें भी, मज्ञामें भी, सस्कारमें भी, विज्ञान में भी निर्वेदको प्राप्त होता है। निर्वेदसे विरागको प्राप्त होता है । विराग प्राप्त होनेपर विमुक्त हो जाता है। रागादिसे विमुक्त होनेपर मैं विमुक्त होगया' यह ज्ञान होता है फिर जानता है-जन्म क्षय होगया, ब्रह्मचर्यवाप्त पूरा होगया, करणीय कर लिया, यहा और कुछ भी करनेको नहीं है। इस भिक्षुने भविद्याको नाश कर दिया है, उच्छिन्नमूल, अभावको प्राप्त, भविष्यमें न उत्पन्न होने लायक कर दिया है। इसलिये यह उक्षिप्त परिघ (जएसे मुक्त) है । इम भिक्षुने पौर्वभविक (पुनर्जन्म सम्बन्धी) जाति सस्कार (जन्म दिलानेवाले पूर्वकृत कर्मोंके चित्त प्रवाह पर पडे सस्कार) को नाश कर दिया है, इसलिये यह मकीर्ण परिख (खाई पार) है। इस भिक्षुने तृष्णाको नाश कर दिया है इसलिये यह अत्यूढ हरीसिक (जो हलकी हरीस जैसे दुनियाके भारको नहीं रठाए है) है। इस भिक्षुने पाच अवरभागीय सयोजनो ( सप्तारमें फसानेवाले पाच दोष(१) सत्कायदृष्टि-शरीरादिमें आत्मदृष्टि, (२) विचिकित्सा-सशय, ३) शीलवत परामर्श-व्रत आचरणका अनुचित अभिमान, (७) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। वाम छद-भोगों पर (५१ १५ - द्वेषभन्द) "TE है इसलिये यह निरर्गल (लगा रूपी समारसे पुक्त) है! इमेक्षु अभिमान हूका अभिर ) नष्ट होता है। भविष्यमें न उत्पन्न इोनेल या होता है, इसलिए वह पन्त ध्वज (जिसकी रागादिको ध्वजा गिर गई है , पन्त भार ( जिमका भार गिर गया है ), विसंयुक्त ( गादिम विमुक्त ) ६.ग है । इसपना र मुक्त भिक्षुको इन्द्रादि देवता नहीं जान सक्त तक इस तथागत (भिक्षु ) का विज्ञान इसमें निश्चित है, क्योकि इस शरीरमें ही तथागत अनु अनुवेद्य ( अज्ञेय ) है। ___ भिक्षुओ ' कोई कोई श्रमण ब्राह्मण ऐसे ( ऊपर लिखित ) बादको माननेवाले ऐसा कहनेवाले मुझे असत्य, तुच्छ, मृषा, अभूत, झुठ लगाते है कि श्रमण गौतम वैनेयिक (नहींके बारको माननवाला) है । वह विद्यमान सत्व (जीव या आत्मा) के उच्छेदका उपदेश करता है । भिक्षुओ ! जो कि मै नहीं कहता। भिक्षुओ! पहले भी और अब भी मैं उपदेश करता हु, दुःखको और दुख निरोधको। यदि क्षुिओ । तथागतको दुसरे निन्दते उस्से तथागतको चोट, असतोष और चित्त विकार नहीं होता। यदि दुसरे तथागतका सरकार या पूजन करते हैं उससे तथागतको आनन्द सोमनस्क चित्तका प्रसन्नताऽतिरेक नहीं होता। जब दूसरे तथागतका सत्कार करते है तब तथागतको ऐसा होता है जो पहले ही त्याग दिया है। उसीके विषयमें इस प्रकार के कार्य किये जाते है । इसलिये भिक्षुओ ! यदि दुसरे तुम्हें भी निन्दं तो Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१६७ उम्प लिय तुम्हें वित्त 47" ने दना चाहिये । यदि दूसरे तु' १ परे न १ लि. तु ३ मा एसा होना चाहिये। जा पहले त्यान दिया है उमा विषय प्रेस कार्य स्ये नाहे है। इसलिये भिक्षुओ ! जो तुम्हारा नहीं है, उसे छोडो, उमका छोड 1 चिरा त . तुरे हित सुखक लिये होगा। भिक्षुओ ! क्या तुम्ह। । नहीं है ? रूप तुम्हाला नहीं है इसे छोड़ो। इसी तरह वेदना, सज्ञा, संस्कार. विज्ञान तुम्हारा नहीं है इन्हें छोड़ो। जैसे इस जेतवनम जो तृण, काष्ट, शाखा, पत्र है उसे कोई अपहरण करे, जलाय या जो चाह मो करे, तो क्या तुम्हें ऐसा होना चाहिये । 'हमारी बाजको यह अपहरण कर रहा है ४ नहीं, सो किस हेतु !-यह हवाग आत्मा गा आत्मीय नहीं है। ऐसे ही भिक्षुओ। जो तुम्हारा नहीं है इस छोडो। रूप वेदना सज्ञा, मस्कार, विज्ञान तुम्हारा नहीं है दम छोड़ो। भिक्षुओ ! इसप्रकार मैन धर्मका उत्तान, वित्रत, प्रकाशिल, आवरण रहित करके अच्छी तरह व्याख्यान किया है ( बाख्यात है)। ऐम स्वाख्यान धर्ममे उन भिक्षुओके लिये कुछ उपदेश कर नेकी जरूरत नहीं है जो कि (१) अर्हत् क्षोणास्रव (गगादि मलसे रहित) होगए है, ब्रह्मचर्यवास पूरा कर चुके कृत करणीय, भार मुक्त, सच्चे अर्थको प्राप्त परिक्षीण भव सयोजन (जिनके भवसागरमें डालनेवाले बधन नष्ट होगए है) सम्याज्ञानियुक्त ( यथार्थ ज्ञानसे जिनकी मुक्ति होगई है ) है (२) ऐसे स्वाख्यात धर्ममे जिन भिक्षुओंके पाच (ऊपर कथित) अवरभागीय सयोजन नष्ट होगए है, वे Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] दूसरा भाग । सभी औपपातिक (देव) हो । वहा जो परिनिर्वाणको प्राप्त होनेवाले है, उस लोकसे लौटकर नहीं आनेवाले (अनावृत्तिधर्मा, अनागामी) है । ( ३ ) ऐस स्वाख्यात धर्ममें जिन भिक्षुओंके राग द्वेष मोह तोन सयोजन नष्ट होगए है, निर्बल होगए है वे सारे सकृदागामी (सकदएकवार ही इस लोक्मे आकर दुस्खका अन करेंगे) होंगे । ( ४ ) ऐसे स्वाख्यात धर्ममें जिन भिक्षुओंक तीन सयोजन ( राग द्वेष मोह) नष्ट होगए वे सारे नर्तित होनेवाले सबोधि बुद्धके ज्ञान ) परायण स्रोतापन्न निर्वाणकी ओर लजानवाले प्रवाह में स्थिर रीतिमे आरूढ़ ) है । 1 ( भिक्षुओ ! ऐसे स्वाख्यात धर्ममें जो भिक्षु श्रद्धानुसारी हैं, धर्मानुसारी है वे सभी सबोधि परायण हैं। इसप्रकार मैने धर्मका अच्छी तरह व्याख्यान किया है । ऐसे स्व ख्यात धर्ममें जिनकी मेरे विषय में श्रद्धा मात्र, प्रेम मात्र भो है वे सभी स्वर्गपरायण ( स्वर्गगामी ) है । नोट- उस सूत्र में स्वानुभवगम्य निर्वाणका या शुद्धा माका बहुत ही बढ़िया उपदेश दिया है जो परम कल्याणकारी है । इमको बारबार मनन कर समझना चाहिये । इसका भावार्थ यह है (१) पहले यह बताया है कि शास्त्रको या उपदेशको ठीक ठीक समझकर केवल धर्म लाभके लिये पालना चाहिये, किसी लाभ व सत्कार के लिये नहीं । इस पर दृष्टात सर्पका दिया है । जो सर्पको ठीक नहीं पकड़ेगा उसे सर्प काट खाएगा, वह मर जायगा । परन्तु जो सर्पको ठीक२ पकडेगा वह सर्पको वश कर लेगा । इसी तरह Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१६९ जो धर्मके असली तत्वको उल्टा समझ लेगा उसका अहित होगा। परन्तु जो ठीक ठीक भाव समझेगा उसका परम हित होगा। यही बात जैन सिद्धातमें कही है कि ख्याति लाभ प्रजादिकी चाहके लिये धर्मको न पाले, केवल निर्वाणके लिये ठीक२ समझकर पाले, विपरीत समझेगा तो बाहरी ऊचासे ऊचा चारित्र पालनेपर भी मुक्ति नहीं होगी। जैसे यहा प्रज्ञासे समझनेका उपदेश है वैसे ही जैन सिद्धातमें कहा है कि प्रज्ञासे या भेद विज्ञानसे पदार्थको समझना चाहिये कि मै निर्वाण स्वरूप आत्मा भिन्न हू व सर्व गगादि विकल्प भिन्न है। (२) दूसरी बात इस सूत्रमें बताई है कि एक तरफ निर्वाण परम सुखमई है, दूसरी तरफ महा भयकर ससार है । बीचमे भवसमुद्र है। न कोई दुसरी नाव है न पुल है । जो आप ही भव समुद्र तरनेकी नौका बनाता है व भाप ही इसके सहारे चलता है वह निर्वाण पर पहुच जाता है। जैसे किनारे पर पहुंचने पर चतुर पुरुष जिस नावके द्वारा चल कर आया या उसको फिर पकड़ कर धरता नहीं-उसे छोड़ देता है, उसी तरह ज्ञानी निर्वाण पहुच कर निर्वाण मार्गको छोड़ देता है। साधन उसी समय तक मावश्यक है जबतक साध्य सिद्ध न हो, फिर साधनकी कोई जरूरत नहीं। सुत्रमें कहा है कि धर्म भी छोडने लायक है तब अधर्मकी क्या बात । यही बात जैन सिद्धातमे बताई है कि मोक्षमार्ग निश्चय धर्म और व्यवहार धर्मसे दो प्रकारका है। इनमें निश्चय धर्म ही यथार्थ मार्ग है, व्यवहार धर्म केवल निमित्त कारण है। निश्चय धर्म Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] दुसरा भाग। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमय शुद्धात्मानुभन है या सम्यकसमाधि है, व्यवहार धर्म पूर्ण रूपमे साधुका चारित्र है अपूर्णरूपसे गृहस्थका चारित्र है । गृही भो आत्मानुभवक लिये पूजापाठ जप तपादि करता है। जब स्वात्मानुभव निश्चयधर्मपर पहुचता है तब व्यवहार म्वन्य छूट जाता है । जब स्वानुभव नहीं हासत्ता फिर व्यवहाका आल म्बन लेता है। स्वानुभव उपादान कारण है। जब ऊचा स्वानुभव होता है तब उससे नीचा छूट जाता है। साधु भो व्यवहार चारित्रद्वारा आत्मानुभव करते हैं, मात्मानुभवके समय व्यवहारचारित्र स्वय छूट जाता है। जब आत्मानुभवसे हटत हैं फिर व्यवहारचारित्रका सहारा लेते हैं । इस अभ्याससे जब ऊचा आत्मानुभव होता है तब नोचा छूट जाता है। इसी तरह जब निर्वाण रूप भाप होजाता है, अनतकाल लिये परम शात व स्वानुभवरूप होनाता है तब उसका साधनरूप स्वानुभव छूट जाता है। जैन सिद्धातमें उन्नति करनेको चोदह श्रेणिया बताई है, इनको पार करके मोक्ष लाभ होता है। मोक्ष हुआ, श्रेणिया दुर रह जाती हैं। वे गुणस्थानके नामसे कहे जाते है-उनके नाम हैं (१) मिथ्यादर्शन, (२) सासादन, (३) मिश्र, (४) भविरति सम्यग्दर्शन (५) देशविरत, (६) प्रमत्त विस्त, (७) अप्रमत्त विरत, (८) अपूर्व करण, (९) अनिवृत्तिकरण, (१०) सूक्ष्मलोम, (११) उपशात मोह, (१२) क्षीण मोह, (१३) सयोगकेवली जिन, (१४) अयोगकेवली जिन । इनमेंसे पहले पाच गृहस्थ श्रावकोंके होते हैं छठेसे बारहवें तक साधुओंके व तेरह तथा चौदहवें गुणस्थान अर्हन्त सशरीर पर Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | माके होते है । सात व मानसे आगे सर्व गुणस्था हैं। जेरु निवाण मार्गानुभव वैसे निर्माणमा स्वानुभव निर्विव्य है । कार्य कवानुमल स्वय छूट जाता है। कि रूप, वेदना, संज्ञा, सस्कार. फिर इसमें बता विज्ञानको व जो कुछ देखा सुन, अनुभाव मनसे विचार किया छोडो। उसमें मेगपना न करो । यह सवन मेरा है न यह म 512. [ १७१ 新 विज्ञानका प्रकार है । ध्यान व निर्विरुरूप है पेपर नीचे 呵 मेरा आत्मा है ऐसा अनुभव करो । यह वास्तव में भेद जैन सिद्धात अनुसार मतिज्ञान व श्रुतज्ञान पाच इन्द्रिय व मनस होनेवाला पराधोन ज्ञान हैं, वह आप निर्वाणस्त्ररूप नहीं है । निर्वाण निर्विकल्प है, स्वानुभवगम्य है, वही मैं हू या आत्मा है इस भाव से विरुद्ध सर्व ही इन्द्रिय व मनद्वारा दानवाले विकल्प त्यागने योग्य है। यही यहा भाव है। इन्द्रियों द्वारा रूपका ग्रहण करता है । पाच इन्द्रियो सर्व विषय रूप हैं, फिर उनके द्वारा सुख दुख वेदना होती है, फिर उन्हींकी सज्ञारूप वृद्धि रहती है, उसीका वारवार चित्तपर असर पड़ना सस्कार है, फिर वही एक धारणारूप ज्ञान होजाता है, इसीको विज्ञान कहते हैं । वास्तव में ये पाच ही त्यागनेयोग्य हैं । इसी तरह मनवेद्वार । होनेवाला सर्व विकल्प त्यागनेयोग्य है । जैन सिद्धान्तमें बताया है कि यह आप आत्मा अतीन्द्रिय है, मन व इन्द्रियोंसे अगोचर है । आपसे आप ही अनुभवगम्य है | श्रुतज्ञानका फल जो भावरूप स्वसंवेदनरूप आत्मज्ञान 1 1 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ दूसरा भाग। है उसके सिवाय सर्व विचाररूप ज्ञान पराधीन व त्यागनेयोग्य है, स्वानुभवमें कार्यकारी नहीं है । फिर सूत्रमे यह जताया है कि छ दृष्टियोंका समुदायरूप जो लोक है वही भात्मा है, मै मरकर निय, भपरिणामी ऐसा आत्मा होजाऊगा। इसका भाव यही समझमें माना है कि जो कोई वादी मात्माको व जगतको सबको एक ब्रह्मरूप मानते हैं व यह व्यक्ति ब्रह्मरूप नित्य होजायगा इस सिद्धातका निषेध किया है । इस कथनसे मजात, अमृत, शाश्वत, शात, पडिल वेढ नीय, तर्क अगोचर निर्वाण स्वरूप शुद्धात्माक, निषेध नहीं किया है । उस स्वरूप मै हू ऐसा अनुभव करना योग्य है । उस सिवाय मैं कोई और नहीं है न कुछ मेरा है, ऐसा यहा भाव है । (४) फिर यह बताया है कि जो इस ऊपर लिखित मिथ्या दृष्टिको रखता है उमे ही भय होता है । मोही व अज्ञानीको अपने नाशका भय होता है। निर्वाणका उपदेश सुनकर भी वह नहीं समझता है । रागद्वेष मोहके नाशको निर्वाण कहते हैं । इममे वह अपना नाश समझ लेता है। जो निर्वाणके यथार्थ स्वभाव पर दृष्टि रखता है, जिसे कोई भय नहीं रहता है, वह मसारके नाशको हितकारी जानता है। (५) फिर यह बताया है कि निर्वाणके सिवाय सर्व परिग्रह नाशक्त हैं। उसको जो अपनाता है वह दु खिन होता है। जो नहीं अपनाता है वह सुखी होता है । ज्ञानी भीतर बाहर, स्थूल सूक्ष्म, दूर या निकट, भूत, भविष्य, वर्तमानके सर्व रूपोंको, परमाणु या स्कोंको अपना नहीं मानता है। इसी तरह उनके निमित्तसे Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ १७३ होनचा त्रिकाल सम्बन्धी वेदना, सज्ञा सस्कार व विज्ञानको अपना नहीं मानता है । जो मै परसे भिन्न हु एसा अनुभव करता है वही ज्ञानी है, वही ससार रहित मुक्त होजाता है । (६) फिर इस सूत्र में बताया है कि जो बुद्धको नास्तिक वादका या सर्वथा सत्यके नाशका उपदेशदाता मानते हैं सो मिथ्या है । बुद्ध कहते है कि मैं ऐसा नहीं कहता । मै तो ससारक दु खोकनाशका उपदेश देता हू | (७) फिर यह बताया है कि जैना मै निन्दा व प्रशसा में समभाव रखता हू व शोकित व आनंदित नहीं होता हू वैसा भिक्षु ओंको भी निंदा व प्रशसा में समभाव रखना चाहिये । (८) फिर यह बताया है कि जो तुम्हारा नहीं है उसे छोड़ो। रूपादि विज्ञान तक तुम्हारा नहीं है इसे छोडो। यही स्वाख्यात भप्रकार कहा हुआ ) धर्म है । (९) फिर यह बताया है कि जो स्वाख्यात धर्मपर चलते हैं वे नीचे प्रकार अवस्थाओंको यथासभव पाते है (१) क्षीणात्र हो मुक्त होजाते है, (२) देव गतिमें जाकर अनागामी होजाते है वहीं से मुक्ति पालेते है, (३) देवगतिले एक बार ही यहा आकर मुक्त होंगे, उनको सकृदागामी कहते है, (४) - स्रोतापन्न होजाते हैं, ससार सम्बन्धी रागद्वष मोह नाश करके सबोधि परायण ज्ञानी होजाते हैं, ऐसे भी श्रद्धा मात्र से स्वामी है । जैन सिद्धातमें भी बताया है जो मात्र अविरत सम्यग्दृष्टी हैं, चारित्र रहित सत्य स्वाख्यात धर्मके श्रद्धावान है सच्चे प्रेमी हैं, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४] दूसरा भाग। वे मर प्राय स्वर्गमें जाने है। कोई देव गतिमे जाकर ई न मोमे, कोई ए7 जन्म पनुष्या। लम', कोई सी शगर निवाण पालेते है ! जैसे यहा राग द्वेष भोइको त सयोजन i मल 11या है वैसे ही जन सिद्धात पाया है। इस त्यांगना ही मोक्षमार्ग है ब यहो मोक्ष है। जैनसिद्धातके कुछ वाक्यश्री अमितिगत आचार्य तत्वभावनामें कहन हैयावच्चेतसि ब ह्यवस्तुविषय स्नेह स्थिरो यतते । तावनश्यति दु.खदानकुश कर्मप्रपच कथम् ॥ आर्द्रत्वे छसुधारलस्य मजटा शुष्यति कि पाढपा । मृजत्तापनिपातरोधनपरी ा खोपज्ञाखिन्विता ॥६॥ भावार्थ - जबतक तरे मनमें बाहगे पदार्थोसे राग भाव स्थिर होरहा है तबतक किस तरह दु स्वकारी कर्मोका नग प्रपच नाश होसक्ता है। जब पृथ्वी पानीसे भी नी हुई है तब उसके ऊपर सूर्य तापको रोकने वाले अनेक शाखाओंमे मडित जटाधारी वृक्ष कैसे सूख सक्ते है ? शूरोऽह शुभधीरह पटुाह सर्वाधिकश्रीरह । मान्योह गुणवानह विभुरह पुसामह चाग्रणी ॥ इत्यात्मन्नपहाय दुष्कृतकर्ग व सर्वथा कल्पनाम् । शश्वद्ध्याय तदात्मत्वममल नैश्रेयसी श्रीर्यत ॥ ६२ ॥ भावार्थ-मैं शूर हू, मैं बुद्धिशाली हू, मै चतुर हू, मै धनमें श्रेष्ठ इ, मै मान्य हु, मै गुणवान हू, मै बलवान हू, मै महान पुरुष ह। इन पापकारी कल्पनाओंको हे आत्मन् ! छोड़ और निरतर अपने Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बोद्ध तत्वज्ञान। । १७५ शुद्ध आत्मतत्वका ध्यान कर जिमसे अपूर्व निर्वाण लक्ष्मीका लाभ हो। माह कम्यचिदस्मि कश्चन न मे भाव परो विद्यते । मुक्तवामानम्पास्तकर्मसमिति ज्ञानेक्षणालकृतिम् । यस्यैषा मति स्ति चेसि सदा ज्ञातात्मतत्वस्थिते । बधस्तस्य न यत्रित त्रिभुवन मामारिबन्धने ॥ ११ ॥ भावार्थ मेरे सिवाय मै निमीक्षा नहा इ न कोई परभाव मेरा है। मै तो सर्व कर्मजालसे रहित ज्ञानदर्शनमे विभूषित एक मात्मा हु, इसको छोडकर कुछ मेरा नहीं है। जिसके मनमे यह बुद्धि रहती है उस तत्वज्ञानी महात्माके तीन लोक में कहीं भी संसारके बधनोंसे बन्ध नहीं होता है। मोहापाना स्फुरति हृदये बाह्यमात्मीयबुध्या । निर्मोहाना गपगतमन्न शश्वदात्मय नित्य ॥ यत्तभेद याद विविदिषा ते स्नकी स्वकीयमोह चित्त । क्षपयसि तदा किन दृष्ट क्षणेन ॥ ८८ ॥ भावार्थ-मोइस अन्ध जीवोंके भीतर अपनेसे बाहरी वस्तुमें मात्मबुद्धि रहती है मोह रहितो भीतर केवल निर्वाण स्वरूप शुद्ध नित्य आत्मा ही अकेला वसता है। जब तू इस भेदको जानता है तब तू अपना दुष्ट मोह उन सबमे रणमात्रमें क्यों नहीं छोड़ देता है। तत्वज्ञानतरंगिणीमे ज्ञान भूपण भट्टारक बहते हैकीर्ति वा पररजन स्व विषय के चिनिज जीवित । सतान व परिग्रह मानमपि ज्ञान तथा दर्श।। अन्यस्याखिलवस्तुनो रूम्युति र युमुद्दिश्य च | कुर्यु कर्म विमोहिनो हि सुधियश्चिद्रूपल पर ॥९-९॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६] दूसरा भाग । ___ भावार्थ -इस सपारमें मोही पुरुष कीर्तिके लिये, कोई पररगनके लिये, कोई इन्द्रिय विषयके लिये, कोई जीवनकी रक्षाके लिये, कोई सतान, कोई परिग्रह प्राप्तिके किये, कोई भय मिटानेके लिये, कोई ज्ञानदर्शन बढ'नेके लिये, कोई राग मिटानेके लिये धर्मकर्म करते है, परन्तु जो बुद्धिमान है वे शुद्ध चिट्ठपकी प्राप्तिके लिये ही यत्न करते है। समयसार कलशमें श्री अमृतचद्राचार्य कहते हैरागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्य स्वभावस्पृश पूर्वागामिममस्तकम विकला भिन्नास्तदात्योदयात् । दूरारूढचरित्रवैभवमलाञ्चञ्चच्चिदर्चिष्मयीं विन्दन्ति स्वरसाभषिक्तभुवना ज्ञानस्य सचेतना ॥ ३०-१०॥ भावार्थ-ज्ञानी जीव रागद्वेष विभावोंको छोडकर सदा अपने स्वभावको स्पर्श करते हुए, पूर्व व आगामी व वर्तमानके तीन काल सम्ब धी सर्व कर्मोमे अपनेको रहित जानते हुए स्वात्म रमणरूप चरित्रमें आरुढ होते हुए आत्मीक मानन्द रससे पूर्ण प्रकाशमयी ज्ञानकी चेतनाका स्वाद लेत है। कृतकारितानुमनने 'स्त्रकालविषय मनोवचनकाय । परिहत्य कर्म सर्व पाम नै र्यमवलम्बे ॥ ३२-१० ॥ भावार्थ-भून भविष्य वर्तमान सम्बन्धी मन वचन काय द्वारा कृत, कारित, अनुमोदनासे नौ प्रकारके सर्व कर्मोको त्यागकर मैं परम निष्कर्म भावको धारण करता हू । ये ज्ञानमात्रनिजभावमयीमकम्पा । भूमि श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहा ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१७७ ते साधकत्वमधिगम्य भवन्ति सिद्धा । मूढास्त्वमूमनुपट-परिभ्रमन्ति ॥ २०-११ ॥ भावार्थ-जो ज्ञानी सर्व प्रकार मोहको दुर करके ज्ञानमयी मपनी निश्चल भूमिका आश्रय लेते है वे मोक्षमार्गको प्राप्त होकर सिद्ध परमात्मा होजाते है, परन्तु अज्ञानी इस शुद्धात्मीक भावको न प कर ससारमे भ्रमण करते है। तत्वार्थसारमें कहने हैमकामनिर्जरा बाटतपो भन्दकषायता । सुधर्मश्रवण दान तथायत सेवनम् ॥ ४२-४ ॥ सरागसयमश्चैव समक्तव देशसयम । इति देवायुषो ह्यते भवन्त्यास्रबहेतव ॥ ४३-४ ॥ भावार्थ-देव अ यु बावकर देवगति पान के कारण ये है(१) मकाम निर्जरा-शातिसे कष्ट भोग लेना (२) बालतर-भ मा नुभव रहित इच्छाको गेजना, (३) म द कषाय क्रोधादिकी बहुत कमी, (४) धर्मानुराग रहित भिक्षुका चारित्र पालना, (५) गृहस्थ श्रावकका सयम पालना, (६) म. दर्शन मात्र होना । सार समुच्चयमें कहा है। आत्मान स्नापयेन्नित्य ज्ञ नन रेण चारुमा । ! येन निमळता य/ति जीवो न्म तारू पि ॥ ३.१४ ॥ , भावार्थ-अपनेको सदा पवित्र ज्ञानरूपी जलसे स्नान कराना चाहिये । इसी स्नानसे यह जीव जन्म ज मके “मलसे छूटकर पवित्र होजाता है। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] दूसरा भाग। (१८) मज्झिमनिकाय वम्मिक (वल्मीक) सूत्र । एक देवने आयुष्यमान् कुमार काश्यपसे कहाभिक्षु ! यह बल्मीक रातको बुधवाता है दिनको बनता है। ब्राह्मणने कहा- सुमेध | शस्त्रसे अभीक्षण ( काट) सुमेधने शस्त्रसे काटने लगोको देखा, म्वामी लगी है। बा० लगीको फेक, शस्त्रमे काट । सुमेधने धुधवाना देखकर कहा धुधवाता है । ब्रा०- धुधवानेको फेंक, शस्त्रसे काट । मुमेधने कहा-दो रास्त है । ब्रा०-दो रास्ते फेंक । सुमेध चगवार ( टोवर। ) है। ब्रा०-चगवार फेंक दे। सुमेध-कूर्म है। ब्रा०-कूर्म फेक दे। सुमेध-मसिसूना ( पशु मारनेका पीढ़ा ) है । ब्रा०-असिसूना फेक दे। सुमेघ-मासपेशी है। ब्रा०-मासपेशी फेंक दे। सुमेध नाग है। ब्रा०-रहने दे नागको, मत उमे धक्का दे, नागको नमस्कार कर । देवने कहा- इसका भाव बुद्ध भगव'नसे पूछना । तब कुमार काश्यपने बुद्धसे पूछा। गौतमबुद्ध कहते हैं-(१) वल्मीक यह मातापितासे उत्पन्न, भातदालसे वर्षित, इसी चातुर्भोतिक (पृथ्वी, जल, ममि, वायु रूपी) कायाका नाम है जो कि अनित्य है तथा उत्पादन (हटाने) मर्दन, भेदन, विध्वसन स्वभाववाला है, (२) जो दिनके कामों के लिये रातको सोचता है, विचारता है, यही रातका धुधवाना है, (३) जो रातको सोच विचार कर दिनको काया और बचनसे कार्योंमें योग देता है। यह दिनका घरकना है, (४) ब्राह्मण-महत् सम्यक् Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१७९ सम्बुद्धका नाम है, (५) सुमेध यह शैक्ष्य भिक्षु ( जिसकी शिक्षाकी अभी आवश्यक्ता है ऐसा निर्वाण मार्गारूढ व्यक्ति) का नाम है, (६) शस्त्र यह आर्य प्रज्ञा ( उत्तम ज्ञान ) का नाम है, (७) अभीक्षण ( काटना ) यह वीर्यारभ ( उद्योग) का नाम है, (८) लगी अविद्याका नाम है। लगीको फेंक सुमेध-अविद्या को छोड़, शस्त्रसे काट, प्रज्ञासे काट यह अर्थ है, (१०) धुधुआना यह क्रोधकी परेशानीका नाम है, धुधुआनाके कदे-क्रोध मलको छोड दे, प्रज्ञा शस्त्रसे काट यह अर्थ है, (१०) दो रास्ते यह विचिकित्सा (सशय) का नाम है, दो रास्ते फेक दे, सशय छोड दे, प्रज्ञासे काट दे, (११) चंगवार यह पाच नीवरणो ( आवरणों ) का नाम है जैसे-(१) कामछन्द ( भोगोंमें राग), (२) व्यापाद (परपीड़ा करण), (३) स्थान गृद्धि (कायिक मानसिक आलस्य, (४) औद्धत्य कौकृत्य (उच्चखता और पश्चाताप ) (५) विचिकित्सा (संशय), चावार फेक दे। इन पाच नीवरणोंको छोड दे, प्रज्ञासे काट दे, (१२) कूर्म यह पाच उपादान स्कषों का नाम है। जैसे कि (१) रूप उपादान स्कध, (२) वेदना उ०, (३) सज्ञा उ., (४) संस्कार उ०, (५) विज्ञान उ०, इस कर्मको फेंकदे । प्रज्ञा मस्त्रसैं इन पाचोंको काट दे। (१३) असिसूना-यह पाच कामगुणों (भोगों) का नाम है। जैसे (१) चक्षु द्वारा प्रिय विज्ञेय रूप, (२) श्रोत्र विज्ञेय प्रिय शब्द, (३) घाण विज्ञेय सुगन्ध, (४) जिहमा विज्ञेय इष्ट रस, (५).काय विज्ञेय इष्ट स्पृष्टव्य । इस असिसुनाको फेंक दे, प्रज्ञासे इन पांच कामगुणोंको काट दे। (१३)..मांसपेली Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] दूसरा भाग । यह नन्दी (राग) का नाम है। इस माशपेशीको फेंक दे । नन्दी रागको प्रज्ञासे काट दे । (१५) भिक्षु ! नाग यह क्षीणास्रव (मईत् ) भिक्षु का नाम है । रहनेदे नागको मत उसे धक्का दे, नागको नमस्कार कर, यह इसका अर्थ है । Giggle नोट - इस सूत्र में मोक्षमार्गका गूढ तत्वज्ञान बताया है । जैसे सापकी वल्मीक सर्प रहता हो वैसे इस कायरूपी वल्मीकमे निर्वाण स्वरूप अर्हत् क्षीणास्रव शुद्धात्मा रहता है। इस वल्मीकरूपी कायमें कोषादि कषायका धूआ निकला करता है। इन कषायको प्रज्ञासे दूर करना चाहिये । इस कायमें अविद्यारूपी लगी है। इसको भी प्रज्ञा से दुर करे । इस काय में सशय या द्विकोटि ज्ञान रूपी दुवि धाके दो रास्ते है उसको भी प्रज्ञासे छेद ड ल । इस काय में पाच नीवरणोंका टोकरा है । इस टोकरे को भी प्रज्ञासे तोड़ डाळ । अर्थात राग, द्वेष, मोह, आलस्य उद्धता और सशयको मिटा डाल । इस कामें रहते हुए पाच उपादान स्कवरूपी कृमि या कछुआ है इसको प्रज्ञा के द्वारा फेंक दे । अर्थात् रूप व रूपसे उत्पन्न वेदना, संज्ञा, सस्कार और विज्ञानको जो अपने नागरूपी अरहत्का स्वभाव नहीं है उनको भी छोड दे । इस कायमे पाच काय गुणरूपी अभि सना (पशु सारने का पीढ़ा ) है इसे भी फेक दे । पाच इन्द्रियोंके मनोज्ञ विषयोंकी चाहको भी प्रज्ञासे मिटा डाल । इस कायमें ६ 梦 तृष्णा नदीरूपी मालकी डली है इसको भी प्रज्ञाके द्वारा दूर करदे । तब इस कायरूपी वल्मीक से निकल कर यह अईत् क्षीणास्रव निर्वाण स्वरूप आत्मारूपी निर्वाणरूप रहेगा। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१४१ इस तत्वज्ञानसे साफ प्रगट है कि गौतम बुद्ध निर्वाण स्वरूप मात्माको नागकी उपमा देकर पूजनेकी आज्ञा देते है, उसे नहीं फेंकते, उसको स्थिर रखते हैं और जो कुछ भी उसकी प्रति ष्ठाका विरोधी था उस सबको भेदविज्ञान रूपी प्रज्ञासे अलग कर देते है। यदि शुद्धात्माका अनुभव या ज्ञान गौतम बुद्धको न होता व निर्वाणको अभावरूप मानते होते तो ऐसा कथन नहीं करते कि सर्व सासारिक वासनाओंको त्याग कर दो। सर्व इन्द्रिय व मन सम्बन्धी क्रमवर्ती ज्ञानको अपना स्वरूप न मानो। सर्व चाहनाओंको हटावो । सर्व क्रोधादिको व रागद्वेष मोहको जीत लो । वस, अपना शुद्ध स्वरूप रह जायगा । यही शिक्षा जैन सिद्धातकी है, निर्वाण स्वरूप आत्मा ही सिद्ध भगवान् है । उसके सर्व द्रव्यकर्म, ज्ञानावरणादि कर्म बध सस्कार, भावकर्म रागद्वेषादि औपाधिक भाव नोकर्म-शरीरादि बाहरी सर्व पदार्थ नहीं है, न उसके क्रमवर्ती क्षयोपशम अशुद्ध ज्ञान है, न कोई इन्द्रिय है, न मन है। वही ध्यानके योग्य, पूजनके योग्य, नमस्कारके योग्य है । उसके ध्यानसे उसी स्वरूप होजाना है। यही तत्वज्ञान इस सूत्रका भाव है व यही जैन सिद्धातका मर्म है । गौतमबुद्धरूपी ब्राह्मण नवीन निर्वाणेच्छु शिष्यको ऐसी शिक्षा देते हैं । जबतक शरीरका सयोग है तबतक ये सब ऊपर लिखित उगाधिया रहती हैं, जब वह निर्वाण स्वरूप-प्रभु कायसे रहित होकर फिर कायमें नहीं फंसता, वही, निर्वाण होजाता है, प्रज्ञा निर्वाण और निर्वाण विरोधी सर्वके मिनर उत्तम ज्ञानको कहते हैं। जैन सिद्धा Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ दूसरा भाग न्तमें प्रज्ञाकी बडी भाग प्रशसा का । जैन सिद्धातके कुछ वाक्य श्री कुदकुदाचार्य समयसारमे कहते हैजीवा बधोय तहा छिन्नति सलक्खणेहि णि एहि । पण्णाछेदणएणदु छिण्णा णाणत्तमारण्णा ॥ ३१६ ॥ भावार्थ-अपने २ भिन्न २ लक्षणको रखनेवाले जीव और उसके बघरूप कर्मादि, रागादि व शरीरादि है। प्रज्ञारूपी छेनीसे दोनोंको छेदनेसे दोनों अलग रह जाते हैं । अर्थात् बुद्धिमें निर्वाण स्वरूप जीव भिन्न अनुभवमें भाता है। पण्णाए वित्तव्यो जो चेदा सो अह तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भाषा ते मज्झपरित्त णादव्या ॥३१९॥ भावार्थ-प्रज्ञा रूपी छेनीसे जो कुछ ग्रहण योग्य है वह चेत नेवाला मैं ही निश्चयसे हू । मेरे सिवाय बाकी सर्व भाव मुझसे पर हैं, जुदे हैं ऐसा जानना चाहिये । समयसारकळशमें कहा हैज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोर्यो ____जानाति इस इव वा पयसोविशेष । चैतन्यधातुमचळ स सदाधिरूढो जानीत एव हि करोति न किञ्चनापि ॥ १४-३ ॥ भावार्थ-ज्ञानके द्वारा जो अपने मात्माको और परको अलग मलग इसतरह जानता है जैसे हस दृध भौर पानीको अलग २ जानता है । जानकर वह ज्ञानी अपने निश्चल चैतन्य स्वभावमें भारूद रहता हुमा मात्र जानता ही है, कुछ करता नहीं है । श्री योगेन्द्रदेव योगसारमें कहते हैं Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोन बैद्ध तत्वज्ञान | अप्पा बाउ जइ मुगहित णित्र णु हेहि । हु ससार भमेहि ॥ पर अप्पा जड मुणिह तुहु भावार्थ - यदि तू अपनमे आपको ही अनुभव करेगा तो निर्वाण पानेगा और जो घरको आप मानेगा तो तू मसार में ही अमेगा । [ १८६ १२ ॥ जो परमा सो जि हउ जो हउ सा परपप्पु । इउ जाणे वेणु जेइमा अण्ण मकरहु विप् ॥ २२ ॥ भावार्थ- जो परमात्मा है वही मैं जो मै मात्मा है ऐसा समझकर हे योगी । और कुछ विचार न कर । सो ही पर हू, सुद्धु सचेण बुद्ध जिणु कवळण णमहाउ | सोप्या अणुदण मुणहु जइ चाहउ सिषळाडु ॥ २६ ॥ भावार्थ- जो तू निर्वाणका काम चाहता है तो तू रात दिन उसी आत्माका अनुभव कर जो शुद्ध है, चैतन्यरूप है, ज्ञानी व वृद्ध है, रागादि विजयी जिन है तथा कवलज्ञान स्वभाव धारी है । जोरम, छडवि सहुषबहारु । सो सम्माइट्ठी व लहु पावइ भवपारु ॥ ८८ ॥ भावार्थ - जो कोई सर्व लोक व्यवहारसे ममता छोडकर अपने आत्मा के स्वरूपमें रमण करता है वही सम्यग्दृष्टी है, वह शीघ्र समारसे पार होजाता है । सारसमुच्चयमे कहा है -- शत्रुभावस्थितान् यस्तु करोति वशवर्तिन | प्रज्ञा प्रयोगसामर्थ्यात् स शूर स च पंडित ॥ २९० ॥ भावार्थ- जो कोई राग द्वेष मोहादि भावोंको जो मात्मा के Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रु है प्रज्ञाके प्रयोगके बलसे अपने वश कर लेता है वही वीर है व वही पडित है। नत्वानुशासनमे कहा हैदिधासु स्व पर ज्ञात्वा श्रद्धाय च यथास्थिति । विहायान्यदत्विात् स्वमेवातु पश्यतु ॥ १४३ ॥ नान्योऽस्मि नाहमस्त्यन्यो नान्यस्याह न मे पर । अन्यस्त्वन्योऽइमेवाहमन्योन्यस्याहमेष मे ॥ १४८ ॥ भावार्थ- यानकी इच्छा करनवाला आपको आप परको पर ठीक ठीक श्रद्धान करके अन्यको अकार्यकारी जानकर छोड़दे, केवल भपनेको ही जाने व देखे । मै अन्य नहीं हू न अन्य मुझ रूप है, न भन्यका मै इ, न अन्य मेरा है। अन्य अन्य है, मैं मैं ह, अन्यका अन्य है, मै मेरा ही हु, यही प्रज्ञा या भदविज्ञान है। (१९) मज्झिमनिकाय रथविनीत सूत्र । एक दफे गौतम बुद्ध राजगृहमे थे । तब बहुनसे भिक्षु जातिभूमिक (कपिल वस्तुके निवासी ) गौतम बुद्ध के पास गए । तब बुद्धने पूछा-भिक्षुओ ! जातिभूमिक भिक्षुओंमे कौन ऐसा मभावित (प्रतिष्ठित) भिक्षु है, जो स्वय अल्पेच्छ (निर्लोभ) हो और अपे च्छकी कथा कहनेवाला हो, स्वय सतुष्ट हो और सतोषकी कथा कहनेवाला हो, स्वय प्रविविक्त (एकान्त चिन्तनशील) हो और अवि वेककी कथा कहनेवाला हो। स्वय असतुष्ट (अनासक्त) हो व अस सर्ग कथा कहनेवाला हो, स्वयं प्रारब्ब वीर्य ( उद्योगी) हो, और Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१८५ वीर्यारम्भकी कथा कहनेवाला हो, स्वय शीकसम्पन्न (सदाचारी) हो, और शील सम्पदाकी क्या कहनेवाला हो, स्वयं समाधि सपन्न हो और समाधि सम्पदाकी कथा कहनेवाला हो स्वय प्रज्ञा सम्पन्न हो और प्रज्ञा सम्पदाकी कथा कइनेवाला हो, स्वय विभुक्ति सम्पन्न हो और विमुक्ति सपदा कथा कहनेवाला हो स्वय विमुक्ति ज्ञानदर्शन सम्पन्न ( मुक्तिके ज्ञानका साक्षात्कार जिसने कर लिया) हो और विमुक्ति ज्ञान दशन सम्पदाकी कथा कहता हो, जो सब्रह्मचारियों ( सह धर्मियों) के लिये भपवादक ( उपदेशक ), विज्ञापक, सदर्शक, समादयक, समुत्तेजक, सम्पहर्षक (उत्साह देनेवाला) हो । तब उन भिक्षुओंने कहा-कि जानि भूमिमें ऐसा पूर्ण मैत्रायणी पुत्र है तब पास बैठे हुए भिक्षु सारिपुत्रको ऐसा हुआ-- क्या कभी पूर्ण मैत्रायणी पुत्र के साथ समामम होगा ? जब गौतमबुद्ध राजग्रहीसे चलकर श्रावस्तीमें पहुचे तब पूर्ण मैत्रायणी पुत्र भी श्रावस्ती आए और परस्पर धार्मिक कथा हुई । जब पूर्ण मैत्रायणी पुत्र वहीं बचपनमें एक वृक्षके नीचे दिनमें विहार (ध्यान स्वाध्याय) के लिये बैठे थे तब मारि पुत्र भी उसी वनमें एक वृक्षके नीचे बैठे । मायकालको सारिपुत्र (प्रतिसल्लपन) (ध्यान)से उठ पूर्ण मैत्रायणी पुत्रके पास गए और प्रश्न किया । आप बुद्ध भगवान्के पास ब्रह्मचर्यवास किस लिये करते है ! क्या शील विशु. द्धिके लिये ? नहीं क्या चित्त विशुद्धिके लिये 2 नहीं ! क्या दृष्टि विशुद्धि ( सिद्धात ठीक करने ) के लिये 2 नहीं ! क्या सदेह दूर करनेके लिये ? नहीं ! क्या मार्ग अमार्गके ज्ञानके दर्शनकी विशुद्धिके Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग लिये ? नहीं। क्या पनिषद (मार्ग) ज्ञानदर्शन की विशुद्धि के लिये ? नहीं ' क्या ज्ञानदर्शनकी विशुद्धि के लिये ? नहीं । तब आप किस लिये भगवान्के पास ब्रह्मचर्यवास करते है ? उपादान रहित (परिग्रह रहित) परिनिर्वाणके लिये मै भगवान्के पास ब्रह्मचर्य वास करता है। __सारिपुत्र कहते हैं तो क्या इन ऊपर लिखित पत्रोंसे अलग उवादान रहित परिनिर्वाण है ? नहीं। यदि इन धर्मो से अलग उपादान रहित निर्वाण का अधिकारी भी निर्वाणको प्राप्त होगा, तुम्हे एक उपमा देता । उपमासे भी कोई२ विज्ञ पुरुष कहे का अर्थ समझते हैं। जैसे राजा प्रमेनजित कोसलको श्रावस्तीमें बसते हुए कोई अति आवश्यक काम साकेत (अयोध्या)में उत्पन्न होजावे। वहा जानेके लिये श्रावस्ती और साकेतके बीचमें सात स्थ विनीत (डाक) स्थापित करे। तब राजा प्रसेनजित श्रावस्तीसे निकलकर अत पुरके द्वारपर पहले रथ विनीत (स्थकी डाक) पर चढ़े, फिर दूसरेपर चढे पहलेको छोडदे, फिर तीसरेपर चढे दुसरेको छोडदे। इसतरह चलते चलते सातवें स्थ विनीतसे साकेतके अतपुरके द्वारपर पहुच जावे तब वहा मित्र व भमात्यादि राजासे पूछे-क्या आप इसी स्थविनीत द्वारा श्रावस्तीसे साकेत भाए हैं ? तब राजा यही उत्तर देगा मैंने बीच में सात रथ विनीत स्थापित किये थे । श्रावस्तीसे निकलकर चलते २ क्रमश एकको छोड़ दूसरेपर चढ़ इस सातवें स्थविनीतसे साकेतके अंत - पुरके द्वारपर पहुच गया है । इसी तरह श्रीलविशुद्धि तमीतक है Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ १८७ जबतक चित्त विशुद्धि न हो । चित्त विशुद्धि तभीतक है जबतक दृष्टि विशुद्धि न हो। दृष्टि विशुद्धि तभीतक हैं जबतक काक्षा ( सदेह ) विलण विशुद्धि न हो। यह विशुद्धि तभीतक है जबतक मार्गामार्ग ज्ञान दर्शन विशुद्धि न हो यह विशुद्धि तभीतक है जबतक प्रतिग्जनदर्शन विशुद्धि न हो। यह विशुद्धि तभी तक है जबतक ज्ञान दर्शन विशुद्धि न हो। ज्ञान दर्शन विशुद्धि तोतक है जबतक उपादान रहित परिनिर्वाणको प्राप्त नहीं होता । मै इसी अनुपादान परिनिर्वाणक लिये भगवानक पास ब्रह्मचर्य प्राप्त करता हू । सारिपुत्र प्रसन्न होजाता है । इस प्रकार दोनों महानागों ( महावीरों) ने एक दूसरेको सुभाषितका अनुमोदन किया । नोट - इस सूत्र से सच्चे भिक्षुका लक्षण प्रगट होता है जा सबसे पहले कहा है कि अल्पेच्छ हो इत्यादि । फिर यह दिखलाया है कि निर्वाण सर्व उपादान या परिग्रहसे रहित शुद्ध है । उसकी गुप्तिक लिये सात मार्ग वा श्रेणिया है। जैसे सात जगह रथ बदलकर मार्गको तय करते हु कोई श्रावस्ती से मात आवे | चलनेवाले का ध्येय साकेत है । उसी ध्येयवो सामने रखते हुए वह सात रथोंके द्वारा पहुंच जावे । इसी तरह साधकका ध्येय निरुपादान निर्वाणपर पहुचना है । इसीके लिये क्रमश सात शक्तियोंमें पूर्णता प्राप्त करता हुआ निर्वाणकी तरफ बढ़ता है । (१) शीक विशुद्धि या सदाचार पाने से चित्तविशुद्धि होगी । कामवासनाओंसे रहित मन होगा । (२) फिर चित्र विशुद्धिसे दृष्टि विशुद्धि होगी अर्थात् श्रद्धा निर्मल Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ] दूसरा भाग । होगी, (३) फिर दृष्टि विशुद्धिमे काक्षा वितरण विशुद्धि या मदेह रहित विशुद्धि होगी, (४) फिर इस नि सदेह भावसे मार्ग अमार्ग ज्ञानदर्शन विशुद्धि होगी अर्थात् सुमार्ग व कुमार्गका यथार्थ मंदज्ञानपूर्ण ज्ञानदर्शन होगा (५) फिर इसके अभ्यास से प्रतिपद् ज्ञान दर्शन विशुद्धया सुमार्ग ज्ञानदर्शनकी निर्मलता होगी, (६) फिर इसके द्वारा ज्ञानदर्शन विशुद्धि होगी, अर्थात ज्ञानदर्शन गुण निर्मल होगा, अर्थान् जैन सिद्धांतानुसार अनत ज्ञान व अनत दर्शन प्राप्त होगा, (७) फिर उपादान रहित परिनिर्वाण या मोक्ष प्राप्त हो जायगा जहा केवल अनुभवगम्य एक आप निर्वाण स्वरूप सर्व सासारिक वासनाओंसे रहित, क्रमवर्ती ज्ञानसे रहित, सिद्ध स्वरूप शुद्धा मा वह जायगा । जैन सिद्धात का भी यही सार है कि जब कोई साधक शुद्धात्मानुभवरूप समाधिको प्राप्त होगा जहा मदेहरहित मोक्षमार्गका ज्ञान दर्शन स्वरूप अनुभव है तब ही मलसे रहित हो, अत के बली होगा । अनत ज्ञान व अनत दर्शनका धनी होगा। फिर आयुके अंत में शरीर रहित, कर्म रहित, सर्व उपाधि रहित शुद्ध परमात्मा मिद्ध या निर्वाण स्वरूप होजायगा । भावार्थ यही है कि व्यवहारशील व चारित्र के द्वारा निश्चय स्वात्मानुभव रूप सम्यक्समाधि ही निर्वाणका मार्ग है। जैन सिद्धात के कुछ वाक्य: सारसमुच्चयमे मोक्षमार्ग पथिकका स्वरूप बताया है ससार सिन चर्या ये कुर्वति सदा नरा । रागद्वेषहति कृत्वा ते यान्ति परम पदम् ॥ २१६ ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। १८९ भावार्थ-जो कोई मानव सदा राग द्वेषको नाश करके संसारको मिटानेवाले चारित्रको पालते हैं वे ही परमपद निर्वाणको पाते हैं। ज्ञानभाषनया शक्ता निभृतेनान्तरात्मनः। अप्रमत्तं गुणं प्राप्य लभन्ते हितामात्मनः ॥ २१८ ।। भावार्थ-सम्यग्दृष्टी महात्मा साधु आत्मज्ञानकी भावनासे सीचे हुए व दृढ़ता रखते हुए प्रमाद रहित ध्यानकी श्रेणियोंमें चढ़कर अपने आत्माका हित पाते हैं। संसारवासमीरूणां त्यक्तान्तर्बाह्यसंगिनाम् । विषयेभ्यो निवृत्तानां श्लाव्यं तेषां हि जीवितम् ॥२१९॥ भावार्थ-जो महात्मा संसारके भ्रमणसे भयभीत हैं, तथा रागादि अंतरङ्ग परिग्रह व धनधान्यादि बाहरी परिग्रहके त्यागी हैं तथा पांचों इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त हैं उन साधुओं का ही जीवन प्रशंसनीय है। श्री समन्तभद्राचार्य रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें कहते हैंशिवम नरमरु जमक्षयमव्यावा, विशोकमयशङ्कम् । काष्टागतसुखविद्या विभवं विमलं भजन्ति दर्शनशरणा: ॥४०॥ भावार्थ-सम्यग्दृष्टी जीव ऐसे निर्वाणका लाभका ही ध्येय रखके धर्मका सेवन करते हैं जो निर्वाण मानन्दरूप है, जरा रहित है, रोग रहित है, बाधा रहित है, शोक रहित है, भय रहित है, शंका रहित है, जहां परम सुख व परम ज्ञानकी सम्पदा है तथा जो सर्व मल रहित निर्मल शुद्ध है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य प्रवचनसारमें कहते हैं Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. ] दसरा भाग। जो णिहट मोहगठी र उपदाले स्वर' य सामण्णे। होज ममसुदुक्खो सो सोक्ख समक्खय र दि ॥१०७-२॥ जो स्वविटमा लुसा विनयवित्तो ण णरुभित्ता । समविदो सावे स! अप्पाण हव दि ध दा ।। १०८-२ ।। इहलोग णिवेक्खो ४८ डबद्ध। ५ ।म्म लो', मम । जुत्ताहार विहारो रहिद साओ वे समणो ॥ ४२-३ ॥ भावार्थ-जो मोहकी गाठको क्षय करके सावुपदमें स्थित होकर रागद्वेषको दूर करता है और सुख दु खमें समभावका धारी होता है वही अविनाशी निर्वाण सुखको पाता है । जो महात्मा मोहरूप मैलको क्षय करता हुआ, पाचों इन्द्रिओंके विषयोंसे विरक्त होता हुआ व मनको रोक्ता हुआ अपने शुद्ध स्वभावमें एकतासे ठहर जाता है, वही आत्माका ध्यान करनेबाला है । जो मुनि इस लोक में विषयोंकी आशासे रहित है, परलोक में भी किसी पदकी इच्छा नहीं रखता है, योग्य आहार विहारका करनेवाला है तथा क्रोधादि कषाय रहित है वही साधु है। श्री कुदकुदाचार्य भावपाहुड़में कहते हैंजो जीवो भावतो जीवसहाव सुभावसजुत्तो। सो जरमरण विणासकुणइ फुड लहइ णिव्वाण ॥ ६१ ॥ भावार्थ-जो जीव आत्माके स्वभावको जानता हुमा मात्माके स्वभावकी भावना करता है वह जरा मरणका नाश करता है और प्रगटपने निर्वाणको पाता है। श्री शुभद्राचार्य ज्ञानार्णवम कहते हैं Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१९१ अतुलसुखनिधान ज्ञान विज्ञानबीज विलयगतकलक शातविश्वप्रचारम् | गलितासकलशक विश्वरूप विशाल भज विगतविकार स्वात्मनात्मान्मेष ॥४३-१५॥ भावार्थ -हे आनन्द ! तु अपने ही आत्माके द्वारा भनत सुख समुद्र, केवल ज्ञानका बीज कलक रहित, सर्व सकल्पविकल्प रहित, सर्वशका रहित, ज्ञानापेक्षा सर्वव्यापी, महान, तथा निर्विकार मात्माको ही मज, उसीका ही ध्यान कर ।। ज्ञानभूषण भट्टारक तत्वज्ञानतरगिणीमें कहते हैसगत्यागो निर्जनस्थानक च तत्त्वज्ञान सर्वचिताविमुक्ति । निधित्व योगरोधो मुनीना मुक्तये ध्याने हेतवोऽमी निरुक्ता ॥८-१६॥ भावार्थ-परिग्रहका त्याग, निर्जनस्थान, तत्वज्ञान, सर्व चिताओंका निरोध, बाधार हितपना मन वचन काय योगोंकी गुप्ति, ये ही मोक्षके हेतु ध्यानके साधन कहे गए है। श्री देवसेनाचार्य तत्वसारमें कहते हैपरदव्य देहाई कुणइ ममत्ति च जाम तम्सुवरि । परसमयग्दो ताव बज्झदि कम्मे हि विविहेहि ॥ ३४ ॥ भावार्थ:-पर द्रव्य शरीरादि है। जब तक उनके ऊपर ममता करता है तबतक पर पदार्थमे रत है व तबतक नाना प्रकार कर्माको बाधता है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१] दूसरा भाग। (२०) मज्झिमनिकाय-विवाय सूत्र। गौतमबुद्ध कहते हैं-नैवायिक (बड़ेलिया शिकारी) यह सोच कर निवाय (मृगोंके शिकार के लिये जगलमे बोए खेत) नहीं बोता कि इस मेरे बोए निवायको खाकर मृग दीर्घायु हो चिरकाल तक गुजारा करें । वह इसलिये बोता है कि मृग इस मेरे बोए निवायको मूर्छित हो भोजन करेंगे, मदको प्राप्त होंगे, प्रमादी होंगे, स्वेच्छाचारी होगे (और मै इनको पकड लूगा) । भिक्षुओ ! पहले मृगों (के दल) ने इस निवायको मूर्छित हो भोजन किया । प्रमादी हुए (पकडे गए) नैवायिकके चमत्कारसे मुक्त नहीं हुए। दूसरे मृगों (के दल) ने पहले मृगोकी दशाको विचार इस निवाय भोजनसे विरत हो भयभीत हो अरण्य स्थानोंमे विहार किया। ग्रीष्मके अतिम मासमे घास पानीके क्षय होनेसे उनका शरीर मत्यत दुर्बल होगया, बल वीर्य नष्ट हो गया तब नैवायिकके बोए निवायको खानेक लिये लौट, मूर्छित हो भोजन किया (पक्डे गए)। ___ तीसरे मृगों ( के दल ) ने दोनों मृगोंके दलोंकी दशाको देख यह सोचा कि 4 इम निवायको अमूर्छित हो भोजन करें । उन्होंने ममूर्छित हो भोजन किया। प्रमादी नहीं हुये। तब नैवायिकने उन मृगोंक गमन आगमनके मार्गको चारों तरफसे डडोंसे घेर दिया । ये भी पकड़ लिये गये । चौथे मृगों ( के दल) ने तीनों मृगोंकी दशाको विचार यह सोचा कि हम वहा आश्रय ले जहा नैवायिककी गति नहीं है, वहा Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बोद्ध तत्वज्ञान | 1 [ १९३ मुर्छित होकर निवायको भोजन करें। उ होंने ऐसा ही किया । स्वेच्छाचारी नहीं हुए । तब नेवायिकको यह विचार हुआ कि वे मृग चतुर हैं । हमारे छोड़े निवायको खाते है परन्तु उसने उनके को नहीं देख पाया जहाकि वे पकड़े जाते । तब नैवायिकको यह विचार हुआ कि इन पाठ पडेग तब सारे मृग इम बोए निवायको छोड देंगे, क्यों न हम इन चौथे मृगोंकी उपेक्षा करें ऐमा सोच उसने उपेक्षित किया । इस प्रकार चौथे मृग नैवायिक के फदसे छूटे पडे नहीं गए ! भिक्षुओ ' अर्थको समझने के लिये यह उपमा कही है | निवाय पाच काम गुणो ( पाच इन्द्रिय भोगों) का नाम है । नैवायिक पापी मारका नाम है । मृग समूह श्रमण-ब्रह्मणोका नाम है। पहले प्रकार क मृगक समान श्रमण ब्राह्मणोंने इन्द्रिय विषयोंको मूर्छित हो भोगा-प्रमादी हुए सेच्छाचारी हुए, मारक फफ गए । दूसरे प्रकारक श्रमण ब्रह्मग पहले श्रमण ब्राह्मणों की दशा हो विचार कर, विषयभोगस सर्वथा विग्त हो, अरण्य स्थानोंका अवगाइन कर विहरने लगे । वहा शाकाहारी हुए, जमीनपर पडे फलोंको खानेवाले हुर | ग्रीष्मक अन समय घाम पानीके क्षय होने पर भोजन न पाकर बक वीर्य -ष्ट होनस चित्तकी शांति नष्ट होगई। लौटकर विषय भोगोंको मूर्छित होकर करने लगे । मारके फन्देमें फम गए । तीसरे प्रकार के श्रमण ब्राह्मगोंने दोनों ऊपर के श्रमण-ब्राह्मणों की दशा विचार यह सोचा क्यों न हम अमूर्छित हो विषयभोग का ऐसा सोच अमूर्छिन हो विषयभोग या, स्वेच्छाचारी नहीं हुए १३ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४] दूसरा भाग। किन्तु उनकी ये दृष्टिया हुई ( इन दृष्टियोंके या नयों के विचारमें फंस गए ) (१) लोक शाश्वत है, (२) (अथवा) यह लोक अशाश्वत है, (३) लोक सान्त है, (४) (अथवा) लोक अनत है, (५) सोई जीव है, सोई शरीर है, (६) (अथवा) जीव मन्य है, शरीर अन्य है, (७) तथागत (बुद्ध, मुक्त) मरने के बाद होते हैं, (८) (अथवा) तथागत मरने के बाद नहीं होते, (९) तथागत मरनेके बाद होते भी है, नहीं भी होते, (१०) तथागत मरने के बाद न होते है न नहीं होते है । इस प्रकार इन (विकल्प जालोंमें फसकर) तीसरे श्रमण ब्राह्मण भी मारके फरेसे नहीं छूटे। चौथे प्रकार के श्रमण ब्रह्मणोंने पहले तीन प्रकारके श्रमणब्राह्मणों की दशाको विचार यह सोचा कि क्यों न हम वहा माश्रय ग्रहण को जहा मारकी और मार परिषद् की गति नहीं है। वहा हम अमूर्छिन हो भोजन करेंगे मदको प्राप्त न होंगे, स्वेच्छाचारी न होंगे, ऐसा सो व उन्होंने ऐमा ही किया। वे चौथे श्रमण ब्राह्मण मारके फदेसे छूटे रहे। कैसे (आश्रय करनेसे) मार और मार परिपकी गति नहीं होती। (१) भिक्षु कामों (इच्छाओं) मे रहित हो, बुरी बातोसे रहित हो, सवितर्क सविचार विवेकज प्रीतिसुख का प्रथम व्यानको प्राप्त हो, विहरता है। इस क्षुिने माग्को अभाव र दिया। मारकी चक्षुमे अगम्य बनकर बह भिक्षु पपी मारसे अदर्शन होगया । (२) फिर वह भिक्षु अवितर्क अविचार समाधिजन्य द्वितीय ध्यानको प्राप्त हो विहरता है। इसने भी मारको अवा कर दिया। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ १९५ (३) फिर वह भिक्षु उपेक्षा सहित स्मृतिमहित, सुखविहारी तृतीय ध्यानको प्राप्त हो विहरता है । इसने भी मारको अवा कर दिया। (४) फिर वह भिक्षु अदुख व मसुखरून, उपेक्षा व स्मृतिसे परिशुद्ध चतुर्थ ध्यानको प्राप्त हो विहरता है । इमने भी मारको ET कर दिया । (५) फिर वह भिक्षु रूप सज्ञाओंको, प्रतिधा ( प्रतिहिता ) सज्ञाओंको, नानापनकी संज्ञाओंको मनमें न करक 66 अनन्त आकाश है " इस आकाश आनन्त्य आयतनको प्राप्त हो विहरता है । इसने भी मारको अन्धा कर दिया । (६) फिर वह भिक्षु आकाश पतनको सर्वथा, अतिक्रमण कर "अनन्त विज्ञान है" इस विज्ञान आनन्त्य आयतनको प्राप्त हो विहरता है । इसने भी मारको अन्धा कर दिया । (७) फिर वह भिक्षु सर्वथा विज्ञान आयतनको अतिक्रमण कर " कुछ नहीं " इस आकिचन्यायतनको प्राप्त हो विहरता है । इसने भी मारको अन्धा कर दिया । (८) फिर वह भिक्षु सर्वथा आकिंचन्यायतनको अतिक्रमण कर नैव सज्ञान असज्ञा आयनतको प्राप्त हो विहरता है । इसने भी मारको अन्धा कर दिया । (९) फिर वह भिक्षु सर्वथा नैव सज्ञान असज्ञायतनको उल्लघन कर सज्ञावेदथित निरोधको प्राप्त हो विहरता है । प्रज्ञा से देखते हुए इसके आसव परिक्षीण होजाते है । इस भिक्षुने मरको अन्धा Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ ] दूसरा भाग । कर दिया । यह भिक्षु मारकी चक्षुसे अगम्य बनकर पापीसे अदर्शन होगया | लोकसे विसत्तिक ( अनासक्त ) हो उत्तीर्ण होगया है । नोट - इस सूत्र में सम्यक्समाधिरूप निर्वाण मार्गका बहुत ही बढ़िया कथन किया है । तीन प्रकारके व्यक्ति मोक्षमार्गी नहीं हैं । (१) वे जो विषयोंमें कम्पटी हैं, (२) वे जो विषयभोग छोडकर नाते परन्तु वासना नहीं छोडने, वे फिर लौटकर विषयोंमें फस जाते । (३) वे जो विषयभोगोंमे तो मुर्छित नहीं होते, मात्रारूप अप्रमादी हो भोजन करत परन्तु नाना प्रकार विकल्प जालोंमे या सदेहों में फसे रहते हैं, वे भी समाधिको नही पाते । चौथे प्रकारके भिक्षु ही सर्व तरह ससार से बचकर मुक्तिको पाते है, जो काम भोगोंसे विरक्त होकर रागद्वेष व विकल्प छोड़कर निश्चित हो, ध्यानका अभ्यास करते है | ध्यानके अभ्यासको बढाते बढ़ाते बिलकुल समाधि भावको प्राप्त होजाते है तब उनके आस्रव क्षय होजाते हे वे ससारसे उत्तीर्ण होजाते है । वास्तवमे पाच इन्द्रियरूपी खेतों को अनासक्त हो भोगना और तृष्णासे बचे रहना ही निर्वाण प्राप्तिका उपाय है । गृहीपद में भी ज्ञान वैराग्ययुक्त भावश्यक अर्थ व काम पुरुषार्थ साधते हुए ध्यानका अभ्यास करना चाहिये । साधु होकर पूर्ण इन्द्रिय विजयी हो, संयम साधन के हेतु सरस नीरस भोजन पाकर ध्यानका अभ्यास बढाना चाहिये । ध्यान समाधि से विभूषित वीतरागी साधु ही ससारसे पार होता है । भव जैन सिद्धातके कुछ वाक्य काम भोगोंके सम्बन्धमें कहते हैं Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१९७ प्रवचनसारमें कहा है - ते पुण उदिण्णतण्हा दुहिदा तण्हाहि विसयसोक्खाणि । इच्छति अणुइवति य भामरण दुक्खसतत्ता ॥ ७२-१ ॥ भावार्थ-ससारी प्राणी तृष्णाके वशीभूत होकर तृष्णाकी दाहसे दुखी होते हुए इन्द्रिय भोगोंके सुखोंको बारबार चाहते हैं और भोगते हैं। मरण पर्यन्त ऐसा करते हैं तथापि सतापित रहते हैं। शिवकोट आचार्य भगवती आराधनामें कहते है । जीवस्स णत्थि तित्ती, चिर पि भोएहि भुनमाणेहिं । तित्तीये विणा चित्त, उव्वूर उध्वुद होइ॥ १२६४ ॥ भावार्थ-चिरकाल तक भोगोंको भोगते हुए भी इस जीवको तृप्ति नहीं होती है। तृप्ति विना चित्त घबड़ाया हुमा उड़ा उड़ा फिरता है। आत्मानुशासनमें कहा हैदृष्ट्या जन ब्रजसि कि विषयाभिलाष स्वल्पोप्यसौ तव महज्जनयत्यनर्थम् । स्नेहाद्युपक्रमजुषो हि यथातुरस्य दोषो निषिद्धचरण न तथेतरस्य ॥ १९१ ॥ भावार्थ- हे मूढ़ | तू लोगोंकी देखादेखी क्यों विषयभोगोंकी इच्छा करता है। ये विषयभोग थोड़ेसे भी सेवन किये जावें तौमी महान अनर्थको पैदा करते हैं। रोगी मनुष्य थोड़ा भी घी आदिका सेवन करे तो उसको वे दोष उत्पन्न करते है, वैसा दूपरेको नहीं उत्पन्न करते है । इसलिये विवेकी पुरुषोंको विषयाभिलाष करना उचित नहीं। श्री अमितगति तत्वभावनामें कहते हैं Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] दूसरा भाग। घ्यावृत्त्येन्द्रिग्गोचरोरुगहने लोल चरिष्णु चिर। दुर दयोदरे स्थिरतर कृत्वा मनोम टम् ॥ ध्यान ध्यायति मुक्तये भवततेर्निर्मुक्तभोगस्पृहो । नोपायेन विना कुता हि विषय सिद्धि लभन्ते ध्रुवम् ॥१४॥ भावार्थ-जो कोई कठिनतासे वश करनेयोग्य इस मनरूपी अदरको, जो इन्द्रियोके भयानक वनमें लोभी होकर चिरकालसे घर रहा था, हृदयमें स्थिर करके बाघ देते हैं और भोगोंकी वाला छोड़कर परिश्रमके साथ निर्वाणके लिये ध्यान करते हैं, वे ही निवा को पासक्ते है । विना उपायके निश्चयसे सिद्धि नहीं होती। श्री शुभचंद्र ज्ञानार्णवमे कहते हैअपि सल्पिता कामा सभवन्ति यथा यथा । तथा तथा मनुष्याणा तृष्णा विश्व विसर्पति ॥३०-२०॥ भावार्थ-मानवोंको असे जैसे इच्छानुसार भोगों की प्राप्ति होती जाती है वैसे २ उनकी तृष्णा बढ़ती हुई सर्व लोक पर्यंत फैल जाती है। यथा यथा हृषीकाणि खवश यान्ति देहिनाम् । तथा तथा स्फुरत्युच्चहदि विज्ञानभास्कर ॥ ११-२० ॥ भावार्थ-जैसे जैसे प्राणियोंके वशमें इन्द्रिया माती जाती हैं वैसे वैसे आत्मज्ञानरूपी सूर्य हृदयमें ऊँचा ऊँचा प्रकाश करता जाता है। श्री ज्ञानभूषणनी तत्वज्ञानतरगिणीमे कहते हैंखसुख न सुख नगा वित्वभिलाषाग्निवेदनाप्रतीकार । सुखमेव स्थितिरात्मनि निराकुलत्याद्विशुद्धपरिणामात् ॥४-१७॥ महून वारान् मया भुक्त सविकल्प सुखं तत । । तन्नापूर्व निर्विकल्पे सुखेऽस्तीहा ततो मम ॥ १०-१७॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१९९ भावार्थ-इन्द्रियजन्यसुख सुख नहीं है किंतु जो तृष्णारूपी भाग पैदा होती है उसकी वेदनाका क्षणिक इलाज हैं। सुख तो मात्मामें स्थित होनेसे होता है, जब परिणाम विशुद्ध हों व निराकुलता हो। मैंने इन्द्रियजन्य सुखको बारदार भोगा है, वह कोई अपूर्व नहीं है । वह तो भाकुलताका कारण है । मैंने निर्विकल्प आत्मीक मुख कभी नहीं पाया, उसीके लिये मेरी भावना है। (२१) मज्झिमनिकाय-महासारोपम सूत्र । गौतमबुद्ध कहते हैं-(१) भिक्षुओ ! कोई कुल पुत्र श्रद्धापूर्वक घरसे वेघर हो प्रवजित ( सन्यासी ) होता है । " मैं जन्म, जरा, मरण, शोकादि दुःखों में पड़ा हूं। दुःखसे लिप्त मेरे लिये क्या कोई दुःखस्कंधके अन्त करनेका उपाय है ?" वह इस प्रकार प्रवजित हो लाम सरकार व प्रशंसाका भागी होता है । इसीसे संतुष्ट हो अपनेको परिपूर्ण संकल्प समझता है कि मैं प्रशंसित हूं, दुसरे भिक्षु अप्रसिद्ध शक्तिहीन हैं। वह इस लाभ सत्कार प्रशंसासे मतवाला होता है, प्रमादी बनता है, पमत्त हो दुःहमें पड़ता है। जैसे सार चाहनेवाला पुरुष सार (हीर या असली रस गूदा ) की खोज में घूमता हुआ एक सारवाले महान वृक्षके रहते हुए उसके सारको छोड़, फल्गु (सार और छिलकेके बीचका काठ) को छोड़, पपड़ीको छोड़, शाखा पत्तेको काटकर और उसे ही सार समझ लेकर चला जावे, उसको आंखवाला पुरुष देखकर ऐसा Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] दूसरा भाग । 1 कह कि ह पुरुष ! आपने सारको नहीं समझा । सारसे जो काम करना है वह इस शाखा पत्ते मे न हो । । ऐमे ही भिक्षुओ ! यह वह है जिस भिक्षुने ब्रह्मचर्य ( बाहरी शील ) के शाखा पत्तेको ग्रहण किया और उतनेही मे अपने कृयको समाप्त कर दिया । (२) कोई कुल पुत्र श्रद्धा से प्रवजित हो लाभ, सत्कार, लोकका भागी होता है। वह इससे सतुष्ट नहीं होता व उस लाभादिसे न घमण्ड करता है न दूसरोंश नीच देखता है, वह मतवाला व प्रमादी नहीं होता, प्रमाद रहित हो, शील ( सदाचार ) का आरा धन करता है, उसी से सन्तुष्ट हो, मानको पूर्ण सकल्प समझता है । वह उन शील सम्पदा से अभिमान करता है, दूसरोंको नीच समझता है । यह भी प्रमादी हो दु खिन होता है । जैसे भिक्षुओ। कोई सारका खोजी पुरुष छाल और पपड़ीको काटकर व उसे सार समझकर लेकर चला जावे, उसको आखवाला देखकर कहे कि आप सारको नहीं समझे । सारसे जो काम करना है। वह इस छाल और पपड़ी से न होगा । तब वह दुखित होता है। ऐसे ही यह शीक सपदाका अभिमनी भिक्षु दुखित होता है । क्योंकि इसमें यहीं अपने कृत्यकी समाप्ति करदी | 1 (३) कोई कुलपुत्र श्रद्धानसे प्रनजित हो लाभादिसे सन्तुष्ट न हो, शीक सम्पदा से मतवाला न हो समाधि सपदाको पाकर उससे सतुष्ट होता है, अपनेको परिपूर्ण सकल्प समझता है । वह उस समाधि सपदासे अभिमान करता है, दूसरोंको नीच समझता है, वह इस तरह मतवाला होता है । