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________________ ७६ ] दुसरा भाग । श्री गुणभद्राचार्य आत्मानुशासनम कहते हैं - अस्थिस्थळतुळाकलापघटित नद्ध शिरास्त्र गुभिधर्माच्छादितमन्त्रसान्द्रपिशितप्ति सुगुप्त ग्लै । कर्मागतिभिरायुरुच्चनिगळाळग्न शरीगळय कारागारमवेहि ते इतमते प्रति वृथा मा कृथा ॥ ५८ ॥ भावार्थ- हे निर्बुद्धि ! यह शरोररूपी कैदखाना तेरे लिय कर्मरूपी दुष्ट शत्रुओंने बनाकर तुझे कैश्मे डाल दिया है । यह कैदखाना हड्डियोंके मोटे समूहोंसे बनाया गया है, नशके जालसे बधा गया है । रुधिर, पीप, माससे भग है, चमड़े से ढका हुआ है, आयुरूपी बेडियोंसे जकड़ा है। ऐसे शरीर में तु वृथा मोह न कर । श्री अमृतचन्द्राचार्य तत्वार्थसार में कहते हैंनाना कृमिशताकीर्णे दुर्गन्धेमपूति । 1 1 मात्मनश्च परेषा च क शुचित्व शरीरके ॥ ३६-६ ॥ भावार्थ - यह शरीर अनेक तरहके सैंकड़ों कांडोंसे भरा है भूकसे पूर्ण है। यह अपनेको व दुसरेको अपवित्र करनेवाला है, ऐसे शरीरमें कोई पवित्रता नहीं है, यह वैराग्यके योग्य है । (२) वेदना - दूसरा स्मृति प्रस्थान यह बताया है कि सुखको सुख, दुखको दुख, असुख अदुखको असुख भदु ख - जैमा इनका स्वरूप है वैसा स्मरणमें लेवे । सासारिक सुखका भाव तब होता है जब कोई इष्ट वस्तु मिल जाती है उस समय मैं सुखी यह भाव होता है। दुस्खका भाव तब होता है जब किसी अनिष्ट वस्तुका संयोग हो या इष्ट वस्तुका बियोग हो या कोई रोगादि पीड़ा हो । जब हम किसी ऐसे कामको कर रहे हैं, जहा रागद्वेष तो हैं परन्तु
SR No.010041
Book TitleJain Bauddh Tattvagyana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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