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________________ ७४] दूसरा भाग। प्रगट करते हैं कि निवाण कोई अस्ति रूप पदार्थ है जो प्राप्त किया जाता है या जिसका साक्षात्कार किया जाता है । वह अभाव नहीं है । कोई भी बुद्धिमान अभावके लिये प्रयत्न नहीं करेगा। वह मस्ति रूप पदार्थ सिवाय शुद्धात्माके और कोई नहीं होसक्ता है । वही अज्ञात, अमर, शात, पडित वेदनीय है । जैसे विशेषण निर्वा णके सम्बन्धमे बौद्ध पाली पुस्तकोंमे दिय हुए हैं। __ ये चारों स्मृति प्रस्थान जैन सिद्धातमे कही हुई बारह मपे क्षाओंमें गर्भित होजाती है। जिनक नाम भनित्य, मशरण मादि सर्वास्रव सूत्र नामके दूसरे अध्यायमें कहे गए है। (१) पहला स्मृति प्रस्थान-शरीरके सम्बन्धमें है कि वह साधक पवन सचार या प्राणायामकी विधिको जानता है। शरीरके भीतर बाहर क्या है, कैसे इसका वर्ताव होता है। यह मल, मूत्र तथा रुधिरादिसे भरा है। यह पृथ्वी आदि चार धातुओंसे बना है। इसके नाशको विचार कर शरीरसे उदासीन होजाता है। न शरीर रूप मैं हू न यह मेरा है । ऐसा वह शरोरसे अलिप्त होजाता है। जैन सिद्धातमें बारह भावनाभोंके भीतर अशुचि भावनामें मही विचार किया गया है। श्री देवसेनाचार्य तत्त्वसारमे कहते हैं-- मुक्खा विणासख्यो चेयणपरिवजिमो सयादेहो । तस्स ममत्ति कुणतो बहिरप्पा होइ सो जीमो ॥ ४८ ॥ रोय सरण पडण देहस्स य पिच्छिऊण अरमरण । जो मप्पाण झायदि सो मुच्चइ पच देहेहि ॥ ४९ ॥ भावाय-यह शरीर मूर्ख है, भवानी है, नाशवान है, व सदा
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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