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [२०१ प्रमादी हो दुखित होता है । जसे कोई सार चाहने वाला सारको छोड फल्गु नो छालको काटकर, सार समझकर लेकर चला नावे उसको आखवाला पुरुष देखकर कहे माप सारको नहीं समझे काम न निकलेगा, तब वह दुखित होता है। इसी तरह वह कुलपुत्र दुखित होता है। (४) कोई कुलपुत्र श्रद्धासे प्रव्रजित हो लाभादिसे, शीलसम्पदासे व समाधि सम्पदासे मतवाला नहीं होता है । प्रमादरहित हो ज्ञानदर्शन ( तत्व साक्षात्कार ) का माराधन करता है । वह उस ज्ञानदर्शनमें सतुष्ट होता है । परिपूर्ण सकल्प अपने को समझता है। वह इस ज्ञानदर्शनसे अभिमान करता है, दूसरोंको नीच समझता है, वह मतवाला होता है, दुखी होता है। जैसे भिक्षुओ। सार खोजी पुरुष सारको छोडकर फल्गुको काटकर सार समझ लेकर चला जावे । उसको भाखवाला पुरुष देखकर कहे कि यह सार नहीं है तब वह दुखित होता है। इसी तरह यह भिक्षु भी दुखित होता है। (५) कोई कुलपुत्र कामादिसे, शील सम्पदासे, समाधि सप दासे मतवाला न होकर ज्ञान दर्शनसे संतुष्ट होता है । परन्तु पूर्ण सकल्प नहीं होता है । वह प्रमाद रहित हो शीघ्र मोक्षको मारापित करता है । तब यह सभव नहीं कि वह भिक्षु उस सद्य प्राप्त (अकालिक ) मोक्षसे च्युत होवे । जैसे सारखोजी पुरुष सारको ही काटकर यही सार है, ऐसा समझ ले जावे, उसे कोई आखवाला पुरुष देख कर कहे कि अहो! मापने सारको समझा है, आपका Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Arrayanuare २०२१ दूसरा भाग। सारसे जो काम लेना है वह मतलब पूर्ण होगा । ऐसे ही वह कुलपुत्र अकालिक मोक्षसे च्युत न होगा। इस प्रकार भिक्षुओ ! यह ब्रह्मचर्य (भिक्षुपद) लाभ, सत्कार श्लोक पानेके लिये नहीं है, शील सपत्तिके लाभके लिये नहीं हैं, न समाधि सपत्तिके लापके लिये हैं, न ज्ञानदर्शन (तत्वको ज्ञान और साक्षात्कार ) के लाभके लिये है। जो यह न च्युत होनेवाली चित्रकी मुक्ति है इसके लिये यह ब्रह्मचर्य है, यही सार है, यही अन्तिम निष्कर्ष है। नोट-इस सूत्र में बताया है कि सापकको मात्र एक निर्वाण लाभका ही उद्देश्य रखना चाहिये । जबतक निर्वाणका लाभ न हो तबतक नीचेकी श्रेणियोंमे सतोष नहीं मानना चाहिये, न किसी प्रकारका अभिमान करना चाहिये। जैसे सारको चाहनेवाला वृक्षकी शाखा आदि ग्रहण करेगा तो सार नहीं मिलेगा। जब सारको ही पासकेंगा तब ही उसका इच्छित फल सिद्ध होगा। उसी तरह साधुको लाभ सत्कार श्लोकमें सतोष न मानना चाहिये, न अभिमान करना चाहिये । शील या व्यवहार चारित्रकी योग्यता प्राप्तकर भी सतोष मानकर बैठ न रहना चाहिये, आगे समाधि प्राप्तिका उद्यम करना चाहिये । समाधिकी योग्यता होजाने पर फिर समाधिके बळसे ज्ञानदर्शनका आराधन करना चाहिये । अर्थात् शुद्ध ज्ञानदर्शनमय होकर रहना चाहिये। फिर उससे मोक्षमावका अनुभव करना चाहिये। इस तरह वह शाश्वत् मोक्षको पा लेता है। जैन सिद्धातानुसार भी यही भाव है कि साधुको स्वाति Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२०३ काम पूजाका रागी न होकर व्यवहार चारित्र अर्थात् शीलको भले प्रकार पालकर ध्यान समाधिको बढ़ कर धर्मध्यानकी पूर्णता करके फिर शुक्लभ्यानमें आकर शुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावका अनुभव करना चाहिये । इसीके अभ्याससे शीघ्र ही भाव मोक्षरूप महत् पदको प्राप्त होकर मुक्त होजायगा । फिर मुक्तिसे कभी च्युत नहीं होगा। यहा बौद्ध सूत्रमें जो ज्ञानदर्शनका साक्षात्कार करना कहा है इसीसे सिद्ध है कि वह कोई शुद्ध ज्ञानदर्शन गुण है जिसका गुणी निर्वाण स्वरूप पात्मा है। यह ज्ञान रूप वेदना सज्ञा सस्कार जनित विज्ञा नसे भिन्न है । पाच स्कंधोंसे पर है। सर्वथा क्षणिकवादमें अच्युत मुक्ति सिद्ध नहीं होसक्ती है। पाली बौद्ध साहित्यमें अनुभवगम्य शुद्धात्माका अस्तित्व निर्वाणको मजात व अमर मानने से प्रगटरूपसे सिद्ध होता है, सूक्ष्म विचार करनेकी जरूरत है। जैन सिद्धातके कुछ वाक्यश्री नागसेननी तत्वानुशासनमें कहते हैरत्नत्रयमुपादाय त्यक्त्वा बधनिबधन । ध्यानमपस्यता नित्य यदि योगिन्मुमुक्षसे ॥ २२३ ॥ ध्यानाभ्य समर्षेण तुद्यन्मोहस्य योगिन । घरमागस्य मुक्ति स्यात्तदा अन्यस्य च क्रमात् ॥२२४|| भावाथ-हे योगी ! यदि तू निर्वाणको चाहता है तो तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र इस रत्नत्रय धर्मको धारण कर तथा राग द्वेष मोहादि सर्व बघके कारण भावोंको त्याग कर और भलेप्रकार सदा व्यान समाधिका अभ्यास कर । जब ध्यानका उत्कृष्ट साधन होजायगा तब उसी शरीरसे निर्वाण पानेवाले योगीका Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] दूसरा भाग। सर्व मोह श्य हो जायगा तथा जिसको -यानका उत्तम पद न पाप्त होगा ब क्रमसे निर्वाणको पावेगा । समयसारमें कहा हैपदणयमाणिधाता सीलाणि तहा तब घ कुव्वता । परमहवाहिरा जेण तेण ते होति अण्णाणी ॥ १६० ।। भावार्थ-व्रत व नियमोंको पालते हुए तथा शील और तपको करते हुए भी जो परमार्थ जो तस्वसाक्षात्कार है उससे रहित है वह -मात्मज्ञान रहित अज्ञानी ही है । पचास्तिकायमे कहा है जस्स हिंदयेणुमत्त वा परदव्यम्हि विजदे रागो।। सो ण विजाणदि समय सगस्स सध्यागमधरोवि ॥ १६७ ॥ तमा णिवुदिकामो णिस्सगो जिम्ममो य इविय पुणो । सिद्धसु कुणदि भत्ति णिव्याण तेण पप्पोदि ॥ १६९ ॥ भावार्थ-जिसके मनमें परमाणु मात्र भी राग निर्वाण स्वरूप आत्माको छोडकर परद्रव्यमें है वह सर्व आगमको जानता हुआ भी अपने शुद्ध स्वरूपको नहीं जानता है। इसलिये सर्व प्रकारकी इच्छाओंसे विरक्त होकर, ममता रहित होकर, तथा परिग्रह रहित होकर किसी परको न ग्रहण करके जो सिद्ध स्वभाव स्वरूपमें भक्ति करता है, मै निर्वाण स्वरूप हू ऐसा ध्याता है, वही निर्वाणको पाता है। मोक्षपाहुड़में कहा हैसम्वे कसाय मुत्त गारवमयरायदोसवामोह । लोयषवहारविरदो अप्पा झाएइ शाणत्थो ।। २७ ॥ भावाथ-मोक्षका भर्थी सर्व क्रोधादि कषायोंको छोड़कर, Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२०५ मह कार, मद, राग, द्वेष मोह, व लौकिक व्यवहारसे विक्ति होकर ध्यानमें लीन होकर अपने ही आत्माको ध्याता है। शिवकोटि भगवती आराधनामे कहते हैजह जह णिध्वेदुवसम , वेग्गदयादमा पचड्ढति । तह तह भब्भासयर, णिधाण होइ पुरिसस्स ॥ १८६२ ।। वयर पदणेसु जहा, गोसीस चदण ५ गये। बेरुलिय व मणण, तह झाण होइ खवयस्स ॥ १८९४ ।। भावार्थ-जैसे जैसे साधुमें धर्मानुराग, शाति, वैराग्य, दया, व सयम वढते जाते है वैसे निर्वाण अति निकट आता जाता है । जैसे रत्नोंमें हीरा प्रधान है, सुगन्ध द्रव्योंमें गोसीर चदन प्रधान है, मणियोंमें बैडूर्यमणि प्रधान है तैसे साधुके सर्व व्रत व तपोंमें ध्यान समाधि प्रधान है। आत्मानुशासनमें कहा हैयम नियमनितान्त शान्त माह्यान्तरात्मा परिणमितसमाधि सर्वसत्त्वानुकम्पी। विहितहितमिनाशी क्लेशजाल समूल दहति निहतनिद्रो निश्चिमाध्यात्मसार ॥ २२५ ॥ भावार्थ-जो साधु यम नियममें तत्पर हैं, जिनका भता बहिरग शात है, जो समाधि भावको प्राप्त हुए हैं, जो सर्व प्राणीमात्र पर दयावान है, शास्त्रोक्त हितकारी मात्रासे आहारके करनेवाले हैं, निंद्राको जीतनेवाले हैं, आत्माके स्वभावका सार जिन्होंने पाया है, वे ही ध्यानके बलसे सर्व दुखोंके जाल ससारको जका देते हैं। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। Marva समधिगतसमस्ता सर्वप्ताय द्या स्वहितनिहितचित्ता शान्तसर्वप्रचाग । स्वपरमफलजल्पा सर्वसकल्पमुक्ता कथमिह न विमुक्तेर्भाजन ते विमुक्त' ॥ २२६ ॥ भावाथ-जिन्होंने सर्व शास्त्रोंका रहस्य जाना है, जो सर्व पापोंसे दूर हैं, जिन्होंने आत्म कल्याणमें अपना मन लगाया है, जिन्होंने सर्व इन्द्रियोंकी इच्छाओंको शमन कर दिया है, जिनकी वाणी स्वपर कल्याणकारिणी है, जो सर्व सकल्पोंसे रहित है, ऐसे विरक्त साधु निर्वाणके पात्र क्यों न होगे ? अवश्य होंगे। ज्ञानार्णवम कहा हैआशा सद्यो विपद्यन्ते यान्त्य विद्या क्षय क्षणात् । म्रपते चित्तभोगीन्द्रो यस्य सा साम्यभावना ॥ ११-२४ ॥ भावार्थ-जिसके समभावकी शुद्ध भावना है, उसकी आशाए शीघ्र नाश होजाती है, अविद्या क्षणभरमें चलो जाती है, मनरूपी नाग भी मर जाता है। (२२) मज्झिमनिकाय महागोसिंग सूत्र । एकसमय गौतम बुद्ध गोसिंग साल्वनमें बहुतसे प्रसिद्ध २ शिष्योंके साथ विहार करते थे। जैसे सारिपुत्र, महामौद्गलायन महाकाश्यप, अनुरुद्ध, रेवत, आनन्द आदि । महामौद्गलायनकी प्रेरणासे सायकालको ध्यानसे उठकर प्रसिद्ध भिक्षु सारिपुत्रके पास धर्मचर्चा के लिये आए । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जौन बैद्ध तत्वज्ञान । [२०७ तब सारिपुत्र ने कहा-मावुस आनन्द रमणीय है । गोसिंग सालवन चादनी रात है। सारी पातियोंमें साल फूले हुए है। मानो दिव्य गध बह रही है । आवुप आनन्द ! किस प्रकारके भिक्षुसे यह गोसिंग सालवन शोभित होगा । (१) आनन्द कहते है-जो भिक्षु बहुश्रुत, श्रुतधर, श्रुतसयमी हो, जो धर्म आदि मध्य अन्तमे कल्याण करनेवाले, सार्थक, सव्यजन, केवल, परिपूर्ण, परिशुद्ध, ब्रह्मचर्यको बखाननेवाले हैं। वैसे धर्मोको उसने बहुत सुना हो, धारण किया हो, वचनसे परिचय किया हो, मनसे परखा हो, दृष्टि ( साक्षात्कार) मे घंसा लिया हो, ऐसा भिक्षु चार प्रकारकी परिषदको सर्वोगपूर्ण, पद व्यनन युक्त स्वतत्रता पूर्वक धर्मको अनुशयों (चित्रमलों ) के नाशके लिये उपदेशे । इस प्रकारके भिक्षु द्वारा गोसिग सालवन शोभित होगा । तब सारिपुत्रने रेवतसे पूछा-यह वन कैसे शोभित होगा ? (२) रेवत कहते है-भिक्षु यदि ध्यानरत, ध्यानप्रेमी होवे, अपने भीतर चित्तकी एकाग्रतामे तत्सर और व्यानसे न हटनेवाला, विवश्यना (साक्षात्कारके लिये ज्ञान) से युक्त, शून्य ग्रहोको बढानेवाला हो वे इस प्रकारके भिक्षु द्वारा गोसिग साल्वन शोभित होगा। तब सारिपुत्रने अनुरुद्धसे यही प्रश्न किया। (३) अनुरुद्ध कहते है-जो भिक्षु अमानव (मनुष्यसे भगोचर) दिव्यचक्षुसे सहस्रों लोकोको अवले कन करे । जैसे आखवाला पुरुष महलके कार खड़ा सहस्रों चक्को समुदायको देखे, ऐसे भिक्षुसे यह वन शोभित होगा। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] दसरा भाग। तब सारिपुत्रने महाकाश्यपसे यही प्रश्न पूछा। (४) महाकाश्यप कहते है-भिक्षु स्वय मारण्यक (वनमें रहने बाला) हो, और मारण्यताका प्रशसक हो, स्वय पिंडपातिक (मधुकरी वृत्तिवाला) हो और पिडपातिकताका प्रशसक हो, स्वय पासुकूलिक ( फेंके चिथड़ोंको पहननेवाला ) हो, स्वय त्रैचीवरिक ( सिर्फ तीन वस्त्रोंको पासमे रखनेवाला ) हो, स्वय भल्पेच्छ हो, स्वय सतुष्ट हो, प्रविविक्त (एकान्त चितनरत) हो, ससर्ग रहित हो, उद्योगी हो, सदाचारी हो, समाधियुक्त हो, प्रज्ञायुक्त हो, वियुक्तियुक्त हो, वियुक्तिके ज्ञान दर्शनसे युक्त हो व ऐसा ही उपदेश देनेवाला हो, ऐसे भिक्षुसे यह वन शे मित होगा। तब सारिपुत्रने महामौदल यनसे यही प्रश्न किया । (५) महामौद्गलायन कहते है-दो भिक्षु धर्म सम्बन्धी कथा करें । वह एक दुसरेसे प्रश्न पूछे, एक दुसरेको प्रश्नका उत्तर दें, जिद न करें, उनकी कथा धर्म स वधी चले । इस प्रकार के भिक्षुसे यह वन शोभित होगा। तब महामौद्गालयनने सारिपुत्रसे यही प्रश्न किया। (६) सारिपुत्र कहते हैं-एक भिक्षु चित्तको वशमे करता है, स्वय चित्त के वशमें नहीं होता। वह जिस विहार (ध्यान प्रकार) को प्राप्तकर पूर्वाह समय विहरना चाहता है । उसी विहारसे पूर्वाह्न समय विहरता है । जिस विहारको प्राप्तकर मध्य ह समय विहरना चाहता है उसी विहारसे विहरता है, जैसे किसी रानाके पास नाना-नके दुशालोंके करण्ड (पिटारे) भरे हों, वह जिस दुशालेको Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२०९ पूर्वाह समय, जिसे मध्याह्न समय, जिसे सध्या समय धारण करना चाहे उसे धारण के। इस प्रकारक भिक्षुमे यह वन शोमता है। तब सारिपुत्रने कहा-हम सब भगवान के पास जाकर ये बातें कहें। जैसे वे हमें बतल ए वैमे हम धारण करें। तब वे भगवान बुद्धके पास गए और सबका कथन सुनाया। तब सारिपुत्रने भग वानसे कहा- किसका कथन सुभाषित है। (७ गौतम बुद्ध कहते है-तुम समाका भापित एक एक करके सुभाषित है और मेरी भी सुनो। जो भिक्षु भो ननके बाद मिक्षासे निवटकर, आसन कर शरीरको सीधा रख, स्मृति का सामने उपस्थित कर सकल्प करता है। मै तबतक इम आमन को नहीं छोडूगा जबतक कि मेरे पित्तमक चित्त को न छोड दंगे। ऐसे भिक्षुपे गोभिग वन शोभित होगा। नोट -यह सूत्र साधु शिक्षारूप बहुत उपयोगी है। साधुको एकातमे ही व्यानका अभ्यास करना चाहिय । परम सन्तोषी होना चाहिये । ससर्ग रहित व इच्छा रहित होना चाहिये, वे सब बातें जैन सिद्धान्तानुसार एक साधु लिय माननीय है। जो निम्र थ सर्व परिग्रह त्यागी साधु जनोंमें होन है वे वस्त्र भी नहीं रखने हे, एक मुक्त होते हैं। जैसे यहा निर्जन स्थानमें तीन काल ध्यान करना कहा है वैसे ही जैन साधु का भी पूर्व ह मध्य ह्र व सन्ध्याको ध्यानका अभ्यास करना चादिय । ध्यान के अनेक भद है। जिस ध्यानसे जब चित्त एकाग्र हो -सा प्रकार के व्यानका तप व्याये । अपने आत्माके ज्ञानदर्शन स्वभाव का साक्षत्कार करे। साधुको बहुत १४ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D∞ दुसरा भाग । शाखा मरमी होता चाहिये, यही यथार्थ उपदेश होसकता है । उपदेशका हेतु यही हो कि रा । मोह दूर हों व आत्माको ज्यानकी सिद्धि हो । पक्ष मधुओंको शांति बढ़ाने के लिये नर्म चर्चा भी करनी चाहिये । जैन सिद्धात के कुछ वाक्य-प्रवचनसार में कहा है जो हिरमोड व्यागमकुमलो विरागचयिहि | यो महा धम्मोत्ति विसेसि समणो ॥ ९२-१ ।। भावार्थ - जो मिथ्यादृष्टिको नाश कर चुका है, आगममें कुशल है, वीतराग चारित्रमे सानवान है, वही महात्मा साधु धर्मरूप कहा गया है । बोधप हुडमें कहा है KASTAMON उवसमखमदमजुत्ता सरीग्सकारवजिया रुक्खा | मायदोमरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ५२ ॥ पाइलटसँग कुसीक्स ण कुणइ विकहाओ । साझा जुत्ता पञ्चज्जा एरिसा नणिया ॥ ५७ ॥ भावार्थ- जो शान भाव, क्षमा, इन्द्रिय निग्रह मे युक्त है, शरीर के श्रृंगारसे रहित है, उदासीन है, मद, राग व द्वेषसे रहित है उन्हीं साधुकी दीक्षा कही गई है। जो महात्मा पशु, स्त्री, नपुसककी संगति नहीं रखते है, न्यभिचारी व असदाचरी पुरुषकी सगति नहीं करते हैं, खोटी रागद्वेषवर्द्धक कथाए नहीं करने है, स्वाध्याय तथाध्यमे विरते है वहीं सधुका दीसा कहीं गई है । समाधिरा कमें कहा है Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२११ मुक्तिरेकान्तिको तस्य चित्ते यस्पाचला धृते । ताल्य नैकाविसकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यवधा ते ॥ ७१ ॥ भावार्थ-निसाफे मनमें निष्कम्प अामाने थिरता है उसको अवश्य निर्माणका लाभ होता है, जिसके चित्तमें ऐसा निश्च र धैर्य नहीं है उसको निर्वाण प्राप्त नहीं होमकता है । ज्ञानार्णवमें कहा है - निःशेषक्लेशनिमुक्तममुर्त परमाक्षरम् । निष्प्रपच व्यतीनाक्ष पश्य त्व खत्मनि स्पिन ॥ २४ ॥ भावार्थ-हे मात्मन् ! तू अपने ही आत्मामें स्थित, सर्क केशोंसे रहित, अमूर्तीक, परम अविनाशी, निर्विकला और अतींद्रिक अपने ही स्वरूपका अनुभव कर । रागादिपट्टविश्लेषात्प्रसन्ने चित्तवारिणि । परिस्फुाति नि शेष मुनेवस्तुकर सकम् ॥ १७-२३ ॥ भावार्थ-रागादि कर्दमके अमावसे जब चित्तरूपी जल शुद्ध होजाता है तब मुनिके सर्व वस्तुओंका स्वरूप स्पष्ट मासता है। तत्वज्ञान तरगिणीमें कहा हैव्रतानि शास्त्राणि तपासि निर्जने निवासमत हि सगमोचन । मौन क्षमातापनयोगधारण चिच्चितयामा कलयन् शिव श्रयेत् ॥११-१४॥ भावार्थ-जो कोई शुद्ध चैतन्य स्वरूपके मननके साथ साथ व्रतोंको पालता है, शास्त्रोंको पढ़ता है। तप करता है, निर्जनस्थानमें रहता है, बाहरी भीतरी परिग्रहका त्याग करता है, मौन धारता है, क्षमा पालता है व आतापन योग धारता है वही मोक्षको पाता है। - Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसग भाग! (२३) मज्झिमनिकाय महागोपालक सूत्र । गौतमबुद्ध कहते हैं-भिक्षुओ ! ग्यारह बातों ( अगो) से युक्त गोपालन गोयुथकी रक्षा करनेके भयोग्य है (१) रूप ( वर्ण ) का जाननेवाला नहीं होता. (२) लक्षणमें भी चतुर नहीं होता, (३) काली मक्तियोंको हटानेवाला नहीं होता, (४) घावका ढाकनेवाला बहीं होता, (५) धुश्रा नहीं करता, (६) तीर्थ ( जलका उनार) नहीं जानता, (७) पान को नहीं जानता, (८) वीथी (डगर) को नहीं जानता (९) चरागाइका जानकार नहीं होता, (१०) विना छोड़े (सारे) को दुह लेता है, (११) गायोंको पितरा, गायोंके स्वामो वृषभ (माढ) है, उनकी अधिक पूजा (भोजनदि प्रदान) नहीं करता। ऐसे ही ग्यारह बातोंसे युक्त भिक्षु इस धर्म विनयमें वृद्धि विरूढ़ि, विपुलता पाने के अयोग्य है। भिक्षु-(१) रूपको जाननेपाला नहीं होता। जो कोई रूप है यह सब चार महाभूत (पृथ्वी, जल, वायु तेज ) और चार भूतोको लेकर बना है उसे यथार्थमे नहीं जानता। (२) लक्षण चतुर नही होता-भिक्षु यह यथार्थ से नहीं जानता कि कर्मके कारण (लक्षण) से बाक ( अज्ञ ) होता है और कर्मके लक्षणसे पण्डित होता है। (३) भिक्षु आसाटिक (काली मक्खियो) का हटानेवाला नहीं होता है-भिक्षु उत्पन्न काम (भोग वासना) के वितर्कका स्वागत करता है, छोडता नहीं, हटाता नहीं, अलग नहीं करता, भभावको प्राप्त नहीं करता, इसी तरह उत्पन्न व्यापाद (परपीड़ा) के Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान ! [ २१३ विनर्कका, उत्पन्न हिंमाके वितर्कका, तथा अन्य उत्पन्न होते अकुश धर्मो का स्वागत करता है, छोड़ना नहीं । (४) भिक्षु व्रण ( घात) का ढाकनेवाला नही होता है-भिक्षु आखसे रूपको देखकर उसके निमित्त ( अनुकूल प्रतिकूड होने) का ग्रहण करनेवाला होता है | अनुव्यजन ( पहचान ) का ग्रहण करनेवाला होता है । जिस विषयमें इस चक्षु इन्द्रियको सयत क रखने पर लोभ और दौर्मनस्य आदि बुराइया अकुशल धर्म आ चिपटते है उसमें सयम करने के लिये तत्पर नहीं होता । चक्षुइन्द्रिय की रक्षा नहीं करता, चहन्द्रियके सवरमें लम नहीं होता । इसी तरह श्रोत्र शब्द सुनकर, प्राणसे गव सूत्रकर, जिह्न से रस चखकर, कायासे स्पृश्यको स्पर्शकर, मनसे धर्मको जानकर निमित्तका प्रहण करनेवाला होता है । इनके सयममें लग्न नहीं होता । 