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जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [७५ ही चेतना रहित है। जो इसके भीतर ममता करता है वह जीद बहिगमा मुढ है। ज्ञानी भात्मा शरीरको रोगोंसे भरा हुआ, सड़ नवाका, पडनवाला व जरा तथा मरणसे पूर्ण देखकर इससे तृष्णा छोड देता है और अपना हो ध्यान करता है । वह पाच प्रकार के शरीरसे छूटकर शुद्ध व अशरीर होजाता है । जैन सिद्धातमें सर्व प्राणियोंके सम्बन्ध करनेवाल पाच शरारोंको माना है। (१) औदारिक शरीर-वह स्थूल शरीर जो बाहरो दीखनेवाला मनुष्य पशु, पक्षी, काटादि, वृक्षादि, सर्व तिर्थचोंक होता है । (२) वैक्रियिक शरीर-जो देव तथा नारकी जीवोंका स्थूल शरीर है । (३) आहारकतपमा मुनियोक मस्तकसे बनकर किसी मरहन्त या श्रुतके पूर्ण ज्ञाताके पास जानवाला व मुनिके सशयको मिटानवाला यह एक दिव्य शरीर है । (४) तेजस शरीर-बिजलीका शरीर electric body (५) कार्माण शरीर-पाप पुण्य कर्मका बना शरीर ये दोनो शरीर तेजर और कार्माण सर्व ससारो जीवोंके हर दशामें पाए जाने हैं । एक शरीरको छोडते हुए य दो शरीर साथ साथ जाते है । इनसे भी जब मुक्ति होती है तब निर्वाणका लाम होता है।
श्री पूज्यपाद स्वामी इष्टोपदेशम कहते हैमवति प्राप्य यत्सयमशुचीनि शुचीन्यपि । स काय सततापायस्तदर्थं प्रार्थना वृथा ॥ १८॥
भावार्थ-जिसकी सगति पाकर पवित्र भोजन, फूलमाला वस्त्रादि पदार्थ अपवित्र होजाते है । वे जो क्षुधा आदि दु खोंसे पीडित हैं व नाशवान हैं उस कामके लिये तृष्णा रखना वृथा है । इसकी रक्षा करते२ भी यह एक दिन अवश्य छूट जाता है।