1 (५) भिक्षु धुआ नहीं करता - भिक्षु सुने अनुमार, जाने अपार, धर्मको दूसरोंके लिये विस्तारसे उपदेश करनेवाला नहीं होता । (६) भिक्षु तीर्थको नहीं जानता- जो वह भिक्षु बहुश्रु आगम प्राप्त, धर्मघर, विनयधर, मात्रिका घर है उन भिक्षुओंके पास समय समयपर जाकर नहीं पूछता, नहीं प्रश्न करता कि यह कैसे हैं, इसका क्या अर्थ है, इसलिये वह भिक्षु भवित्राको विन नहीं करता, खोलकर नहीं बनलाता, असष्टको स्पष्ट नहीं करता, अनेक प्रकार के शका - स्थानवाले धर्मोमें उठी शँका का निवारण नहीं करता । (७) भिक्षु पानको नहीं जानता - भिक्षु तथागतके बनला ये धर्म विनयके उपदेश किये जाते समय उसके अर्थवेद ( अर्थ ज्ञान ) को नहीं पाता । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www. me दुसग भाग। (८) क्षुकीको नही जानना किंतु आर्य अष्टागिक आ ( २५ शेर, कसम घि) कोटी ठीक नहीं जानता। (९) निक्षु गोचर में कुशल नहीं होता भिक्षु चार स्मृति मानोंको ठाग 5 : { देखो अध्याय- ८ कामम्मति, रेदनास्कृति, विस्मति धर्मति) (१०) मिथिला छोड़े अशेषका दुहनेवाला होता हैशिक्षुओं को श्रद्ध छ ति निक्षाज, निवास, आसन, २०य औषघिकी सामग्रियोस अच्छी तरह सन्तुष्ट करते है, वहा भिक्षु मात्रासे ( मर्यादारूप ) ग्रहण करना नहीं जानता । (११) भिक्षु चिरकालसे प्रति संघके नायक जो स्थविर भिक्षु है उन्हे आतरिक्त पूमासे पूति नहीं करतानिक्षु स्थविरक्षुिओंवे. लिये गुप्त और प्रगट मंत्री युक्त कायिक कर्म, चिक कर्भ और मानस कर्म नहीं करता। ___ इस तरह इन ग्यारह धर्मोसे युक्त भिक्षु इस धर्म विनयमें वृद्धि विरूढिको प्राप्त करने में भयोग्य है। क्षुिओ, ऊपर लिखित ग्यारह बातोंसे विरोधरूप ग्यारह धर्मोसे युक्त गोपारक गोयूथकी रक्षा करने के योग्य होता है। इसी प्रकार उपर कथित ग्यारह धौसे विरुद्ध ग्यारह धर्मोस युक्त क्षुि वृद्धिविकदि, दिपुरता प्राप्त करनेके योग्य है । अर्थात् क्षुि-(१) रूपका यथार्थ जाननेवाला होता है, (२) बाल और पण्डितके कर्म लक्षणों को जानता है, (३) काम, व्यापाद, हिंसा, लोभ, दौमनस्म मादि अनुकल धर्मोका स्वागत नहीं करता है, (४) पाचों इन्द्रिय व Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ २१५ उठे मनसे जानकर निपियारी नहीं होता वगग्यवान रहता है, (५) जाने हुए धर्म को दूमके उपदेश है, (६) बहुत श्रुत विक्षुओं के पास समय समय के प्रश्न पूछता है, ७) नागतक बनाए धर्म और विनयके उपदेश दिये जाते समय अर्थ ज्ञानको पाता है, (८) अ - अष्टामिक मार्गको ठीक २ जानता है, (९) चारों स्मृति प्रस्थानोंको ठीक ठीक जानता है, (१०) भोजनादि ग्रहण करने में मात्र को जानता है, (११) स्थविर भिक्षुओंके किये गुप्त और पकट मैत्रीयुक्त कायिक, वाचिक, मानस कर्म करता है । नोट-इप सूत्रमें मूर्ख और चतुर अज्ञानी साधु और ज्ञानी साधुकी शक्तिम है । वास्तव में जो साधु इन ग्यारह खुममे युक्त होता है वही निर्वाणभोगकी तरफ बढ़ता हुआ उन्नति कर लत्ता है उसे (१) सर्व पौलिक रचनाका ज्ञाना होकर मोह त्यागना चाहिये । (२) पति के लक्षणों को जानकर स्त्रय पढिन रहना चाहिये । (३) क्रोष दि बायका त्यागी होना चाहिये । (४ पाच इन्द्रिय व मनका सबमी होना चाहिये । ( ५ ) परोपकारादि धर्मका उपदेश होना चाहिये । (६) विनय सहिन बहुज्ञाता से शका निवारण करते रहना चाहिये । (७) धर्मों देश के सारको समझना चाहिये । (८) मोक्षमार्गका ज्ञाता होना चाहिये । (९) धर्मरक्षक भावनाओंको स्मरण करना चाहिये । (१०) सतोषपूर्वक भएपाहारी होना चाहिये । (११) बडोंकी सेवा मैत्रीयुक्त भावसे मन वचन कायसे करनी चाहिये । जैन सिद्धान्तानुसार भी ये सब गुण साधुमें होने चाहिये । 1 फलेका दृष्टान्त देकर उपयोगी वर्णन किया Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुमरा भाग। जैन सिद्धातके कुछ वाक्यसारसमुच्चयों कहा है - ज्ञानध्या नोपवासश्च परीबहजयप्तथा । शोलससम्योगैश्च स्वात्मान भावयेत् सदा ॥८॥ भावार्थ-साधुको योन्य है कि शास्त्रज्ञान, आत्मध्यान, तथा उपवासादि तप करते हुए, तथा क्षुत्रा तृषा दुर्वचन, आदि परी पहोंको जीतते हुए शील सयम तथा योगाभ्यासके साथ अपने शुद्धात्माकी या निर्वाणकी भावना करे। गुरुशुश्रूषया जन्म चित्त सद्धय नचिन्तया। श्रुत यस्य समे याति विनियोग स पुण्यभ क् ॥१९॥ भावार्थ-जिसका जन्म गुरुकी सेवा करनेमें, मन यथार्थ ध्यानके साधनमें, शास्त्रज्ञान समताभावके धारणमें काम भाता है बही पुण्यात्मा है। वषयान् शत्रुवत् पश्येद्विषयान् विषपत्तथा । मोह च परम व्याधिमे मुचुर्विचक्षण ॥ ३५॥ भावार्थ-कामक्रोधादि कषायोंको शत्रुके समान देखे, इन्द्रि योंके विषयोंको विष के बराबर जाने, मोहको बड़ा भारी रोग जाने, ऐसा ज्ञानी आच योने उपदेश दिया है। धर्मामृत सदा पेष दुःखातकविनाशनम् । यस्मिन् पीते पर सौख्य जीवाना जायते सदा ॥ ६३ ॥ भावार्थ-दुखरूपी रोगोंको नाश करनेवाले धर्नामृतका सदा पान करना चाहिये। अर्थात् धर्मके स्वरूपको भक्तिसे जानना, सुनना व मनन करना चाहिये, जिस धर्मामृतके पीनेसे जीवोंको परम सुख सदा ही रहता है। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२१. नि सगिन'ऽपि वृत्त ढ्या निस्नेहा सुश्रुतिप्रिया । अभूष ऽपि तपोभूषास्ते पात्र योगिन सदा ॥ २०१॥ भावार्थ-जो परिग्रह रहित होने पर भी चारित्रके धारी हैं, जगतके पदार्थोसे स्नेहरहित होने पर भी सत्य मागमके प्रेमी हैं, भूषण रहित होने पर भी तप ध्यानादि आभूषणोंके धारी हैं ऐसे ही मोगी सदा धर्मके पात्र है। मोक्षपाहुड में कहा हैउद्धवझलोये केई मज्ज्ञ ण सहयोगागी । इयभावणाए जोई पार्वति र सासय टाण ॥ ८१ ॥ भावार्थ-इस ऊर्ध, अधो, मध्य लोक्में कोई पदार्थ मेरा नहीं है, मैं एकाकी इ, इस भावनासे मुक्त योगी ही शाश्वत् पद निर्वाअको पाता है। भगवती आराधनामें कहा हैसम्वग्गयविमुक्को सीदीभूदो पसण्णचित्तो य । ज पावइ पीइसुह ण चक्कट्टी वितं लहदि ॥ १९८२ ॥ भावार्थ-जो स धु सर्व परिग्रह रहित है, शात चित्त है व प्रसन्नचित्त है उमको जो प्रीति और सुख होता है उसको चक्रवर्ती भी नहीं पासक्ता है। आत्मानुशासनम कहा हैविषयविरति सगत्याग ६ष यविनिग्रह । शमयमदमास्तत्त्वाभ्यासस्तपश्च धर ॥ नियमितमनोवृत्तिभक्तमिनेषु दयालुता । भवति कतिन संसाराब्धेस्तटे निफ्टे सति ॥ २२ ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] दुसरा भाग। भावार्थ- जिन संसार सागर के पार होनेका तट निकट भागया है उनको इतनी बातोंकी प्राप्ति होती है, (१) इन्द्रियों के विषयोंमे वि क भाव, (२) पारेका त्याग, (३) क्रोधादि कषायों पर विजय, (४, शात भार (५) इद्रियों का निरोत्र, (६) महिला, सत्य, अस्तेय, प्रमचर्य व परिग्रह त्याग महाव्रत, (७) तत्वोंका अभ्यास, (८) सपा उद्यम, (९) मनकी वृतिका निरोध, (१०) श्री जिनेन्द्र महतो पति, (११) प्राणियोंगर दया । ज्ञानार्णवमें कहा है-- शीताशुश्मिसपद्विमर्पत यथाम्बुधि । तथा सद्वृतसप्तर्गा नृगा प्रज्ञापयोनिधि ॥ १७-१५ ॥ भावार्थ-जैसे चप्रमाकी किरणोंकी सगतिसे समुद्र बढ़ता है, वैसे सम्यक् चारित्रके धारी साधुओं सातिसे प्रज्ञा (भेद विज्ञान) रूपी समुद्र बढ़ता है। निखिभुपनत्त्वे द सनकप्रदीप निरुतविधिरूढ निर्भरानन्दकाष्टाम् । परममुनिमनीष देदपर्यन्तभूत परिकलय विशुद्ध स्व त्मनात्मानमेव ॥१०३-३२॥ भावार्थ-तू अपने ही आत्माके द्वारा सर्व जगतके तत्वोंको दिखाने के लिये अनुग्म दीपकके समान, उपाधिरहित, महान, परमानन्द पूर्ण, परम मुनियों के भीतर भेद विज्ञान द्वारा प्रगट ऐसे मात्माका अनुभव कर। स कोऽपि परमानन्दो वीतरागस्य जायते । बेन लोकवयैश्वर्यमप्यचिन्त्य तृणायते ॥ १८-२३ ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जौन बैद्ध तत्वज्ञान | [ २१९ भावार्थ- वीतरागी साधु भीतर ऐसा कोई अपूर्व मानद पैदा होता है, जिसके सामने तीन का चिन्त ऐश्वर्य भी तृणके समान है । 630010 (२४) मज्झिमनिकाय चलगोपालक सूत्र | गौतम बुद्ध कहते हैं - निक्षुओ ! पूर्व में मगच निवासी ! एक मुर्ख गोपालकने वषा अतिम माह श दकार में गगानदी के इस पारको विना सोचे, उस पारको विद्या सोचे वे घाट ही विदे हकी ओर दुमरे तीरको गायें हाक दीं, वे गए गगानदीक स्रोतके भर में पड़ कर वही विनाशको प्राप्त हो गई । सो इमी लिये कि वह गोपालक मूर्ख था । इसी प्रकार जो कोई भ्रमण या ब्रह्मण इम लोक व परलोक से अनभिज्ञ हैं, मारके लक्ष्य अल्क्ष्यमे अनभिज्ञ है, मृत्युक्त लक्ष्य अलक्ष्यसे अनभिज्ञ हैं, उनके उपदेशों को जो सुनने योग्य, श्रद्धा कग्नेयोग्य समझेंगे उनके लिये यह चिरकाल कर महित कर दुखकर होगा । भिक्षुओ ! पूर्वक में एक मगधवासी बुद्धिमान वालेने वर्षा अतिम माह में शब्दकालमें गंगानदी के इस पार व उप पारको सोचकर घाटसे उत्तर तीरपर विदेहकी ओ गाए हाकीं । उसने जो वे गार्यो पितर, गायके नायक वृषम थे, उन्हें पहले हाका | वे airat arरको तिरछे काटकर स्वस्त्रिपूर्वक दूसरे पार चले गए। तब उसने दूसरी शिक्षित बलवान गार्योको हाका, फि' बछड़े और वछियों को हाका, फिर दुर्बक बछड़ोंको हाका, वे सब स्वस्ति पूर्वक दूसरे पार चले गए । उस समय तरुण कुछ ही दिनों का Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] दूसरा भाग । पैदा एक बडा भी माताकी गर्दनके सहारे तैरते गगाकी धारको तिरछे काटकर स्वस्त्रिपूर्वक पार चला गया । सो क्यों इमी लिये कि बुद्धिमान ग्व लेने हाकी । ऐसे ही भिक्षुओं । जो कोई श्रमण या ब्राह्मण इस लोक परलोक के जानकार, मारके लक्ष्य अक क्ष्य के जानकार व मृत्युके लक्ष्य अलक्ष्य के जानकार हैं उनके उप देशको जो सुनने योग्य श्रद्धा करने योग्य समझेंगे उनके लिये यह चिरकालतक हितकर - सुखकर होगा । (१) जैसे गायोंके नायक वृषभ स्वस्निपूर्वक पार चले गए ऐसे ही जो ये अईत्, क्षेणास्रव, ब्रह्मचर्यत्रास समाप्त कृतकृत्य, भारमुक्त, सप्त पदार्थको प्रत, भव बघन रहित, सम्यग्ज्ञ नद्वारा युक्त है वे मारकी धाराको तिरछे काटकर स्वस्तिपूर्वक पार जायगे । (२) जैसे शिक्षित बलवान गाए पार होगईं, ऐसे ही जो भिक्षु पाच व्यवरभागीय सयोजनों ( सत्काय दृष्टि ) ( आत्मवादकी मिथ्या दृष्टि ), विचिकित्सा ( संशय ), शीतत्रत परामर्श ( व्रता चरणका अनुचित अभिमान), कामच्छेन्द (भोगों में राग ), व्यामौह ( पीड़ाकारी वृत ) के क्षयमे औरपातिक (अयोनिज देव) हो उस देवसे लौटकर न मा वहीं निर्वाणको प्रप्त करनेवाले हैं वे भी चार होजायगे । (३) जैसे बछडे वछडिया पार होगई वैसे जो भिक्षु तीन सयोजनोंके नाशसे- राग द्वष, मोहके निर्बल होनेसे सकृदाग मी है, एक वार ही इस लोक में आकर दुखका अत करेंगे वे भी निर्वा को प्राप्त करनेवाले हैं । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [ २२१ (४ जैसे एक निर्बल वछडा पार चला गया वैसे ही जो भिक्षु तीन सयोजनोंक क्षयसे स्रोतापन्न है, नियमपूर्वक सबोधि (परम ज्ञान) परायण ( निर्वाणगामी पथ से ) न भृष्ट होनेवाले है, वे भी पार होंगे। इस मेरे उपदेशको जो सुनने योग्य श्रद्धा के योग्य मानेंगे उनके लिये वह चिकाल तक हितकर सुस्वक' होगा । तथा कहा जानकारने इस लोक परलोकको प्रकाशित किया । जो मारकी पहुचमे है और जो मृत्युकी पहुचमें नहीं हैं । जानकार सबुद्धने सब लोकको जानकर । निर्वाणकी प्राप्ति के लिये क्षेम (युक्त) अमृत द्वार खोल दिया । पापी (मार) के स्रोतको छिन्न, विव्वस्त, विश्वचलित कर दिया । भिक्षुओ ! प्रमोदयुक्त होवो-क्षेमकी चाह करो । नोट - इम ऊपर के कथन से यह दिखलाया है कि उपदेशदाना बहुत कुशल मोक्षमार्गका ज्ञाता व सपारमार्गका ज्ञाता होना चाहिये तब इसके उपदेश से श्रोतागण सच्चा मोक्षमार्ग पाएगे । जो स्वयं ज्ञान है वह आप भी डूबेगा व दुसरेको भी डूबाएगा । निर्वाणको ससारके पार एक क्षेत्रयुक्त स्थान कहा है इसलिये निर्वाण अभाव रूप नहीं हो सक्ती क्योंकि कहा है - जो क्षीणास्रव होजाते है वे सप्त पदार्थको प्राप्त करते है । यह सप्त पदार्थ निर्वाणरूप कोई वस्तु है जो शुद्धात्मा के सिवाय और कुछ नहीं होसक्ती । तथा ऐसेको सम्यग्ज्ञान से मुक्त कहा है । यह सम्यग्ज्ञान सच्चा ज्ञान है जो उस विज्ञान से भिन्न है जो रूपके द्वारा वेदना, सज्ञा, सस्कार से दा Q Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ । दूसरा भाग । होता है । इमीको जैन सिद्धातमें केवलज्ञान कहा है । क्षीणाखव साधु सयोग बली जिन होजाता है वह सर्वज्ञ वीतराग कृतकृत्य मत होजाता है वही शरीर के अनमें सिद्ध परमात्मा निर्वाणरूप होजाता है । ज में कहा है कि निर्वाणकी प्राप्तिके खोल दिया जिसका मतलब वही है कि देनेवाला सानुभव रूप मार्ग खोल दिया यही वहा निर्वाण में भी परमानद है । वह अमृत ऊमर रहता है । यह सव कथन जैनसिद्धातमें मिलता है । जैन सिद्धात के कुछ वाक्य लिये अमृत द्वार अमृतमई आनन्दको निर्वाणका साधन है पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा है मुख्योपचार विवरण निरस्तदुस्तर विनेयदुर्योधः । व्यवहार निश्चयज्ञा प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ॥ ४ ॥ भावार्थ- जो उपदेश दाता व्यवहार और निश्चय मार्गको जान " नेवाले हैं वे कभी निश्चयको कभी व्यवहारको मुख्य कहकर शिष्यों का कठिन से कठिन अज्ञानको मेट देते हैं वे ही जगत मे धर्मतीर्थका प्रचार करते है | स्वानुभव निश्चय मोक्षमार्ग है, उसकी प्राप्ति के लिये बाहरी व्रताचरण आदि व्यवहार मोक्षमार्ग है । व्यवहारके सहारे स्वानुभवका लाभ होता है । जो एक पक्ष पकड़ लेने हैं, उनको गुरु समझा कर ठीक मार्गपर लाते हैं । आत्मानुशासनमें कहा है प्राज्ञ प्राप्त समस्तशास्त्रहृदय प्रव्यक्तलोक स्थिति प्रास्ताश. प्रतिभापर. प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तर | Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। २२३ प्राय प्रश्नसह प्रभु परमनाहारी परानिन्दया ब्रूगाधर्मकथा गणी गुगनिधि अस्पृष्टमिष्ट क्षर• ॥९॥ भावार्थ-जो बुद्धिमान् हो, सर्व शास्त्रोंका रहर जानता हो, प्रश्नों का उत्तर पहलेहीसे समझता हो, किसी प्रकारकी माशा तृष्णासे रहित हो, प्रभावशाली हो शात हो, लोकके व्यवहारको समझना हो, भनेक प्रश्नों को सुन सक्ता हो, महान हो, परके मनको हरनेवाळा हो, गुणों का सागर हो, साफ माफ मीठे अक्षरों का कहनेवाला हो ऐसा आचार्य सघनायक परकी निदा न करता हमा धर्ममा उपदेश करे। सारसमुच्चयमें कहा हैसप्तारावासनित्ता शिम्सौख्यसमुत्सुका । सद्धिन्ते गदिता प्राज्ञा शेषा शास्त्रस्य वचका ॥२१२॥ भावार्थ-जो साधु समारके वाससे उदास है। तथा कल्याणभय मोक्षके सुखके लिये सदा उत्साही है वे ही बुद्धिवान् पडिन सावुओं के द्वारा कहे गए हैं। इनको छोड कर शेष सब अपने पुरु पार्थके ठगनेवाले हैं। तत्वानुशासनमें कहा हैतत्रासन्नीभवेन्मुक्ति किंचितासाद्य कारण । विरक्त कामभोगे-पस्त्यासर्वपरिप्रद ॥ ४१ ॥ अभ्येत्य सम्यगाचार्य दीना जनेश्वरीं त्रिः । तप सयमसम्पन्न प्रदरहिताशय ॥ ४२ ॥ सम्यग्निर्णीतजीवादिध्ये वस्तुव्यस्थिति । मात्तरोद्रपरित्यागालबचित्तप्रसत्तिक ॥ ४३ ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] दूसरा माग । मुक्तलोकद्वयापेक्ष षोढ शेषः । अनुष्ठि महासत परिरक्तदु श्याशुभभावन । इतक्षणो ता धर्मध्यानस्य सम्मत ॥ ४६ ॥ भावार्थ - धर्मभ्य नका ध्याता साधु ऐसे लक्षणों का रखनेवाला होता है (१) निर्वाण जिसका निकट हो, (२) कुछ कारण पाके काम भोगोंसे विरक्त हो, किसी योग्य आचार्यके पास जाकर सर्व परिग्रहको त्यागकर निर्बंथ जिन दीक्षाको धारण की हो, (३) तक व सयम सहित हो, (४) प्रमाद भाव रहित हो, (५) भले प्रकार ध्यान करनेयोग्य जीवादि तत्वोंको निर्णय कर चुका हो, (६) आर्तरौद्र खोटे ध्यानके त्यागसे जिसका चित्त प्रसन्न हो, (७) इस लोक परलोककी वाछा रहित हो, (८) सर्व क्षुत्रादि परीषहोंको सहनेवाला हो, (९) चारित्र व योगाभ्यासका कर्ता हो, (१०) ध्यानका उद्योगी हो, (११) महान् पराक्रमी हो, (१२) अशुभ लेश्या सम्बन्धी अशुभ भावनाका त्यागी हो । गोय गे कुचन ॥ ४४ ॥ पद्मसिंह मुनि ज्ञानसारप कहते हैं सुण्णज्झाणे णिमो वायणिस्सेसवरणवावारो । परिरुद्व चत्तस्रो पावर जोई पर ठाण || ३९ ॥ भावार्थ- जो योगी निर्विक्स व्यानमें लीन है, सर्व इन्द्रि योंके व्यापार से विरक्त है, मनके प्रचारको रोकनेवाला है वही योगी निर्वाणके उत्तम पदको पाता है । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । (२२५ (२५) मज्झिमनिकाय महातृष्णा क्षय सूत्र। १ गौतमबुद्ध कहते है निम जिप प्रत्यय ( नि मत्त ) से विज्ञान उन्न होता है बड़ी हो उसकी सज्ञा ( नाम ) होता है। चक्षुके निमिन१ रूपमें विज्ञान उन्न होता है । चक्षविज्ञान ही उपकी सज्ञ होती है। इसी तरह अत्र ध्र ण जिह, कायक नि म तसे बो विज्ञ न उत्पन्न होता है उसकी श्रोत्र विज्ञान, प्रण विज्ञान, रस विज्ञान, काय विज्ञान सज्ञ होता है। मनके नि मत्तः धर्म ( उपरोक्त बाहरी पान इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान ) में जो विज्ञ न उत्पन्न होना है वह मनोविज्ञान नाम पाता है। ___ जैसे जिम जिस निमित्त को लेकर आग जलती है वही बड़ी उसकी स्ज्ञ होती है। जैसे काष्ठ - अग्नि तग अग्नि, गोमय अमि, तुष भमि, कूड़ेकी भाग, इ यादि । २-भिक्षुओ! इन पाच धोको (का वेदना, सज्ञा. सम्कार, विज्ञान ) ( नोट-रूप { matter ) है । वेदादि विज्ञ - में गर्मित है, उस विज्ञ41 1 and कहेंगे। इस तरह रूप और विज्ञान के मेल से ही सारा सपार - ) उन्न हुअा दग्वन हो । हा! अपने आहारसे उत्पन्न हुआ दालन हो । । । जो 2ज होने वाला है वह अपने आहारके ( स्थिति र अाप । ) * निरोप विरुद्ध हानवाला होता है ? हो । य पाव । उ पन्न है । व भरने माहारक निरोक्से विरुद्ध ८ है एम' सह रहित 77ना ३-सुदृष्टि (सम्यक् दर्शन) है । ६। ' क्या तुम एमे परिशुद्ध, उनक दृष्ट (दर्शन ज्ञान) में भी भासक्त होगे •मागे- यह मेग धन है Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ₹१६ ] दूसरा भाग 8- समझोगे । भिक्षुत्रो ! मरे उपदेशे धर्मको कुल ( नदी पार होनेके बेड़े ) के समन पार होनेके लिये है । पकड़कर बने के थि नहीं है । हा ! पकड़ कर रखनेके लिये नहीं है। भिक्षु भो ! तुम इप परिशुद्ध छ भी आसक्त न होना । हा, भने 1 / ५- भिक्षुओ | उत्पन्न प्राणियों की स्थिति के लिये आगे उत्पन्न होनेव के सर्वोक लिये ये चार आहार है - ( १ ) स्थूळ या सूक्ष्म धवलीकार (कान लेना ), (२) स्पश- महार, (३) मन सचेतना आहार रमन से विषय का खयाल करक तृप्ति काम करना, (४) विज्ञान (चेतना) इन चारों आहारों का निदान या हेतु या समुद्रय तृष्णा है। ६ - भिक्षु यो । इम तृणा का निदान या हेतु वेदना है, वेदनाका हेतु स्पर्श है, स्पर्शका हेतु षड़ आयतन ( पाच इन्द्रियमन ) बड़ आयतनका हेतु नामरूप है, नामरूपका हेतु विज्ञान है, विज्ञा नका हेतु मस्कार है सस्कारका हेतु अविद्या है । इस तरह मूलवासे लेकर तृष्णा होती है। तृ ण के कारण उपादान (ग्रहण करने की इच्छा ) होता है, उपादान के कारण भव ( ससार ) । अवके कारण जन्म, जमके कारण जरा, मरण, शोक क्रंदन, दुःख, दौर्मनस्य होता है । इम प्रकार केवळ दुख स्वकी उत्पत्ति होती है । इम तरह मूल अविद्या के कारणको लेकर दुख स्वकी उत्पत्ति होती है । ७- भिक्षुमो ! अविद्या के पूर्णतया विरक्त होने से, नष्ट होने से, सरकार का नाश (निरोर) होता है । सकारके निरोवसे विज्ञानका Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [२२७ निरोध होता है, विज्ञानके निगेधसे नामरूपमा निरोध होता है, नामरूपके निरोधसे पड़ायतना निरोध होत' है, पड़ यतनके निरोबसे स्पर्शका निरोध होता है, स्पर्श के नियम वेदना का निशेष होता है, वेदनाके निरोसे तृष्णाका निरोध होता है, तृष्णाके नि) असे उपादानका निरोव होता है। उपादान के निरोधमे भव का निगेध होता है, भवके निरोधमे जाति (ज म) का निरोध होता है, जातिके निरोधसे जरा, मरण, शोक, ऋदन, दुःख, दौमनस्य का निरोध होता है। इस प्रकार केवळ दु ख स्कवका निरोव होता है। भिक्षुओ ! इसप्रकार (पूर्वोक्त कपसे) जानते देखते हुए क्या तुम पूर्वके छोर (पुगने समय या पुराने जन्म) की ओर दौड़ोगे ! 'अहो ! क्या हम अतीत काल में थे ? य हम मतीत कालमें नहीं थे। अतीत कामें हम क्या थे ? अतात काल मे हम कैसे थे। अतीत कालमें क्या होकर हम क्या हुए थे ?" नहीं। ८-भिक्षुओ ! इस प्रकार जानते देखते हुए क्या तुम वादके ओर (आगे आनेवाले समय) की ओर दौड़ोगे ! अहो ! क्या हम भविष्यकालमें होंगे ? क्या हम भविष्यकालमें नहीं होंगे ? भविष्यकालमें हम क्या होंगे ? भविष्यकाल में हम कैसे होंगे ? भविष्यकालमें क्या होकर हम क्या होंगे ? नहीं भिक्षुओ! इस प्रकार जानते देखते हुए क्या तुम इस वर्तमानकालमें अपने भीतर इस प्रकार कहने सुननेवाले (कथकथी) होंगे । अहो ! 'क्या मैं हूं ?' क्या मैं नहीं हू ? मैं क्या है। मैं कैसा हूं ? यह सत्व (पाणी) कहासे आया ? वह कहा जानेवाला Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मग भाग। होगा ? नहीं : भिक्षुओ! इस प्रकार देखते जानते क्या तुम रोमा कहोगे। शस्ता हमारे गुरु हैं। शास्ताके गौ व ( के ख्याल ) से हम ऐमाने हैं। नहीं। भिक्षु भो ! इस प्रकार देखते जानते क्या तुम ऐसा कहोगे कि अमणन में ए 11 कहा, श्रमगके कथनमे हम ऐसा कहते हैं । शिशुभो १ देखते जानते क्या तुम दूसरे शास्ताके अनुगामा हग ? -हीं। भिक्षु ! इस प्रकार देखते जानते क्या तुम नाना श्रमण जहणोंक जो ब्रा, कौतुक, मगल सम्बन्धी क्रियाए हैं उन्हें सारके सौ.पर ग्रहण रोग ? नहीं। ___क्या क्षुि भो ! जो तुम्हारा अग्ना जाना है, अपना देखा है, अपना अनुभव किया है उसीको तुम कहते हो ? हा भते । सधु ! भिक्षुओ ! मैने भिक्षु ओ, समया तरमें नहीं तत्काल फूलद य यही दिखाई देनेवाले विज्ञोंद्वारा अपने आपने जानने योग्य इप धर्मके पास उपनीत किया ( पहुचाया ) है । भिक्षुओ ! यह धर्म समयान्तरमें नहीं तत्काल फलदायक है, इसका परिणाम यहीं दिखाई देनेवाला है या विज्ञोंद्वारा अपने आपमें जानने योग्य है । यह जो कहा है, वह इसी ( उक्त कारण ) से ही ___९-भिक्षुषो । तीनके एकत्रित होनेसे गर्भधारण होता है । माता और पिता एकत्र होते है। किन्तु माता ऋतुमती नहीं होती और गन्धर्व ( उत्पन्न होनेवाला ) चेतना प्रवाह देखो मसिधर्म कोश Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान : [ २२५ (३-१२) (१०३५४) उपस्थित नहीं होता तो गर्भ धारण नहीं होता । माता पिता एकत्र होते हैं। माता ऋतुमती होती है किंतु गन्धर्व उपस्थित नहीं होते तो भी गर्भ धारण नहीं होता। जब माता पिता एकत्र होते है, माता ऋतुमती होती है और गन्धर्व उ स्थित होता है । इस प्रकार तीनों एकत्रित होनसे गर्म वाण होता है । सब उस मरु- मारवाले गर्भको बड़े संशय के साथ माता कोख नौ या दस मास धारण करती है । फिर उस गरु भारवाले गर्भको बड़े सायक साथ माता नौ या दस मासके बाद जनती है। उस जात (सान) को अपने ही दुधसे पोती है । १ तब भिक्षुओ ! वह कुमार बढ़ा होनेवर, इन्द्रियों के परिपक्क होनेपर जो वह बच्चों खिलौने है। जैसे कि बैंकक (त्रका), घटिक (बडिया), मोखचिक (मुंडका वड्डू), चिगुलक (चितुलिया) पात्र पाठक (तराजू), रथक (गाड़ी), धनुक (धनुही), उनसे खेलता है । तब भिक्षुभो ! वह कुमार और बडा होने पर, इन्द्रियोंक परिपक होनेपर, सयुक्त सलिष्ठ हो पाच प्रकारके काम गुणों (विषयभोगों ) को सवन करता है । अर्थात् चक्षुमे विज्ञेय दृष्ट रूपोंकों, श्रोत्र से इष्ट शब्दोंको, घ्राणसे इष्ट गन्धोंधे, जिह से इष्ट ग्सोंकों, काय से इष्ट स्पर्शो को सेवन करना है। वह च्क्षुमे प्रिप रूपों को देखकर रारयुक्त होता है, अमिर रूपोंको देखकर द्वेषयुक्त होता है । कायिक स्मृति ( होश ) को कायम रख छोटे चितसे विहरता है । वह उस चितकी विमुक्त और प्रज्ञानी विमुक्तिका ठीक से ज्ञान नहीं करता, जिससे कि उसकी सारी बुराइनं नम्र Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० । दूसरा भाग । वह दर रागद्वे में पड़ा सुखमय, दुखगय या न दुखमन जिसी वेदनाको वेदन करता है उसका वह अभि भन्दन करता है, अवगाहन करता है । इन प्रकार अभिनन्दन करते, अभिवादन अगाहन करते ) उसे नदी (तृष्णा) उत्पन्न विषय में जो यह नदी है वही उसका उपा होती है। बेग है, उसके उपादन के कारण भव होता है, भव के कारण जाति, शाति के कारण जरा मग्ण, शोक, कदन, दुख, दौर्मनस्य होता है। इसी प्रकार क्षेत्र मे घणसे, जिहासे, कायासे तथा मनसे प्रिय वर्कोहो खानकर रागद्वेष वरन्से केवल दुख स्वधकी उत्पत्ति होती है ( दुःख स्कंध के क्षयका उपाय ) १०- विक्षुओ ! यहा लोक्में तथागत, भर्हत्, सम्यकूमम्बुद्ध, विद्या च ग्युन्स, सुरत, रोक बिंदु पुरुषोंक अनुग्म च बुक सवार, देवताओं और मनुष्यों उपदेष्टा भगवन् बुद्ध उत्पन्न होते हैं वह ब्रझers, माग्लोक, देवलोक सहिन इस लोक्षो, देव, मनुष्य सहित श्रमण ब्रणयुक्त सभी प्रजाको स्दय समझकर साक्षचार कर धर्मको बतलाते हैं । यह आदिमें कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, अन्तमें वल्याणकारी धर्मको अर्थ सहित व्यंजन सहित] उपदेशत है। वह केवल (मिश्रण रहित ) परिपूर्ण परिशुद्ध मादर्यको प्रकाशित करते हैं । उस धर्मको गृहपतिका पुत्र या और किसी छ टे कुल्में उत्पन्न पुरुष सुनता है। वह उस धर्मको सुनकर तथागतके विषय में श्रद्धा काम करता है । वह उस श्रद्धाछाम से सयुक्त हो सोचता है, यह गृहवास जंजाल है, मैकका Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ २३१ मार्ग है । मत्रज्या ( सबाय ) मैदान ( मा खुला स्थान) है । इस नितान्त सर्व परिपूर्ण, सर्वथा परिशुद्ध सरादे शब्द जैम उज्जल ब्रह्मचर्य का पालन घर में रहते हुए सुकर नहीं है। क्यों न मैं सिग, दाढ़ी मुड़ कर, काषाय वस्त्र पहन घस बेघर हो पत्र जल होन ऊ । " सो वह दूसरे समय अग्नी अल्प भोग राशिको या महाभोग गाश में, भरज्ञ तिमडलको या महा ज्ञ तिमडलको छोड़ सि' द ढो मुड़ा, काषाय वस्त्र पहन घर से बेघर हो प्रत्रजित होता है। वह इम प्रकार प्रब्रजित हो, भिक्षुओं की शिक्षा, समान जीवि काको प्रप्त हो प्राणातिपात छोड प्राणि हिंमासे विन्त होता है । दडत्यागी, शस्त्रत्यागी, लज्जलु, दय लु, सर्व प्राणियों का हितकर भौर र अनुकम्पक हो विहरता है । अदिन्नादान (चोरी) छोड़ दिना दायी ( दियेका लेनेवाला), दियेका चहनेवलाप वत्रामा हो वह ता है । अब्रह्मचर्यको छोड़ ब्रह्मवारी हो ग्राम्यधर्म मैथु से विग्त हो, भरवारी ( दूर रहने वाला ) होना है । मृषावादको छोड़ मृष वाइसे विरत हो, सत्यवादी, सत्यसंघ लोकका अबिसनदक, विश्वा सपात्र होता है । पिशुन वचन ( चुगली) छोड पिशुन वचन से विरत होता है 1 इ हे फोडनके लिय यहा सुनकर वहा कहनेवाला नहीं होता या उन्हें फोड़नेक लिये वहासे सुनवर यहा कहनेवाला नहीं होता । वह तो फूटोको मिटानेवाला, मिले हुमको न फोड़नेवाला, एकता प्रसन्न, एकतामें रत, एकता में आनंदित हो, एकता करनेवाकी वाणीका बोलनेवाला होता है, कटु वचन छोड़ कटु वचनसे विरत होता है । जो वह वाणी कर्णसुखा, प्रेमणीया, हृदयगमा,, 1 1 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३- ] दूसरा भाग । AAVANW सभ्य बहुजन काता-बहुजन मन्या है, नेमी वाणोका बोलनेवाला होता है | मलापको छोड़ प्रकामे विग्ल होता है । समय देखकर बोलबाला यथार्थवादी धर्मवादी जनवादी हो तात्पर्य युक्त, फ्ल्युक्त सार्थक, सान्युक्त वाण का बोलमेवाला होता है । ! वह बीज समुदाय, भूत समुदाय विशिम वि व होता है एकाहारी, रातका उपरत ( रानको नवाने का ), त्रिकाल ( मध्य होत्तर ) भोजनमे विस्त होता है । माला, गध, विलेपनके भाग्ण मडन विभुषणमे वि तो है। उच्चशयन और महाशयन से विग्त होता है। सो बादी लेनसे किस होता है । कच्चा अनाज बादि लेनसे विरत होता | स्त्री कुमरी, दासीदास, मेड़बकरी, मुर्गी सूकर, हाथी गाय, घोड़ा घडो खेत घर नसे वित होता है । दुल बनकर जानेसे विरत होता है । क्रय विक्रय करने से विरत होता है । तगजुकी ठगो, कामेकी ठगी, मान (तौल) की उगीसे विग्न होता है । घूम, बचना, जालसाजी कुटिलयोग, छेदन, वध, बधन छापा मान्ने, ग्रामादिक विनाश करने, जाल डालनेसे विरत होता है । वह शरीर वस्त्र व पेट से संतुष्ट हत है। वह जहा जहा जाता है अपना सामान लिये ही जाता है जैसे कि क्षो जहां वहीं उड़ना है अपने पक्ष मारक साथ ही उड़ना है । इसी प्रकार भिक्षु शरी के वस्त्र और पेट खाने से सतुष्ट होता है, वह इस प्रकार आर्य ( नित्र ) शील+व ( सदाचार समूह ) से मुक हो, भने भीतर निर्मल सुखको अनुभव करता है । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANAM जौन बैंद तत्वज्ञान। 233 वह आखसे रूपको देवकर निमित (आकृति मादि) और अनुव्यजन (चिह) का ग्रहण करनेवाला नहीं होता। क्योंकि चक्षु इन्द्रियको अरक्षित रख विहरनेवालेको राग द्वेष बुगइया अकु'सक धर्म उत्पन्न होने है। इसलिये बद्द उसे सुरक्षित रखता है, चक्षुइन्द्रियकी रक्षा करता है, क्षुइन्द्रिय में सवर ग्रहण करता है। इसी तरह श्रोत्रम इब्द सुनकर, घणसे गव ग्रहण का, जिलासे रस प्रहण कर कायासे म्पर्श ग्रहण कर, मनसे धर्म ग्रहण कर निमित्तपाही नहीं होता है उन्हें सबर युक रखता है। इस प्रकार बह आर्य इन्द्रिय संवरसे युक्त हो अपने भीतर निर्मल सुखको अनुभव करता है। बह मानेजाने में जानकर करनेवाला (सपजन्य युक्त) होता है। अबलोकन विलोकन मे मटने फलान में, सघ टी पात्र चोवर के धारण कर मे, खानपान भोजन आस्वाद में, मन मुत्र विपर्जनमें, बाते खड़े होन, बैठने सोने, जागते, बोते, चुप रहने सपअन्य युक्त होता है। इस प्रकार वह आर्यस्मृति सपजन्यस मुक्त हो अपन निर्मल मुलका अनुभव करता है। वह इस आर्य शील-धस युक्त, इम अर्य इन्द्रिय सवरसे युक्त इस भर्य स्मृति मपजन्यमे युक्त हो एकान्तमे अरण्य, वृक्ष छाया, पर्वत न्दरा, गिरि गुहा, श्मशान, वन-प्रान्त, खुले मैदान या पुमालक गजमें वास करता है। बह भोजनक बाद मासन मारकर, कायाको सीधा रख स्मृतिको सन्मुख ठहरा कर बैठता है। वह शे में अभिध्या (लोभको ) छोड़ अभिध्या रहित चित्तवाला हो Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] दमरा भाग। विहाना है। चित्तको आमासे शुद्ध करता है । (२) व्यापाद (दोह) दोको उदार व्यापाद रहित चितवाला हो, सारे प्राणि थों हिमानुपी दो विहता है। व्यापादक दोषसे नित्तको शुद्ध रता है, (२) रूयान गृद्धि (श सरिक, मानसिक मालत्य ) को छोड़ स्थान गृद्ध राहेत हो, आलो. इ.व ला (मेशन ख्याल) हो, (मृति और संप्रनय (होश)मे युक्त हो विदन्ता , (४) औदत्यकोकृत्य ( रखताने और हिचकिचाहट ) को छोड़ अनुदन भीतसे शात हो विहता है, (५) विचिकित्सा (सदेह ) को छोड़, विचिकित्सा हिल हो, नि सोच भन इयोमे लग्न हो विहरता है। हम तरह वह इन अभिध्या भादि पाव नीवरणो को हटा उगकशों चिच मलों को जान उनके टर्च करने के लिये काय विषयोंसे अलग हो बुइयोंसे मालग हो, विस उत्पन्न एवं वितर्क विचारयुक्त मीति सुखबाल प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विदाता है। और फिर पद वितर्क और विचारके शात होनेपर, भीतरकी प्रपन्ना चित्तकी एकाग्रताको प्राप्तकर वितर्क विचर रहित, समाधिसे उस प्रीति सुखाले द्वितीय ध्यान प्राप्त हो विहाता है और फिर प्रोत और विगसे उपेशागला हो, स्मृति और सप्रजन्य से युक्त हो, कायासे मुम्ब अनुभव करता विहरता है । जिसको कि आर्य लोग उपेक्षक, स्मृतिमन और सुग्वविद्यारी कहते हैं । ऐसे तृतीय ध्यानको प्राप्त हो विहरता है और फिर वह सुख और दुःखके विनाशसे, सौमनस्य और दीर्मनस्यके पूर्व ही मस्त हो जाने से, दुःख सुख रहित और उपेक्षक हो, स्मृतिकी शुद्धतासे युक्त चतुर्थ ध्यानको प्राप्त हो विहरता है। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ २३५ वह चक्षुरू को देखकर प्रिय रू. में रग्युक्त नहीं होना अप्रिय रूप द्वे युक्त नहीं होता । विशल चित्तक साथ कायिक स्मृतिको कायम रखकर विरता है। व उम चित्तकी बिमुक्त और प्रज्ञानी विमुक्तिको ठीक से जानता है । जिससे उनके मारे अनुश धर्म निरुद्ध होजाते है । वह इस प्रकार अनुरोध विरोध रहिन हो, सुखमय, दुखमय न सुख न दुम्वमय --- - जिस किसो बेदनाको अनुभव करता है, उसका वह अभिनंदन नहीं करता, अभिवादन नहीं करता, उसमें अवगाहन कर स्थित नहीं होता । उस प्रकार अभिनन्दन न करते, अभिवादन न करते अवगाहन न करते जो वेदना विषयक नन्दी ( तृष्णा ) है वह उसकी निरुद्ध ( नष्ट ) होजाती है। उस नन्दीक निरोधसे उपादान ( गगयुक्त प्रण ) का निरोध होता है । उपादानके निरोवसे भवका निशेष भवछे निर धमे जाति ( जन्म ) का निरोध, जातिके निरोधसे जग मरण, शोक, कान, दुख दौमनस्य है, हानि परेशानीका निरोध होता है । इस प्रकार इन केवल दुख का निरोध होता है। इसी तरह श्रोत्र से शब्द सुनकर, प्रणसे ग सूनकर जिह्वामे रसको खर, कायासे हद वस्तुको छूकर मनमे धर्मो को जानकर प्रिय रागयुक्त नहीं लेता, त्रिघमें द्वेषयुक्त नहीं होता। इ प्रकार इस दुख का निगेव होता है। भिक्षुओ ! मेरे सक्षेसे कहे इम तृष्णा सराय विमुक्ति (तृष्णा के विनाश से होनेवाली मुक्ति) को धारण करो । नोट - इस सूत्र में ससारके नाशका और निर्वाणके मार्ग का Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६] दूसरा भाग। बहुत ही सुदर वर्णन किया है बहुन सूक्ष्म हष्ट मे उम मत्रका मना करना योग्य है। इस सूत्रमें नीचे प्रकार की बातों को बताया है (१) सर्व समार भ्रमणका मूल आण पचों इन्द्रियों के विष योंके से उत्पन्न हुआ विज्ञान है नया इन्द्रियों के प्राप्त ज्ञान जा अनेक प्रकार म में विला होता है सो मनोविज्ञान है । इन छद्दों प्रा. के विज्ञानका क्षय ही निर्वाण है। (२) रूप, वेदना, सज्ञा, संस्कार, विज्ञान ये पाच स्कथ ही ससार है। एक दुसरे का कारण है । रूप जड है, पाच चेतन है। इपीको Matter and Mind कह सक्ते हैं। इन मन विवश रूप या ना में विसई वदना आदिकी उत्पत्तिका मूल कारण रूपों का प्रक्षण है। य उत्पन्न होनेवाले हैं, नाश होनेवाले है, पराधीन है। (३) ये पाचों स्कंध उन प्र वसी है। भाने नहीं ऐसा ठीक ठीक जानना, विश्वास करना सम्यग्दर्शन है। जिस किसीका यह श्रद्धा होगो कि ससारका मूल कारण विषयोंका राग है, यह राग त्यागने योग्य है वही सम्यग्दृष्टि है। यही माशय जैन सिद्धातका है। सापारिक अ सबक कारण भाव तत्वार्थसूत्र छठे अध्याय इन्द्रिय, कपाय, अव्रतको कहा है। भाव यह है कि पा! इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये हुए विषयों में गर द्वेष होता है, का क्रोध, मान, म या रोभ प ये जागृत होनाती हैं। कषयोंक माधीन हो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह प्रक्षण इन पाच भवतोंको करता है । इस म सबका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ २३७ (४) फिर इस सूत्र में बताया है कि इस प्रकारके दर्शन ज्ञान से कि पाच व ही समार है व इनका निशेष समारका नाश है, पकड़ कर बैठ न रहो | यह सम्यग्दर्शन तो निर्वाणा मार्ग है, जहाज के समान है, सपार पार होनेके लिये है । I भावार्थ- -यह भी विकला छोककर मम् मम विको प्राप्त करना चाहिये जो साक्षत् निर्मणका मार्ग है। मर्ग तब ही तक है, जहाजका आश्रय तच डी तक है जब तक पहुचे नहीं । जैन मित्रा व भी सम्यग्दर्शन दो प्रकारका बताया है । व्यवहार सादिका श्रद्धान है, निश्चय स्वानुभव या समाधिभाव है । व्यवहार के द्वारा निश्चय पर पहुचना चाहिये । तच व्यवहार स्त्रय छूट जाता है । स्वानुभव ही वास्तव में निर्माण मार्ग है व स्वानुभव ही निर्वाण है । (५) फिर इस सूत्र में चार तहका आहार बताया है - जो का कारण है । (१) ग्रासाहार या सूक्ष्म शरीर पोषक वस्तुका ऋण (२) स्पर्श अर्थात् पाच इन्द्रियोंके विषयोंकी तरफ झुकना, (३) मन संचेतन मनमें इन्द्रिय सम्बधी विषयोंका विचार करते रहना, (४) विज्ञान --मन के द्वारा जो इन्द्रियों के सबन्वसे स्त्री रागद्वेष रूप छाप पड़ जाती है-चेतना दृढ होनाती है वही विज्ञान है । इ चारों आहारों के होनेका मूल कारण तृष्णाको बताया है। वास्तवमें तृष्णा के विना न तो भोजन कोई लेता है न इन्द्रियोंके विषयों को ग्रहण करता है। जैन सिद्धातमे भी तृष्णा को ही दुखका मूल बताया है । तृष्णा जिमने नाश कर दी है वही भवसे पार होजाता है । (६) इसी सूत्र में इस तृष्णा के भी मूल कारण अविद्याको या Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ । दूसरा भाग । मिथ्याज्ञानका बताया है । मिथ्याज्ञानक स फारसे ही विज्ञ न होता है । विज्ञान से ही नामरूप होत हैं । अर्थात् सासारिक प्राणीका शरीर और चेनारूप ढाचा बनता है । ह एक जीवित प्राणी नामरूप 今 | नामरू के होते हुए मनवके भीतर पाच इन्द्रिय और मन ये छ आयतन (organ ) होते है । इन छहों द्वारा विषयका स्पर्श होता है या ग्ररण होता है । विषयोंके ग्रहणसे सुम्व दुखादि वेदना होती है | वेदना से तृष्णा होज ती है। जब किसी बालकको रड्डू खिलाया जाता है वह खाकर उसका सुख पैदाकर उसकी तृष्णा उत्पन्न कर लेता है । जिससे वारवार बड्डूको मागता है । जैन सिद्धात में भी मिथ्यादर्शन सहित ज्ञानको या अज्ञानको ही तृष्णाका मूल बताया है। मिथ्य ज्ञानसे तृष्णा होती है, तृष्णा के कारण उपादान या इच्छा ग्रहणकी होती है । इसीसे ससारका सहकार पडता है । भव बनता है तब जन्म होना है, जन्म होता है तब दुख शोक सेना पीटना, जरामरण होता है । इम तरह इस सूत्र में सर्व दुखों का मुलकारण तृष्णा और अविद्याको बताया है । यह बात जैन सिद्धातसे सिद्ध है । (७) फिर यह बताया है कि अविद्याके नाश होने से सर्व दुखका निरोध होता है। अविद्या के ही कारण तृष्णा होती है । यही बात जैन सिद्धान्तमें है कि मिथ्याज्ञानका नाश होनेसे ही ससारका नाश होजाता है । (८) फिर यह बताया है कि साधकको स्वानुभव या समावि भावपर पहुँचने के लिये सर्व भूत भविष्य वर्तमानके विकल्पोंको, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२३९ विचारोंको बन्द कर देना चाहिये। मैं क्या था. क्या हूँगा, क्या है यह भी विना नहीं करना, न यह विकला करना कि मैं शय ह। शास्ता मेरे गुरु है न किसी श्रण व हे अनुगर विचारना । स्वयं प्रज्ञ से सर्व विल्लोको हटाकर तथा सर्व बाहरी वा भाचरण क्रिपाओं का भी विकल्प हटाकर भीतर ज्ञानदर्शनसे देवना तब तुर्न ही स्वात्मधर्म मिल जायगा । स्वानुभव होकर परमानदका लाभ होगा। जैन सिद्धान्तमें भी इसी स्व नुभव पर पहुचाने का मार्ग सर्व विषयों का त्याग ही बताया है। सर्व प्रकार उपयोग हटकर जन्म में जमता है तब ही स्व नुभव उ पन्न होता है । गौतम बुद्ध कहते हैंअपने आपमें जाननेयोग्य इस धर्मके पास मैंने उपनीत किया है, पहुचा दिया है। इन वचनोंसे स्वानुभव गोचर निर्वाण स्वरूप अनात, अमृत शुद्धात्माकी तरफ सरेत साफ माफ हो'हा है। फिर कहते है-विज्ञोद्वारा अपने आपमें जाननेयोग्य है । अपने आपमें वाक्य इमी गुप्त तत्वको बत ते है, यहा वास्तवमें परम सुख परमा मा है या शुद्धात्मा है। (९) फिर तृष्णाकी उत्पत्ति व्यवहार मार्गको बनाया है। बच्चे के जन्ममें गधर्वका गर्भमें आना बताया है। गर्वको चेतना प्रवाह कहा है, जो पूर्वजन्ममे आया है। इसीको जैन सिद्धान्तमें पाप पुण्य सहित जीव कहते है। इससे सिद्ध है कि बुद्ध धर्म जड़से चेतनकी उत्पत्ति नहीं मानता है । जब वह बालक बड़ा होता है पाच इन्द्रियों के विषयोंको ग्रहण करके इष्टमें राग मनिष्टमें द्वेष करता है। इस तरह तृष्णा पैदा होती है उसीका उगदान होते हुए Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०] दूसरा भाग। अव बनता है, भवसे जन्म जन्मक होते हुए नाना प्रकारक दु ख जरा माण तक होन है । ससारका मूल कारण अज्ञान और तृष्णा है। इसी बातको दिखायाहै । यही बात जैनसिद्धात कहता है। (१०) फिर ससारके दुखोंक नाशका उपाय इस तरह बताया है (१) 0 रुके स्वरूपको स्न्य समझकर साक्षात्कार करनेवाले शाम्ता बुद्ध परम शुद्ध ब्रह्मचर्य का उपदेश करते हैं। यही यथार्थ धर्म है। यहा ब्रह्मर्यम मतलब ब्रह्म स्वरूप शुद्ध स्म में लीनताका है, केवल बाहरी मैथुन त्य गका नहीं है । इस धर्मपर श्रद्धा काना योग्य है। (२) शखके समान शुद्ध ब्रह्म पर्य या समाधिचा लाभ घरमें नहीं होसक्ता, इपसे धन कुटुम्बादि छोड़कर सिर दाढ़ी मुड़ा काषाय वस्त्र घर स' होना चाहिये, (३) वह साधु महिंसा व्रत पालता है, (४) अचौथ व्रत पालता है, (५) ब्रह्मचर्य व्रत या मैथुन त्याग व्रत पालता है, (६) सत्य वन पालता है, (७) चुगली नहीं करता है. (८) कटुक वचन नहीं कहता है, (९) बकवाद नहीं करता है, (१०) वनस्पति कायिक बीजादिका बात नहीं करता है, (११) एक दफे बाहार करता है (१२) गत्रिको भोजन नहीं करता है, (१३) मध्य हू पी 3 भोजन नहीं करता है, (१४) माला गध लेप भूषणसे विक रहता है, (१५) उच्चासनपर नहीं बैठता है, (१६) सोना, चादी, कच्चा अन्न, पशु, खेत, मकानादि नहीं रखता है, (१७) दूतका काम, क्रयविक्रय, तोलना नापना, छेदना-भेदना, मायाचारी भादि आरम्म नहीं करता है, (१८) भोजन बस्त्रमें स्तुष्ट रहता है, Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन बौद्ध तत्वज्ञान । [२४१ (१० अपना सामान रय लका चलन , (२०) शन इन्द्रियोंको दम को माररूप रखता है (२१) प्र त मन, वचन, कायकी क्रिया करता है, (२२, एकान म्यान वादिमें ध्यान करता है, (२३) लाभ द्वेष, मानादिको भारस्य व मदेहको त्यागता है, (२४) ध्यानका अभ्यास करता है (२५) वह यानी पाचों इन्द्रियोंक मन के द्वार। विषयों को जानकर इन्में तृष्णा नहीं करता है, उनसे वैगप्रयुक्त रहनेस अगामीछा भव नहीं बनता है यही मार्ग है, जिसम मसारके दुखों का अन हाजाता है। जैन सिद्धातमें भी साधुपदकी आवश्यक्ता बताई है । वि।। गृह का आरम्भ छोड निराकुल ध्यान नहीं होमक्ता है। दिगम्बर जैनोंक शास्त्रों के अनुसार जहातक खडबन्त्र व लगोट है वहातक वह क्षुल्लक या छोटा साधु कहलाता है । जब पूर्ण नग्न होता है तब साधु कहल ता है ! शेतावर जैनों के शास्त्रोंक अनुसार नग्न सावु जिनकल्पी साधु व वस्त्र सहित साधु स्थविकल्पो म वु कहलाना है । स चुके लिए तरह प्रकारका चारित्र जरूरी है पाच महाव्रत, पाच समिति, तीन गुप्ति । पाच महाव्रत-(१) पूर्णनि अहिंसा पालना, रागद्वेष मोह छोडकर भाव अहिंसा, व त्रस-स्थावरकी स; सारुपी व आरम्भी हिमा छोड़कर द्रव्य अहिंसा पालना अहिंमा महावत है, (२) सर्व प्रकार शास्त्र विरुद्ध वचन का त्याग सत्य महावत है, (३। परकी विना दी वस्तु लेने का त्याग अचौय महावत है (४) मन वचन काय, कृत कारित अनुमतिसे मैथुना त्य ग ब्रह्मचर्य महावन है, १६ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५] दूसरा भाग। (५) सोना चादी, धन धान्य, खेत मकान दामीदास, गो भेमादि, अन्नादिका त्याग परिग्रह त्याग महाव्रत है। पाच समिति (१) ईर्याममिति, दिनमें सदी भूमिपर चार हाथ जमीन भागे देखकर चलना, (२) भाषासमिति-शुद्ध, मीठी, सभ्य वाणी कहना, (३) एषणा समिति-शुद्ध भोजन सतोषपूर्वक भिक्ष द्वारा लेना, (४) आदाननिक्षेपण समिति-शरीरको व पुस्तकादिको देखकर उठाना धरना, (५) प्रतिष्ठापन समिति-मल मृत्रको नि-तु भूमिपर देखके करना । तीन गुप्ति- १) मनोगुप्ति-मनमें खोटे विचार न करके धर्मका विचार करना । (२) वचनगुप्ति-मौन रहना या प्रयाजन वश अरुप वचन कहना या धर्मो रदेश देना । (३) कायगुप्ति-कायको आसनसे प्रमाद रहित रखना। इस तेरह प्रकार चारित्रकी गाथा नेमिचद्र सिद्धात चक्रवर्तीने द्रव्यसग्रहमें कही है मुहादोविणिवत्तो सुहे पवित्तो य जाण धारित्त । घदसमिदिगुत्तरूव बबहारणपा दु जिणभणिय ॥ ४५ ॥ भावार्थ -अशुभ बातोले बचना व शुभ बातोंमें चलना चारित्र है। व्यवहार नयसे वह पाच वा पाव समिति तीन गुप्तिरूप कहा गया है। ___ स धुको मोक्षमार्गमें चलते हुए दश धर्म व बारह तपके साधन की भी जरूरत है। दश धर्प "उत्तमक्षमामार्दवावपत्यशौचसयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः " तत्वार्थसूत्र अ० ९ सूत्र ६ । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोन बैद्ध तत्वज्ञान | [ २४३ (१) उत्तम क्षमा कष्ट पानेपर भी क्रोध न करके शात भाव रखना । (२) उत्तम मार्दव - अपमानित होनेपर भी मान न करके कोमल भाव रखना | (३) उत्तम आर्जव - बाधाओंसे पीडित होनेपर भी मायाचार से क्वार्थ न साघन', सरल भाव रखना । (४) उत्तम सत्य - कष्ट होने पर भी कभी धर्मविरुद्ध 'बयन नहीं कहना | (५) उत्तम शोच - ससारसे विरक्त होकर लोभसे मनको मैला न करना । (६) उत्तम सयम - पाच इन्द्रिय व मनको सबर में रखकर इंद्रिय सयम तथा पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति व त्रस काय के धारी जीवोंकी दया पालकर प्राणी संयम रखना | (७) उत्तम तप- इच्छाओं को रोककर व्यानका अभ्यास करना । (८) उत्तम त्याग - अभयदान तथा ज्ञानदान देना । (९) उत्तम आकिंचन्य - ममता त्याग कर, सिवाय मेरे शुद्ध स्वरूपके और कुछ नहीं है ऐसा भाव रखना । (१०) उत्तम ब्रह्मचर्य - बाहरी ब्रह्मचर्यको पालकर भीतर ब्रह्मचर्म पालना | बारह तप - " अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसख्यानरसपरित्यागविविक्त शय्याशन कायक्लेशा बाह्य तपः ॥ १९ ॥ प्रायश्चित्तविनयवैय्यावृत्यस्वाध्यायन्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् || २० || अ० ९ त० सूत्र । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ marw १४४] दूसरा भाग। चाहरो छः तप-जिरका मन्बन्ध शीरो ले शशी को वश (जन : 'लये जो किये जो वह बाहरी उप है। मान लिय मनास्य उत्तम होना चाहिये। आलम्य न होना चाइये, कष्ट सह नेकी आदत होनी चाहिये। (१) अनशन-उपवास-खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, पेय चार प्रकार साहारको त्यागना । कभीर उपवास करके शरीरकी शुद्धि करने है । (२) अवमोदर्य-भूख रखकर कम खाना जिससे मालस्य क निद्राका विजय हो। , (३) वृत्तिपरिसरूपान-भिक्षाको जाते हुए कोई प्रतिज्ञा लेना । विना कहे पूरी होनेपर भोजन लेना नहीं तो न केना मनके रोकनेका साधन है। किसीने प्रतिज्ञा की कि यदि कोई वृद्ध धुक्ष्म दान देगा तो लेंगे, यदि निमित्त नहीं बना तो भाहार न लिया। (४) रस परित्याग-शक्कर, मीठा, लवण दुध, दही घी, तैल, इनमें से त्यागना। (५) विविक्त शय्यासन-एकातमें सोना बैठना जिससे ध्यान, स्वाध्याय हो । ब्रह्मचर्य पाला जासक । बन गिरि मुफादिमें रहना। (६) कायक्लेश-शरीरके सुखियापन मेटनेको विना क्लेश अनुभव किये हुए नाना प्रकार भासनोंसे योगाभ्यास स्मशानादिमें निर्भय हो करना। छ: अंतरङ्ग तप-(१) प्रायश्चित्त-कोई दोष लगने पर दड ले शुद्ध होना, (२) विनय-धर्म व धर्मात्माओंमें भक्ति करना, Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [२४१ (३) वैय्याहत्य-रोगी, थके, वृद्ध, बाल, साधुओंकी मेवा करना (४) स्वाध्याय-ग्रोंको भावसहित मनन करना, (५) व्युत्समभीतरी व बाहरी सर्व तरफकी ममता छोड़ना, (६) ध्यान-चित्तको रोककर समाधि प्राप्त करना । इमक दो भेद है-सविकल्प धनध्यान, निर्विकल्प धर्मध्यान । ___ धर्मके तत्वोंका मनन करना सविकल्प है, थिर होना निर्विकल्स है। पहला दुसरेका साधन है। धर्मध्यानके चार मेद हैं (१) आज्ञा विचय-शास्त्राज्ञाके अनुसार तत्वोंका विचार करना। (२) अपायविचय-हमारे राग द्वेष मोह व दूसरोंके रागादि दोष कैसे मिटें ऐसा विचारना। (३) विपाकविचय-ससारमें अपना व दुसरोका दु ख मुख विचार कर उनको कर्मोंका विपाक या फल विचार कर समभाव स्वना । (४) सस्थानविचय- लोकका स्वरूप व शुद्धात्माका स्वरूप विचारना ध्यानका प्रयोजन स्वानुभव या सम्यक् समाधिको पाना है। यही मोक्षमार्ग है, निर्वाणका मार्ग है। आष्यागिक बौद्ध मार्गमें रत्नत्रय जैन मार्ग गर्मित है। (१) सम्यग्दर्शनमें सम्यग्दर्शन गर्भित है। (२) सम्यक सकल्पमें सम्यग्ज्ञान गर्भित है। (३) सम्यक् वचन, सम्यक कर्म, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक् समाधि, इन छहमें सम्यक चारित्र गर्भित है। वा स्नत्रयमें भष्टागिक मार्ग गर्भित है। परस्पर समान है। यदि निर्वा Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] दूसरा भाग । सद्भावरूप माना जावे तो जो भाव निर्वाणका व निर्वाणक मार्गका जैन सिद्धात है वही भाव निर्वाणका व निर्वाण मार्गका बौद्ध सिद्धा में है । साधुकी बाहरी क्रियाओंमें कुछ अतर भीतरी स्वानुभव व स्वानुभव के फलका एकमा ही प्रतिपादन है । जैन सिद्धातके कुछ वाक्यपचास्तिकायमे कहा है- 1 जो खलु ससारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ १२८ ॥ ference देहो देहादो इद्रियाणि जायते । हिंदु वियहण तत्तो रागो व दोसो वा ॥ १२९ ॥ जायदि जीव भावो ससारचकवालम्मि | इदि जिणेहि भणिदो भणादिणिषण सषिणो वा ॥ १३० ॥ भावार्थ - इस ससारी जीवके मिश्याज्ञान श्रद्धान सहित तृष्णायुक्त रागादिभाव होते हैं । उनके निमित्तसे कर्म बन्धनका सरकार पड़ता है, कर्मके फलसे एक गतिसे दूसरी गतिमें जाता है। जिस गतिमें जाता है वहा देह होता है, उस देहमें इन्द्रियाँ होती हैं, उन इन्द्रियोंसे विषयोंको ग्रहण करता है। जिससे फिर रागद्वेष होता है, फिर कर्मबन्धका सस्कार पडता है। इस तरह इस संसाररूपी चक्र इस जीवका भ्रमण हुआ करता है। किसीको अनादि अनंत रहता है, किसीके अनादि होने पर अंतसहित होजाता है, ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है । शमाधिशतक में कहा है 1 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बोद्ध तत्वज्ञान । [१४७ मुठ समाग्दु ग्वस्य देह एवात्मधोस्तत । त्यक्त्वना प्रविशेढ बहिाध्य पृतेन्द्रिय ॥ १५ ॥ भावार्थ सप्त रक दु खोंका मुल कारण यह शरीर है। इन लिये आत्मज्ञानीको उचित है कि इ247 मनस्व त्यागकर व इन्द्रिों मे उपयोगको हटाकर अपने भोर प्रवेश करके आत्माको ध्यावे । आत्मानुशासनमे कहा है:उपग्रीष्मकठोरधर्मकिरणम्फूजगभस्तित्रभ । सतप्त सकले न्द्रियाया हो सवृदतृष्णो जन ॥ अमापाभिमत विवेक विमुग्व पापप्रयासाकुळस्तोयोपान्तदुग्न्तकई ममतक्षणाक्षवत् क्लिश्यते ॥ १५ ॥ भावार्थ-भयानक गर्म ऋतुर्क सूर्यकी तप्तायमान किरणोंक समान इन्द्रियोंकी इच्छाओंमे माकुलित यह मानव होरहा है। इसकी तृष्णा दिनपर दिन बढ़ रही है। मो इच्छानुकूल पदार्थोको न पाकर विवेकरहित हो अनेक पापरकर उपायोंको कम्ता हुमा व्याकुक होरहा है व उसी तरह दुखी है जैमे जल के पासकी गहरी कोचडमें फसा हुआ दुर्बल बूढा बैल अष्ट भोगे । स्वयभूस्तोत्रमें कहा हैतृष्णार्चिष परिदहन्ति न शान्तिरामा मिष्टेन्द्रियार्यविभव परिवृद्धिोव । स्थित्यैव कायपरितापहर निमित्त मित्यात्मवान्विषयसौख्यपराड्मुखोऽभूत् ।।८२॥ भावार्थ-तृष्णाकी अग्नि जलती है । इष्ट इन्द्रियोंके भोगोंके द्वारा भी वह शान्त नहीं होती है, किन्तु बढती ही जाती है । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ दसरा भाग। RANNIVvvmund केवल भोक समय शरीरका तापटा होता है परन्तु फिर बढ़ जाता है, एसा जानकर आत्मज्ञानी विषया सुखसे विरक्त होगए । मायत्या च तदात्वे च द ग्वयोनिनिरुत्तरा। तृगा नदी त्वयात्तीर्णा विद्यानाथा विविक्तया ॥१२॥ भावार्थ-यह तृष्णा नदी बडा दुस्तर है, वर्तमान में भी दम्ब दाई है, आगामी भी दुखदाई है। हे भगवान् | आपने वैराग्यपूर्ण सम्यग्ज्ञानको नौका द्वारा इसको पार कर दिया । समयसार कलशमें कहा है - एकम्य नित्यो न तथा परस्प चिति योविति पक्षपाती। यस्त्ववेदी च्युतपक्षप तस्यास्त नित्य बल्लु चिच्चिदेव ॥२८-२॥ भावाथ-विचार के समयमें यह विकल्प होता है कि द्रव्य दृष्टिसे पदार्थ नित्य है पयाय दृष्टिमे पदार्थ अनित्य है, पन्तु मात्मतत्वके अनुभव करनेवाला है, इ7 सर्व विचारोंसे रहित हो जाता है। उसके अनुभवमें चेतन स्वरूप वस्तु चेतन स्वरूप ही जैसीको तैसी झलकती है। इन्द्रजाल मि मेघमुच्छलत्पु कलावलविकल्पवीचिभि ।। ८स्य विस्फुरणमेव तत्क्षण कृम्नमा ति तदस्मि चिन्मइ ॥४६-३॥ भावार्थ-जिसके अनुभवमें प्रकाश होते ही सर्व विस्पोको तरगाँसे उछलता हुआ यह ससाका इन्द्रजाल एकदम दूर होजाता है वही चैतनाज्योतिमय मैं हू । माससारात्प्रतिपदममो रागिणो नित्यमत्ता सुप्ता यस्मिन्न पदमपद तद्विबुध्यध्वमन्धा । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद तत्यान। [२४९ एततेत पदमिदमिद यत्र चतन्यधातु शुद्ध शुद्ध खरसभरत स्थायिभावत्वमेति ॥६-७॥ भावार्थ-ये ससारी जीव अनादिकालसे प्रत्येक अवस्था रागी होते हुए सदा उन्मत्त होरहे है। जिस पदकी तरफसे सोए पड़े है हे अज्ञानी पुरुषों । उस पदको जानो। इधर आमो, इधर माओ, यह वही निर्वाणस्वरूप पद है जहा चैतन्यमई वस्तु पूर्ण शुद्ध होकर सदा स्थिर रहती है । समयसारम कहा है णाणी गगप्पजहो सधदम्वेसु कम्ममज्झगदो। णो लिप्पदि कम्मरएण दुद्दममज्झे जहा कणय ॥२२९॥ मण्णाणो पुण रत्तो सव्वदव्येसु कम्प्रमशगदो। लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा लोह ॥ २३० ॥ भावार्थ-सम्यग्ज्ञानी कर्मों के मध्य पड़ा हुआ मी सर्व शरीरादि पर द्रव्योंसे राग न करता हुआ उसीतरह कर्मरजसे नहीं लिपता है जैसे सुवर्ण कीचड़में पड़ा हुमा नहीं बिगड़ता है, परन्तु मिथ्याज्ञानी कर्मोके मध्य पड़ा हुआ सर्व परद्रव्योंसे राग भाव करता है जिससे कर्मरजसे बघ जाता है, जैसे लोहा कीचड़में पड़ा हुआ विगढ़ जाता है । भावपाहुडमे कहा है पाऊण णाणसलिक णिम्महतिमडाइसोसउम्मुक्का । हुते सिवाळयवासी तिडवणचूडामणी सिद्धा ॥ ९३ ॥ णाणमयविमलसीयलसलिल पाऊण भविय भावेण । पाहिजरमग्णवेयणडाहविमुक्का सिवा होति ॥ १२५ ॥ भावार्थ-आत्मज्ञानरूपी जलको पीकर भति दुस्तर तृष्णाकी दाह व जलनको मिटाकर भव्य जीव निर्वाणके निवासी सिद्ध भगवान Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०] दसरा भाग। तीन लोकके मुख्य होजात हैं। भव्य जीव भाव सहित भात्मज्ञानमई निर्मल शीतल जलको पीकर गेग जरा मरणको वेदनाकी दाहको शमन कर सिद्ध होजाते है। मूलाचार अनगारभावनामें कहा हैअवगदमाणत्थमा अणुस्सिदा मागविदा अचडा य । दता मद्दपजुत्ता समयविदण्हू विणीदा य ॥ ६८ ॥ उपलद्धपुण्णपावा जिणसासणगहिद मुणिदपज्जाला । करचरणसवुडगा झाणुवजुत्ता मुणी होति ॥ ६९ ॥ भावार्थ-जो मुनि मानके स्तमसे रहित हैं, जाति कुलादि मदसे रहित है, उद्धतता रहित है, शात परिणमी हैं, इन्द्रियोंके विजयी है, कोमलभावसे युक्त है, आत्मस्वरूपके ज्ञाता है, विनय वान हैं, पुण्य पापका भद जाते हैं, जिनशासनमें दृढ़ श्रद्धानी हैं, द्रव्य पर्यायोंके ज्ञाता है, तेरह प्रकार चारित्रसे सवर युक्त हैं, हद मासनके धारी है वे ही सावु ध्यान के लिये उद्यमी रहते हैं। मूलाचार समयसारमें कहा है:सज्झाय कुत्रत्तो पचिंढियसपुडो तिगुत्तो य । हबदि य एपग्गमणो विणएण ममाहिमो भिक्खू ॥ ७८॥ भावार्थ-शास्त्रको पढ़ते हुए पाचों इन्द्रियाँ वशमें रहती हैं, मन, वचन, काय रुक जाते है । भिक्षुका मन विनयसे युक्त होकर उस ज्ञानमें एकाग्र होता है। मोक्षमाड़में कहा है जो इच्छा णिस्सरिहु ससारमहण्णवाउ रद्दामो । कम्प्रिधणाण डहण सो शायह अप्पय सुद्ध ॥ २६ ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२५१ पचमहव्ययजुत्तो पचसु समिदीसु तीमु गुत्तीतु । ग्यणत्तयमजुत्तो झाणज्झयण सदा कुणह ॥ ३३ ॥ भावार्थ - जो कोई भयानक समाररूपी समुद्रमे निकलना चाहत है उसे उचित है कि कर्मरूपी ईधनको जलानवाले अपने शुद्ध मात्माको याये । साधुका उचित है कि पाच महाव्रत, पाच समिति, तीन गुप्ति इस तरह तरह प्रकारके चारित्रसे युक्त होकर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र सहित मदा ही आत्म यान व शास्त्र स्वाध्यायमे लगा रहे। सारसमुच्चयमें कहा है--- गृह चारकवासेऽस्मन् विषयाभिषलोमिन । सीदति नरशार्दूल। द्धा मान्धवमन्धन ॥ १८३ ॥ भावार्थ-मिहके समान मानव भी बधुजनोंके वधनसे बधे हुए इन्द्रियविषयरूपी मासके लोभी इस गृहवाममें दु ख उठाते है । ज्ञानार्णवमें कहा है आशा जन्मोग्रपकाय शिपायाशा विपर्यय । इति सम्यक समालोच्य यद्धित तत्समाचा ।।१९-१७ ॥ भावार्थ-आशा तृष्णा ससाररूपो कर्दममें फमानेवाली है तथा आशा तृष्णाका त्याग निर्वाणका देनेवाला है, ऐसा मले प्रकार विचारकर । जिसमें नेश हित हो वैसा आचरण कर । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखककी प्रशस्ति । दोहा । भरतक्षेत्र विख्यात है. नगर लखनऊ सार । अग्रवाल शुभ वशमे, मगलसैन उदार ॥१॥ तिन सुत मक्खनलालजी, तिनके मुत दो जान । सतूमल है ज्येष्ठ अब, लघु 'सीतल' यह मान||२|| विद्या पढ गृह कार्यसे, हो उदास दृषहेतु । बत्तिस वय अनुमानसे, भ्रमण करत सुख हेतु ॥३॥ उनिस मो पर बानवे, विक्रम संवत् जान ।। वर्षाकाल विताइया, नगर हिसार सुथान ॥४॥ नन्दकिशोर सु वैश्यका, बाग मनोहर जान । तहा वास सुखसे किया, धर्म निमित्त महान ।।५।। मन्दिर दोय दिगम्बरी, शिखरबन्द शोभाय । नर नारी तह प्रेमसे, करत धर्म हितदाय ॥६॥ कन्याशाला जैनकी बाळकशाला जान । पबलिक हित है जनका, पुस्तक आलय थान ॥७॥ जैनी गृह शत अधिक है, अग्रवाल कुल जान । मिहरचद कूडूमलं, गुलशनराय मुजान ॥८॥ पडित रघुनाथ सहायजी, अरु कश्मीरीलाल ! अतरसेन जीरामजी, सिंह रघुवीर दयाल ॥९॥ महावीर परसाद है, बाकेराय वकील । शभूदयाल प्रसिद्ध है, उग्रसैन मु वकील ॥१०॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। फूलचद सु वी7 है, दार विशंभर जान । गोकु चद सुजने, देवकुमार सुजान ॥११॥ इत्यादिकके साथ, मुखसे काल बिताय। वर्षाकाळ विताइयो, आतम उरमे भाय ॥१२॥ बुद्ध धर्मका ग्रथ कुछ पढार चित हुलसाय । जैन धर्मके तत्वसे. मिस्त बहुत सुखदाय ॥१३॥ सार तत्व खोजीनके, हित यह ग्रन्थ बनाय । पडो सुनो रुचि धारके, पावो मुग्व अधिकाय ॥१४॥ मगल श्री जिनराज है, मगल सिद्ध महान । आचारज पाठक परम, साधु नमू मुख खान ॥१४॥ कार्तिक वदि एकम दिना, शनीवारके प्रात । ग्य पूर्ण मुखसे किया, हो जगमें विख्यात ॥१६॥ बौद्ध जैन शब्द समानता। सुत्तपिटकक मझिमनिकाय हि दी अनुवाद त्रिपिटिकाचार्य राहुक साकृत्यायन कृत ( प्रकाश महाबोर सोसायटी सारनाथ बनारस सन् १९३३ से बौद्ध वाक्य रेकर जन ग्रथोंस मिलान )। शब्द बौद्ध ग्रन्थ जैन ग्रन्थ (१) अचेलक चूलमसपुर सूत्र नीतिसार इदनदिकृत श्लोक ७५ (२) भदतादान चूलसकुल दाय) तरवार्थ उपास्वामी म. ७ सूत्र ७९ सूत्र १५ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४] दूसरा भाग। o vor o vw बौद्ध ग्रन्थ जेन ग्रन्थ (३) अध्यवसान दीघजख सूत्र ७४ समयसार कुदकुदगाथा ४४ (४) अनागार माधुरिय ,, ८४ तत्वार्थसूत्र म० ७ सूत्र १९ (२) अनुभव सुमसूत्र ९९ , प. (६) अपाय महासोहनाद सूत्र १२ , म. ७, ९ (७) अभव्य महाकम्पविभग,, १३६ , म. २ ,, ७ (८) अभिनिवश अलर द्दयम ,, २२ , म (९) अरति नलकपान ,, ६८ , ० ८ ,, ९ (१०) अहत् महातराहा ससय ३८ , ब० ६, २४ (११) असज्ञो पचत्तय सूत्र १०२ तत्वार्थमार अमृतचद्र कृत श्लोक १२१-२ (१२) माकिचन्य पचत्तय सूत्र १०२ तत्वार्थसूत्र ५०९ मूत्र ६ (१३) आचार्य नागर ,, ५२ , . ९ ,, २४ (१४) भातप पचत्रय ,,१०२ ,, (१५) अस्त्रा मधासत्र , २ (१६) इन्द्रिय धम्मचेतिय ,, २९ (१७) ईर्या महासिंहनाद ,, १३ (१८) उपधि लकुटिकोपय , ६६ (१९) उपपाद छन्नोवाद ,,१४४ (२०) उपशम चूळ मस्सपुर सूत्र ४० (२१) एषणा महासीहनाद ,, १२ , (२२) केवली ब्रह्मायु सुत्र ९१ , म. (२३) ओपपातिक भाकखेय सूत्र ६ , स. २ (२४) गण पासरासि सूत्र , म. ९, (२५) गुप्ति माधुरिय सूत्र ८४ तत्वार्थसूत्र म० ९, २ (२६) तिर्यग् महासीहनादसूत्र १२ , म. ४,२७ rn rapur ro nanden cam Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ woon w जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२५५ शन्द बौद्ध ग्रन्थ जैन मन्थ (२७) तीर्थ सल्लेख सूत्र ८ सूत्र म० १० सुत्र ९ (२८) त्रायस्त्रिंश सालेय्य सूत्र ४१ , ० ४ ,, ४ (२९) नाराच चूलमालुक्य सूत्र ६३ सर्वार्थसिद्धि म०८ सूत्र ११ (३०) निकाय छ ठक्ककसूत्र १ ४८ तत्वार्थसूत्र अ० ४ ,, १ (३१) निक्षेप सम्मादिष्टि सूत्र ९ , म० (३२) पर्याय बदु धातुक सूत्र ११५ ,, म० ५, २८ (३३) पात्र महासीहनाद सुत्र १२ , म. ७, ३९ (३४) पुडरोक पासरासि सूत्र २६ , म० ३, १४ (३५) परिदेव सम्मादिट्टि सूत्र ९ , ०६, ११ (३६) पुद् चूसच्चक पुत्र ३९ , म. ५,१ (३७) प्रज्ञा महावेदल्ल सुत्र ४३ समयसार कलश श्लोक १-९ (३८) प्रत्यय महा पुण्णम सूत्र १०९ समयसार कुदकुर गा०११६ (३९) प्रव्रज्या कुक्कु यतिक सूत्र १७ बोचपाहु कुदकुद मा०४५ (४०) प्रमाद कीटागिरि सूत्र ७० तत्वार्थसूत्र म० ८ सूत्र १ (४१) प्रवचन अग्गिवच्छगोत सु ७२ ,, ०६ ,, २४ (४२) पहुश्रुत भद्दालि सूत्र ६५ , म. (१३) बोधि सेव , ५३ , स. ९ , ७ (४४) भव्य ब्रह्मायु , ९१ , अ० २, ७ (४५) भावना सध्यासष , २ , म. ६, ३ (४६) मिथ्पादृष्टि भय भैरव ,, ४ तत्वार्थमार श्लाक १६२ २ (४७) मत्री भावना वत्थ , ७ तत्वार्यसूत्र म०७ सूत्र ११ (४८) रूप सम्मादि ,, ९ , ० ५, ६ (४९) वितर्क सत्रासय, २ " म. (५०) विपाक उपालि , ५६ (५१) वेदना सम्मादिट्टि, ९ , म. ९, ३२ - Gururn w an grava How 6 6 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा माग। शब्द बोद्ध ग्रन्थ जैन ग्रन्थ (१२) वेदनीय महावेदल्ल सूत्र ४३ सत्तासूत्र अ० ८ सूत्र ४ (१३) प्रतिक्रम गोयक मुग्मकान तत्वार्थसूत्र अ० ७ , ३० सूत्र १०८ (५४) शयनासन सव्वासव सूत्र न० २ तत्वार्थसूत्र प. ९ सूत्र १९ (१५) शल्य चूल मालुक्य सूत्र ६३ , म. ७ ,, १८ (५६) शासन स्थविनीत सूत्र २४ रनकर उश्रा समतभद्रलो १८ (१७) शास्ता मूल परिपाय सूत्र १ , , श्लो ८ (१८) शैक्षप , , , तत्वार्थसूत्र १० ९ सूत्र २४ (१९) श्रमण चूळ सिंहनाद सूत्र ११मुलाचार अनगार भावना वट्टके रि गाथा १२० (६०) श्रावक धम्मादापाद ,, ३ तत्वार्थसुत्र म० ९ सुत्र ४९ (६१) श्रुत मूल परिपाय ,, १ , म०१ ,, ९ (६२) सध ककुटिकोपम , ६६ , म०९, ३४ (६३) सज्ञा मूल परिपाय , १ , न. १ , २३ (६४) सज्ञो पचत्तप सूत्र १०२ तत्वार्थसार श्लोक १६२-२ (६५) सम्यक्ष्टि भयमैरव ,, ४ तत्वार्थसूत्र म.९ सूत्र ४५ (६६) सर्वज्ञ चूकसुकुछदायि सूत्र ७९ रत्नकरद श्लो० ५. (६७) सवर सव्वासव सुत्र २ तत्वार्थसूत्र म०९,, १ (६८) सवेग महाहत्यिपदोपमसू २८ , म. (६९) सायिक ब्रह्मायु सुत्र ९१ , म. । (७०) स्कष सतिबट्टान सुत्र १० , म. ६, २५ (७१) स्नातक महा अस्सपुर सू ३९ , (७२) स्वाख्यात वत्थ सूत्र ७ त्य सूत्र ७ " म. ९, ७ a 9 w ora - Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथोंके श्लोकादिकी सूची जो इस ग्रंथ में है । (१) समयसार कुंदकुदाचार्यकृत गाथा न० १०८/२ जो खविद १९ ४२ / ३ इह लोग पुस्तक म० १९ १ ७९ / १ तेपुण उदिण्ण २० ९९ / २ जो णिट्ठद मोह २२ गाथा न ० २५ अहमेद יי "" 77 "" 17 "" "" "" "" 37 37 "" 77 "" 7" "> २६ आसि मम "" २७ एवतु ४३ महमिक्को १६४ वत्थस्स १६५ वत्थस्स १६६ वत्थस्स ११६ सामण्ण ७७ णादूण ७८ महमिक्को ३२६ जीवो वथो ܐ "" (२) प्रवचनसार कुदकुदकृत गाथा न ० ६४ / १ जेसिविसयेसु ११ ७९/१ ते पुण ११ ८९/३ ण हवदि ८२ / ३ समसत्तु बघु १०७/२ जो दि १ १ ६ १४ १४ १८ 33 १३ १६ १९ "" ,, (३) पचास्तिकाय कुदकुदकृत गाथा न० ३८ कम्माण ३९ एके खलु "" "" "" "" "" 37 ३१९ पण्णाए १८ १६० वदणियमाणि २१ २२९ णाणा राग २५ गाथा न० २३० अण्णाणी २७ "" (४) बोधपाहुड कुदकुद कृत ५० निण्णेहा १३६ महत १६७ जहस 17 १६९ तम्हा १२८ जो खलु १२९ गदि म १३० जायदि "" १० १० १३ २१ २१ २५ २५ २५ ५२ उवसम " ५७ पशुमहल "" "" (५) मोक्षपाहुड कुदकुदकृत गाथा न० १३ २२ २२ ६६ ताव ण ११ ६८ जे पुण विषय ११ ५२ देवगुरु म्मिय १३ २७ सव्वे कसाय २१ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] गाथा न ० ८१ उद्धद्ध मज्झ २३ "" 77 " (६) भावपाहुड कुदकुद कृत गाथा न ० ६१ जो जे वो ९३ पाऊण १२५ णाणमय " 19 "> (७) मूलाचार बट्टकेर कृत गाथा न ० ८२ छ णिच्छन्न १० ८४ एरले सरीरे १० ४ मिक्ख चर "" ,, " "" "" "" "" "" "7 "" २६ जो इच्छदि २९ सूत्र न० ३३ पचमव्यय २५ "" दूसरा भाग । ५ अव्यवहारी १२२ जद चरे १२३ जदतु ४९ मक्खो ६२ वसुम्मि ६८ अवगय ६९ उवलद्ध ७८ सज्झाय 77 (८) योगसार योगेन्द्रदेवकृत १९ २५ २५ १३ १३ १३ १३ १६ १६ २५ २५ २५ (९) तत्वार्थसूत्र उमास्वामीकृत १/८ मिथ्यादर्शन २३/७ शकाकाक्षी २/७ अस्त्रत्रनि० २/९ गुप्त ९/९ क्षुत् ९/८ दर्शन १२ अप्पा १८ २२ जो परमप्पा १८ २६ मुद्ध १८ ८८ अप्पसरून १८ 27 13 "" 77 37 "" 12 " " 17 "1 97 " , "" " "" "1 "" "" "" " १८/७ नि शल्यो ११/९ मत्रीप्रमोद २/१ तस्वार्थ ३२/९ आज्ञा ८/७ मनोज्ञा १७/७ मूर्छा २९/७ क्षेत्रवास्तु १९/७ अगार्य २० / ७ तो ४/७ वाइनो ५/७ क्रोध लोभ ६/७ शून्यागार ७/७ स्त्रीराग ६/७ मनोज्ञा ६ / ९ उत्तमक्षमा १९/९ जनशना २० / ९ प्रायश्चित्त २ २ ७ ८ ११ ११ ११ ११ ११ १५ १५ १५ १५ १५ २५ २५ २५ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ,, जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [२५९ (१०) रनकरड समतभद्रकृत (१३) समाधिशतक पूज्यपादकृत श्लोक न० ४ श्रद्धान ५ लोक न० ६२ स्वबुध्या १ १२ कर्मपरक्शे ८ , २३ येनारमा २ ५ माप्तेनो ९ २४ यदभावे ६ क्षुत्पिपासा ९ ३० सर्वेन्द्रियाणि २ ४७ मोहति मग ११ ७४ देहान्तर ९ ४८ रागद्वेष ११ ७८ व्यवहारे ४९ हिमान्न १२ ७९ आत्मान ५० मकल विकल १९ १९ यत्परै प्रति ९ ४० शिव १९ २३ येनारमा ९ (११) स्वयभूस्तोत्र ममतभद्रकृन ३६ रागद्वेषादि १४ श्लोक न० १३ श हृदोन्मेष ८ ३७ अविद्या १५ , ८२ तृष्णा २५ ३९ यदा मोहात् १५ ,, ९२ भायत्या २५ ७२ जनेभ्यो वाक १५ (१२) भगवती आराधना ७१ मुक्तिकातिके २२ शिवकोटिकृत १५ मूल ससार २९ गान० १६७० मप्पायत्ता ११ , १२७१ भोगरदीए ११ (१४) इष्टोपदेश पूज्यपादकत , १२८३ णच्चा दुरत ११ लोक न० ४७ मात्मानुषन्वन ५ " ४६ मरहत सिद्ध १३ , ८ १८ भवति पुण्य " ४७ मत्ती पूया १३ " ६ वासनामात्र ८ १६९८ जिद रागो १३ , १७ मारमे , १२६४ जीवस्स २० , ११ रागद्वेषद्वये १४ " १८६२ जहजह २१ , ३६ मभवञ्चित्त १५ , १८९४ क्यर २१ (१५) आत्मानुशासन गुणभद्र १८८३ सजग्गध २३ लोक न० ५९ अस्थिस्थूल ८ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - س २६० दूसरा भाग। श्लोक न० ४२ कृष्टाप्ला १० (१७) द्रव्यसग्रह नेमिचद्रकृत १७७ मुह प्रसार्य १४ गाथा न० ४८ मा मुसह ३ १८९ मधीत्य १६ , ४७ दुविह पि ३ २१३ हृदयसरसि १६ , ४५ असुहादो २५ १७१ दृष्ट्वा जन २० (१८) तत्वार्थमार अमृतचदकृत २२५ यमनियम २१ श्लोक न० ३६/६ नानाकम ८ २२६ समाधिगत २१ , ४२/७ द्रव्यादिप्रत्यय ८ २२४ विषयविरति २३ , ३८/४ मायानिदान १३ ,, ५ प्राज्ञ २४ ।, ४२/४ काम १७ " ५५ उपग्री पत्र २५ , ४३/४ सराग १७ (१६) तत्वसार देवसेनकृत (१९) पुरुषार्थसिद्धयुपाय माथा न० ६ इदियविसय ३ अमृतचद्रकृत ७ समणे ३ लोक न० ४३ र त्खलु ६ ४६ झाणटिभो ३ " ४४ मप्रादुर्भाव ६ ४७ देहमुहे पउ ३ ९१ यदिद प्रमाद ६ १६ लाहाळाह ४ ९२ स्वक्षेत्रकाल ६ १८ राया दिया ४ ९३ ममदपि ६ ६१ सयल वियप्पे ५ ९४ वस्तु यदपि ६ ४८ मुक्खो विणास ८ ९५ गहित ६ ४९ रोय सस्न ८ ९६ पैशून्य ६ ५१ भुजता ९७ छेदन मेदन ६ ५२ भुजतो ९८ भरतिकर ६ ३५ रूसद तू सा ८ १०२ भवितीर्णस्य ६ ३७ सप्प समणा १६ १०७ यदि ३४ पादव १९ , १११ मुळ س س س ه ه w w w w w w ६ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२६१ श्लोक न० २१० पद्धोद्धमेन ९(२१) सारसमुच्चय कुलभद्रकृत २९ मनवरत ९ श्लोक न. १९६ सगान् ४ " ५ निश्चयमिह ९ " १९७ मनोवाक्काय ४ " ४ मुख्यो २४ " २०० अवग्रहो (२०) समयसारकलश २०२ यर्ममत्व अमृतचन्द्र कृत ३१२ शीलवत लोक न० ६/६ भाव येह १ ३१३ रागादि , २४/३ य एव मुक्ता २ ३१४ आत्मान ५ , २२/७ सम्पदृष्टया ३ , ३२७ सत्येन ५ ,, २७/७ प्राणोच्छेदक ३ | ७७ इद्रियप्रभव ८ , २६/३ एकस्य बद्धो ९ , १५१ शकुचाय ८ २४/३ य एवं १४ रागद्वेष भय ८ , २९/१. व्यवहार ९ ,, २६ कामक्रोधस्तथा८ , ४२/१० अन्येभ्यो ९ ७६ वर हालाहल १. , ४३/१• उन्मुक्त ९२ मग्निना १० ३६/१० ज्ञानस्य ९६ दु खानामा- १० ६/६ भावयेद् १४ १०३ चित्तसदूषक १. ८/६ मेदज्ञानो १०४ दोषाणामा- १० , ३०/१० रागद्वेष १७ १०७ कामी त्यजति. , ३२/१० कृतकारित १७ १०८ तस्मात् काम १. , २०/११ ये ज्ञान मात्र १७ १६१ यथा च १२ १४/३ ज्ञानाब्दि १८ , १६२ विशुद्ध १२ , ४०/३ एकस्य नित्यो २५ / १७२ विशुद्धपरि० १२ , ४६/३ इन्द्र जाळ २९ , १७३ संक्लिष्ट १२ , ६/७ भासंसार २५ , १७५ परो १२ यव ९ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] श्लोक न० १७५ मज्ञाना १९३ धर्मस्य ,, 77 "" "" "" 17 "" 27 "3 27 39 "" 27 39 " "" 97 19 " RAS "" 21 "" दूसरा भाग । १२ (२२) तत्व / नुशासन नागसेनकृत १३७ सोय १२ श्लोक न० १३९ माध्यस्थ ३ ११ ये कर्मकृना ६ २४ रामद्वेषभयो १४ ३८ कषायरतम् १४ १५ २३३ ममत्वा २३४ निर्ममत्व २४७ यै सतोषा १५ १५ २५४ परिग्रह २६९ कुससर्ग २६० मैत्र्यगना २६१ सर्वसत्वे २६५ मनस्या ३१४ आत्मान १७ २९० शत्रुभाष १८ २१६ ससार १९ २१८ ज्ञान १९ २१९ ससार १९ ८ ज्ञान २३ १९ गुरु २३ ३५ कषाया २३ ६३ धर्मामृत २३ २०१ निःसगिनो २३ २१२ ससारा २४ १२३ गृहचार २५ १५ १५ १६ १६ १६ 77 "" 17 27 "" "" "" " 12 "" 17 124 " 77 " >> "" "" 2. " A "} " 225 "" "" १४ शश्वद १७० तदेषानु ६ १७१ यथानिन ६ १७२ तथा च परमे ६ ९० शुन्यागारे ८ ८ ८ ८ ९४ प्रत्याहृत्य ८ ९५ निरस्तनिद्रो ८ १३७ सोय सम ८ १३८ किमत्र ८ ८ ८ ८ ८ ९१ अन्यत्र वा ९२ भूनले वा ९३ नासाम १३९ माध्यस्थ ४ वधो ५ मोक्ष ८ स्युर्मिथ्या २२ ततस्तं २४ स्यात् १२ सद्दृष्टि ८ ८ ९ ५२ आत्मनः ९ २३७ न मुह्यति १४ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२६३ इठोक न०१४३ दिधासु १८ श्लोकन० ३०/२० अविसकल्पि२० १४८ नान्यो ,, १२/२० यथायथा २० , २२३ रत्नत्रय २९ , ११/२४ माशा २१ , २२४ ध्याना ३१ , ३४/२८ नि शेष २२ ४१ तत्रास २४ , १७/२३ रागादि २२ ४२ भापत्य , १७/१५ शीताशु ४३ सम्यग् २४ ,, १०३/३२ निहिवल २३ ४४ मुक्त २४ , १८/२३ रु कोपि २३ ,,, ४५ महासत्व २४ , १९/१८ आशा २५ (२३) सामायिकपाठ अमितिगांत (२६) पचाध्यायी राजमलकृत श्लोक न० ५ एकेन्द्रियाद्य, १२, , ३ ६ विमुक्ति " नई ४९५ परत्रा ३७७ अत्यात्मनो ७ (२४) तत्वभावना अमितगति ५४५ तद्यथा श्लोक न० ९६ यावच्चेतसि १७ ४२६ प्रशमो , ६२ शूरोह १७ , ४३१ सवेग , ११ नाह १७ " ४४६ मनुकम्पा ७ , ८८ मोहान्धाना १७, ४५२ मास्तिक्य ७ , ५४ वृत्यावृत्येन्द्रिय२० ॥ ४५७ तत्राप (२५) ज्ञानार्णव शुभचद्रकृत (२७) आप्तस्वरूप श्लोकन०४२/१५ वि म् १३ | , १४/७ बोध एव १४ श्लोक न. २१ रागद्वेषा ९ , ९२/८ अभय यच्छ १६ , ३९ केवलज्ञान ९ , ४३/१५ मतुलसुख १९ , ४१ सर्वदन्दू ९ ३७९ सम्यक्त , ७ विनिन्दना १२/ " 6 6 6 6 6 6 6 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264] दूसरा भाग। (28) वैराग्यमणिमाला श्लोक न० 8 निम्मरो 13 श्रीचन्द्रकृत , 9 मम'षा 13 श्लोक 12 मा कुरु 1. / , 13 सवेगादिपर 13 " 19 नीलोत्पळ 1. 6 भ्रातमे 16 (31) तत्वज्ञानतरगिणी ज्ञानभू० (29) ज्ञानसार पद्मसिंहकृत / श्लोक न० 9/9 कीर्ति वा 17 गाथा न० 39 सुण्ण 24 | " 8/16 सगत्यागो 19 (30) रत्नमाला 4/17 खसुख न 20 श्लोकन० 6 सम्यक्त्व 13 , 10/17 बहुन् वारान्२०' , 7 निर्विकल्प 13 , 11/14 व्रतानि 22 *